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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Sunday, June 24, 2012

फिल्मों का पदातिक Author: पलाश विश्वास Edition : June 2012

http://www.samayantar.com/mrinal-sen-a-different-personality/#comment-46

फिल्मों का पदातिक

mrinal_sen_at_workहमारे लिए यह कोई खबर नहीं कि अपनी 90 वीं वर्षगांठ मना चुके प्रसिद्ध फिल्म निर्माता मृणाल सेन अभी भी काम में लगे हुए हैं और इस उम्र में भी उनमें एक नई फिल्म बनाने का जज्बा कायम है। भारतीय सिनेमा में सामाजिक यथार्थ को विशुद्ध सिनेमा और मेलोड्रामा की जो पहल उन्होंने की, वह हमारे लिए ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता भावनाओं में बह जाना नहीं है, वस्तुवादी दृष्टिकोण का मामला है, कड़ी आलोचनाओं के बावजूद उन्होंने सिनेमा और जीवन में इसे साबित किया है। लगातार चलते रहने को जिंदगी मानने वाले जाने-माने फिल्मकार मृणाल सेन किसी न किसी तरह से ताउम्र फिल्म जगत से जुड़े रहना चाहते हैं क्योंकि उनके अनुसार अंतिम कुछ नहीं होता, किसी पड़ाव पर कदमों का रुक जाना जिंदगी नहीं है। बेहतरीन फिल्में बना चुके इस वयोवृद्ध फिल्मकार ने मौजूदा दौर की फिल्मों के स्तर पर निराशा जताई। सेन ने कहा आजकल की फिल्में मुझे पसंद नहीं। मैंने कुछ चर्चित फिल्में देखीं लेकिन पसंद नहीं आईं। मैं उनके बारे में बात भी नहीं करना चाहता।

हमलोग हतप्रभ थे कि सिंगुर और नंदीग्राम आंदोलनों के दौरान वे प्रतिरोध आंदोलन में शामिल क्यों नहीं हुए और अभिनेता सौमित्र चट्टोपाध्याय के साथ चरम दुर्दिन में भी उन्होंने वामपंथी शासन का साथ क्यों दिया। मृगया और पदातिक के मृणाल सेन से आप और किसी चीज की उम्मीद नहीं कर सकते। मृणाल सेन नंदीग्राम में अत्याचार के खिलाफ कोलकाता के कॉलेज स्ट्रीट से निकले जुलूस में शामिल हुए। लेकिन नंदीग्राम नरसंहार के विरोध को उन्होंने वामपंथ के बदले दक्षिण पंथ को अपनाने का सुविधाजनक हथियार बनाने से परहेज किया।

मृणाल सेन अपनी फिल्मों में कटु सत्य को वह जैसा है, उसी तरह कहने के अभ्यस्त रहे हैं जो कहीं-कहीं वृत्तचित्र जैसा लगता है। आकालेर संधाने हो या महापृथ्वी या फिर बहुचर्चित कोलकाता 71, उनकी शैली फीचर फिल्मों की होते हुए भी कहीं न कहीं, वृत्तचित्र जैसी निर्ममता के साथ सच को एक्सपोज करती है, जैसे कि यथार्थ की दुनिया में वे स्टिंग आपरेशन करने निकले हों! उनकी फिल्में उस दौर का प्रतिनिधित्व करती हैं, जब देश नक्सलवादी आंदोलनों और बहुत बड़े राजनीतिक उथल-पुथल से जूझ रहा था, अपने सबसे कलात्मक दौर में मृणाल सेन अस्तित्ववादी, यथार्थवादी, मार्क्सवादी, जर्मन प्रभाववादी, फ्रेंच और इतावली नव यथार्थवादी दृष्टिकोणों को फिल्मों में फलता-फूलता दिखाते हैं। उनकी फिल्मों में कलकत्ता किसी शहर की नहीं चरित्र और प्रेरणा की तरह दिखता है। नक्सलवाद का केंद्र कलकत्ता, वहां के लोग, मूल्य-परंपरा, वर्ग-विभेद यहां तक की सड़कें भी मृणाल सेन की फिल्मों में नया जीवन पाती हैं। एक दिन प्रतिदिन जैसी फिल्मों के जरिये मृणाल सेन ने कोलकाता का रोजनामचा ही पेश किया है, जहां सारे परिदृश्य वास्तविक हैं और सारे चरित्र वास्तविक। उन्होंने कोलकाता के बीहड़ में ही अपना कोई चंबल खोज लिया था, जहां उनका अभियान आज भी जारी है।

