Total Pageviews

THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

Twitter

Follow palashbiswaskl on Twitter

Thursday, June 7, 2012

मसला भूमि सुधार का और सजा विभाजन पीड़ित बंगाली शरणार्थियों को, क्योंकि उन्होंने अंबेडकर को चुना था!

मसला भूमि सुधार का और सजा विभाजन पीड़ित बंगाली शरणार्थियों को, क्योंकि उन्होंने अंबेडकर को चुना था!

पलाश विश्वास

आजादी के बाद जो काम सबसे पहले होना चाहिए था, उसे आज भी अंजाम देने की ओर  कोई  ठोस पहल नहीं की गयी है। भूमि सुधार के बगैर सामाजिक​ ​न्याय या समावेशी विकास महज छलावा है। मनुस्मृति व्यवस्था दरअसल कोई सामाजिक या धार्मिक व्यवस्था नहीं है, यह निहायत आर्थिक और राजनीतिक स्थाई बंदोबस्त है, जिसके तहत संपत्ति और प्राकृतिक संसाधनों पर सत्तावर्ग का वर्चस्व हजारों साल से कायम है। इस स्थिति को तोड़ने की कोशिश हरगिज नहीं हुई। देशभर में अंग्रेजी हुकूमत के जमाने में हुए किसान विद्रोह, आदिवासी और मूलनिवासी विद्रोह की मुख्य मांग ही दरअसल भूमिसुधार की रही​ ​है। बंगाल में संथाल, मुंडा, संन्यासी, नील विद्रोह के मूल में जल जंगल और जमीन के हक हकूक की लड़ाई प्रमुख थी। १९वीं सदी के प्रारंभ में नील विद्रोह से शुरू मतुआ आंदोलन ने दरअसल मनुस्मृति व्यवस्था को खारिज करके ब्राह्मणवादी धर्म के खिलाफ विद्रोह करके अछूत बहिष्कृत और पिछड़े​ ​समुदायों के लिए शिक्षा और संपत्ति के अधिकारों से अपनी लड़ाई शुरू की, जो बाद में चंडाल आंदोलन की बुनियाद बनी। मतुआ और चंडाल आंदोलन की मुख्य मांग भूमि सुधार की थी। इसी आंदोलन के फलस्वरूप बाबा साहेब अंबेडकर के आंदोलन से पहले ही बंगाल में १९११ में अस्पृश्यता निषेध का कानून लागू हो गया, भारत भर में सबसे पहले। पर भूमि सुधार की दिशा में कोई प्रगति नहीं हो पायी। बंगाल में पहली अंतरिम  सरकार प्रजा कृषक पार्टी की फजलुल हक सरकार के एजंडे में भी भूमि सुधार को सर्वोच्च प्राथमिकता थी। इससे पहले बंगाल में ढाका के नवाब की पहल पर मुस्लिम लीग का गठन हो चुका ​था , जिसे आम मुसलमानों का कोई समर्थन हासिल नहीं था। पर हक मंत्रिमंडल में शामिल श्यामाप्रसाद की मौजूदगी और प्रभाव से मनुस्मृति बंदोबस्त कायम रहा और प्रजा कृषक समाज का भूमि सुधार कार्यक्रम फेल हो गया। खेत जोतने वाले अछूत और मुसलमान बहुसंख्यक किसानों के सामने तब मुस्लिम लीग की राजनीति के सिवा कोई विकल्प नहीं था।तब भी हिंदू महासभा के नेताओं की तमाम चालबाजी के बावजूद बंगाल मं सांप्रदायिक ध्रूवीकरण नहीं​ ​ हुआ और मुस्लिम लीग की अगुवाई में बनी नजीबुल्ला और सुहारावर्दी सरकारे अछूतों और मुसलमानों के गठबंधन का नतीजा रहीं, जिसमें अछूत नेता मुकुंद बिहारी मल्लिक और जोगेंद्रनाथ मंडल की खास भूमिका थी।बंगाल, महाराष्ट्र और पंजाब ब्राह्मणवाद विरोधी राष्ट्रीय आंदोलन के तीन केंद्र रहे हैं। बंगाल के अछूतों, खासकर नमोशूद्र चंडालों ने डा भीमराव​
​ अंबेडकर को महाराष्ट्र में पराजित होने के बाद अपने यहां से जोगेंद्रनाथ मंडल और मुकुंदबिहारी मल्लिक जैसे नेताओं की खास कोशिश के तहत ​
​जिताकर संविधानसभा में भेजा। इसके बाद ही श्यामा प्रसाद मुखर्जी का बयान आया कि भारत का विभाजन हो या नहीं, बंगाल का विभाजन ​
​अवश्य होगा कयोंकि धर्मांतरित हिंदू समाज के तलछंट  का वर्चस्व बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। मुस्लिम बहुल पूर्वी बंगाल ने विभाजन का​
​ प्रस्ताव बहुमत से खारिज कर दिया, लेकिन ब्राह्मणबहुल पश्चिम बंगाल ने इसे बहुमत से पारित कर दिया।अंबेडकर के चुनावक्षेत्र हिंदूबहुल खुलना, बरीशाल, जैशोर और फरीदपुर को पाकिस्तान में शामिल कर दिया गया। नतीजतन अंबेडकर की संविधानसभा की सदस्यता समाप्त हो गयी। उन्हें कांग्रेस के समर्थन से महाराष्ट्र विधानपरिषद से दोबारा संविधानसभा में लिया गया और संविधान मसविदा समिति का अध्यक्ष बनाया गया। हिंदुत्व के एजंडे के मुताबिक बंगाल और पंजाब के विभाजन से भारत में अछूतो, पिछड़ों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों का मनुस्मृति विरोधी राष्ट्रीय आंदोलन का अवसान तो हो गया पर अंबेडकर को चुनने की सजा बंगाली शरणार्थियों को अब भी दी जा रही है।

