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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Tuesday, February 28, 2012

ईरान पर दुनिया क्यों है हैरान

ईरान पर दुनिया क्यों है हैरान

Tuesday, 28 February 2012 10:41

कुमार सुंदरम 
जनसत्ता 28 फरवरी, 2012: ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर भारत सरकार के रुख से न सिर्फ अमेरिकी प्रतिष्ठान और हमारे प्राइम-टाइम बुद्धिजीवी सकते में हैं, बल्कि देश के वामपंथी भी हैरान हैं जिन्होंने एटमी करार पर कांग्रेस से नाता तोड़ने के बाद अंतिम घोषणा कर दी थी कि अब हमारी विदेश नीति अमेरिका की गुलाम हो गई है। जब मनमोहन सिंह से लेकर चिदंबरम तक असल में अमेरिका के पैरोकार ही हैं तब फिर यह सरकार ईरान के मसले पर सिर उठा कर कैसे खड़ी हो गई है? क्या यह केवल प्रणब मुखर्जी का फैसला है जो वे इंदिरा गांधी के जमाने की विदेश-नीति में प्रशिक्षित होने के कारण कर रहे हैं? दरअसल, जब जमीनी हकीकत हमारे बने-बनाए खाके के अंदर दाखिल होती है तब ज्यादातर ऐसा ही होता है और पता चलता है कि विरोधी भी उस समय के वर्चस्वशाली खांचे के अंदर ही मुब्तिला थे। 
किसी भी मुल्क की विदेश नीति और उसके अंदर के समाज में गहरा रिश्ता होता है। भारतीय लोकतंत्र और इसकी विदेश नीति अपने बारे में किसी भी सरलीकरण को जल्दी ही ध्वस्त कर देते हैं। भारतीय वामपंथ को गांधी अंग्रेजों का पिट््ठू लगे थे, जबकि खुद चे ग्वेरा ने उन्हें साम्राज्यवाद के खिलाफ एक जरूरी आवाज बताया था। आजादी के बाद के लोकतंत्र और इसकी विदेश नीति को लेकर भी ऐसे ही विरोधाभासी दृष्टिकोण सामने आए- यह आजादी झूठी है से लेकर गुटनिरपेक्षता वस्तुत: अमेरिकी गुलामी है तक। इस देश की हकीकत को नजरअंदाज कर सिर्फ विचारधारा और सिद्धांत से हर चीज को व्याख्यायित करने का दंभ वे कर रहे थे जिनकी मूल मान्यता यह थी कि भौतिक यथार्थ पहले आता है और विचार बाद में। 
भारत और दुनिया के रिश्ते भी इस देश की तरह ही हैं- विशालकाय और जटिल, नाजुक भी और मजबूत भी, रंगीन भी और सरल भी, ऐतिहासिक भी और तदर्थ भी। यहां की जमीन कठोर और दलदली दोनों एक ही साथ है। विनायक सेन जेल से उठते हैं और योजना आयोग में दाखिल हो जाते हैं, कल फिर जेल में नहीं होंगे इसकी कोई गारंटी नहीं है। तो फिर यह लोकतंत्र है या तानाशाही? हम अमेरिकी पिट्ठू हैं या ईरान के साथ खड़ी रहने वाली एशियाई कौम? इसका जवाब विदेश नीति के बृहद आख्यानों और तात्कालिक अनिश्चितताओं के बीच से होकर ही हम तक आता है। और जवाब भी क्या, कुछ मोटा-मोटी सूत्र हैं जो कब दगा दे जाएं कुछ कहा नहीं जा सकता। 