फिल्मों के बारे में बेबाक राय देने में मृणाल सेन ने कभी हिचकिचाहट नहीं दिखायी। मसलन बहुचर्चित आठ ऑस्कर अवार्ड जीत चुकी फिल्म स्लमडाग मिलिनेयर को खराब फिल्म कहा। मृणाल सेन का मानना है कि ऑस्कर सिनेमाई श्रेष्ठता का पैमाना नहीं है और महान फिल्मकारों को कभी इन पुरस्कारों से नवाजा नहीं गया। उन्होंने कहा ऑस्कर के लिए फिल्मकार अपनी प्रविष्टियां भेजते हैं और महान फिल्मकारों ने कभी इसके लिए अपनी फिल्में नहीं भेजी होंगी। आठ ऑस्कर जीतने वाली भारतीय पृष्ठभूमि पर बनी स्लमडॉग मिलियनेयर के बारे में पूछने पर उन्होंने कहा मैंने फिल्म देखी नहीं है, लेकिन यह जरूर बहुत खराब फिल्म होगी। झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले लड़के के करोड़पति बनने की कहानी से पता नहीं वे क्या दिखाना चाहते हैं। इसकी थीम ही खराब है।

Bhuvan_Shomeमृणाल सेन की फिल्म भुवन सोम 1969 में बनी थी, जिसे हमने 74 -75 में जीआईसी के जमाने में देख लिया। तब तक हमने सत्यजीत रे या ऋत्विक घटक की कोई फिल्म नहीं देखी थी। पर भुवन सोम के आगे पीछे अंकुर, निशांत, मंथन, दस्तक, आक्रोश जैसी फिल्में हम देख रहे थे। पर भुवन सोम में यथार्थ का जो मानवीय सरल चित्रण मृणाल सेन ने पेश किया, वह सबसे अलहदा था। उत्पल दत्त को हमने तरह तरह की भूमिकाओं में अभिनय करते हुए देखा है, पर भुवन सोम के रूप में उत्पल दत्त की किसी से तुलना ही नहीं की जा सकती। उनकी जिन दो फिल्मों की उन दिनों हम छात्रों में सबसे ज्यादा चर्चा थी, वे हैं कोलकाता 71 और इंटरव्यू, जिन्हें देखने के लिए हमें वर्षों इंतजार करना पड़ा। बंगाली फिल्मों की तरह ही सेन हिंदी फिल्मों में भी समान रूप से सक्रिय दिखते हैं। इनकी पहली हिंदी फिल्म 1969 की कम बजट वाली फिल्म भुवन सोम थी। फिल्म एक अडिय़ल रईसजादे की पिछड़ी हुई ग्रामीण महिला द्वारा सुधार की हास्य-कथा है। साथ ही, यह फिल्म वर्ग-संघर्ष और सामाजिक बाधाओं की कहानी भी प्रस्तुत करती है। फिल्म की संकीर्णता से परे नए स्टाइल का दृश्य चयन और संपादन भारत में समानांतर सिनेमा के उद्भव पर गहरा प्रभाव छोड़ता है। जब हमने भुवन सोम देखी तब हमें मालूम ही नहीं था कि जिस श्याम बेनेगल की फिल्मों से हम लोग उन दिनों अभिभूत थे, उनकी वह समांतर फिल्मों की धारा की गंगोत्री भुवन सोम में ही है।

