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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Sunday, June 24, 2012

सिंगुरः जल, जंगल, जमीन हक

http://www.bahujanindia.in/index.php?option=com_content&view=article&id=6516:2012-06-24-13-53-45&catid=123:2011-11-29-18-00-58&Itemid=528

सिंगुरः जल, जंगल, जमीन हक

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----------पलाश विश्वास

२००६ से अपनी जनीन की वापसी की लड़ाई लड़ रहे सिंगुर के बेदखल किसानों और खेतिहर मजदूरों को नया कानून बनाकर भी राहत नहीं दे सकी मां माटी मानुष की सरकार। ३४ साल के वाम शासन के अवसान के बाद परिवर्तन का साल बीतते न बीतते सत्ता में रहते हुए फिर आंदोलन की राह पर हैं मुख्यमंत्री ममता बनर्जी क्योंकि कोलकाता हाईकोर्ट ने सिंगुर के अनिच्छुक किसानों को जमीन वापस दिलाने के लिए नई सरकार के सिंगर कानून को अवैध और असंवैधानिक करार दिया है। सिंगुर में जमीन वापसी के सरकार के फैसले पर अदालत की रोक से किसानों में एक बार फिर हताशा छा गई है। राज्य सरकार इसके खिलाफ दो महीने के भीतर सुप्रीम कोर्ट में अपील कर सकती है। सिंगुर कानून के तहत राज्य सरकार ने टाटा मोटर्स के कब्जे से सिंगुर की सारी जमीन अधिग्रहित करने का फरमान जारी किया था, जिस पर सुप्रीम कोर्ट से टाटा ने स्थगनादेश हासिल कर लिया। सिंगुर के
किसानों का धीरज भी जवाब देने लगा है। मां माटी मानुष की सरकार का जनाधार खिसकने का भारी खतरा पैदा हो गया है। लिहाजा अपना प्रबल जन समर्थन को अपने हक में बनाये रखने और परिवर्तनपंथी ताकतों को एकजुट बनाये रखने के लिए दीदी के सामने आंदोलन के सिवाय कोई रास्ता नहीं है।बहरहाल टाटा ने जिस नैनो कार को बनाने के लिए पश्चिम बंगाल में हल्दिया जिले के सिंगुर की जमीन राज्य सरकार से पट्टे पर ली थी, वह कार अब गुजरात के सानंद में बनकर सड़कों पर दौड़ती दिख रही है।किसानों को उनकी जमीन वापस मिल सके, इसके लिए सिंगुर भूमि सुधार अधिनियम तैयार किया। लेकिन न जाने किस उत्साह में इस अधिनियम पर राष्ट्रपति की सहमति हासिल करना किसी को भी याद नहीं रहा। इस कानून को अब कोलकाता उच्च न्यायालय के खंडपीठ ने न सिर्फ निरस्त कर दिया है, बल्कि उसे असांविधानिक भी कहा है। इसके निरस्त होने के पीछे राष्ट्रपति की सहमति न लेना भी एक कारण है, लेकिन यह अकेला कारण नहीं है।अदालत का कहना है कि इस कानून और भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 1894 में अंतर्विरोध है। अदालत ने यह भी कहा है कि सरकार के पास इस पुराने कानून को बदलने या उसमें संशोधन करने का कोई अधिकार नहीं है। मुमकिन है कि इस फैसले का टाटा के लिए ज्यादा महत्व न हो। नैतिक जीत के तर्क के अलावा अब यह उम्मीद नहीं है कि टाटा मोटर्स नैनो बनाने के लिए सिंगुर लौटेगी। लेकिन यह फैसला ममता बनर्जी के लिए बड़ी समस्या खड़ी करने वाला है।