कुमाऊँ की तराई में बसाये गये बंगाली शरणार्थियों को पट्टे पर दी गई कृषि जमीनों में मालिकाना हक दिये जाने के एवज में सितारगंज से भारतीय जनता पार्टी के टिकट पर एमएलए चुने गये किरन मंडल ने 23 मई को पार्टी और विधायकी से इस्तीफा देकर कांग्रेस का दामन थाम लिया है। इसी रोज उत्‍तराखण्ड सरकार के मंत्रिमण्डल ने प्रदेश में गवर्नमेंट ग्रांट एक्ट-1895 के तहत खेती के निमित्‍त पट्टे पर दी गई जमीन पर पट्टाधारकों को मालिकाना हक देने का फैसला ले लिया। एक तरफ राज्य सरकार ने किरन मंडल की शर्त के मुताबिक कैबिनेट में प्रस्ताव पास किया, दूसरी तरफ मंडल ने पार्टी और विधायकी को अलविदा कहा। भाजपा विधायक किरण मंडल को तोड़कर उत्तराखंड के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा को विधानसभा पहुंचाने के लिए शक्तिफार्म के बंगाली​ ​ शरणार्थियों को भूमिधारी हक आननफानन में दे देने के कांग्रेस सरकार की कार्रवाई के बाद राजनीतिक भूचाल आया हुआ है। इसके साथ ही संघ परिवार की ओर से सुनियोजित तरीके से अछूत बंगाली शरणार्थियों के खिलाफ घृणा अभियान शुरू करके उन्हें उत्तराखंड की मुख्यधारा से काटने का आपरेशन​ ​ चालू हो गया। इस राजनीतिक सौदे की जानकारी गांव से भाई पद्मलोचन ने हालांकि फोन पर मुझे मुंबई रवाना होने से पहले दे दी थी और  राजनीतिक प्रतिक्रिया का मुझे अंदेशा था, लेकिन लिखने की स्थिति में नहीं था। मीडिया में तमाम तरह की चीजें आने लगीं, जो स्वाभाविक ही है। तिलमिलाये संघ परिवार ​​कांग्रेस का कुछ बिगाड़ न सकें तो क्या, शरणार्थियों के वध से उन्हें कौन रोक सकता है? जबकि उत्तराखंड बनने के तुरंत बाद भाजपा की पहली सरकार ने राज्य में बसे तमाम शरणार्थियों को बांग्लादेशी घुसपैठिया करार देकर उन्हें नागरिकता छीनकर देश निकाले की सजा सुना दी थी। तब तराई और पहाड़ के सम्मिलित प्रतिरोध से शरणार्थियों की जान बच गयी। अबकी दफा ज्यादा मारक तरीके से गुजरात पैटर्न पर भाजपाई अभियान शुरू हुआ है अछूत शरणार्थियों के खिलाफ। जैसे मुसलमानों को विदेशी बताकर उन्हें हिंदू राष्ट्र का दुश्मन बताकर अनुसूचित जातियों और आदिवासियों तक को पिछड़ों के साथ​  हिंदुत्व के पैदल सिपाही में तब्दील करके गुजरात नरसंहार को अंजाम दिया गया, उसीतरह शरणार्थियों को बांग्लादेशी बताकर उनके सफाये की नयी तैयारियां कर रहा है संघ परिवार, जो उनके एजंडे में भारत विभाजन से पहले से सर्वोच्च प्राथमिकता थी। नोट करें, यह बेहद खास बात है, जिसे आम लोग तो क्या बुद्धिजीवी भी नहीं जानते हैं। इसे शरणार्थियों की पृष्ठभूमि और भारत विभाजन के असली इतिहास जाने बगैर समझा नहीं जा सकता। नैनीताल के वरिष्ठ पत्रकार हमारे मित्र प्रयाग पांडेय ने इस मुद्दे पर भूमि सुधार के प्रासंगिक सवाल खड़े किये हैं। पर शायद शरणार्थी समस्या के इतिहास से अनजान होने के कारण उन्होंने भी बंगाली शरणार्थी और बांग्लादेशियों में को एकाकार कर दिया,​जो खतरनाक है। दिनेशपुर में ३६ कालोनियों में बसाये गये बंगाली शरणार्थियों की बसावट सिख शरणार्तियों के साथ साथ १९५२ से लेकर १९५४ तक पूरी हो चुकी थी।इससे पहले ये लोग बंगाल और ओड़ीशा के विभिन्न शरणार्थी शिविरों में विभाजन के तुरंत बाद से रहते रहे हैं। जबकि शक्ति फार्म में भी बंगाली शरणार्थियों का पुनर्वास १९६० तक हो चुका था। पर जेल फार्म इलाके में विभिन्न शरणार्थी शिविरों में दशकों से रह रहे लोगों को बाद में बसाया गया। बांग्लादेश के जन्म से पहले उत्तराखंड में शरणार्थी आबादी है तो उन्हें बांग्लादेश से जोड़ने का क्या आशय है? भूमि सुधार संबंधी मुद्दों और तराई के इतिहास पर प्रयाग जी के लेख से सहमति रखते हुए भी शरणार्थियों की पहचान को लेकर भ्रम साफ करना जरूरी था, इसलिए मैंने मुंबई से  कैविएट बतौर सबको यह जानकारी दे दी थी कि इस प्रकरण में कुछ स्पस्टीकरण जरूरी है। मालूम हो कि दिनेशपुर के ३६ कालोनी में बसे बंगाली शरणार्थियों को बूमिदारी हक १९६७ में पहली संविद सरकार के जमाने में ही मिल गयी थी। पर आदिवासी थारू बुक्सा की तरह जमीन हस्तांतरण पर रोक न होने से शरणार्थियों की ज्यादातर जमीन महाजनों, दबंगों और भूमाफिया ने हथिया ​​ली।शरऩार्थियों की व्यापक पैमाने पर बेदखली हो गयी।शरणार्थियों के लगातार आंदोलन के बाद जब बंगाली शरणार्थी की जमीन सिर्फ बंगाली शरणार्थी को ही हस्तांतरण की शर्त लगी, तब तक आधे शरणार्थी अपनी जमीन से बेदखल हो चुके थे। शक्तिफार्म में भी अगर यह शर्त नहीं लगी तो दिनेशपुर की कहानी दुहराये जाने की आशंका है। जिस आनन फानन में शक्तिफार्म के शरणार्थियों को भूमिधारी हक मिला, उससे साबित होता है कि पूर्ववर्ती उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड की कांग्रेस सरकारों ने इस मामले को जानबूझकर लटकाये रखा। जबकि शरणार्थी वोट बैंक के दम पर राजनीति करने वाले नारायण दत्त तिवारी तीन तीन बार उत्तरप्रदेश और फिर उत्तराखंड के भी मुख्यमंत्री रहे। कृष्णचंद्र पंत की सांसदी भी शरणार्थी वोट बैंक के सहारे चलती रही। इन नेताओं ने देश के दूसरे हिस्से में प्रचलित रस्म मुताबिक भाषाई अल्पसंख्यक बंगाली वोट बैंक का इसतेमाल ही किया। दंडकारण्य प्रोजेक्ट में भी शरणार्थियों को भूमिधारी हक मिला हुआ है। उन्हे ज्यादातर इलाके में नागरिकता प्रमामपत्र भी मिला है। उत्तराखंड ौर उत्तरप्रदेश की कथा अलग क्यों हो गयी, इस पर विचार करना जरूरी है।

मुंबई में इसबार की यात्रा काफी तकलीफदेह रही है। हम तो स्लीपर क्लास में यात्रा करने वाले ठहरे। शालीमार कुर्ला एक्सप्रेस से गये तो न खान का इंतजाम था और न पानी का बंदोबस्त । भूखे प्यासे लू के थपेड़े झेलते हुए ७८ ढहराव पार करके जाना हुआ। लौटते हुए सीएसटी स्पेसल में पैंट्री तो मिली पर गरमी से राहत नहीं मिली। लेकिल इसबार मुंबई में अपने पुराने मित्रों से मुलाकात के अलावा खास मुलाकातें राम पुनियानी, असगर अली इंजीनियर और इरफान इंजीनियर से हुईं। गुजरात में हिंदुत्व की प्रयोगशाला को समझने में मदद मिली। उन सबसे शरणार्थी समस्या पर भी चर्चा हुई। हिंदुत्व के लिए और हिंदू राष्ट्र सिद्धांत के लिए बंगाली शरणार्थी और मुसलमान और दूसरे अल्पसंख्यक समान दुश्मन हैं, इसके ऐतिहासिक कारण और पृष्ठभूमि हैं, जिसे समझना​ ​ भारत में लोकतंत्र, शांति, अहिंसा, संविधान और धर्मनिरपेक्षता, नागरिक मानव अधिकार के हिमायती हर नागरिक के लिए जरूरी है। पर​ ​ कोलकाता लौटने के बाद भी कहां गरमी से निजात मिली? बंगाल में अभूतपूर्व तापप्रवाह से अबतक सौ से ज्यादा जानें जा चुकी हैं। कल शाम आंधी पानी से कोलकाता में थोड़ी राहत जरूर मिली, पर तुरत मौसम बदलने के आसार कम है। कल दिन ३ बजे तक यह लेख पूरा लिख चुका था। पर सेव​ ​ करना भूल गया। खाना खाने गये, तो लोडशेडिंग। फिर कंप्यूटर पर बैठे तो लेख उड़ चुका था। आज दोबारा लिख रहा हूं।