भारत और अमेरिका के रिश्ते बहुत जटिल हैं। जब भारत अमेरिका के साथ परमाणु करार कर रहा था और संयुक्त राष्ट्र में ईरान के खिलाफ वोट दे रहा था, ठीक उसी वक्त प्रणब मुखर्जी ईरान के दौरे कर रहे थे। क्योंकि भारत को यह भी मालूम था कि जब अमेरिका भारत को करार के माध्यम से चीन के खिलाफ अपना रणनीतिक साथी बना रहा था, ठीक उसी वक्त अमेरिका और चीन के बीच व्यापार आसमान छू रहा था। यह शीतयुद्ध के बाद की दुनिया का सच है जिसमें अमेरिका का वर्चस्व लगातार छीज रहा है, लेकिन पूंजीवाद एक वैश्विक संरचना के बतौर मजबूत हुआ है जिसके केंद्र में अमेरिका ही है। इसीलिए आर्थिक मंदी से अमेरिका को उबारने के लिए चीन की पूंजी आगे आती है। पिछले दो दशक में, जब खुद अमेरिकी सरकार ईरान पर प्रतिबंध लगाए जा रही थी, अमेरिकी कंपनियां सीधे और परोक्ष तौर पर ईरान को परमाणु-आत्मनिर्भरता के लिए साजोसामान पहुंचा रही थीं। 
दिल्ली में इजराइली राजनयिक की गाड़ी पर हुए विस्फोट के कुछ ही हफ्तों पहले, इस जनवरी में भारत ईरान से होने वाले कच्चे तेल के आयात को 37.5 फीसद बढ़ा कर ईरानी तेल का सबसे बड़ा उपभोक्ता बन गया है। जहां कॉरपोरेट मीडिया, अमेरिकी थिंक टैंक और इजराइल ने एक घंटे के भीतर ही ईरान का हाथ बता दिया था, इस विस्फोट को लेकर भारत ने आधिकारिक तौर पर ईरान पर कोई उंगली नहीं उठाई है, बल्कि विस्तृत जांच रिपोर्ट आने तक रुकने को कहा है। पिछले वर्षों में भारत ने ईरान से दीर्घकालीन दोस्ती के संकेत दिए हैं और उसे अपनी सीमाएं भी बताई हैं।
हमारा देश इजराइल से हथियारों का सबसे बड़ा खरीदार है तो ईरान से तेल का। ईरान से तेल खरीदने पर प्रतिबंध की पश्चिमी घोषणा के बावजूद भारत ईरान से साढ़े पांच लाख बैरल कच्चा तेल प्रतिदिन आयात करता है। इस तेल के एवज में भारत ने ईरान को रुपए में भुगतान करने की पेशकश की है जो ईरान ने स्वीकार कर ली है। ईरान के पास भी इस रास्ते के कई विकल्प हैं: इस राशि को भारत के यूको बैंक में रख कर चार फीसद ब्याज कमाना, भारत से इस राशि के बदले वस्तुओं का व्यापार या फिर भारत में पड़ी इस लेनदारी को किसी और देश से व्यापार में उपयोग करना। 
ऐसे में, भारत की प्राथमिकता अंतरराष्ट्रीय दबावों के बीच भी ईरान से जुडेÞ अपने हितों की बलि रोकना है। आज के परिदृश्य में यह सिर्फ जरूरी नहीं, बल्कि संभव भी दिख रहा है। एक तो तमाम रणभेरी के बावजूद ईरान पर हमला अमेरिका के लिए इतना आसान फैसला नहीं होगा, जब उसकी फौजें इराक और अफगानिस्तान में लगी हैं और उसकी साख कम हुई है। न सिर्फ रूस और चीन, बल्कि घोर अमेरिकापरस्त फ्रांस के राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी ने भी कहा है ईरान पर युद्ध से कुछ भी हल नहीं होगा। 
इस बार ओबामा के लिए ब्रिटेन में भी कोई ब्लेयर नहीं है। पिछले हफ्ते खुद अमेरिकी सीनेट की आर्म्ड सविर्सेज कमेटी के समक्ष अपना आकलन प्रस्तुत करते हुए रक्षा खुफिया एजेंसी के लेफ्टीनेंट जनरल   रोनाल्ड बर्गेस ने कहा कि ईरान से अमेरिका को कोई वास्तविक खतरा नहीं है और बहुत उकसाने पर ही ईरान नाटो ताकतों पर छिटपुट हमले करने की सोचेगा। 

