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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Friday, February 3, 2012

युवा नेतृत्व की परीक्षा

युवा नेतृत्व की परीक्षा


Friday, 03 February 2012 10:01

मस्तराम कपूर 
जनसत्ता, 3 जनवरी 2012: उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों की ओर सारे देश की नजरें लगी हुई हैं। चुनाव तो चार अन्य राज्यों में भी हो रहे हैं, लेकिन देश के भविष्य की दिशा निर्धारित करने वाले चुनाव उत्तर प्रदेश के ही हैं। इसका कारण है कि उत्तर प्रदेश ने हमेशा देश की दिशा निर्धारित की है। न केवल इसलिए कि यह देश का सबसे बड़ा प्रदेश है और यहां से लोकसभा की अस्सी सीटें हैं, बल्कि इसलिए भी कि यह सारे देश का हृदय प्रदेश है। अंग्रेजों का भी भारत पर कब्जा उत्तर प्रदेश पर कब्जे के बाद ही पूरा हुआ और उसके खिलाफ 1857 और 1942 के दो बड़े विद्रोहों का केंद्र भी उत्तर प्रदेश ही रहा। इसलिए ब्रिटिश सरकार के सबसे अधिक जुल्म इस प्रदेश को ही सहने पड़े। 
1857 के विद्रोह के दमन के दौरान दिल्ली से बनारस तक सड़क किनारे के पेड़ों पर लटकती हजारों लाशें इसका प्रमाण थीं। इतना ही नहीं, ब्रिटिश सरकार ने विकास की सारी योजनाएं तटवर्ती प्रदेशों में ही लागू कीं और उत्तर प्रदेश को पिछड़ा बनाए रखा। दुर्भाग्य से यही नीति आजादी के बाद की सरकारों ने भी अपनाई, बावजूद इसके कि केंद्रीय सरकारों को चलाने वाली दोनों पार्टियां, कांग्रेस और भाजपा, उत्तर प्रदेश के बल पर ही केंद्र में पहुंची थीं। लगातार उपेक्षा के कारण ही यह हृदय प्रदेश बीमारू प्रदेशों में शुमार किया गया। उसकी भाषा हिंदी को, जिसने स्वाधीनता आंदोलन को देशव्यापी वाणी दी, इन सरकारों ने राष्ट्रभाषा के पद से गिरा कर अंग्रेजी की दासी बना दिया। सात प्रधानमंत्री और एक 'सुपर प्रधानमंत्री' देश को देने के बावजूद उत्तर प्रदेश के स्वाभिमान को कुचलने की हर संभव कोशिश हुई। 
शायद इसीलिए उत्तर प्रदेश की जनता ने कांग्रेस और भाजपा दोनों से मुंह मोड़ा और वह क्षेत्रीय आकांक्षाओं वाली छोटी पार्टियों की ओर मुड़ गई। इसका प्रभाव सारे देश में देखने को मिला कि अखिल भारतीय सरोकार राजनीति में कम होते गए और क्षेत्रीय-सांप्रदायिक रुझान बढ़ते गए। अखिल भारतीय पार्टियों का प्रभाव इतना घट गया कि क्षेत्रीय पार्टियों के सहारे ही वे जैसे-तैसे केंद्रीय सरकार चला सकती थीं।