सिंगुर, नंदीग्राम, लालगढ़ जनअभ्युत्थान और परिवर्तन अभियान की निरिवावाद नेता के लिए आंदोलन कोई नई चीज नहीं है। भारतीय राजनीति में सिंगुर मसले का महत्व सिर्फ इतना ही नहीं है कि इसने पश्चिम बंगाल से वाम मोर्चे को उखाड़ फेंका और ममता बनर्जी को सत्ता में पहुंचा दिया। सिंगुर मसले ने निजी उद्योगों के लिए सरकार द्वारा कृषि योग्य जमीन के अधिग्रहण पर सबसे पहले सवाल खड़ा किया, जो राष्ट्रीय बहस का मसला बना। सिंगुर के बाद ही यह सवाल उठा कि निजी कंपनियों के लिए भूमि अधिग्रहण में सरकार बिचौलिया की भूमिका क्यों निभाए? साथ ही यह भी कि हर भूमि अधिग्रहण के बाद किसान ही घाटे में क्यों रहते हैं? पर विडंबना यह है कि दीदी अब विरोधी नेत्री नहीं हैं और न सड़क पर हैं। अब वे कैसा आंदोलन और किसके खिलाफ आंदोलन  करेंगी?ही राष्ट्रपति चुनाव के मामले में उन्हें न सिर्फ कांग्रेस के हाथों राजनीतिक मात मिली है, बल्कि वह इस पूरी राजनीति में अलग-थलग भी पड़ गईं। और अब उन्हें उस मसले पर कानूनी मात मिली है, जिससे उन्होंने राज्य की वामपंथी सरकार को हिलाने का अभियान शुरू किया था। ममता बनर्जी सरकार की यह शिकस्त यह तो बताती ही है कि लोकप्रियता की राजनीति में किसी मसले पर हो-हल्ला करना बहुत आसान होता है, लेकिन हकीकत में उसे सुलझाना एक जटिल प्रक्रिया होती है।वैसे वाममोर्चा ने सत्ता में आने के बाद तुरंत एक जनांदोलन चलाया था, जिसे भूमि सुधार कहा जाता है।जो बंगाल और पूर्वी भारत में  १९४७ के सत्तेता हस्भातांतरण से पहले से जारी  जमींदार जोतदार विरोधी तेभागा आंदोलन के कार्यक्रम को असली जामा पहुंचाने का सरकारी आयोजन था। पर दीदी के आंदोलन में किसानों को जमीन वापस दिलाने या भूमि अधिग्रहण का उग्र विरोध होने के बावजूद जल, जंगल और जमीन के मुद्दे पर सोच और कार्यक्रम, या नीति का सिरे से अभाव रहा है। उनका आंदोलन और राजनीति आवेगमय अतिसंवेदन भावनाओं का खेल है, जिससे जल, जंगल और जमीन के मुद्दे हल नहीं होते। ठीक वैसे ही जैसे अदालती फैसले हमेशा सत्तावर्ग के हक में होते हैं या फिर न्याय इतना विलंबित हो जाता है कि विलंबित राग का यह अलाप सदैव सीमांत और बहिष्कृत समुदायों के लिए वसंत विलाप बन जाता है।

गनीमत है कि दीदी अब फेसबुक पर है क्योंकि जिस मीडिया के दम पर आज तलक उनकी राजनीति और भावनाओं का खेल आज राइटर्स के मुकाम हासल करने को कामयाब है और हिलेरिया स्पर्श से अहिल्या उत्कर्ष पर है, उसके लिए दीदी के सरोकार और जनाधार से ज्यादा बाजार की प्राथमिकताएं ज्यादा जरूरी है। मीडिया का करिश्मा भी यह कि बाजार की प्रथमिकताएं अब लोक प्राथमिकताएं हैं। इस प्रकरण में हस्तक्षेप के लिए सूचनातंत्र में सीधे हस्तक्षेप की दरकार है और सोशल मीडिया के इस वैकल्पिक दरवाजे पर उनका दस्तक स्वागतयोग्य है, निःसंदेह। परन्तु यह भी सोशल मीडिया के व्याकरण से बाहर खड़े होकर सड़क की राजनीति की तर्ज पर एक कलाबाजी में तब्दील होने लगा है। दीदी के वाल पर सोच कम , सरोकार ज्यादा हैं। विमर्श है नहीं, एकतरफा उद्दात्त आवाहन है, भावनाओं का काव्यिक उन्मेष है। बस, और कुछ नहीं। तो इससे क्या कि भावनाओं का समुंदर है और जनसमुद्र को छूते रहने का उल्लास है! यहां भूमि सुधार जैसे मुद्दे और आंदोलन की सोच कहीं है ही नहीं। दरअसल फेसबुक वाल ही दीदी का आधिकारिक नीति दर्पण है और वे न अन्यत्र न अननंतर कुछ बोल लिख रही हैं कि उनका दिलोदिमाग टटोलने का मौका मिलें।दरअसल कोलकाता हाईकोर्ट के फैसले से न तो सरकार की हार हुई है और न टाटा की जीत। यह तदर्थ यथास्थिति वाद है, जो सिंगुर के भूगोल और इतिहास के आर पार जल जंगल जमीन से बेदखल समस्त जनसमूह की पूर्व नियति है। देश के कानून बाजार और कारपोरेट के हक में हों और संवैधानिक प्रावधानों तक का खुला उल्लंघन हो तो उसी संविधान का हवाला देते हुए देश के कानून को सर्वोपरि बताकार किसानों को जमीन वापसी के प्रावधान को असंवैधानिक, गैरकानूनी करार देने का कानूनी रास्ता यकीनन भूमि सुधार का रास्ता नहीं है।