उत्तराखंड में लोगों को मालूम होगा कि १९५८ में ढिमरी ब्लाक किसान विद्रोह के नेता थे हमारे दिंवंगत पिता पुलिन बाबू, जिनके तराई और पहाड़ के सभी समुदायों से गहरा रिश्ता रहा है। वे आजीवन शरणार्थी समस्या को लेकर देशभर में सक्रिय रहे। मेरा गांव आज भी एक संयुक्त परिवार है क्योंकि यह महज शरणार्थी गांव नहीं है, पिताजी के आंदोलन के साथियों का गांव है, जो बंगाल,ओड़ीशा और उत्तर प्रदेश ओड़ीशा में हर आंदोलन में साथ साथ रहे हैं। गांव काम बसंतीपुर मेरी मां के नाम पर है। यह गांव १९५६ में रूद्रपुर में हुए शरणार्थी आंदोलन के बाद बसा। हम संपूर्ण क्रांति, चिपको आंदोलन, किसान​ ​आंदोलन, उत्तराखंड आंदोलन में बाकी सबके साथ साझेदार रहे हैं। तो क्या हम बांग्लादेशी हुए? मैं खुद करीब चालीस साल से हिंदी साहित्य और पत्रकारिता से जुड़ा हूं। उत्तराखंड के अलावा झारखंड, छत्तीसगढ़, उत्तरपूर्व और भारतभर के जनांदोलनों से लगातार जुडा हूं। तो क्या फिरभी मैं बांग्लादेशी हूं? तेलंगाना और ढिमरी ब्लाक आंदोलनों से कम्युनिस्ट ब्राह्मण नेताओं की गद्दारी के कारण वामपंथ से पिता का मोहभंग हो गया और मैं उनके २००१ में निधन तक वामपंथ से सक्रिय तौर पर जुड़ा रहा। पिता अंबेडकर और गांधी के अनुयायी रहे आजीवन। गांधी की तरह १९५६ के बाद उन्होंने कभी ​​कमीज नहीं पहनी। वे १९६० में असम के दंगापीड़ितों के बीच काम करते रहे। बाबरी विध्वंस के बाद दंगापीड़ित मुसलमान इलाकों में भी उन्होंने काम किये। वे जोगेंद्रनाथ मंडल के सहयोगी थे और ज्योति बसु के विरोधी। तो क्या मेरे पिता बांग्लादेशी रहे, जनके उनकी मृत्युपर्यंत भारत के हर प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति से संवाद थे? मुश्किल यह है कि हमारे सारे लोग मेरी तरह अपनी बात नहीं कह सकते और न सामाजिक जीवन में उनकी उतनी भागेदारी है, तो क्या वे सारे के सारे जिनमें से ज्यादातर जन्मजात भारतीय हैं, हिंदू हैं पर अछूत हैं, और उनकी मातृभाषा बांग्ला है, बंगाल के इतिहास और भूगोल से जबरन काट दिये जाने के बाद। मैं हर गांव के हर शख्स को , हर चेहरे को दशको से जानता रहा हूं, जैसे में पहाड़ की हर घाटी, हर चोटी, हर नदी, हर कस्बे और हर शहर को जानता रहा हूं।नैनीताल मेरा गृह नगर है और पहाड़ के चप्पे चप्पे में मेरे अपने लोग। बंगाल में पिछले २१ -२२ साल से रहने के बावजूद दिल ओ दिमाग से आज भी मैं पहाड़ी हूं।मेरे दिल में धड़कता है , धधकता है पहाड़ जंगल में आग की तरह।पिता के कैंसर से 2001 में अवसान के बाद से मैं इस संकट से जूझ रहा हूं। चूंकि बंगाली शरणार्थियों का कोई माई-बाप नहीं है और पुलिनबाबू रीढ़ की हड्डी में कैंसर होने के बावजूद रात-बिरात आंधी-पानी में उनकी पुकार पर देश में हर कोने, और तो और सीमा पार करके बांग्लादेश में दौड़ पड़ते थे। इस पारिवारिक परंपरा का निर्वाह करना अब हमारी मजबूरी है। कहीं से भी फोन आ जाये, तो दौड़ पड़ो! चूंकि पिता महज कक्षा दो तक पढ़े़ थे, हमारी दूसरी तक न पहुंचते-पहुंचते तमाम महकमों, राजनीतिक दलों, मुख्यमंत्रियों और प्रधानमंत्रियों को​ दस्तखत या पत्र लिखने की जिम्मेवारी हमारी थी। हमें कविता-कहानी से लिखने की शुरुआत करने का मौका ही नहीं मिला। शायद यही वजह है कि पिता की मौत के बाद कविता-कहानी की दुनिया से बाहर हो जाने को लेकर मेरे मन में कोई पीड़ा नहीं है। हम तो अपने लोगों की जरूरत के मुताबिक लेखक बना दिये गये। तो क्या हम सारे लोग बांग्लादेशी हुए किरण मंडल के पार्टी छोड़ने से बहुत पहले से संघ परिवार यही साबित करने में लगा है। क्या बाकी लोगों की भी यही राय है?पिता की मौत के तुरंत बाद 2001 में ही उत्तराखंड की भाजपा सरकार ने बंगाली शरणार्थियों को विदेशी घुसपैठिया करार दिया। हमारे लोग आंदोलन कर रहे थे। अब मेरे लिए उनके साथ खड़ा होने के सिवाय कोई चारा नहीं था। पर इस लड़ाई में विचारधारा ने हमारा साथ नहीं दिया।

तब से लेकर अब तक देश के कोने-कोने गांव-गांव भटक रहा हूं, हमारे लोगों की नागरिकता के लिए।गौरतलब है कि नागरिकता संशोधन कानून पास करवाने में पहले विपक्ष के नेता बाहैसियत संसदीय सुनवाई समिति के अध्यक्ष बतौर और फिर सत्ताबदल के बाद मुख्य नीति निर्धारक की हैसियत से उनकी भूमिका खास रही है। 1956 तक पासपोर्ट वीसा का चलन नहीं था। भारत और पाकिस्तान की दोहरी नागरिकता थी। पर नये नागरिकता कानून के तहत 18 जुलाई 1948 से पहले वैध दस्तावेज के बिना भारत आये लोगों ने अगर नागरिकता नहीं ली है, तो वे अवैध घुसपैठिया माने जाएंगे। इसी कानून के तहत उड़ीसा के केंद्रपाड़ा जिले के रामनगर इलाके के 21 लोगों को देश से बाहर निकाला गया। जबकि वे नोआखाली दंगे के पीड़ित थे और उन्होंने 1947-48 में सीमा पार कर ली थी। राजनीतिक दल इस कानून की असलियत छुपाते हुए 1971 के कट आफ ईयर की बात करते हैं। कानून के मुताबिक ऐसा कोई कट आफ ईयर नहीं है। हुआ यह था कि 1971 में बांग्लादेश की मुक्ति के बाद यह मान लिया गया कि शरणार्थी समस्या खत्म हो गयी। इंदिरा मुजीब समझौते के बाद इसी साल से पूर्वी बंगाल से आने वाले शरणार्थियों का पंजीकरण बंद हो गया। फिर अस्सी के दशक में असम आंदोलन पर हुए समझौते के लिए असम में विदेशी नागरिकों की पहचान के लिए 1971 को आधार वर्ष माना गया, जो नये नागरिकता कानून के मुताबिक गैरप्रासंगिक हो गये हैं।​जब तक यह कानून नहीं बदलता, तब तक बिना कागजात वाले समूहों और समुदायों मसलन शरणार्थी, देहात बेरोजगार शहरों में भागे आदिवासी, अपंजीकृत आदिवासी गांवों के लोगों, खानाबदोश समूहों और महानगरों की गंदी बस्तियों में रहने वाले लोगों को कभी भी देश से निकाला जा सकता है।

यही राय होती तो हमारे लोग तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्र, अंडमान, महाराष्ट्र,राजस्थान, उत्तर प्रदेश , उत्तराखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार, ​
​झारखंड, असम, ओड़ीशा, त्रिपुरा, मणिपुर, अरुणाचल में छितरा दिये जाने के बाद कहीं भी ठहर नहीं पाते। बल्कि वे तो हर कहीं मुख्यधारा में सम्मिलित हैं और हर कहीं उन्हें स्थानीय जनता का भरपूर सहयोग मिलता रहा है। इसके उलट बंगाल से उन्हें सहानुभूति तक नहीं मिलती। बंगाल में जो शरणार्थी बसाये गये हैं या जिन्हें आ​जतक पुनर्वास नहीं मिला , उनकी तुलना में बंगाल से बाहर बसे बंगाली शरणार्थी काफी बेहतर हाल में हैं।बल्कि माकपा ने १९७७ से पहले दंडकारण्य के शरमार्थियों को बंगाल बुलाकर कांग्रेस को परास्त करने की रणनीति के तहत मरीचझांपी आंदोलन ​
​शुरु किया। मध्यप्रदेश के पांच बड़े शरणार्थी शिविरों को छत्तीसगढ़ के माना कैंप को केंद्र बनकर टारगेट किया गया। ज्योति बसु, राम चटर्जी,​
​ किरणमय नंद ने इन कैंपों में जाकर शरणार्थियों से बंगमाता की घर लौटने की अपील सुनाते रहे। पिताजी ने शुरू से इस आंदोलन का विरोध किया और उत्तर भारत के  शरणार्थी  झांसे में नहीं आये। जब शरणार्थी ज्योति बाबू की अपील पर सुंदरवन के मरीचझांपी पहुंचे, तब तक मुसलमानों के समर्थन से बंगाल में माकपा का भारी वोट बैंक बन चुका था और शरणार्थी वोट बैंक की जरुरत नहीं थी। ज्यति बसु मुखयमंत्री बन चुके थे और चिंतित थे कि दंडकारण्य की तरह भारतभर से शरणार्थी बंगाल कूच करने लगे तो अछूतों का राज कायम हो जायेगा। १९७९ की जनवरी में मरीचझांपी नरसंहारकांड को अंजाम दिया गया। इसके तमाम सबूतों के साथ हमारे मित्र तुषार भट्टाचार्य ने एक फिल्म बनायी, जिसके अनुवाद और संपादन में हमारा मामूली सहयोग रहा। चुनाव से पहले ममता दीदी ने मरीचझांपी को मुद्दा बनाया, पर पोरिबर्तन के बाद मां माटी मानुष की सरकार ने तमाम जांच कमिटियां बनाने के बावजूद मरीचझांपी कांड पर कोई कार्रवाई नहीं की। शरणार्थियों के प्रति बंगाल के ब्राह्मण तंत्र, जो हिंदुत्व राजनीति में हमेशा अगुवा रहा है और भारत के हिंदू राष्ट्र एजंडे को भारत विभाजन के जरिये जिसने हकीकत की शक्ल दी, के रवैये को जानने के लिए मरीचझांपी पर यह फिल्म जरूर देखें, जो मेरे ब्लागों में वर्षों से अपलोड हैं।