उत्तर प्रदेश के चुनावों से इस बार यह आशा बंधती है कि एक बार फिर अखिल भारतीय राजनीति का दौर चले। नए बदलाव का संकेत देने वाली दो पार्टियों की बागडोर दो युवाओं के हाथ में है। राहुल गांधी से कांग्रेस में नई जान डालने की आशा की जा रही है। हालांकि वरिष्ठ कांग्रेसियोें की सलाह से उन्होंने जाति-धर्म के समीकरण बिठाने का गलत रास्ता पकड़ा है, उनकी सफलता से कांग्रेस की अखिल भारतीय छवि के निखरने में सहायता मिलेगी। इन चुनावों में उन्होंने कांग्रेस की साख बहाल करने के लिए जितनी मेहनत की है उसे देखते हुए कांग्रेस अगर उन्हें उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री पद का दावेदार घोषित करती तो पार्टी के लिए अधिक लाभकारी होता। मगर शायद उन्हें बड़ी जिम्मेवारी के लिए तैयार किया जा रहा है।
समाजवादी पार्टी की बागडोर उसके प्रादेशिक युवा अध्यक्ष अखिलेश यादव के हाथ में है। उन्होंने सपा को पुराने तौर-तरीकों से मुक्त कर उसे नई दिशा देने की कोशिश की है। इस प्रयास में उन्होंने कुछ पुराने नेताओं को नाराज भी किया है और ऐसा लग रहा है कि समाजवादी पार्टी का अंदरूनी ताना-बाना टूटता जा रहा है, जिसके कारण उसके नेता और कार्यकर्ता कांग्रेस की ओर ख्ािंचे चले जा रहे हैं।
डीपी यादव और हसीनुद्दीन सिद्दीकी के सपा में प्रवेश पर वीटो लगा कर अखिलेश यादव ने न केवल अपने चाचा शिवपाल यादव और मुलायम सिंह के दाएं हाथ आजम खां को नाराज कर दिया है, बल्कि वरिष्ठ समाजवादी नेता मोहन सिंह को भी पार्टी-प्रवक्ता के पद से हटा दिया है।
इन घटनाओं से लोग यह अटकल लगा रहे हैं कि वे अपने पिता की जगह लेने की कोशिश कर रहे हैं। चुनाव की गहमागहमी में पत्रकारों द्वारा इस तरह की अटकलबाजी स्वाभाविक है। यह ठीक है कि मुलायम सिंह उन्हें अपने उत्तराधिकारी के रूप में तैयार कर रहे हैं। कांग्रेस ने राजनीति में वांशिक उत्तराधिकार की प्रथा को स्थापित कर इसे सब पार्टियों के लिए अनुकरणीय बना दिया है। लेकिन अखिलेश को जो पद दिया गया है उसके योग्य अपने को सिद्ध करने के लिए उन्होंने अनथक परिश्रम किया है। उनकी साइकिल और रथ-यात्राएं न तो सरकार द्वारा प्रायोजित थीं और न पूंजीपतियों द्वारा। 
हर जगह उनकी यात्राओं में बड़ी संख्या में उपस्थिति दिखाती है कि उन्हें जन-समर्थन मिल रहा है। युवा होने के कारण उनमें पुरानी रूढ़ियों को तोड़ने की बेचैनी स्वाभाविक है। अगर पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष होने के नाते वे दागी व्यक्तियों को पार्टी में शामिल करने का विरोध करते हैं या शुद्ध जोड़-तोड़ की राजनीति का सहारा लेने से परहेज करते हैं तो इसमें बुरा क्या है? 
यह समाजवादी पार्टी को संकीर्णता से व्यापकता की ओर ले जाने का प्रयास है और इसका स्वागत किया जाना चाहिए। अंग्रेजी और कंप्यूटर के संबंध में दिए गए