हिंदी सिनेमा आंदोलन के दिग्गजों श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, सथ्यू, मणि कौल, गुलजार और बांग्ला के फिल्मकार गौतम घोष, उत्पेलेंदु, बुद्धदेव दासगुप्त जैसे तमाम लोग माध्यम बतौर सिनेमा के प्रयोग और उसके व्याकरण के सचेत इस्तेमाल के लिए मृणाल सेन से कई कई कदम आगे नजर आएंगे, सत्यजीत रे की बात छोड़ दीजिए! इस मामले में वे कहीं न कहीं ऋत्विक घटक के नजदीक हैं, जिन्हें बाकी दुनिया की उतनी परवाह नहीं थी जितनी कि अपनी माटी और जड़ों की। ऋत्विक की फिल्मों में कर्णप्रिय लोकधुनों का कोलाहल और माटी की सोंधी महक अगर खासियत है तो मृणाल सेन की फिल्में यथार्थ की चिकित्सकीय दक्षता वाली निर्मम चीरफाड़ के लिए विलक्षण हैं। उनकी सक्रियता का यह मतलब हुआ कि खुले बाजार की अर्थव्यवस्था और स्वत:स्फूर्त गुलामी में जीने को अभ्यस्त देहात की जड़ों से कटकर बाजार में जीने को उदग्रीव आज के नागरिक जीवन की अंध भावनाओं का सामना करने का साहस अभी किसी न किसी में है।

बंगाल की साहित्यिक और सामाजिक विरासत में मेलोड्रामा का प्राधान्य है। शायद बाकी भारत में भी कमोबेश ऐसा ही है। यथार्थ को वस्तुवादी ढंग से विश्लेषित करना बंगाली चरित्र में है ही नहीं, इसीलिए चौंतीस साल के वामपंथी शासन में जीने के बावजूद बंगाल के श्रेणी विन्यास, जनसंख्या संतुलन, वर्ग चरित्र और बहिष्कृत समाज की हैसियत में कोई फर्क नहीं आया। जैसे सालभर पहले तक वामपंथी आंदोलन का केंद्र बना हुआ था बंगाल वैसे ही आज बंगाल धुर दक्षिणपंथी अमेरिकापरस्त उपभोक्तावादी निहायत स्वार्थी समाज है, जहां किसी को किसी की परवाह नहीं।

Mrigaya-Bengali-Film-by-Mrinal-Senयह कोई नई बात नहीं है। नेताजी, रामकृष्ण, विवेकानंद और टैगोर जैसे लोगों में ही बंगाल अपना परिचय खोजता है। विपन्न जन समूह और सामाजिक यथार्थ से उसका कोई लेना देना नहीं है। जिस बंकिम चट्टोपाध्याय को साहित्य सम्राट कहते अघाता नहीं बंगाली और बाकी भारत भी जिसके वंदे मातरम पर न्यौछावर है, उन्होने समकालीन सामाजिक यथार्थ को कभी स्पर्श ही नहीं किया। दुर्गेश नंदिनी हो या फिर आनंदमठ या राजसिंह, सुदूर अतीत और तीव्र जातीय घृणा ही उनकी साहित्यिक संपदा रही है। रजनी, विषवृक्ष और कृष्णकांतेर विल में उन्होंने बाकायदा यथार्थ से पलायन करते हुए थोपे हुए यथार्थ से चमत्कार किए हैं। समूचे बांग्ला साहित्य में रवींद्रनाथ से पहले सामाजिक यथार्थ अनुपस्थित है। पर मजे की बात तो यह है कि दो बीघा जमीन पर चर्चा ज्यादा होती है और चंडालिका या रूस की चिट्ठी पर चर्चा कम। ताराशंकर बंदोपाध्याय का कथा साहित्य फिल्मकारों में काफी लोकप्रिय रहा है। स्वयं सत्यजीत रे ने उनकी कहानी पर जलसाघर जैसी अद्भुत फिल्म बनायी। पर इसी फिल्म में साफ जाहिर है कि पतनशील सामंतवाद के पूर्वाग्रह से वह कितने घिरे हुए थे। वह बहिष्कृत समुदायों की कथा फोटोग्राफर की दक्षता से कहते जरूर रहे और उन पर तमाम फिल्में भी बनती रहीं, पर इस पूरे वृतांत में वंचितों, उत्पीडि़तों और अस्पृश्यों के प्रति अनिवार्य घृणा भावना उसी तरह मुखर है, जैसे कि शरत साहित्य में।