बंगाली​ ​ शरणार्थियों की बंगाल में न कोई पहचान है और न कोई वजूद। समाज के किसी भी क्षेत्र में उन्हें कोई स्थान नहीं है। जो स्थापित हुए , वे ब्राह्मण,​​ कायस्थ, वैद्य सवर्ण जमींदारों के वंशज हैं।उन्हीं के वर्चस्व को बनाये रखने के लिए हिंदू महासभा की अगुवाई में जनसंख्या स्थानांतरण के तहत मूलनिवासी किसान आंदोलन की शक्ति को खंडित करने के लिए बंगाल के भद्रलोक नेताओं ने भारत विभाजन को अंजाम दिया, क्योंकि बंगाल में विभाजन पूर्व तीनों अंतरिम सरकारों की अगुवाई मुसलमान कर रहे थे, अछूतों के समर्थन से। पहली प्रजा कृषक समाज पार्टी की फजलुल ङक मंत्रिमंडल में श्यामाप्रसाद मुखर्जी मंत्री थे, जिंन्होंने पार्टी के भूमि सुधार एजंडे को फेल कर दिया और जिसके फलस्वरुप जिस मुस्लिम लीग को बंगाल को में कोई पूछने वाला नहीं ​​था, उसको अपनाने के सिवा बंगाल के अछूत और मुसलमान किसानों के सामने कोई चारा नहीं बचा था। पर हिंदू महासभा के एनसी चटर्जी,जो सोमनात चटर्जी के पिता हैं और श्यामाप्रसाद मुखर्जी की तमाम कोशिशों के बावजूद दलित मुस्लिम एका नहीं टूटा और न ही बंगाल का सांप्रदायिक ध्रूवीकरण हुआ। यहां तक कि जब बंगाल में विभाजन के दौरान दंगे हो रहे थे, तब भी तेभागा आंदोलन में हिंदू मुसलमान किसान साथ साथ जमीन के हक हकूक और भूमि सुधार की मांग लेकर बंगाल के कोने कोने में साथ साथ कंधा से कंधा मिलाकर लड़ रहे थे। इसका सिलसिलावार ब्योरा इस आलेख के अंत में जुड़ा है, जो लोकतंत्र और धर्मनिरपेढक्षता, संविधान और सामाजिक न्याय के लिए जानना बहुत जरूरी है।

बंगाल से शुरू हुआ  राष्ट्रीय दलित आन्दोलन , जिसके नेता अंबेडकर और जोगेन्द्र नाथ मंडल थे। बंगाल के अछूत मानते थे कि गोरों से सत्ता का हस्तान्तरण ब्राह्ममों को हुआ तो उनका सर्वनाश। मंडल ने साफ साफ कहा था कि स्वतन्त्र भारत में अछूतों का कोई भविष्य नहीं है। बंगाल का विभाजन हुआ। और पूर्वी बंगाल के दलित देश भर में बिखेर दिये गये। बंगाल से बाहर वे फिर भी बेहतर हालत में हैं। हालिए नागरिकता कानून पास होने के बाद ब्राह्मण प्रणव बुद्ध की अगुवाई में उनके विरुद्ध देश निकाला अभियान से पहले भारत के दूसरे राज्यों में बसे बंगाली शरणार्थियों ने कभी किसी किस्म के भेदभाव की शिकायत नहीं की।पर बंगाल में मूलनिवासी तमाम लोग अलित, आदिवासी, ओबीसी और मुसलमान दूसरे दर्जे के नागरिक हैं।अस्पृश्यता बदस्तूर कायम है।

वामपंथी राज में क्या हाल थे। मैंने पहले ही लिखा है। आपको याद दिलाने के लिए वही पुरानी बाते उद्धृत कर रहा हूं:

राजनीतिक आरक्षण बेमतलब। पब्लिक को उल्लू बनाकर वोट बैंक की राजनीति में समानता मृगतृष्णा के सिवाय कुछ भी नहीं। मीना - गुर्जर विवाद हो या फिर महिला आरक्षण विधायक, हिन्दूराष्ड्र हो या गांधीवाद समाजवाद या मार्क्सवाद माओवाद सत्तावर्ग का रंग बदलता है, चेहरा नहीं। विचारधाराएं अब धर्म की तरह अफीम है और सामाजिक संरचना जस का तस।

ये दावा करते रहे हैं की अस्पृश्यता अब अतीत की बात है। जात पांत और साम्प्रदायिकता , फासीवाद का केंद्र है नवजागरण से वंचित उत्तर भारत। इनका दावा था कि बंगाल में दलित आन्दोलन की कोई गुंजाइश नहीं है क्योंकि यहां समाज तो पहले ही बदल गया है।

दरअसल कुछ भी नहीं बदला है। प्रगतिवाद और उदारता के बहाने मूलनिवासियों को गुलाम बनाकर ब्राह्मण तंत्र जीवन के हर क्षेत्र पर काबिज है। बंगाल और केरल वैज्ञानिक ब्राह्मणवाद की चपेट में हैं।

बंगाल में वाममोर्चा नहीं, ब्राह्मणवाद का राज है।

बंगाल में ब्रह्मणों की कुल जनसंख्या २२.४५लाख है, जो राज्य की जनसंख्या का महज २.८ प्रतिशत है। पर विधानसभा में ६४ ब्राह्मण हैं । राज्य में सोलह केबिनेट मंत्री ब्राह्मण हैं। दो राज्य मंत्री भी ब्राह्मण हैं। राज्य में सवर्ण कायस्थ और वैद्य की जनसंख्या ३०.४६ लाख है, जो कुल जनसंख्या का महज ३.४ प्रतिशत हैं। इनके ६१ विधायक हैं। इनके केबिनेट मंत्री सात और राज्य मंत्री दो हैं। अनुसूचित जातियों की जनसंख्या १८९ लाख है, जो कुल जनसंख्या का २३.६ प्रतिशत है। इन्हें राजनीतिक आरक्षण हासिल है। इनके विधायक ५८ है। २.८ प्रतिशत ब्राह्मणों के ६४ विधायक और २३.६ फीसद सअनुसूचितों के ५८ विधायक। अनुसूचितो को आरक्षण के बावजूद सिर्फ चार केबिनेट मंत्री और दो राज्य मंत्री, कुल जमा छह मंत्री अनुसूचित। इसी तरह आरक्षित ४४.९० लाख अनुसूचित जनजातियों की जनसंख्या , कुल जनसंख्या का ५.६ प्रतिशत, के कुल सत्रह विधायक और दो राज्य मंत्री हैं। राज्य में १८९.२० लाख मुसलमान हैं। जो जनसंख्या का १५.५६ प्रतिशत है। इनकी माली हालत सच्चर कमिटी की रपट से उजागर हो गयी है। वाममोर्चा को तीस साल तक लगातार सत्ता में बनाये रखते हुए मुसलमानों की औकात एक मुश्त वोटबैंक में सिमट गयी है। मुसलमाल इस राज्य में सबसे पिछड़े हैं। इनके कुल चालीस विधायक हैं , तीन केबिनेट मंत्री और दो राज्य मंत्री। मंडल कमीशन की रपट लागू करने के पक्ष में सबसे ज्यादा मुखर वामपंथियों के राज्य में ओबीसी की हालत सबसे खस्ता है। राज्य में अन्य पिछड़ी जातियों की जनसंख्या ३२८.७३ लाख है, जो कुल जनसंख्या का ४१ प्रतिशत है। पर इनके महज ५४ विधायक और एक केबिनेट मंत्री हैं। ४१ प्रतिशत जनसंखाया का प्रतिनिधित्व सिर्फ एक मंत्री करता है। वाह, क्या क्रांति है।

प्रयाग पांडेय की रपट के मुताबिक मंडल और उत्‍तराखण्ड सरकार के बीच का यह समझौता फौरी तौर पर मंडल और उनकी बिरादरी और कांग्रेस के लिए बेशक फायदे का नजर आ रहा हो। लेकिन इससे तराई के भीतर पिछले पचास सालों से लटके भूमि सुधार के मामले और जमीनों से जुडी़ दूसरी बुनियादी समस्याओं का समाधान होने वाला नहीं है। विधायकी की महज एक अदद सीट के लिए हुआ यह समझौता इस नये राज्य की भावी सियासी दशा और दिशा और खासकर कांग्रेस के लिए काफी मंहगा साबित हो सकता है। आनन-फानन में लिये गये इस फैसले से उत्‍तराखण्ड की जमीनी हकीकत को लेकर पहाड़ के नेताओं की तदर्थ सोच अवश्य जगजाहिर हो गई है।