जिस भूमि अधिग्रहण कानून,  १८९४ के हवाले से यह फैसला आया, दरअसल उसको बदलने के लिए जो भूमि अधिग्रहण संशोधन कानून का प्रस्ताव है और जो ममता दीदी के विरोध के कारण ही विलंबित है, उसमें भी भूमि अधिग्रहण के सार्वजनिक हित, यानी कारपोरेट बिल्डर प्रोमोटर माफिया हित प्रमुख हैं। सिर्फ भूमि अधिग्रहण ही क्यों, वन अधिनियम,खनन अधिनियम, पर्यावरण अधिनियम, समुद्रतट संशोधन अधिनियम, नागरिकता कानून, विशेष आर्थिक क्षेत्र कानून, प्रकृतिक संसाधन कानून और सारे संबंधित कानून सिंगुर के किसानों के विरुद्ध हैं।

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने शुक्रवार को कहा कि उनकी सरकार सिंगूर के किसानों के हित के लिए वचनबद्ध है और आशा है कि किसानों की जीत होगी। बनर्जी की टिप्पणी ऐसे समय में आई है, जब कलकत्ता उच्च न्यायालय ने सिंगूर भूमि पुनर्वास एवं विकास अधिनियम-2011 को असंवैधानिक और अमान्य करार दे दिया है। इस अधिनियम के जरिए तृणमूल कांग्रेस, टाटा मोटर्स को दिया गया भूमि का पट्टा रद्द कर जमीन किसानों को लौटाना चाहती थी और उन्हें बेहतर मुआवजा व पुनर्वास पैकेज देना चाहती थी।बनर्जी ने राज्य विधानसभा में कहा, "मैं न्यायालय के फैसले पर टिप्पणी नहीं करना चाहती। लेकिन हम सिंगूर के किसानों के हितों के प्रति वचनबद्ध हैं और उनके साथ लगातार खड़ा रहेंगे। मुझे भरोसा है कि अंतत: किसानों की जीत होगी।" न्यायमूर्ति पिनाकी चंद्र घोष और न्यायमूर्ति मृणाल कांति चौधरी की खण्डपीठ ने सिंगूर भूमि पुनर्वास एवं विकास अधिनियम-2011 को अवैध घोषित करते हुए कहा कि सिंगूर अधिनियम में मुआवजे की धाराएं भूमि अधिग्रहण अधिनियम-1894 से मेल नहीं खातीं।

राज्य सरकार अनिच्छुक किसानों को भूमि देने के लिए कानूनी लड़ाई के साथ-साथ आंदोलन भी जारी रखेगी। यह प्रस्ताव शनिवार को टाउन हाल में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के नेतृत्व में पारित हुआ। बैठक में तय किया गया कि किसानों, खेतिहर मजदूरों व वर्गादार किसानों के हितों की रक्षा की जाएगी। इस सिलसिले में दो सदस्यीय कमेटी का गठन किया गया है। दस दिन के अंदर फिर इस सिलसिले में बैठक की जाएगी। बैठक के बाद ममता ने फेसबुक पर उनका समर्थन करने वालों का शुक्रिया अदा करते हुए कहा कि मौजूदा परिस्थिति में आपका समर्थन हमारे लिए प्रेरणा का बड़ा स्रोत है। सिंगुर आंदोलन इतिहास में एक बड़ा टर्निंग प्वाइंट है। इसके लिए मैंने 26 दिनों तक भूख हड़ताल की थी। इस मसले ने देश में गरीब किसानों की जमीन अधिग्रहित करने को लेकर एक गंभीर बहस शुरू की थी। शनिवार की बैठक में भाग लेने वाले कृषि जमीं जीवन जीविका रक्षा कमेटी के नेता प्रदीप बनर्जी ने कहा कि किसानों के हितों की रक्षा के लिए आंदोलन किया जायेगा। पहले से आंदोलन में शामिल लोगों के अलावा इसमें नये लोगों को भी जोड़ा जायेगा। बैठक करीब दो घंटे तक चली, जिसमें नेता, बुद्धिजीवी, लेखक, अध्यापकों आदि को लेकर सुश्री बनर्जी के नेतृत्व में सिंगुर आंदोलन के भविष्य व कार्य सूची पर विस्तृत-विचार विमर्श किया गया। दी। इस बैठक को गैर राजनीतिक बैठक बताया गया है लेकिन उसमें सभी वर्ग के लोग शामिल थे। श्री बनर्जी ने कहा कि जरूरत पड़ी तो सिंगुर आंदोलन में शामिल होने ममता बनर्जी भी जायेंगी। सिंगुर में सभा आदि करने की योजना बनायी गयी है।