ऐसे में, जब खुद पश्चिमी जगत में और अमेरिका के अंदर ही ईरान पर हमले पर सहमति नहीं है और अमेरिका के मुख्यधारा के अखबार भी यह लिख रहे हैं कि इजराइल अपनी क्षेत्रीय रणनीति में अमेरिका को बहुत दूर तक खींच ले गया है, भारत ईरान से रिश्ते तोड़ने से पहले सौ बार सोचेगा। हाल के वर्षों में अमेरिका द्वारा अफगान-रणनीति में भारत को पहले घसीटना और फिर अकेला छोड़ कर अपनी फौजें वापस ले लेना भी भारत की स्मृति में है, जिससे भारत अपने पड़ोस में ही अलग-थलग पड़ गया है और उसने बेवजह रिश्ते खराब कर लिए हैं।
क्या हमें भारतीय के बतौर परमाणु कार्यक्रम पर ईरान की सार्वभौमिकता के तर्क का समर्थन करना चाहिए? इस मसले पर भारत में दक्षिणपंथ से लेकर वामपंथ तक लगभग आम सहमति है। लेकिन क्या हमें 'शांतिपूर्ण' परमाणु कार्यक्रम की इस दिशा का विरोध नहीं करना चाहिए जिसका अंत बम बनाने में ही होता है? लेकिन हम ऐसा इसलिए नहीं कर पा रहे हैं, क्योंकि भारत ने भी परमाणु बम बनाने के लिए उसी रास्ते का प्रयोग किया है। परमाणु बिजली न सिर्फ महंगी, असुरक्षित और प्रदूषक है, बल्कि यह परमाणु बम बनाने का रास्ता भी खोलती है। लेकिन विकास की केंद्रीकृत अवधारणा भी परमाणु ऊर्जा के मिथक को बनाने में मदद करती है। साथ ही, अणुबिजली पर रोक इसलिए नहीं लग पा रही है कि इसमें करोड़ों डॉलर का मुनाफा लगा है। 
परमाणु अप्रसार संधि (एनपीटी) जहां एक तरफ परमाणु बम के प्रसार पर रोक और निरस्त्रीकरण की बात करती है वहीं इसके अनुच्छेद-चार में 'शांतिप्रिय' परमाणु उपयोग को सार्वभौम अधिकार मान लिया गया है। ईरान एनपीटी आधारित वैश्विक परमाणु तंत्र के लिए गले की हड््डी साबित हो रहा है, क्योंकि यह पूरी मौजूदा व्यवस्था को उसी के अंदर से ध्वस्त करता दिख रहा है। ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग के अधिकार का इस्तेमाल ईरान खुद को तकनीकी कुशलता के उस स्तर तक पहुंचाने में करता दिख रहा है जहां से बम बनाने की दूरी मात्र राजनीतिक निर्णय भर की रह जाती है। 
ईरान के परमाणु कार्यक्रम का चरित्र और मंशा मासूम नहीं है, यह पिछले दशक की कई बातों से जाहिर हुआ है। दुनिया भर के निष्पक्ष विशेषज्ञों और परमाणु विरोधी आंदोलनों का मानना है कि तकनीकी रूप से ईरान का परमाणु कार्यक्रम सैन्य दिशा में बढ़ रहा है। ईरान की घरेलू राजनीति में राष्ट्रपति अहमदीनेजाद ने परमाणु हथियारों पर केंद्रित युद्धप्रिय राष्ट्रवाद को अपना प्रमुख हथियार बना रखा है, ठीक वैसे ही जैसे भाजपा ने अपने शासनकाल में भारत में किया था। 