सरकार ने कहा है कि इस फैसले से 1950 से 1980 के बीच समूचे राज्य में गवर्नमेंट ग्रांट एक्ट के तहत कृषि जमीन का पट्टा पाए करीब 60 हजार से ज्यादा पट्टा धारकों को फायदा मिलेगा। सरकार के इस फैसले के अगले ही रोज 24 मई को एक कैबिनेट मंत्री सुरेन्द्र राकेश ने आसामी पट्टाधारियों को भी मालिकाना हक देने की मॉग उठा दी है। उन्होंने मुख्यमंत्री से मिलकर कहा है कि तात्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गॉधी के आदेश पर 1973 से 1976 के बीच नैनीताल, उद्यमसिंहनगर, देहरादून और हरिद्वार जिलों में करीब 17 हजार दलितों को दिये गए आसामी पट्टाधारियों को भी सरकार मालिकाना हक दे। उत्‍तराखण्ड के मौजूदा सियासी गणित को अपने हक में करने की मजबूरी में लिए गए राज्य सरकार के ताजा फैसले से इन दिनों तराई समेत पूरे उत्‍तराखण्ड में भूमि सुधार का मुद्दा फिर चर्चा में आ गया है। इस बहाने भविष्य में कुमाऊँ और खासकर तराई में भूमि सुधार कानूनों को अमल में लाने के मुद्दे के जोर पकड़ने के आसार नजर आने लगे है।

प्रयाग पांडेय की रपट के मुताबिक दरअसल अपनी समृद्ध जमीन और वनसंपदा की वजह से तराई का इलाका मुगल काल से ही लडाइयों का केन्द्र रहा है। ऐतिहासिक नजरिये से तराई-भावर गुप्त काल से कुमाऊँ राज्य का हिस्सा रहा। उन दिनों कुमाऊँ में कत्यूरी वंश का राज था। कत्यूरी कुमाऊँ का सबसे पुराना राजवंश है। कत्यूरी शासन काल में तराई का यह इलाका खूब फूला-फला। ग्यारहवीं ईसवी में तराई को लेकर मुस्लिम शासकों और कत्यूरों के बीच अनेक बार झड़पें भी हुई। अकबर के शासन काल के दौरान कुमाऊँ में चंद वंश के राजा रूप चंद का शासन था। तब तराई को नौलखिया माल और कुमाऊँ के राजा को नौलखिया राजा कहा जाता था। उन दिनों यहॉ के राजा को तराई से सालाना नौ लाख रुपये की आमदनी होती थी। चंद राजा ने तब तराई को सहजगीर (अब जसपुर), कोटा- (अब काशीपुर), मुडियया -(अब बाजपुर), गदरपुर भुक्सर -(अब रूद्रपुर), बक्शी -(अब नानकमत्‍ता) और चिंकी- (सुबड़ना और बेहडी़) सात परगनों में बॉटा था। चंद वंश के चौथे राजा त्रिमूल चंद ने 1626 से 1638 तक कुमाऊँ में राज किया। त्रिमूल चंद के राज में तराई बहुत समृद्ध थी। तराई की समृद्धि के मद्देनजर अनेक राजाओं ने तराई पर नजर गडा़नी शुरू कर दी, तराई को हाथ से निकलते देख त्रिमूल चंद के उत्‍तराधिकारी राजा बाज बहादुर चंद ने दिल्ली के मुगल सम्राट शाहजहॉ से समझौता कर लिया। बदले में कुमाऊँ की सेना ने काबुल और कंधार की लडा़ईयों में मुगलों का साथ दिया।औरंगजेब के शासन काल में 1678 ई. को कुमाऊँ के राजा बाज बहादुर चंद ने तराई में अपने प्रभुत्व का मुगल फरमान हासिल किया। 1744 से 1748 ई. के दौरान रूहेलखण्ड के रूहेलों ने कुमाऊँ पर दो बार आक्रमण किए। 1747 ई. में मुगल सम्राट ने फिर तराई पर कुमाऊँ के राजा का प्रभुत्व कबूल किया। 1814-1815 को सिंगौली की संधि के बाद 1815 में कुमाऊँ में ब्रिटिश कंपनी का आधिपत्य हो गया। 1864 में ब्रिटिश हुकूमत ने तराई और भावरी क्षेत्र के कुछ हिस्सों को मिलाकर यहॉ की करीब साढे़ चार लाख एकड़ जमीन को "तराई एण्ड भावर गवर्नमेंट इस्टेट" बना दिया। इसे "खाम इस्टेट" या "क्राउन लैण्ड" भी कहा जाता था। उस दौर में यहॉ करीब पौने पॉच सौ छोटे-बडे़ गॉव थे, इनमें से करीब पौने चार सौ गॉव इस्टेट के नियंत्रण में थे। ब्रिटिश सरकार अनेक स्थानों पर इस्टेट की जमीनों को खेती के लिए लीज पर भी देती थी। उस दौरान इस इलाके को बोलचाल में तराई-भावर इस्टेट कहा जाता था। 1891 में नैनीताल जिला बना। इस क्षेत्र को नैनीताल जिले के डिप्टी कमिश्नर के अधीन कर दिया गया।

प्रयाग पांडेय की रपट के मुताबिक तराई के ज्यादातर नगर कस्बे चंद राजाओं के शासन काल में बने। राजा रूद्र चंद ने रूद्रपुर नगर बसाया। रूद्र चंद के सामंत काशीनाथ अधिकारी ने काशीपुर और राजा बाजबहादुर चंद ने बाजपुर बसाया। ब्रिटिश हुकुमत के दिनों चंद वंश के उत्‍तराधिकारी को तराई -भावर जागीर में दे दी गई। उन्हें राजा साहब काशीपुर की पदवी से नवाजा गया। 1898 ई. में तराई में इंफल्युएंजा की बीमारी फैल गई। 1920 में यहॉ जबरदस्त हैजा फैला। इस दरम्यान यहॉ सुलताना डाकू का भी जबरदस्त खौफ था। इन सब वजहों से तराई में आबादी कम होती चली गई। अतीत में भी तराई कई बार बसी, और कई बार उजडी़। विश्व युद्ध के दौरान अनाज की कमी और पूर्वी पाकिस्तान से आये विस्थापितों को बसाने की मंशा से तराई-भावर के बहुत बडे़ भू-भाग के जंगलों को काटकर वहॉ बस्तियॉ बसाने को सिलसिला शुरू हुआ। दिसम्बर, 1948 को पंजाब के शरणार्थियों का पहला जत्था यहॉ पहुंचा। अगस्त 1949 में उन्हें भूमि आवंटन कि प्रक्रिया शुरू हुई।

तराई उत्‍तराखण्ड का सबसे ज्यादा मैदानी इलाका है। यह बेहद उपजाऊ क्षेत्र है। गन्ना, धान और गेहूं की उपज के मामले में तराई को देश के सबसे ज्यादा उपजाऊ वाले इलाकों में गिना जाता है। ब्रिटिश हुकुमत के दिनों से तराई के जंगलों में खेती करने का चलन तो था। पर तब तराई का ज्यादातर हिस्सा बेआबाद था। 1945 में यहॉ दूसरे विश्व युद्ध के सैनिकों को बसाने की योजना बनी। आजादी के बाद रक्षा मंत्रालय ने इस पर अमल करना था। 1946 में प्रदेश की पहली विधानसभा ने इस क्षेत्र में कुमाऊँ और गढ़वाल के लोगों को बसाने की योजना बनाई। पर यह कामयाब नहीं हो सकी। 1950 तक तराई की पूरी जमीन सरकार की थी। इसे खाम जमीन कहा जाता था।

प्रयाग पांडेय की रपट के मुताबिक 1947 में भारत पाक विभाजन के वक्त आए शरणार्थियों को तराई में बसाने की योजना बनी। योजना के तहत पहले-पहल 1952 में पंजाब से आए हरेक शरणार्थी परिवार को 12 एकड़ जमीन दी गई। फिर बंगाल से आए शरणार्थीयों को जमीनें दी गई। बाद के सालों में इस योजना में स्वतंत्रता संग्राम सेनानी भी शामिल किये गये। तराई में निजी व्यक्तियों और सहकारी समितियों को भी 99 साल की लीज पर जमीनें बॉटी गई। इस तरह दूसरे विश्व युद्ध के सैनिक, उत्‍तराखण्ड के वे लोग, जिनके पास जमीन नहीं थी। पंजाब एवं बंगाल से आये शरणार्थी, भूमिहीन स्वतंत्रा संग्राम सेनानी, युद्ध में अपंग या शहीद सैनिकों के परिवार और तराई के पुराने वाशिन्दे थारू-बुक्सा, अनुसूचित जनजाति और अनुसूचित जाति के लोगों को तराई की जमीन का असल हकदार बनाया गया। पर हकीकत में ऐसा नहीं हो सका। जमीन के आवंटन में बरती गई धांधलियों के चलते राजनीतिज्ञ, उद्योगपति, फिल्मी हस्तियॉ, पुराने नवाब, अफसर और सरकारी मुलाजिम तराई की जमीन के असली मालिक बन बैठे। रक्षा मंत्रालय के जरिये सैनिकों को बॉटी जाने वाली जमीनों का ज्यादातर हिस्सा सेना के चंद अफसरों ने हथिया लिया। पंजाब से आये शरणार्थियों को जमीन बॉटने का फायदा भी राजनीतिक पहुंच वाले प्रकाश सिंह बादल और सुरजीत सिंह बरनाला सरीखे चंद नेताओं ने उठाया। पहाड़ के गरीब लोगों के नाम पर कुछ बड़े नेताओं, अफसरों और सरकारी मशीनरी ने जमीने घेरी। कुछ लोगों ने बंगाली शरणार्थियों को मिली जमीनें खरीदी, तो कुछ ने थारू-बुक्सा जनजातियों की जमीनें और सरकारी जमीनों पर कब्जा कर अपना रकवा बढा़या। इस तरह चंद लोगों ने तराई में बेहिसाब उपजाऊ और बेशकिमती जमीनें हथिया ली।