श्रम मंत्री पुर्णेदु बसु ने कहा कि दो सदस्यीय कमेटी में वह नहीं शामिल हैं क्योंकि वह अब मंत्री भी हैं लेकिन जरूरत पड़ने पर आंदोलन में हिस्सा लेंगे। विभाष चक्रवर्ती ने कहा कि सिंगुर की भूमि अनिच्छुक कृषकों को दिलाने के लिए अब दो रास्ते बचे हैं। पहला यह कि हाईकोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जाय और दूसरा यह कि फिर आंदोलन किया जाय। उन्होंने कहा कि वर्ष 2006 से चल रहे आंदोलन को अब तेज करने का समय आ गया है। बैठक में कृषि मंत्री रवींद्रनाथ भंट्टाचार्य, उद्योग मंत्री पार्थ चटर्जी, उच्च शिक्षा मंत्री ब्रात्य बसु, मेयर शोभन चंट्टोपाध्याय, रेल मंत्री मुकुल राय, सांसद कुणाल घोष, सांसद डेरेक ओब्रायन, शिशिर अधिकारी, कृषि बचाओ कमेटी के नेता व आईएनटीटीयूसी नेता प्रदीप बनर्जी, सुब्रत बक्शी, पीडीएस नेता समीर पुततुंडू, एसयूसीआई नेता सोमेन बसु, कृषि रक्षा कमेटी के नेता बेचाराम मन्ना, जेडीयू नेता अमिताभ दत्त, जमायेत उलेमा हिंद के सिद्दीकुल्ला चौधरी, वर्कर्स पार्टी के सुखेंदु भंट्टाचार्य, बुद्धिजीवियों में जय गोस्वामी, विभाष चक्रवर्ती, पेंटर शुभो प्रसन्ना, अध्यापक सुजय बसु, अशोकेंदु सेनगुप्ता आदि ने हिस्सा लिया। इस बैठक के माध्यम से सिंगुर के लोगों को संदेश देने की कोशिश की गयी है कि सरकार उनके साथ हैं। उन्ह निराश होने की जरूरत नहीं है। आंदोलन का ऐलान भी इसी का हिस्सा है। पीडीएस के नेता समीर पुततुंडू ने कहा कि जरूरत पड़ने पर सिंगुर में आंदोलन किया जायेगा।

कोलकाता से 45 व हावड़ा स्टेशन से 34 किलोमीटर दूर सिंगुर की आबादी 2001 की जनगणना के अनुसार 19539 है। इसमें पुरुष 51 प्रतिशत जबकि महिला 49 प्रतिशत हैं। साक्षरता दर 76 प्रतिशत रही। टाटा के लिए 997.11 एकड़ भूमि अधिग्रहित की गयी है। इसमें 404 एकड़ भूमि का विरोध हो रहा है। कलकत्ता उच्च न्यायालय के फैसले के बाद सिंगुर के लोगों में नाउम्मीदी साफ नजर आ रही है।कलकत्ता हाईकोर्ट द्वारा शुक्रवार को सुनाए गए फैसले के बाद सवाल यह उठ रहा है कि आखिर सिंगुर की जमीन पर किसका हक है? तृणमूल सांसद व अधिवक्ता कल्याण बनर्जी का कहना है कि सिंगुर की जमीन राज्य सरकार के कब्जे में है। सरकार से जमीन वापस लेने के लिए टाटा को फिर से कोर्ट जाना होगा। श्री बनर्जी ने फैसले का हवाले देते हुए कहा कि कोर्ट के आर्डर में कहीं भी यह नहीं लिखा गया है कि जमीन टाटा को लौटानी है। सरकार सुप्रीम कोर्ट जाने के लिए आवश्यक कागजात तैयार कर रही है। हालांकि, टाटा मोटर्स के अधिवक्ता समरादित्य पाल का कहना है कि जिस कानून को आधार बनाकर सरकार ने जमीन पर कब्जा किया था। उसे ही जब कोर्ट ने निरस्त कर दिया है तो फिर सवाल ही नहीं उठता कि जमीन को वापस लेने के लिए कोर्ट जाना पड़े।

