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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Sunday, May 26, 2013

कथाकार मार्कंडेय की विरासत को धो रहे हैं उनके ''अनुज''!

कथाकार मार्कंडेय की विरासत को धो रहे हैं उनके ''अनुज''!

अदृश्‍य घपलों-घोटालों से भरे हिंदी जगत में अमूमन सब कुछ हमेशा आरोप-प्रत्‍यारोप तक ही सीमित रह जाता है। इस बार हालांकि जो घपला हुआ है, वह हिंदी की परंपरा में पुराने किस्‍म का होते हुए भी इस मायने में नया है कि यह प्रतिष्ठित कथाकार मार्कंडेय की पत्रिका ''कथा'' के पुनर्प्रकाशित अंक से जुड़ा है जिसका संपादन युवा कथाकार अनुज कर रहे हैं। मामला युवा पत्रकार-लेखक सुभाष गौतम से दिवंगत अरुण प्रकाश की बातचीत पर आधारित एक पुस्‍तक समीक्षा के प्रकाशन से जुड़ा है। विवाद को समझने के लिए पहले पढ़ें सुभाष गौतम के जनपथ को भेजे पत्र के कुछ अंश: 

सुभाष गौतम 
''अभी हाल में मेरे साथ एक दुर्घटना हुई। मामला तथाकथित कथाकार अनुज (भूटेली) से जुड़ा है जो राज्‍यसभा के किसी विभाग में कलर्क हैं, साथ ही "कथा" पत्रिका के संपादक भी हैं, जिनकी संपादन से ज्‍यादा चेला संस्कृति में रुचि है। मुद्दा यह है कि कथाकार स्व. अरुण प्रकाश जब जीवित थे उस समय मैं उनसे मिलने लगभग रोज़ ही जाता था। अरुण प्रकाश अपने जीवन केअंतिम समय में सांस की बीमारी से लड़ रहे थे। कृत्रिम ऑक्सीजन पर उनका जीवन निर्भर था। उस समय उनकी नज़र भी कमज़ोर हो गई थी। एक दिन उन्होंने कहा कि विश्वनाथ त्रिपाठी की नई पुस्तक "व्योमकेश दरवेश" आई है, पुस्तक मुझे खुद त्रिपाठी जी भेंट किए हैं, मैं इस पर कुछ लिखना चाहता हूं और इसमें तुम्‍हारी मदद की ज़रूरत है। मैं उन्‍हें उस पुस्तक को पढ़ के सुनाता था और वे नोट्स देते। इस प्रकार त्रिपाठी जी की पुस्तक पर लगभग 25 से 30 दिन में "संस्मरण और जीवन का संगम" नाम से एक लेख तैयार हुआ जिसे अरुण प्रकाश के जीवन का अंतिम लेख या रचना कह सकते हैं। जब त्रिपाठी जी की पुस्तक पर लेख तैयार हो गया, तो उन्होंने कहा कि इसमें अपना नाम डाल दो और एक प्रिंट निकाल कर त्रिपाठी जी को पहुंचा दो। उन्‍होंने जैसा कहा, मैंने वैसा ही किया। इस लेख को युवा पत्रकार पुष्पराज जी के द्वारा ''पुस्तक वार्ता'' में भी भेजा गया, जिसे बाद में यह कह कर वापस कर दिया गया कि इस विषय पर किसी और को पहले से लिखने को कहा गया था। उनके मरने के बाद पता चला कि वह लेख "कथा" पत्रिका के लिए कथाकार और संपादक अनुज को त्रिपाठी जी ने यह कह कर दिया है कि यह लेख अरुण प्रकाश का अंतिम लेख है। इसकी जानकारी मिलते ही मैंने "कथा" के सहायक संपादक सुशील कुसमाकर को फोन किया कि वह लेख मैंने बातचीत कर के लिखा है, उसमें मेरा नाम दे दीजिएगा। उन्होंने तब कहा था कि आपका नाम इस लेख में जा रहा है, लेकिन जब लेख छप कर आया तो उसमें मेरा नाम ही नहीं था। मुझे जब इसकी सूचना मिली तो सबसे पहले मैंने विश्वनाथ त्रिपाठी को फोन कर के बताया कि इस प्रकार की गड़बड़ी हुई है। त्रिपाठी जी का कहना था, "लेख मांगते वक्त तो लोग विनम्र बने रहते हैं और संपादन के समय हेकड़ी दिखाते हैं।" त्रिपाठी जी ने यह भी बताया कि अब्दुल बिस्मिल्‍ला के एक पत्र के साथ भी छेड़छाड़ की गई है। मैंने जब अनुज से पूछा तो पहले तो उन्होंने कहा कि सुशील कुसमाकर की गलती है, फिर उनका जबाब था कि मुझे नहीं मालूम। इस प्रकार पत्रिका के संपादक अनुज ने संपादन में हुई गलती के लिए अपने सहयोगी को दोषी ठहराया। जब उनके सहयोगी सुशील कुसमाकर से बात हुई तो उन्होंने कहा कि अनुज जी ने आपका नाम हटाया है क्‍योंकि अंतिम निर्णय अनुज जी का ही होता है। उन्‍होंने बताया कि प्रेस में जाने के पहले तक आपका नाम था।'' 