माणिक बंद्योपाध्याय से लेकर महाश्वेता देवी तक सामाजिक यथार्थ के चितेरे बंगाल में कभी लोकप्रिय नहीं रहे। मृणाल सेन भी सत्यजीत रे या ऋत्विक घटक के मुकाबले कम लोकप्रिय रहे हैं हमेशा। पर लोकप्रिय सिनेमा बनाना उनका मकसद कभी नहीं रहा। ऋत्विक घटक, सआदत हसन मंटो या बांग्लादेश के अख्तरुज्जमान इलियस की तरह मृणाल सेन न बागी हैं और न उनमें वह रचनात्मक जुनून दिखता है, पर सामाजिक यथार्थ की निर्मम चीरफाड़ में उन्हें आखिरकार इसी श्रेणी में रखना होगा जो कि सचमुच खुले बाजार के इस उपभोक्तावादी स्वार्थी भिखमंगे दुष्ट समय में एक विलुप्त प्रजाति है। इसीलिए उनकी सक्रियता का मतलब यह भी हुआ कि सबने बाजार के आगे आत्मसमर्पण नहीं किया है। यह भारतीय सिनेमा के लिए एक बड़ी खुशखबरी है।

मृणाल सेन भारतीय फिल्मों के प्रसिद्ध निर्माता व निर्देशक हैं। इनकी अधिकतर फिल्में बांग्ला भाषा में हैं। अपने विद्यार्थी जीवन में ही वे वह कम्युनिस्ट पार्टी के सांस्कृतिक विभाग से जुड़ गए। यद्यपि वह कभी इस पार्टी के सदस्य नहीं रहे पर इप्टा से जुड़े होने के कारण वह अनेक समान विचारों वाले सांस्कृतिक रुचि के लोगों के परिचय में आ गए संयोग से एक दिन फिल्म के सौंदर्यशास्त्र पर आधारित एक पुस्तक उनके हाथ लग गई। जिसके कारण उनकी रुचि फिल्मों की ओर बढ़ी। इसके बावजूद उनका रुझान बुद्धिजीवी रहा और मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव की नौकरी के कारण कलकत्ता से दूर होना पड़ा। यह बहुत ज्यादा समय तक नहीं चला। वे वापस आए और कलकत्ता फिल्म स्टूडियो में ध्वनि टेक्नीशियन के पद पर कार्य करने लगे जो आगे चलकर फिल्म जगत में उनके प्रवेश का कारण बना। फिल्मों में जीवन के यथार्थ को रचने से जुड़े और पढऩे के शौकीन मृणाल सेन ने फिल्मों के बारे में गहराई से अध्ययन किया और सिनेमा पर न्यूज ऑन सिनेमा(1977) तथा सिनेमा, आधुनिकता (1992)पुस्तकें भी प्रकाशित हुईं।

1955 में मृणाल सेन ने अपनी पहली फीचर फिल्म रातभोर बनाई। उनकी अगली फिल्म नील आकाशेर नीचे ने उनको स्थानीय पहचान दी और उनकी तीसरी फिल्म बाइशे श्रावण ने उनको अंतर्राष्ट्रीय प्रसिद्धि दिलाई। पांच और फिल्में बनाने के बाद मृणाल सेन ने भारत सरकार की छोटी सी सहायता राशि से भुवन शोम बनाई, जिसने उनको बड़े फिल्मकारों की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया और उनको राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्रदान की। भुवन शोम ने भारतीय फिल्म जगत में क्रांति ला दी और कम बजट की यथार्थपरक फिल्मों का नया सिनेमा या समांतर सिनेमा नाम से एक नया युग शुरू हुआ।

इसके उपरांत उन्होंने जो भी फिल्में बनाईं वह राजनीति से प्रेरित थीं जिसके कारण वह मार्क्सवादी कलाकार के रूप में जाने गए। वह समय पूरे भारत में राजनीतिक उतार चढ़ाव का समय था। विशेषकर कलकत्ता और उसके आसपास के क्षेत्र इससे ज्यादा प्रभावित थे, जिसने नक्सलवादी विचारधारा को जन्म दिया। उस समय लगातार कई ऐसी फिल्में आईं जिसमें उन्होंने मध्यमवर्गीय समाज में पनपते असंतोष को आवाज दी। यह निर्विवाद रूप से उनका सबसे रचनात्मक समय था।

1960 की उनकी फिल्म बाइशे श्रवण, जो कि 1943 में बंगाल में आए भयंकर अकाल पर आधारित थी और आकाश कुसुम (1965) ने एक महान निर्देशक के रूप में मृणाल सेन की छवि को विस्तार दिया। मृणाल की अन्य सफल बंगाली फिल्में रहीं- इंटरव्यू (1970), कलकत्ता 71 (1972) और पदातिक (1973), जिन्हें कोलकाता ट्रायोलॉजी कहा जाता है।