सिंगुर में टाटा मोटर्स को दी गई जमीन वापस लेने के लिए राज्य सरकार द्वारा बनाया गया कानून यदि संवैधानिक भी होता तो उक्त जमीन को लेकर कई पेंच फंस सकते थे। इसकी एक नहीं, कई वजहें हैं। पिछली वाममोर्चा सरकार ने टाटा मोटर्स और उसके लिए कलपुर्जे बनाने वाली कंपनियों को 997.11 एकड़ जमीन लीज पर दी थी। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी उक्त जमीन को टाटा से लेकर उनमें से 400 एकड़ जमीन अनिच्छुक किसानों को लौटना चाह रही हैं। हालांकि, शुक्रवार को हाईकोर्ट ने सिंगुर भूमि पुनर्वास व विकास अधिनियम 2011 को ही असंवैधानिक करार दे दिया है। अगर ऐसा नहीं भी होता तो चार सौ एकड़ जमीन लौटा पाना सरकार के लिए आसान नहीं होता। सुश्री बनर्जी पहले से भी कहती रही हैं कि लौटने के बाद शेष बची 600 एकड़ जमीन पर टाटा यदि कारखाना लगाए तो वे उनका स्वागत करेंगी।

कानून के जानकारों का कहना है कि यदि सरकार हाईकोर्ट या फिर सुप्रीम कोर्ट में जीत भी जाती है, तो सर्वप्रथम यह पेंच फंसेगा। पिछली वामो सरकार का कहना था कि 244 एकड़ जमीन का चेक मालिकों को नहीं सौंपा जा सका था। चेक इसलिए नहीं दिया गया, क्योंकि उनके पास मालिकाना हक (राइट इन टाइटल) के कागज नहीं थे, या फिर उक्त जमीन पर पहले से ही विवाद था, तो 244 एकड़ जमीन सरकार किसे लौटाती। दूसरी ओर नौनो कारखाना निर्माण के समय में वहां की जमीन ईंट, बालू, सीमेंट व अन्य सामानों से पटे गया था, जिससे वहां अब खेती शायद ही संभव हो। ऐसे में क्या किसान जमीन वापस पा कर खुश होते। ऐसी स्थिति में सरकार क्या करेगी यह आने वाला वक्त ही बताएगा। तीसरी और सबसे अहम सवाल यह खड़ा हो सकता था कि जिन किसानों ने मुआवजे की रकम ले ली थी, उन्हें अब जमीन वापस करते समय सरकार को रकम वापस करना होता या नहीं। अगर वह पैसा उनके पास नहीं हो और खर्च हो गया हो तब सरकार क्या कदम उठाती। अगर केवल 244 एकड़ के किसानों ने चेक नहीं लिए थे और 400 एकड़ जमीन वापस करने की बात हो रही है तो 156 एकड़ जमीन ऐसे ही किसानों की होगी, जो मुआवजे की रकम खर्च कर दिए होंगे।कैसे होता है भूमि अधिग्रहण , देश ने सिंगुर, नंदीग्राम, कलिंगनगर, नियमागिरि, बरनाला, नवी मुंबई, जैतापुर और कुडनकुलम में लाइव देखा है। पर सर्वत्र मीडिया की पहुंच नही है । मसलन आंध्र के गोदावरी जिले में भूमि अधिग्रहण गोदावरी बांध के लिए हुआ तो डीएम पुलिस के सात गांव पहुंच गये और बंदूक की नोंक पर किसानों को मुआवजा बाट दिया गया!इस बांध परियोजना से डूब में समाहित होने है ओड़ीशा और छत्तीसगढ़ के गोदावरी के उद्गम इलाके। पर कोई जनसुनवाई कहीं नहीं हुई। य़हां तक कि ओड़ीशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की आपत्ति भी खारिज कर दी गयी।

न्यायमूर्ति पिनाकी चंद्र घोष और न्यायमूर्ति मृणाल कांति चौधरी की खण्डपीठ  ने यह भी कहा है कि यह अधिनियम राष्ट्रपति की मंजूरी के बगैर लागू किया गया। ममता बनर्जी सरकार ने सत्ता सम्भालने के ठीक बाद इस अधिनियम को पारित किया था। टाटा मोटर्स ने कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति आई.पी. मुखर्जी के 25 सितम्बर के फैसले के खिलाफ दो सदस्यीय पीठ में याचिका दायर की थी। न्यायालय ने अपने आदेश का क्रियान्वयन दो महीने के लिए स्थगित कर दिया है, लेकिन इस अंतरिम अवधि के दौरान सरकार को भूमि का वितरण करने से रोक दिया है।