बताते चलें कि ''कथा' की स्‍थापना 1969 में हुई थी और 2010 तक यह पत्रिका नई कहानी आंदोलन के अग्रणी कथाकार मार्कंडेय के संपादन में निकलती रही। मार्कंडेय जी का 2010 में निधन हो गया, जिसके बाद उनकी दोनों बेटियों ने 2011 में उनके ऊपर एक संस्‍मरण अंक निकाला और फिलहाल पत्रिका का पुनर्प्रकाशन कथाकार अनुज कर रहे हैं। सुभाष गौतम ने उक्‍त विवादित लेख की मूल प्रतिजनपथ को भेजी है जिसे हम मूल शीर्षक के साथ जस का तस नीचे छाप रहे हैं। 




संस्‍मरण और जीवनी का संगम 

अरुण प्रकाश
(सुभाष गौतम से बातचीत पर आधारित)  

'व्योमकेश दरवेश' की संरचना बहुत दिलचस्प है। आखिरी अध्याय में लेखक के निजी जीवन, साहित्य, चरित्र आदि को जोड़ कर देखने की कोशिश की गई है। इस प्रयास में हजारी प्रसाद द्विवेदी जी के ललित निबंध, कुछ कविताएं भी आ गई हैं। पुस्तक के लेखक विश्वनाथ त्रिपाठी की इस पुस्तक में उपस्थिति इस तरह से पाई जाती है जैसे परिवार का अंतरंग रहा करता है। विश्वनाथ त्रिपाठी ने पुस्तक की संरचना में छेड़छाड़ ही नहीं की है बल्कि अपनी दार्शनिक उड़ानों को भी पुस्तक में जगह दी है। इतना ही नहीं, द्विवेदी जी का व्यक्तित्व ''सर्जना की अथक कार्यशाला था''। विश्वनाथ जी ने लिखा है कि द्विवेदी जी ''प्रायः अपने अंतरयामी की बात करते हैं, जीवनीकार बाह्य स्थितियों में उनके मन पर पड़ने वाले प्रभावों को समझने का प्रयास कर सकता है।'' ''किन्तु उनके अंतरयामी को समझ-परख पाना मेरे बस में नहीं है- अक्षमता का यह बोध इस किताब को लिखते समय बराबर बना रहा।'' अंग्रेजी में ऐसे साहित्य के लिए एक पद का इस्तेमाल किया जाता है- ''पर्सनल लिटरेचर''। हिन्दी में ऐसा नहीं है, इसलिए सुविधाजनक यह होगा कि हम संरचना को निर्धारित स्वरूप देने के लिए जीवनी, आत्मकथा, संस्मरण तथा निबंध का मिश्रण कह सकते हैं।