भूमि सुधार आंदोलन मतुआ और चंडाल आंदोलन की देन है। किसान और आदिवासी विद्रोह से इसकी विरासत जुड़ती है। यह माकपाइयों का ​
​करिश्मा नहीं है, जैसा कि प्रचारित है। बल्कि कम्युनिस्ट पार्टियों के जमींदार वंशज नेता बंगाल से बाहर अन्यत्र इस कार्यक्रम को आजमाना ही नहीं चाहते ौर न इसके लिए उन्होंने देशव्यापी कोई आंदोलन चलाया। बंगाल में भूमिसुधार जो वाममोर्चा का कार्यक्रम बना, तेभागा और किसान आंदोलनों की विरासत को खारिज करके भूमि सुधार से इंकार असंभव था. इसलिए। बल्कि सच तो यह है कि केंद्र में सत्ता में शामिल होने पर भूमि सुधार के कार्यक्रम को बाकी देश में भी लागू करना पड़ेगा, इस वजह से ज्योति बसु कोप्रधानमंत्री बनने से रोका गया विचारधारा और अनुशासन के नाम पर।देश में भूमि सुधार एक अधूरा कार्य होने के कारण आज भी आदिवासियों और गरीबों को भूमि का अधिकार और प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण नहीं के बराबर है।कि औद्योगिकीकरण के नाम पर बड़े पैमाने पर भूमि अधिग्रहण की जा रही है। गरीब अपनी जमीन से विस्थापित हो रहे हैं।बंगाल के किसानों ने बेनामी और गैर मजरूआ जमीनों पर कब्जा करने का आंदोलन चलाया और वह आंदोलन काफी हद तक सफल रहा।मार्च 1969 से पहले ही बंगाल के दो लाख 38 हजार गरीब किसानों के बीच दो लाख 32 हजार एकड़ अतिरिक्त जमीन बांटी जा चुकी थी। प. बंगाल की वाम सरकार ने तो 1977 में भूमि सुधार की दिशा में ठोस कदम उठाया जो देश भर में चर्चित हुआ। करीब 16 लाख बटाइदारों को उनका कानूनी हक दिलाने के लिए जो कानून बना,उसने वाम मोर्चा को एक बड़ा वोट बैंक प्रदान कर दिया।क्योंकि वाम मोर्चा ने हर चुनाव के पहले उन बटाइदारों को इस बात की याद दिलाई की कि कांग्रेस यदि दुबारा सत्ता में आ गई तो उन्हें  जमीन से बेदखल होना पड़ेगा।वाम मोर्चा की सरकार के स्थायित्व का यह एक बड़ा कारण बताया जाता है। बटाईदार वाम मोर्चा के ठोस वोट बैंक हैं।हरे कृष्ण कोनार  ने  9 सितंबर 1969 को तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी को लिखे अपने पत्र में कहा था कि 'कारगर भूमि सुधार में असफलता ने हमारे देश में एक शोचनीय स्थिति पैदा कर दी है।नतीजतन ग्रामीण अर्थ व्यवस्था बुरी तरह टूट गई है।' उन्होंने लिखा था कि 'हदबंदी कानून में निर्मम होकर संशोधन करना होगा।छूट खत्म करनी होगी। प्रति परिवार हदबंदी लागू करनी होगी।भूमि के हस्तानांतरण पर कठोरता से रोक लगाई जाए।पुरानी बंदोबस्ती में गैर कानूनी बंदोबस्तियों को रद्द करने का अधिकार सरकार को दिया जाना चाहिए।जमींदार और जोतदार हदबंदी को अंगूठा दिखा रहे हैं।उन्होंने अतिरिक्त जमीन को गैर कानूनी तरीके से अपने पास ही रख लिया है। इस पर कार्रवाई होनी चाहिए।'इस तरह उन्होंने केंद्र सरकार को कई और सुझाव दिए।जब उन्होंने प्रधान मंत्री को पत्र लिखा था,तब वे बंगाल में मंत्री थे।


बंगाल का तेभागा आंदोलन फसल का दो–तिहाई हिस्सा उत्पीडि़त बटाईदार किसानों (बरगादारों) को दिलाने का आंदोलन था। यह बंगाल के 28 में से 15 जिलों में फैला, विशेषकर उत्तरी और तटवर्ती सुन्दरबन क्षेत्रों में। किसान सभा के आवाह्न पर लड़े गए इस आंदोलन में लगभग 50 लाख किसानों ने भाग लिया और इसे खेतिहर मजदूरों का भी व्यापक समर्थन प्राप्त हुआ।1946 वह वर्ष था जब भारत के लोगों के आंदोलन बड़े पैमाने पर उमड़ रहे थे। केन्द्रीय नौसेना हड़ताल समिति के आवाह्न पर फरवरी में बम्बई, कराची और मद्रास के नौसैनिकों की हड़ताल हुई। जब बम्बई के बन्दरगाह मजदूरों ने इसका समर्थन किया तो, बकौल नौसेना हड़ताल कमेटी, पहली बार सैनिकों और आम आदमियों का खून एक ही उद्देश्य के लिए सड़कों पर बहा। इस लड़ाई में 250 जानें गईं।मेदिनीपुर जिले में आज से लगभग साठ साल पहले एक आवाज उठी थी। उस आवाज ने पूरे देश को आलोड़ित किया था। वो आवाज थी - तेभागा की। तेभागा यानी खेतों में हुई फसल के चार हिस्से में से एक हिस्सा जमीन के मालिक और तीन हिस्सा खेती करने वाले को दिए जाने का आंदोलन। ये आंदोलन ये भी बताता है कि इतिहास सिर्फ राजमहलों और संसद में नहीं लिखा जाता। नंदीग्राम उस आंदोलन की जमीन का हिस्सा है।तेभागा आंदोलन का नेतृत्व अविभाजित सीपीआई ने किया था। सीपीआई का बड़ा हिस्सा पश्चिम बंगाल में अब सीपीएम के नाम से जाना जाता है। ज्योति बसु भी उस समय सीपीआई में थे। अब वो सीपीएम में हैं। उस समय वो नंदीग्राम के किसानों के साथ थे और लाल सलाम बोलते थे। अब वो जय सालेम बोलते हैँ। नंदीग्राम में औरतों से अत्याचार तब जमींदारों ने किया था, आज सीपीएम के कैडर कर रहे हैं।

ऐसे वर्ष में सितम्बर 1946 में किसान सभा ने तेभागा चाई का आवाह्न किया। यह अगस्त 1946 में कलकत्ता में हुए साम्प्रदायिक कत्लेआम के तुरन्त बाद किया गया जिसके बाद अक्तूबर में पूर्वी जिले नोवाखौली में भी साम्प्रदायिक दंगे हुए। आन्दोलन के मुख्य इलाके की किसान जनता हिन्दू और मुसलमान दोनों समुदायों की थी। आदिवासी किसानों ने भी इसमें भाग लिया। यह आन्दोलन अंग्रेजी शासन के दौरान शुरू हुआ जब मुस्लिम लीग का सुहरावर्दी मंत्रिमंडल राज कर रहा था। जब गांधी जी हिन्दू–मुस्लिम मैत्री और प्रार्थना सभाओं का नारा लेकर सामन्तों के साथ नोवाखौली के ग्रामीण अंचल में दौरा कर रहे थे तब इस वर्ग संघर्ष ने दोनों सम्प्रदायों के दसियों लाख किसानों को प्रेरित करके अपने पीछे समेट लिया। इस संघर्ष ने उन सभी जमींदारों को निशाना बनाया जो साम्प्रदायिक घृणा फैलाने में सक्रिय रहे। इस संघर्ष ने तमाम प्रतिकूल दुष्प्रचार तथा साम्प्रदायिक उकसावे का मुकाबला करते हुए वर्गीय आधार पर जनता की वास्तविक एकता स्थापित की और साम्प्रदायिक शक्तियों को हतोत्साहित कर दिया। किसानों ने तीव्र पुलिस दमन और अत्याचार का मुकाबला करते हुए नवम्बर 1946 से फरवरी 1947 के बीच फसल के दो–तिहाई हिस्से पर अपने कब्जे को बरकरार रखा।