खण्डपीठ ने यह भी कहा कि यद्यपि एक सदस्यीय पीठ ने भूमि अधिग्रहण अधिनियम-1894 के आधार पर मुआवजा तय किया था, लेकिन न्यायालय को सिंगूर अधिनियम में कुछ जोड़ने, उसे फिर से लिखने या तैयार करने का कोई अधिकार नहीं है।117 साल पुराने भूमि अधिग्रहण कानून 1894 के अनुसार सार्वजनिक उद्देश्य के तहत किसी भी जमीन को बगैर बाजार मूल्य के मुआवजा चुकाए सरकार अधिग्रहण कर सकती है। इसमें 'सार्वजनिक उद्देश्य' की परिभाषा के तहत शैक्षणिक संस्थानों का निर्माण, आवासीय या ग्रामीण परियोजनाओं का विकास शामिल है। इसके लिए एक अधिसूचना पर्याप्त होती है। भूमि अधिग्रहण कानून, 1894 में संशोधन के लिए 2007 में एक विधेयक संसद में पेश किया था। हालाकि यह विधेयक लैप्स हो चुका है। मौजूदा भूमि अधिग्रहण कानून की खामियों को दुरुस्त करने के लिए फिर से इस तरह के संशोधन बिल पेश किए जाने की बात की जा रही है। सभी राज्य विधायी प्रस्तावों में संपत्ति के अधिग्रहण या माग के विषय पर कोई अधिनियम या अन्य कोई राज्य विधान, जिसका प्रभाव भूमि के अधिग्रहण और माग पर है, में शामिल हैं, इनकी जाच राष्ट्रपति की स्वीकृति पाने के प्रयोजन हेतु धारा 200 (विधयेक के मामले में) या संविधान की धारा 213 (1) के प्रावधान के तहत भूमि संसाधन विभाग द्वारा की जाती है। इस प्रभाग द्वारा समवर्ती होने के प्रयोजन हेतु भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 1894 में संशोधन के लिए राज्य सरकारों के सभी प्रस्तावों की जाच भी की जाती है, जैसा कि संविधान की धारा 254 की उपधारा (2) के अधीन आवश्यक है।जर्मन नोबेल अर्थशास्त्री जोसेप ग्लिज ने कहा है कि उद्योगों के लिए भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया में सरकार की भूमिका काफी अहम है और इससे इनकार नहीं किया जा सकता। जोसेप भारतीय सांख्यिकी संस्थान तथा इंटरनेशनल ग्रोथ सेंटर की संयुक्त कार्यशाला के उपरांत संवाददाताओं से औपचारिक बातचीत कर रहे थे। उन्होंने कहा कि जहां तक मेरा मानना है कि किसानों को उनकी जमीन की अधिकतम कीमत देने के लिए भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया में सरकार को शामिल रहना होगा।

कार्यशाला के उपरांत संवाददाताओं के राज्य में भूमि अधिग्रहण की चुनौतियों से सम्बन्धित सवाल पर उन्होंने कहा कि यह सचमुच कठिन है। जो लोग बड़ा उद्योग लगाना चाहते हैं उन्हें बड़ी भूमि होल्डिंग की जरूरत पड़ती है। बड़े परिमाण में जमीन एक साथ न मिलना और इसके टुकड़ों में विभाजित होने पर दिक्कते आतीं हैं। संवाददाताओं ने जब उनसे राज्य सरकार की उद्योगों के लिए भूमि न लेने की नीति की जानकारी दी तो उन्होंने ताज्जुब प्रकट किया। बहरहाल नोबेल विजेता ने यह भी माना कि उद्योगों के लिए भूमि अधिगृहित करना वैश्विक समस्या बन गया है, यह किसी देश या राज्य तक सीमित नहीं है। वह पश्चिम बंगाल सरकार की भू अधिग्रहण नीति के बारे में प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहे थे। ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली राज्य सरकार ने कहा है कि वह उद्योग स्थापित करने के लिए जमीन नहीं खरीदेगी। उन्होंने कहा कि भूमि अधिग्रहण वास्तव में पूरे विश्व में संवेदनशील मामला है। उन्होंने कोलंबिया विश्वविद्यालय की एक घटना का हवाला देते हुए कहा कि विश्वविद्यालय को विस्तार के लिए बहुत सी जमीन चाहिए। विश्वविद्यालय अपने आप जमीन का अधिग्रहण करने में असमर्थ था और विस्तार की प्रक्रिया रोक दी गई। उन्होंने कहा कि आखिरकार स्थानीय सरकार ने यह कहते हुए हस्तक्षेप किया कि यह विश्वविद्यालय का विस्तार लोकहित का मामला है। तभी भूमि अधिग्रहण हो सका। स्टिग्लिज कोलंबिया विश्वविद्यालय में ही प्रोफेसर हैं।जबकि खण्डपीठ ने कहा कि यह हिस्सा (मुआवजे में संशोधन) कायम रहने वाला नहीं है। राज्य सरकार के अधिवक्ता कल्याण बंदोपाध्याय ने कहा कि सरकार इस फैसले के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर करेगी।