जो हजारी प्रसाद द्विवेदी के व्यक्तित्व को ऊपरी तौर पर जानते हैं, उनके लिए यह आश्चर्यजनक है कि ज्योतिषशास्त्र का यह विद्वान अंधविश्वासी क्यों नहीं था? मानवतावादी क्यों था। कूपमण्डूक होने के बजाय विश्वदृष्टि से संपन्न क्यों था? इस रहस्य की चाबी शांतिनिकेतन में है। रबींद्रनाथ ठाकुर के आकर्षण से खिंचे-खिंचे देश के चुनिन्दा चित्रकार, मूर्तिकार, भाषावैज्ञानिक, आलोचक, साहित्यकार, नृत्यकार तथा अन्य विषयों की प्रतिभाएं शांतिनिकेतन पहुंच गई थीं। वहां इतनी रोशनी थी कि आत्मा का अंधेरा मिट जाए। रबींद्रनाथ ठाकुर के आधिकारिक जीवनीकार प्रभात कुमार चटर्जी तथा बलराज साहनी के हवाले से काफी सूचना हजारी प्रसाद द्विवेदी के बारे में प्राप्त होती है। ध्यान रहे कि बलराज साहनी तब अध्यापक थे, प्रख्यात अभिनेता तो बाद में बने। शांतिनिकेतन में हिन्दी भवन की स्थापना द्विवेदी जी का प्रमुख कार्य था। हिन्दी भवन को अनूठा बनाने में द्विवेदी जी जी-जान से लगे तो ज्योतिषशास्त्र का ज्ञान धरा का धरा रह गया। शांतिनिकेतन में हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भरपूर अध्यापन किया और उनके ज्ञान क्षितिज का अभूतपूर्व विस्तार हुआ। दैनिक नवजीवन के होलीकांक में द्विवेदी जी का एक व्यंग्‍य चित्र था। उसके साथ यह कविता भी प्रकाशित थी: 

बलिया की गोरी मिट्टी ने यह अशोक का फूल उगाया।।
अचरज क्या जब घोर दार्शनिक रस की चरम मूर्ति बन आया।।
अपनी कथा अमर कर डाली बाणभट्ट की गाथा गाकर,
ज्योतिष से क्या जान लिया था निज, भविष्यफल गणित लगाकर।।
शब्द तुम्हारे बने भाव-शर, भाव तुम्हारे यश के केतन,
मन में चिंतन शांति लिए तुम स्वयं बने हो शांतिनिकेतन।।

जैसा कि इस कविता में कहा गया है, ''शब्द तुम्हारे बने भाव-शर, भाव तुम्हारे यश के केतन'', पंडित जी का ज्योतिष छूटा और भविष्य की आशंका की जगह मानसिक शांति मिली। यूं कहते हैं कि पंडित जी कुछ ऊंचे लोगों का ज्योतिषफल जांचा करते थे लेकिन इसमें संदेह यह भी है कि ऐसा मत रखने वाले लोग द्विवेदी जी के विरोधी रहे हैं, वैसे विश्वनाथ त्रिपाठी जी की किताब में फलित-ज्योतिष वाले प्रसंग में कुछ भी नहीं लिखा है। द्विवेदी जी की एक और ऐसी ही पुस्तक है- ''प्राचीन भारत के मनोविनोद'', जिसके बारे में विश्वनाथ त्रिपाठी कोई जिक्र नहीं करते। 

हिंदी में दो रचनाकारों की जीवनी- रामविलास शर्मा कृत ''निराला की साहित्य साधना'' तथा अमृतराय कृत ''कलम का सिपाही -प्रेमचंद'' ऐसी ही मानक पुस्तकें रहीं हैं जिनसे आनायास ही इस पुस्तक की तुलना करने को मन हो उठेगा। जाहिर है दोनों की संरचना में रचनाकार का जीवन तथा उनकी रचनाशीलता का विश्लेषण किया गया है। एक प्रकार से देखें तो इसमें जीवनी और आलोचना का मेल है। त्रिपाठी जी की पुस्तक में भी यह मेल साफ-साफ दिखता है परंतु अतिरिक्त रूप से त्रिपाठी जी का स्वयं का जीवन भी इस पुस्तक से झांकता है और यह ताक-झांक छूटा नहीं है बल्कि सुदीर्घ है। इसलिए इस पुस्तक को त्रिपाठी जी ने स्वयं संस्मरण कहा है। स्वाभाविक ढांचा जीवनी और आलोचना का है और त्रिपाठी जी की आत्मकथात्मक टीका-टिप्पणी सुमेलित नहीं रह पाती हैं।

हजारी प्रसाद द्विवेदी की आलोचना रंजक है, वे शास्त्रीय ज्ञान को और गाढ़ा नहीं करते बल्कि उसे पतला करते हैं ताकि सामान्य पाठक वर्ग उसका आनंद ले सके। विष्णुचन्द्र शर्मा द्वारा संपादित ''कवि'' नाम की पत्रिका में द्विवेदी जी ने भवानी प्रसाद मिश्र पर एक समीक्षा लिखी जिसमें कहा कि कविता को देखने में पद और पढ़ने में कविता होना चाहिए। अदभुत वक्ता और शिक्षक थे द्विवेदी जी- इस प्रसंग में विश्वनाथ जी ने ऐसा सटीक लिखा है- ''आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी क्लास में वैसा ही पढ़ाते जैसा सभाओं में भाषण देते थे। वे हमें कबीर, पद्मावत, कीर्तिलता और रासो पढ़ाते, क्लास में हम प्रबुद्ध सजग बने रहते, धरती पर ही रहते द्विवेदी जी के क्लास में साहित्य-लोक में पहुंच जाते, ज्ञान रस बन जाता, ज्ञान की साधना और सेवा दोनों की प्रेरणा मिलती।''

