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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Thursday, May 30, 2013

घोड़े बेचकर सो ही गये फिल्मकार ऋतुपर्णो, अब उन्हें कोई आवाज न दें!

घोड़े बेचकर सो ही गये फिल्मकार ऋतुपर्णो, अब उन्हें कोई आवाज न दें!


पलाश विश्वास


महज उनपचास साल की आयु में हाल के वर्षों में बंगाल के सबसे सक्रिय और सबसे चर्चित फिल्मकार ऋतुपर्णों  घोष नींद ही में चले गये। मृत्यु के बाद उनके मुखमंडल में इतनी शांति है जैसे इतनी ज्यादा कर्मव्यस्तता के बाद वे घोड़े बेचकर सो रहे हों और किसी की जुर्रत नहीं है कि उनको पुकारें भी। अब जबतक यह लेख प्रकाशित होगा, उनकी अंत्येष्टि हो चुकी होगी। अभी बंगाल या भारत के दिग्गज फिल्मकारों से ऋतुपर्णों की तुलना करने का शायद वक्त नहीं है, लेकिन कुछ लोग उन्हें ऋत्विक घटक के उत्तराधिकारी भी बताने लगे हैं। ऐसा करके वे ऋतुपर्णो के साथ न्याय नहीं कर रहे हैं।12 राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने वाले ऋतु दा कोलकाता में जन्में थे और कोलकाता में ही उन्होंने आखिरी सांस ली! वह कोलकाता में ही पले-बढ़े और उन्होंने साउथ प्वाइंट हाई स्कूल से पढ़ाई की। उनका सुबह 7.30 बजे निधन हुआ।जानकारी मिली है कि सेक्स चेंज ऑपरेशन के बाद उनकी तबीयत खराब रहने लगी थी। परिजनों के अनुसार नींद में ही उनकी मौत हो गई थी।कहा जा रहा है कि अग्नाशय की बीमारी की वजह से नींद में ही उन्हें दिल का दौरा पड़ा और वे बचने के लिए कुछ बी नहीं कर सके।


वो इस समय सत्यनेशी व्योमकेश बख्शी नाम की फ़िल्म बना रहे थे। व्योमकेश एक जासूसी चरित्र हैं जिस पर पूर्व में धारावाहिक बन चुका है लेकिन इस विषय पर ऋतुपर्णो से एक अलग फिल्म की उम्मीद की जा रही थी। अभी उन्होंने परसो ही अपनी ताजा फिल्म `चित्रांगदा' की शूटिंग पूरी की।


यह बंगाल से बाहर बाकी भारत में बहुत कम लोगों को मालूम है कि ऋतुपर्णो एक बेहतरीन सफल फिल्मकार के साथ ही एक बेहतरीन संपादक भी थे। आनंदबाजार पत्रिका समूह के `आनंदलोक' से लंबे समय तक जुड़े रहने के बाद वे प्रतिदिन जैसे सामान्य अखबार की रविवारी पत्रिका `रोबबार' का जिस कुशलता से संपादन करे रहे, अपनी तमाम व्यस्तताओं के मध्य, उसकी तुलना भारतीय फिल्मों में अपर्णा सेन से ही की जा सकती है। गिरीश कर्नाड भी बेहतरीन लेखक हैं, लेकिन वे लगातार किसी व्यवसायिक पत्रिका का संपादन करते रहे हैं, ऐसा हमें नहीं मालूम।हम `प्रतिदिन' के पाठक नहीं रहे, लेकिन वर्षों से रविवार के दिन प्रतिदिन लेते रहे सिर्फ `रोबबार' पढ़ने के लिए और वह भी `देश' बंद करके, क्योंकि सागरमय घोष के बाद देश का स्तर ही नहीं रहा कोई। रविवारी में ऋतुपर्णों का संपादकीय स्तंभ `फर्स्ट पर्सन' बेहद पठनीय रहा है।दरअसल, उनकी लेखकीय क्षमता ही उन्हें  एक बाहतरीन फिल्मकार बनाती रही। ऋत्विक घटक और  सत्यजीत रे भी अपनी लेखकीय प्रतिभा के बल पर अलग से पहचाने जाते हैं।


कोलकाता में होने के बावजूद ऋतुपर्णो से हमारी मुलाकात हुई नहीं कभी। इन दिनों कालेज के दिनों की तरह फिल्में देखने की भी फुरसत और मौके नहीं होते। लेकिन संयोगवश दो एक को छोड़कर हमने ऋतुपर्णो की तमाम फिल्में देख ली हैं। जबकि गौतम घोष और बुद्धदेव की फिल्में भी हम लोग वक्त निकालकर देख नहीं पाते। सत्यजीत रे, मृणाल सेन और ऋत्विक की फिल्में टीवी पर अगर न दिखायी जाये, तो उनकी फिल्में भी देखने को न मिले। यही ऋतुपर्णो की खासियत है। हम ही क्या, बंगाल में विरले लोग ही होंगे जो ऋतुपर्णो की फिल्में देखते न हों! उनकी फिल्में व्यवसायिक रुप से सफल हैं लेकिन आप उन्हें विशुद्ध व्यवसायिक या कला फिल्म कह नहीं  सकते। वे कोई ऋषिकेश मुखर्जी भी नहीं हैं।