इससे पहले 1940 में भू–राजस्व आयोग ने इस मांग के पक्ष में संस्तुति दे दी थी। 1946 में यह आन्दोलन निज खलने धान तोले (अपने खलिहान में धान एकत्रा करो) के नारे के साथ शुरू हुआ। गांव स्तर की छोटी बैठकें की गईं, पर्चे बांटे गये, रैलियां निकाली गय। पहली भिड़न्त दिनाजपुर जिले के अटवारी थाने में हुई। इससे पहले भी इस केन्द्र पर अधियारों ने इस तरह के संघर्ष किये थे। एक बैठक के बाद सुबह–सुबह किसान सभा के सदस्य एक बटाईदार की फसल काटने चले गये। पुलिस ने आकर एक नेता को गिरतार कर लिया पर इससे किसान निराश नहीं हुए। अगले दिन कटाई जारी रही। जब पुलिस ने आकर सभी किसानों पर हमला बोला, एक नौजवान विधवा के नेतृत्व में महिला किसानों ने लाठियां लेकर पुलिस को खदेड़ दिया। इसकी खबर चारों ओर फैली और कुछ दिन के लिए आन्दोलन थमा रहा।

जिले के नेताओं ने बैठक करके आन्दोलन जारी रखने का फैसला किया। गिरतारी से बचने के लिए वे सभी अपने इलाके में भूमिगत हो गये। वे सूर्यास्त के बाद ही गांव–गांव जाकर देर रात बैठक किया करते थे। उनके निर्देश पर सभी किसान लाठियां लेकर चलने लगे और यह आम प्रचलन बन गया। आवश्यकता पड़ने पर इन्कलाब का नारा लगाकर आस–पास के गांवों से सहयोग जुटाया जाने लगा। लाठी और लाल झण्डा लिये किसान बड़ी तादाद में एकत्रा होने लगे। जमींदारों (जोतदारों)के लठैतों के मुकाबले में किसानों के 'लठैत' संगठित होने लगे। जल्द ही आन्दोलन जिले के तीस में से बाइस थानों में फैल गया। आन्दोलन का सबसे ज्यादा असर ठाकुरगांव तहसील में रहा।

जैसे–जैसे आन्दोलन फैलता गया पार्टी उभरते हुए किसान नेताओं के माध्यम से इसका दिशा–निर्देशन करती रही। नई कतारें भूमिगत नेताओं के लिए भूमिगत अड्डे तय करती थीं, संदेश वाहक का काम करती थीं, आम किसानों की बैठकें कराया करती थीं, आपस में संपर्क रखा करती थीं और वरिष्ठ नेताओं की भूमिगत बैठकें आयोजित किया करती थीं। इनमें ऐसे भी उदाहरण थे जहां पति–पत्नी दोनों अपनी सारी सम्पत्ति पार्टी के नाम करके पूर्णकालिक कार्यकर्ता बन गये। ऐसे नेता थे जिन्होंने बहादुरी से तमाम खतरों का सामना करते हुए कठिनाईयों को पार करके आन्दोलन को आगे बढ़ाया। कई महिला कार्यकर्त्ताओ ने पार्टी का काम करना शुरू कर साथ–साथ पढ़ना–लिखना भी सीखा। ऐसे बहुत से उदाहरण थे जहां पुरुष संकोच कर जाते थे पर महिलायें पहलकदमी लेती थीं और पुरुष पीछे–पीछे भाग लेते थे। ये सभी इस आन्दोलन के सम्मानित उदाहरण बनते चले गये और नेताओं की कुर्बानी ने आम जनता को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया। इसी संघर्ष में पचगढ़ में का0 चारू मजूमदार ने भी किसानों का नेतृत्व करने में अपना पहला अनुभव ग्रहण किया।

इस आन्दोलन के दौरान बटाई पर किसान (बरगादार) सैकड़ों की संख्या में जाकर फसल काटकर अपने खलिहान में ले आया करते थे। 4 जनवरी, 1947 को दिनाजपुर जिले के चिरीरबन्दर क्षेत्रा के तालपुकुर गांव के एक किसान संघर्ष पर पुलिस ने गोलियां चलाई जिसमें एक भूमिहीन किसान समीरूद्दीन एवं एक संथाल शिवराम मारे गये। पुलिस भारी संख्या में नेताओं को गिरतार करने आयी तो चार सौ किसानों ने एकत्रा होकर इस पुलिस छापे का मुकाबला किया। उद्वेलित आदिवासियों ने एक पुलिस वाले को पकड़कर अपने तीर से उसके शरीर को भेद दिया जिससे उसकी मृत्यु हो गयी। जिन नेताओं को पुलिस पकड़ने आयी थी वे बच गये। जनता ने पूरे इलाके में राहत समितियां बनाकर जरूरतमन्द क्षेत्रों में सहयोग पहुंचाया। इसी घटना को चिरीरबन्दर घटना कहते हैं। उसी के बाद सरकार ने बरगादार कानून प्रस्तावित करके प्रतिरोध को थामने का प्रयास किया। परन्तु, यह कानून पारित नहीं किया जा सका।6 जनवरी, 1947 को समस्या का समाधान ढूंढ़ने के लिये जिलाधिकारी ने खुली बैठक आहूत की। एक बड़ा पंडाल लगाया गया और सभी जमींदार ताकत के साथ उपस्थित हुए। इस बैठक में किसान नेताओं को भी बुलाया गया था। चारा ओर से हजारों की संख्या में किसान एकत्रित हुए पर वे इसलिए पंडाल में नहीं गये क्योंकि इस बात की कोई उम्मीद नहीं थी कि जमींदार ''तेभागा'' की मांग मान लेंगे। किसानों ने अपनी अलग बैठक करके ''तेभागा'' की मांग पर जोर दिया। जिलाधिकारी दलबल के साथ इस बैठक में आ पहुँचे। किसानों ने अपने भूमिगत नेताओं के नेतृत्व में एक बड़ा जुलूस निकाला। पुलिस कोई गिरतारी नहीं कर पायी। जमींदार भी इस प्रदर्शन को देखने के लिए आ गये और लगाया गया पंडाल खाली पड़ा रह गया।

जनवरी के दूसरे हफ़्ते में रंगपुर में भिड़न्त हुई। कुछ मुसलमान जमींदारों ने हथियारबंद गुण्डों के साथ कटी हुई फसल ले जाने के लिए एक बरगादार के घर पर हमला किया। दोनों समुदायों के किसानों ने मिलकर इसका मुकाबला किया पर इसमें एक हिन्दू किसान मारा गया। खबर आग की तरह फैल गई और तीन हजार किसान वहां एकत्रा हो गये। साम्प्रदायिक तनाव के माहौल को देखते हुए किसान सभा ने जमींदार के घर पर हमला करने से किसानों को रोक दिया। इलाके व बाजार में रैलियां निकाली गयीं और जमींदारों का सफल बहिष्कार करके उन्हें गांव छोड़ने पर मजबूर कर दिया। आन्दोलन और फैल गया।

मैमनसिंह जिले के हजांग आदिवासियों ने भी टंका लगान घटाने और उसे रुपये के रूप में बदलने के लिए संघर्ष शुरू किया। यह लगान फसल पर ली जाती थी और पैदावार कमजोर होने पर भी देनी पड़ती थी। इसकी कीमत इन आदिवासी किसानों को चुकानी होती थी। बटाई पर खेत लेने का अधिकार भी सुरक्षित नहीं था। वनों की जिस जमीन को आदिवासी जोतते थे वह जमींदारों को दे दी गई थी और वे इसके 'मालिक' बन गये थे। इस इलाके में आदिवासियों को पुलिस से मोर्चा लेना पड़ा। बहेरटोली गांव में पुलिस ने नेताओं को गिरतार करने के लिए छापा मारा। यहां दो महिलाओं का बलात्कार किया और एक को खींचकर ले गये। हजांगों ने भी उन्हें अपने तीर कमानों से खदेड़ा। इस संघर्ष में पुलिस ने दो नेताओं को मार दिया। पर अन्त में हजांगों के प्रतिरोध के सामने उन्हें पीछे हटना पड़ा। इस हमले में हजांगों ने भी दो पुलिसवालों को मार गिराया और उनकी राइफलें छीन लीं। बाद में ईस्टर्न फ़्रन्टीयर राइफल्स की सेवा लेकर आदिवासियों पर तीव्र दमन किया गया।

मिदनापुर में भी पुलिस के साथ संघर्ष हुआ और पुलिस ने विरोध कर रहे किसानों पर गोलियां चलायीं। महिला व पुरुष मिलकर अपने विरोध प्रदर्शनों को बढ़ाते गये। जमींदारों ने हर जगह धान की चोरी का केस किसानों के विरुद्ध दर्ज कराए।