यह पंडित जी का रचना-छल है कि वे पाठक को जययात्रा, मंगल्य, छंद, लय से मोहित कर देते हैं। उदास होना भी बेकार है सो उन्हें कबीर दास याद है। द्विवेदी जी के गद्य की प्रशंसा हिन्दी वाले ही नहीं दूसरे भी करते थे। त्रिपाठी जी ने अपने हवाले से कहा है- ''उनके जैसा गद्य लेखक इस समय हिन्दी में दूसरा नहीं है।''

विश्‍वनाथ त्रिपाठी 
द्विवेदी जी अपने भोजपुरी समाज और भाषा की अभिव्यक्तियों को निस्संकोच हिंदी में ले आते थे। ऐसा ही एक स्‍वभावगत गुण है ''मुहदूबरपन''। अब संकोचपन के लिए मुहदूबरपन से सटीक कुछ नहीं हो सकता। इस तरह की विशिष्टताएं उनके निबंधों में खूब मिलती हैं, उपन्यासों में भी हैं। द्विवेदी जी पर दूसरी रचनाओं का असर है लेकिन वह इतना कम है कि न के बराबर है। यानी वे दूसरों की खूबियों का आत्मसातीकरण करते हैं। आधुनिकतावाद का आत्मसातीकरण जिस तरह से 'अनामदास का पोथा' में हुआ है ऐसे उदाहरण विरल हैं। एक तरह से यह पुस्तक और विशिष्ट है कि वह रामचंद्र शुक्ल से भिन्न है। शुक्ल जी में यदा-कदा ब्राह्मणवाद झांकने लगता है। वहीं हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है- ''और दलितों में भी दलित-नारी इतिहास की प्रत्येक शोषक व्यवस्था में सर्वाधिक शोषित-नारी।'' द्विवेदी जी के यहां नारी एक ओर सौन्दर्य-समृद्धि का प्रतीक है तो दूसरी ओर करुणा की मूर्ति। गरीब तो पुरूष भी होते हैं और नारी भी। रोग भी दोनों के हिस्से में हैं। लेकिन काया का विधान ऐसा है कि शरीर सम्पर्क का परिणाम नारी को भोगना पड़ता है। इस भेद का नाजायज़ फायदा उठाकर पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने भिन्नता को असमानता में परिवर्तित कर दिया है। इस विषय में एक सोवियत समाजशास्त्री ने मार्के की बात कही थी- ''गर्भ निरोधक उपकरणों के कारण यह संभव हुआ है कि नारी इतिहास में पहली बार काम-क्रीड़ा में समतुल्य भाग ले सकती है।'' हरिशंकर परसाई ने तो यहां तक कहा कि नारियों को संकल्प लेकर कुछ दिनों के लिए पुरुष-सम्पर्क बन्द कर देना चाहिए। फिर प्रजनन के लिए प्रकृति को कोई अन्य रास्ता बनाना पड़ेगा। ठेठ नारीवादी बात... ऐसी नारीवादी बात कि कोई नारीवादी ऐसा अब तक नहीं कर सका है। 

हिंदी में यह श्रेष्ठ कृति अपनी आत्मीयता और विचारशीलता के संगम के लिए वर्षों तक याद की जाएगी। हिंदी में जीवनी का अकाल पड़ा रहता है। अनेक बड़े रचनाकार प्रतीक्षित हैं। अनगिनत बडे़ राष्ट्रीय व्यक्तित्व हैं जिनकी जीवनी मूल में छोड़िए, अनुवाद तक में नहीं है। ऐसे में हिंदी में यह श्रेष्ठ कृति अपनी आत्मीयता और विचारशीलता के संगम और लोकप्रिय स्वरूप के लिए लोकप्रिय सिद्ध होगी और वर्षों याद की जाएगी।

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