उनके बयान से भी मुकरने की जरूरत पार्टी को नहीं होनी चाहिए थी। अंग्रेजी ने हमें गरीबी, अशिक्षा और भ्रष्टाचार की स्थायी बुराइयां ही दी हैं। अगर इसे हटाने और इसकी जगह हिंदी और भारतीय भाषाओं को लाने की बात समाजवादी पार्टी नहीं करेगी तो और कौन करेगा? 
कंप्यूटर संबंधी बयान पर भी शर्मिंदा होने की जरूरत नहीं थी। आखिर घर-घर कंप्यूटर या मोबाइल फोन पहुंच जाने से बीस रुपए पर गुजारा करने वाली अस्सी प्रतिशत आबादी के पेट भरने वाले नहीं है। यह बात पिछले   बीस सालों की प्रगति से सिद्ध हो जाती है। फिर लैपटॉप का वितरण रंगीन टीवी आदि के वितरण की तरह एक चुनावी तिकड़म ही है, जिसे घूस की श्रेणी में रखा जा सकता है। 
अगर युवाओं के हाथ में राजनीति की बागडोर आने के बाद भी राजनीति का पिटा-पिटाया ढर्रा नहीं बदलता तो उन्हें राजनीति में लाने का फायदा क्या? हम उम्मीद करते हैं कि राहुल गांधी कांग्रेस की संस्कृति में बदलाव लाएं और अखिलेश समाजवादी पार्टी के तौर-तरीकों में। राजनीति की वर्तमान जड़ता इसी तरह टूटेगी कि बूढेÞ लोग जवानों के हाथ-पैर न बांधें, बल्कि उन्हें उड़ान भरने दें। 
इन चुनावों में लोग भाजपा और बसपा से किसी बड़े बदलाव की आशा नहीं कर रहे हैं। भाजपा से तो इसलिए कि वह इन दिनों नेताओं के बाहुल्य के कारण किसी निश्चित दिशा को प्राप्त नहीं कर पा रही है। उसमें एक दर्जन से ज्यादा नेता प्रधानमंत्री पद की महत्त्वाकांक्षा पाले हुए हैं। इन सब नेताओं की दिशा अलग-अलग दिखाई दे रही है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का अनुशासन अब पार्टी नेताओं को प्रभावित नहीं करता। सत्ता का स्वाद चख लेने के बाद संयम और सादगी की जिंदगी अपनाने को अब कोई तैयार नहीं है। नवउदारवादी नीतियों के गुणगान ने स्वदेशी और हिंदू राष्ट्रवाद की हवा निकाल दी है। कुछ राज्यों में उसका अस्तित्व इसलिए बना हुआ है कि कांग्रेस की जगह लेने वाली दूसरी कोई पार्टी नहीं है।
बसपा ने उत्तर प्रदेश में पांच साल राज चला कर इतिहास बनाया है। उसकी यह सफलता सवर्ण जातियों के सहयोग से संभव हुई है। बसपा राज में उन्होंने इसका भरपूर फायदा भी उठाया है। लेकिन अब ये जातियां कांग्रेस में अपने वर्चस्व की संभावनाएं देखने लगी हैं, इसलिए उनका कांग्रेस की तरफ मुड़ना स्वाभाविक है। इसके अलावा मायावती ने दलित स्वाभिमान पार्कों का निर्माण कर ऊंची जातियों के मन में हमेशा के लिए जो जलन पैदा की है, उससे न केवल बसपा को चुनावों में नुकसान होगा, बल्कि आगे भी दरार बनी रहेगी। 
सवर्ण जातियों के आदर्श पुरुषों की निंदा और दलित जातियों के आदर्श पुरुषों की भीमकाय मूर्तियां स्थापित कर एक तरह से बौद्धों और हिंदुओं के  हजार साला वैमनस्य को आमंत्रित किया जा रहा है। जलन पर आधारित दलित राजनीति स्थायी जलन पैदा करेगी, यह आशंका पहले से थी। यह तो जाति व्यवस्था को समाप्त करने और समता का समाज स्थापित करने का रास्ता नहीं है। यह डॉ आंबेडकर के सपनों को साकार करने का रास्ता भी नहीं है। 
उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव देश की राजनीति में परिवर्तन ला सकते हैं, यह संभावना कांग्रेस और समाजवादी पार्टी से ही बनती है, क्योंकि दोनों पार्टियों की बागडोर इस समय युवाओं के हाथ में है। युवाओं का धर्म है लीक तोड़ कर आगे बढ़ना, जोखिम उठाना और नई राहें खोजना। पुराना नेतृत्व उन्हें रोकने की कोशिश करेगा। स्थिरता और परिवर्तन का टकराव समाज में हमेशा ही चला है। पर इससे परिवर्तन की प्रक्रिया नहीं रुकनी चाहिए। 
कांग्रेस और नवउदारवादी राजनीति के लिए जड़ता को तोड़ने का काम राहुल कर सकते हैं और समाजवादी पार्टी के लिए अखिलेश यादव। समाजवादी पार्टी राजनीति की दूसरी बड़ी धारा का प्रतिनिधित्व करती है। यह धारा है समाजवाद की। इसे पोसा है डॉ राममनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेंद्र देव आदि नेताओं और विचारकों ने। यह धारा कांग्रेस और उसकी कार्बनकॉपी भाजपा से अलग तीसरे मोर्चे का मुख्य खंभा रही है। इसे लक्ष्य में रख कर अगर समाजवादी पार्टी जातियों और फिरकों के वोट बैंकों की राजनीति से ऊपर उठ कर समाजवादी विकल्प प्रस्तुत करने की कोशिश करेगी तो उसे व्यापक समर्थन मिल सकता है। उत्तर प्रदेश की पहचान सारे देश की दिशा तय करने वाले प्रदेश की रही है। समाजवादी पार्टी कुछ ऐसी घोषणाएं कर सकती है, जो सारे देश को प्रभावित करने वाली हों। 
अगर समाजवादी पार्टी हिंदी के माध्यम से तमाम सरकारी कामकाज करने और डॉक्टरी-इंजीनियरी आदि की पढ़ाई हिंदी के माध्यम से शुरू करने का फैसला करे; जो लोहिया का सपना था और जिसमें उन्हें अंतरराष्ट्रीय ख्याति के वैज्ञानिक सत्येन बोस का समर्थन प्राप्त था- तो भारतीय भाषाओं के लिए भी रास्ता खुलेगा और देश एक बड़े परिवर्तन की ओर अग्रसर होगा। यह शुरुआत केवल उत्तर प्रदेश कर सकता है और उसका सबसे अच्छा मौका यही है जब समाजवादी पार्टी की कमान एक नौजवान के हाथ में है, जिसमें जोखिम उठाने और लीक को तोड़ने का दमखम दीखता है।

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