ज्ञात हो कि पूर्व की वाम मोर्चा सरकार ने नैनो कार परियोजना के लिए हुगली जिले के सिंगूर में कुल 997 एकड़ भूमि टाटा मोटर्स और कई वेंडर्स को पट्टे पर दी थी। 645 एकड़ जमीन कम्पनी को आवंटित की गई थी और बाकी जमीन वेंडर्स को दी गई थी। लेकिन तृणमूल कांग्रेस के नेतृत्व में किसानों द्वारा चलाए गए आंदोलन के कारण नैनो कार परियोजना 2008 में सिंगूर से गुजरात के सानंद चली गई। तृणमूल उन किसानों को 400 एकड़ भूमि लौटाना चाहती थी, जो अपनी जमीन नहीं देना चाहते थे।

फैसले पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष सूर्यकांत मिश्र ने कहा कि सरकार विपक्ष के उस आग्रह को न मानने का खामियाजा भुगत रही है, जिसमें कहा गया था कि सरकार अपनी जमीन देने के अनिच्छुक रहे और इच्छुक रहे किसानों के बीच किसी तरह का भेदभाव न बरते। कांग्रेस नेता अब्दुल मन्नान ने किसानों को जमीन लौटाने के बनर्जी के इरादे पर सवाल खड़ा किया। मन्नान ने कहा, "किसानों को जमीन लौटाने का उनका कभी इरादा नहीं था। यह सिर्फ दिखावा भर था। अन्यथा वह जल्दबाजी में कानून नहीं पारित करतीं, बल्कि समय लेकर और विशेषज्ञों की मदद लेकर एक व्यापक कानून तैयार करतीं।"