उनकी फिल्मों जैसे `चोखेर बालि' के फिल्मांकन को लेकर तमाम बहस की गुंजाइश है, `अंतर्महल' को लेकर भी और हालिया `नौकाडूबी' के निष्पादन को लेकर भी। पर इन फिल्मों की आप उपेक्षा कर ही नहीं सकते।


ऋतुपर्णों घोष को उनका प्रोफैशन विरासत में मिला क्योंकि उनके पिता खुद भी डॉक्यूमेंट्री फिल्म मेकर थे। उनकी मां भी फिल्मों से जुड़ी हुई थीं। घोष ने अपने करियर की शुरुआत विज्ञापन फिल्मों से की थी। अपने 19 साल के फिल्मी करियर में उन्होंने 19 फिल्मों का निर्देशन, 3 फिल्मों में अभिनय किया। उन्हें 12 राष्ट्रीय पुरस्कारों सहित कई अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाजा गया।


घोष की पहली फिल्म 'हिरेर आंग्टी' थी, जो उन्होंने बच्चों के लिए बनाई थी। उनकी 'दाहन उस्ताब', 'चोखेर बाली', 'दोसर', 'रेनकोट', 'द लास्ट लीयर', 'सब चरित्रो काल्पोनिक' और 'अबोहोमन' को राष्ट्रीय पुरस्कार और आलोचकों की सराहना मिली।


`दहन' हो या `किंग लियर', `रेनकोट' हो या `सनग्लास' या फिर `आवहमान' या `चित्रांगदा' या `उनीशे अप्रैल', उनकी फिल्में मुकम्मल बयान हुआ करती हैं, जिनसे आप सहमत हो सकते हैं और असहमत भी।


वे बांग्ला शाकाहारी फिल्मों को बालिग बनाने में क्लासिक साहित्य का इस्तेमाल करने से भी नहीं चुके। रवींद्र साहित्य की उन्होंने सेल्युलाइड में उत्तरआधुनिक व्याख्या की , जिसकी आजतक किसी ने हिम्मत तक नहीं की।


रवींद्र साहित्य और रवींद्र संगीत भारतीय फिल्मों में बहुत लंबे अरसे से हैं, लेकिन रवींद्र की छाया से निकालकर रवींद्र को सिनेमा की भाषा में अभिव्यक्त करने का दुस्साहस सिर्फ ऋतुपर्णो ने ही किया।


इस लिहाज से `चोखेर बालि' , `नौकाडूबी' और `चित्रांगदा' जैसी फिल्मों का महत्व कुछ अलग ही है।


ब्रांडेड चेहरों को किरदार में बदलने का दुस्साहस भी ऋतुपर्णों की निर्देशकीय दक्षता को रेखांकित करती है। ऐश्वर्य हो या ऋतुपर्णा या फिर अमिताभ बच्चन या अपने अजय देवगण , सबकी शारीरिक भाषा ऋतुपर्णो की फिल्मों में बदल बदली सी नजर आती है। अपर्णा सेन जैसी दक्ष निर्देशक अभिनेत्री को `उनीशे अप्रैल' में जिस कायदे से उन्होंने देवश्री के मुकाबले फेस टु फेस पेश करके मां बेटी के रिश्ते को एक नया आयाम दिया, वह उनकी निर्देशकीय प्रतिभा की उपलब्धि है।


`बाड़ीवाली' की किरण खेर अभूतपूर्व है तो `नौकाडूबी' की रिया सेन ने सबको हैरत में डाल दिया। `दोसर' में कोंकणा का तेवर कभी भुलाया ही नहीं जा सकता।  `दहन' में इंद्राणी हाल्दार और ऋतुपर्णा के ट्रीटमंट एक अद्भुत किस्म की निरपेक्षता है।


श्याम बेनेगल की फिल्मों मे स्मिता और शबाना के सहअस्तित्व जैसा ही है कलाकारों के प्रति उनका निर्देशकीय दृष्टिकोण।


वे सत्यजीत रे की चारुलता की छवि को तोड़ने की भी हिम्मत कर सकते थे। बड़े निर्देशकों सत्यजीत से लेकर अदूर गोवपाल कृष्णन और श्याम बेनेगल तक ने अपने किरदार चुनने में ब्रांडेड चेहरे से परहेज  किया है।लेकिन `चोखेर बालि' से लेकर `दोसर' तक उन्होंने अलग अलग किरदार में प्रसेनजीत को जैसे कामयाबी के साथ ढाला है और `सब चरित्र काल्पनिक' जैसी फिल्म में विपाशा के जैसे पेश किया है, उसकी कोई भी तारीफ पर्याप्त नहीं है।