दिनाजपुर और दुआर्स में 1830 के बाद कछार की बहुत सारी जमीन पर चाय बागान लगाकार उसे खेती योग्य बनाया गया था और इस काम के लिए वहां पर संथालों व राजवंशियों को बसाया गया था। कुछ सालों तक बिना लगान के खेती कराने के बाद, वहां पर पैदावार पर कर लगाकर उसका मूल्यांकन किया गया और फिर जमीन पर लगान तय कर दी गयी। इस प्रक्रिया में इन खेतों पर काम कर रहे बटाईदारों को बेदखल करके ज्यादा लगान देने वाले किसानों के साथ बन्दोबस्त किया गया था। जिन बरगादारों ने इस इलाके में विद्रोह किया वे वही लोग थे जिन्हें जमींदारों और सूदखारों ने बेदखल कर दिया था।

शुरुआती दौर के बाद प्रस्तावित कानून के जोश में और प्रारम्भिक विजय के उत्साह में कई जगहों पर आन्दोलन 'तेभागा' से आगे बढ़ कर 'खोलान भांगा', यानी, जमींदारों के भंडारों से धान निकाल लाओ की ओर आगे बढ़ गया। जमींदारों की निजी सम्पत्ति पर इस तरह का हमला करने की राजनीतिक संगठनात्मक तैयारी नहीं थी और इससे आन्दोलन को धक्का लगा। यही नहीं, जो हमले किये गये वे हर जगह जोतदारों के विरुद्ध नहीं थे और विशेषकर असंगठित क्षेत्रों में धनी किसानों को भी निशाना बनाया गया। इससे सामाजिक तनाव व राजनीतिक दिक्कतें बढ़ गयीं। इसने जोतदारों को भी, जो गांव छोड़कर भाग चुके थे, सक्रिय होने का अवसर दे दिया। उन्होंने खुद धान एकत्रा करने के प्रयास बन्द कर दिये। उन्होंने जोतदार समितियां बनाईं, पैसा एकत्रा किया, मुस्लिम लीग और कांगे्रस पर दबाव बनाने के लिए तार भेजे। सरकार उनकी मांग के सामने झुकी और भारी संख्या में पुलिस भेजी गयी। धान की लूट के कई केस दर्ज किये गये।

बालुरघाट तहसील में जनवरी के अन्त में किसानों ने धान की कटाई करके अपने खलिहान में रखना शुरू किया। रानीसंखेल में 2 फरवरी, 1947 को एक महिला कार्यकत्र्ता के नेतृत्व में किसानों ने नेताओं की गिरतारी करने आए दरोगा की बन्दूक छीन ली। उसे तो बाद में छोड़ दिया गया पर पुलिस ने भारी संख्या में हमला बोला और संगठनात्मक तैयारी के अभाव में इसका प्रतिरोध नहीं किया जा सका। पुलिस ने भयंकर आतंक मचाया।

इसी दौर में खानपुर की घटना हुई। 20 फरवरी को सुबह–सुबह दिनाजपुर जिले के खानपुर गांव में एक पुलिस दल नेताओं को गिरतार करने आया तो मजदूरों व किसानों ने इसका जमकर विरोध किया। पुलिस ने बेरहमी से गोलियां दागीं और 22 किसान शहीद हो गए। इसी को खानपुर घटना कहते ह।

इस दौर में आन्दोलन उतार–चढ़ाव में चला। कुछ जगह बरगादार डर के मारे धान काटने गये ही नहीं। कुछ जगह उन्होंने पूरी फसल काट ली और कुछ जगह समर्पण कर दिया।

भाकपा के कुछ नेताओं ने 'जोतने वाले को जमीन' के नारे के आधार पर आन्दोलन को आगे बढ़ाने का प्रस्ताव रखा पर पुलिस और जमींदारों के हमले का प्रतिरोध करने के फौरी सवाल पर कोई हल नहीं सुझाया गया। आन्दोलन भटकने लगा। जनगोलबंदी जारी रही और 25 फरवरी को हजारों की संख्या में किसान ठाकुरगांव में एकत्रा हुए। इस सभा को गैरकानूनी घोषित किया गया और वापस जाते हुए किसानों पर भी गोलियां दाग कर 5 किसानों को मार दिया गया।

परिस्थिति का मुकाबला करने के लिए सही रणनैतिक समझदारी और उपयुक्त नई कार्यनीति की आवश्यकता थी। पर इसका मूल्यांकन नहीं किया गया और नये प्रस्तावित कानून पर आशा टिकी रही। भाकपा आगे बढ़ती हुई जुझारु शक्तियों को सही दिशा देने में नाकामयाब रही। वर्ग संघर्ष को जारी रखने के काम पर अपनी एकाग्रता को बनाए रखने में वह नाकामयाब रही।

दूसरी ओर भारतीय राजसत्ता दो महत्वपूर्ण राजनैतिक सवालों से घिरे होने के बावजूद, एक अंगे्रजों से स्थानीय शासकों के हाथों सत्ता का हस्तान्तरण और दूसरा साम्प्रदायिक दंगे और देश का बंटवारा, उसकी राज्य मशीनरी ने वर्ग युद्ध को दबाने पर अपना यान केन्द्रित रखा।

'स्वतंत्र' भारत की शक्तियां बटाईदार किसानों की आंशिक मांगों का समर्थन नहीं कर पायीं। उन्होंने आन्दोलन को 'गैरकानूनी अराजकतावाद' और ' अधिकार का अनादर' करार दिया। अपने दमन के औचित्य को समझाने के लिए किसान सभा की 'जनअदालतों', 'एक्शन कमेटियां' आदि का बढ़ा–चढ़ा कर हवाला दिया गया। किसानों के विरुद्ध कई केस दर्ज किये गये और उन्हें सजाएं दी गयीं। मुस्लिम लीग मुख्यमंत्री सुहरावर्दी ने बयान दिया कि ''हम आजादी के कगार पर ह। हमें संवैधानिक रास्ते से आजादी की ओर बढ़ना चाहिए ताकि हम इसके फलों का भोग कर सकें।''

जैसा बताया गया कि सरकार ने बरगादार कानून प्रस्तावित किया था पर उसे पारित नहीं किया गया। 1950 के दशक में कई साल बाद यह कानून बना और इसमें लगभग वे सभी प्रावाधान थे जो प्रस्तावित कानून में लिखे थे। इसमें यह प्रावाधान था कि जब जोतदार खाद, जानवर व अन्य औजार मुहैया करायेगा तो बरगादार को आधि फसल मिलेगी। ऐसा नहीं होने पर उसे फसल का दो–तिहाई हिस्सा मिलेगा। अगर जोतदार बीज देता है तो यह उसे अलग से वापस किया जाएगा। कानून का नकारात्मक पक्ष यह था कि जमीन के 'दुरूपयोग' की स्थिति में या अपने इस्तेमाल के लिए जोतदार को यह अधिकार था कि वह बटाईदार (बरगादार) को बेदखल कर सके।

इस आन्दोलन में 140 से ज्यादा किसानों ने अपनी जान की कुर्बानी दी।

इस आन्दोलन की विफलता के कारणों में सबसे पहला तो यही है कि तत्कालिक राजसत्ता और बड़े जमींदारों, बड़े दलाल पूंजीपतियों के हाथों सत्ता के हस्तांतरण के वर्ग चरित्र को नहीं समझा गया। उनसे गलत उम्मीद की गयी कि वे कानून पारित करके शांतिपूर्वक ढंग से मांगों का समााान कर देंगे। दूसरी कमी थी कि इस आंदोलन का जनाधार और समर्थन फसल के दो–तिहाई हिस्से के लिए था और संघर्ष के फौरी कदम इसी मांग तक सीमित रखे जाने चाहिये थे। स्वत:स्फूर्त ढंग से जमींदारों के गोदामों पर हमलों को सख्ती से रोका जाना चाहिये था। यही नहीं, बड़े जमींदारों के अलगाव को बनाए रखने के लिए केवल उन्ही पर हमला बोला जाना चाहिये था और किसान तबकों पर हमले रोकने चाहिये थे। फसल के दो–तिहाई हिस्से की मांग पर जन गोलबन्दी जारी रखनी चाहिये थी ताकि एक ओर जमींदारों के गोदामों पर हमले रोके जा सकें और दूसरी ओर सरकार पर उम्मीद रखकर आंदोलन कमजोर न हो। तीसरी आवश्यकता थी कि ग्रामीण क्षेत्रों में अद्र्धसामंती संबंधो को देखते हुए और पार्टी ढांचे की कमजोरी के मद्देनजर संघर्ष के क्षेत्रों में पार्टी गठन और सामंतों व पुलिस हमले के  की ठोस योजना बनाई जानी चाहिये थी।

No comments:

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...

PalahBiswas On Unique Identity No1.mpg

Tweeter

Blog Archive

Welcome Friends

Election 2008

MoneyControl Watch List

Google Finance Market Summary

Einstein Quote of the Day

Phone Arena

Computor

News Reel

Cricket

CNN

Google News

Al Jazeera

BBC

France 24

Market News

NASA

National Geographic

Wild Life

NBC

Sky TV