संवर्धित यूरेनियम की परखनली हाथ में लेकर मंच से लोगों को संबोधित करने जैसे हथकंडे असल में घिनौने दक्षिणपंथी शिगूफे हैं, जिन्होंने ऐसा माहौल तैयार किया है कि प्रमुख विपक्षी दल भी किसी तरह परमाणु-गौरव को लपकने की कोशिश में ही लगे हैं। अहमदीनेजाद की यह चाल सफल रही है। जबकि वैसे यह सरकार दुनिया की सबसे भ्रष्ट, क्रूर, पोंगापंथी और जनविरोधी सरकारों में है। 
ईरान अंतरराष्ट्रीय परमाणु व्यवस्था के इस पेच का फायदा उठाने वाला इकलौता देश नहीं है। चीन, फ्रांस, भारत, पाकिस्तान, उत्तर कोरिया जैसे कई देशों ने अपने परमाणु प्रकल्प शांतिपूर्ण ढंग से बिजली बनाने के नाम पर शुरू किए थे और बाहरी देशों से इस नाम पर मिली मदद का इस्तेमाल भी अंतत: बम बनाने के लिए किया। अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (आइएइए) के अपने अनुमानों के मुताबिक परमाणु-बिजली प्रकल्पों के 'शांतिपूर्ण' रास्ते से अगले कुछ सालों में बीस और देश परमाणु बम बनाने की क्षमता और कच्चा माल हासिल कर लेंगे। 
एनपीटी आधारित परमाणु व्यवस्था में निहित इस विरोधाभास की अनदेखी से ही आज कई सारे देश बम बनाने में समर्थ तकनीक से लैस हैं। और अब जब इस व्यवस्था के ध्वजाधारक इस विरोधाभास से आंख नहीं चुरा पा रहे, उन्होंने इसका हल एक बहुत खतरनाक शॉर्टकट के रूप में निकाला है। उनकी योजना यह है कि परमाणु तकनीक के प्रसार और इसके प्रोत्साहन को न रोका जाए, बस 'अच्छे' देशों और 'बुरे' देशों के साथ अलग-अलग बर्ताव किया जाए। लेकिन यह बहुत विनाशकारी रवैया है, क्योंकि जब हम परमाणु बमों की बात कर रहे हैं तो उनमें न कोई बम अच्छा होता है न बुरा- सारे बम त्रासदी लेकर आते हैं।  
परमाणु बम बनाने के इस 'शांतिपिय' रास्ते को रोका जाना चाहिए। फुकुशिमा के बाद दुनिया भर में अणुबिजली के खिलाफ मुहिम तेज हुई है और जर्मनी, स्वीडन, इटली जैसे देशों ने इससे तौबा कर अक्षय ऊर्जा-स्रोतों की तरफ रुख किया है। हमारे देश में भी जैतापुर (महाराष्ट्र), कुडनकुलम (तमिलनाडु), फतेहाबाद (हरियाणा), मीठीविर्डी (गुजरात), चुटका (मध्यप्रदेश), कैगा (कर्नाटक) में नए रिएक्टरों के खिलाफ आंदोलन तेज हुए हैं। ये आंदोलन पूरी तरह अहिंसक हैं और इन्होंने विकास की नई परिभाषा की जरूरत को रेखांकित किया है। 
हमें परमाणु बिजली के खिलाफ खड़ा होना चाहिए। हमें ईरान की घेराबंदी का प्रतिकार करते हुए भी उसके परमाणु कार्यक्रम को जायज नहीं ठहराना चाहिए। जब परमाणु बिजली का ही विरोध होगा तो अमेरिका को इस दादागीरी का मौका भी नहीं मिलेगा कि वह तय करे कि किसका परमाणु बम अच्छा है   और किसका बुरा, जैसा वह ईरान और इजराइल के परमाणु कार्यक्रमों के सिलसिले में कर रहा है। शांति सिर्फ राजनयिक स्थिरता या गोलबंदी से नहीं आती। आज जरूरत है कि भारत के लोग ईरान के मसले को व्यापक परिप्रेक्ष्य में रखें।

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