मृणाल सेन की अगली हिंदी फिल्म एक अधूरी कहानी (1971) वर्ग-संघर्ष (क्लास वार) के अन्यतम प्रारूप को चित्रित करती है जिसमें फैक्ट्री-मजदूरों और उनके मध्य तथा उच्च वर्गीय मालिकों के बीच का संघर्ष फिल्माया गया है। 1976 की सेन की फिल्म मृगया उनकी दूरदर्शिता और अपार निर्देशकीय गुणों को परिलक्षित करती है। भारत की स्वतंत्रता के पूर्व के धरातल को दर्शाती यह फिल्म संथाल समुदायों की दुनिया और उपनिवेशवादी शासन के बीच के संपर्क की अलग तरह की गाथा है।

1980 के दशक में मृणाल की फिल्में राजनीतिक परिदृश्यों से मुड़कर मध्य-वर्गीय जीवन की यथार्थवादी थीमों की ओर अग्रसर होती हैं। एक दिन अचानक (1988) में भी तथापि तथा कथित स्टेटस का प्रश्न एक गहरे असंतोष के साथ प्रकट होता है।

मृणाल सेन को भारत सरकार द्वारा 1981 में कला के क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था। भारत सरकार ने उनको पद्म विभूषण पुरस्कार एवं 2005 में दादा साहब फाल्के पुरस्कार प्रदान किया। उनको 1998 से 200 तक मानक संसद सदस्यता भी मिली। फ्रांस सरकार ने उनको कमांडर ऑफ द ऑर्ट एंड लेटर्स उपाधि से एवं रूस सरकार ने ऑर्डर ऑफ फ्रेंडशिप सम्मान प्रदान किए।

padatikसत्यजीत रे और ऋत्विक घटक के साथ ही दुनिया की नजरों में भारतीय सिनेमा की छवि बदलने वाले सेन ने कहा कि हर रोज मैं एक नई फिल्म बनाने के बारे में सोचता हूं। देखते हैं कब मैं उस पर काम करता हूं। अभिनेत्री नंदिता दास अभिनीत उनकी अंतिम फिल्म आमार भुवन (यह, मेरी जमीन) वर्ष 2002 में प्रदर्शित हुई थी। उन्होंने कहा कि मैंने उसके बाद कोई फिल्म नही बनाई लेकिन मैंने यह कभी नहीं सोचा कि मैं सेवानिवृत्त हो गया हूं।

उनकी फिल्मों में प्रत्यक्ष राजनीतिक टिप्पणियों के अलावा सामाजिक विश्लेषण और मनोवैज्ञानिक घटनाक्रमों की प्रधानता रही है। वाम झुकाव वाले निर्देशक भारत में वैकल्पिक सिनेमा आंदोलन के अग्रणी के रूप में जाने जाते हैं और अक्सर उनकी तुलना उनके समकालीन सत्यजीत रे के साथ की जाती है।

सेन ने कहा कि मेरे लिए धन की समस्या नहीं है। सनद रहे हाल ही में एक बड़े निजी बैंक ने उन्हें फिल्म बनाने के लिए धन देने का प्रस्ताव दिया था। बैंक ने कहा है कि हम लोग पांच करोड़ से अधिक की धनराशि देने के लिए तैयार हैं। मैंने उनसे कहा कि मैं पांच करोड़ में छह फिल्म बना सकता हूं। जब उनसे उनके जन्मदिन की पार्टी के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि वह जन्मदिन की पार्टी नहीं मनाएंगे। सेन ने कहा कि जन्म या मौत पर जश्न मनाना मेरा काम नहीं है। मेरे दोस्त, संबंधी या अन्य लोग जो मेरे लिए सोचते हैं, वे अगर चाहते हैं तो जश्न मना सकते हैं।

उन्होंने कहा कि एक बात जो मुझे इस बुढ़ापे में परेशान करती है वह है मेरी फिल्मों के प्रिंट का जर्जर होना। जिसमें कई आज भी दर्शनीय मानी जाती हैं। ऐसा खराब जलवायु और उचित रखरखाव के अभाव के कारण हो रहा है।

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