यह सही है कि सत्यजीत रे की फिल्मों में भी सौमित्र चटर्जी बार बार रिपीट हुए हैं, माधवी मुखर्जी भी उनकी फिल्मों से उभरी। लेकिन वे प्रसेनजीत की तरह स्टार नहीं थे। शर्मिला टैगोर को रे ने ही पहचान दी , पर उनके स्टार बन जाने के बाद उन्हें फिर यथेष्ट मौका ही नहीं दिया, ऐसा शर्मिला की शिकायत रही है। रे ने उत्तम कुमार को `नायक' में जरुर पेश किया। लेकिन उन्हें रिपीट करने से परहेज करते रहे। बांग्ली की सबसे बड़ी अभिनेत्री सुचित्रा सेन  को तो मृणाल सेन, ऋत्विक घटक से लेकर सत्यजीत रे ने भी कोई मौका नहीं दिया।लेकिन ऋतुपर्णों की फिल्मों में अमिताभ बच्चन, ऐश्वर्य, प्रीति जिंटा, विपाशा बसु,जैकी श्राफ. प्रसेनजीत जैसे स्टार हमेशा रहे हैं।


दरअसल. स्टारकास्ट के साथ अच्छी फिल्म के निर्माण के जरिये ही सिनेमाहल से दूर हुए बंगाली दर्शकों को सिनेमाहाल तक खींच लाने में कामयाब हुए ऋतुपर्णो। उनके बाद कौशिक गांगुली से लेकर अनिरुद्ध तक एक के बाद एक निर्देशक इसी राह पर चलने लगे तो बांग्ला फिल्म उद्योग का कायाकल्प ही हो गया। बारह राष्ट्रीय पुरस्कारों वाले किसी निर्देशक की अगर इंडस्ट्री की आबोहवा बदल देने का श्रेय जाता है, तो यह भी भारतीय फिल्म उद्योग के लिए एक अजीब सा संयोग कहा जाना चाहिए।


ऋतुपर्णों घोष के साथ 'मेमरीज़ इन मार्च' में काम कर चुकी अभिनेत्री दीप्ति नवल ने बीबीसी से बात करते हुए कहा "अपनी सेक्शुएलिटी को लेकर इतना सहज मैंने किसी को नहीं देखा। उसने मुझे बताया था कि एक बार अभिषेक बच्चन ने उसे ऋतु दा नहीं ऋतु दी कहा और ये बताते हुए उसकी आंखों में चमक थी।"


दीप्ति कहती हैं कि ऋतुपर्णो की मृत्यु सिर्फ बंगाली सिनेमा नहीं राष्ट्रीय सिनेमा के लिए बहुत बड़ी सदमा है क्योंकि वो एक अंतर्राष्ट्रीय स्तर के फिल्मकार थे।


अपनी बात पूरी करते हुए दीप्ति ने कहा "ऋतु अपनी समलैंगिकता को लेकर कतई शर्मिंदा नहीं थे. वो एक पुरुष के शरीर में महिला थे और उन्होंने तय किया था कि वो समलैंगिक विषयों को अपनी फिल्मों में उठाते रहेंगे।"


बीबीसी के मुताबिक चाहे हिंदी फ़िल्म रेनकोट में ऐश्वर्या राय और अजय देवगन से संवेदनशील अभिनय करवाना हो या फिर बांग्ला और हिंदी में चोखेर बाली हो। ऋतुपर्णो ने न केवल महिलाओं से जुड़े मुद्दों को उठाया बल्कि समलैंगिक मुद्दों को भी वो उठाते रहे।


ऋतुपर्णो की फिल्मों में समलैंगिक विषयों का काफी संजीदा तरीके से चित्रण हुआ है। उनकी आखिरी फिल्म चित्रांगदा थी जो हाल ही में मुबंई में हुए क्वीयर(समलैंगिक) फिल्म महोत्सव की क्लोज़िग फिल्म थी।


इस फेस्टिवल के निर्देशक श्रीधर रंगायन ने बीबीसी को बताया "हमने एक ऐसा निर्देशक खोया है जो समलैंगिक विषयों पर खुलकर,बिना डरे और बेहद ही संजीदगी से फिल्में बनाता था।"


सर्वश्रेष्ठ अंग्रेज़ी फिल्म के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने वाली फिल्म 'मेमरीज़ इन मार्च' भी समलैंगिक विषय पर बनाई गई थी जिसमें ऋतुपर्णो के अभिनय को काफी सराहा गया था।


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