नया भूमि अधिग्रहण बिल, जिसे भूमि अधिग्रहण तथा पुर्नवास एवं पुन:स्थापन विधेयक 2011 का नाम दिया गया है, असल में नई पैकिंग में पुराना माल ही है। सरकार ने इस विधेयक को बहस के लिए पब्लिक डोमेन में रखा है, जिसमें सभी लोगों, नागरिक संगठनों आदि की राय मांगी गई है। ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने बड़े मन से इस बिल का मसौदा तैयार किया है और उतने ही मन से किसानों को गुमराह करने का भी जतन किया है।भूमि अधिग्रहण में बड़ा प्रश्न था कि अधिग्रहण किस प्रकार की भूमि का किया जाए। जयराम रमेश ने नए बिल की प्रस्तावना में लिखा है कि किसी भी हालात में बहु-फसलीय, सिंचित भूमि का अधिग्रहण नहीं किया जाएगा। इस बात को मीडिया ने भी जोर-शोर से उठाया, जबकि इसी बिल के भाग-दो में धारा 7 उप-धारा 2 का चौथा बिंदु कहता है कि जिले का कलेक्टर अंतिम विकल्प के रूप में सुनिश्चित सिंचाई वाली भूमि को भी अधिग्रहित कर सकता है। यानी अंतिम विकल्प के नाम पर उपजाऊ भूमि भी सरकार द्वारा हड़पी जा सकती है। मजेदार बात यह है कि ठीक इसके नीचे की पंक्ति में लिखा है कि सिंचित बहु-फसलीय भूमि का अधिग्रहण नहीं किया जाएगा।अब एक ओर बिल सुनिश्चित सिंचाई वाली भूमि अधिग्रहित करने की बात करता है और दूसरी ओर लोगों की आंखों में धूल झोंकने के लिए सिंचित बहु-फसलीय भूमि का अधिग्रहण नहीं करने की बात भी कह रहा है। सवाल यह उठता है कि जब करीब पांच पन्नों में विभिन्न तकनीकी और गैर तकनीकी शब्दों की परिभाषा दी गई है तो क्या एक लाइन में बहु-फसलीय भूमि से क्या अर्थ है, यह नहीं बताना चाहिए था? अब जिला कलेक्टर इसी बात को तोड़-मरोड़ कर  अपने हिसाब से रखेगा और उपजाऊ भूमि, जो हमारी खाद्य सुरक्षा की गारंटी है, हमारे हाथ से छिनती चली जाएगी।इसके अलावा बिल में असिंचित भूमि के अधिग्रहण को उचित ठहराया गया है। लेकिन क्या सभी असिंचित भूमि बंजर है? ऐसा नहीं है, और सरकार की बेरुखी के कारण ही कई क्षेत्रों की उर्वरक भूमि में भी सिंचाई की व्यवस्था नहीं है। असिंचित क्लाज का लाभ लेकर आसानी से अच्छी उर्वरक भूमि का अधिग्रहण कर लिया जाएगा। इसलिए मिट्टी में मौजूद जैविक और पोषक तत्वों के आधार पर ही भूमि का चयन किया जाए और बंजर भूमि का ही सिर्फ अधिग्रहण हो, वरना अच्छी पैदावार देने की क्षमता वाली जमीन भी छिनती चली जाएगी।अगला सवाल उठता है कि जमीन की कीमत तय करने का फार्मूला क्या हो? नया बिल 1894 में बने भूमि अधिग्रहण अधिनियम की जगह लेगा, लेकिन भूमि की कीमत तय करने के लिए 1899 के इंडियन स्टैम्प एक्ट जैसा पुराना कानून क्यों? जब अधिग्रहण का कानून बदल रहा है तो फिर भूमि की कीमत तय करने का कानून भी बदलना चाहिए। नए बिल में नया फार्मूला ही हो, पुराने फार्मूले को पूरी तरह नकारना ही होगा।बिल कहता है कि भूमि का भुगतान बाजार में उसकी मौजूदा कीमत के आधार पर लगाया जाएगा। सुनने में यह बात बहुत अच्छी लगती है, लेकिन बाजार भाव कृषि भूमि या बंजर भूमि का क्या होगा? जबकि जमीन कृषि कार्य के लिए नहीं ली जा रही है। इसलिए जमीन की कीमत तय करने से पहले उसका भू उपयोग बदलने की घोषणा करे। व्यवसायिक, आवासीय या औद्योगिकरण के लिए अधिग्रहित करने की बात कह कर उसके अनुसार लैंड यूज बदले फिर बाजार की कीमत दें, तो कुछ बात बन सकती है। क्योंकि लैंड यूज बदलते ही जमीन की कीमत आसमान पर पहुंच जाती है और इसी में सरकार के मंत्री, अफसर और निजी कंपनियों की सांठगांठ उन्हें मालामाल कर देती है। इसलिए हमारी मांग है कि पहले भूमि उपयोग को बदलें, फिर उसकी बाजार कीमत तय करें।बिल में किस परियोजना के लिए कितनी भूमि की आवश्यकता है? यह भी स्पष्ट नहीं किया गया है। हालांकि बिल में कहा गया है अधिकृत समिति यह तय करेगी की कम से कम भूमि या जितनी आवश्यक हो सिर्फ उतनी ही भूमि अधिग्रहित की जाएगी। लेकिन कम से कम भूमि का पैमाना क्या होगा, इस पर बिल मौन है। उदाहरण के लिए भूमि का अधिग्रहण कार रेस के लिए किया जाता है, तो आने वाले लोगों के मनोरंजन के लिए सिनेमा हाल, ठहरने के लिए फाइव स्टार होटल, पार्किंग, माल, गोल्फ कोर्स आदि की मांग भी की जा सकती है, जिसके लिए वास्तविक आवश्यकता से कई अधिक मात्रा में भूमि अधिग्रहित की जा सकती है। इसलिए न्यूनतम का स्तर और इसको तय करने का पैमाना पूरी तरह स्पष्ट होना चाहिए। वरना बिल्डर खेल परिसर के साथ कुछ समय में माल आदि बना लेगा या फिर अतिरिक्त भूमि को ऊंचे दामों पर किसी और कारोबारी को बेच देगा।इस बिल में जनहित और सार्वजनिक उद्देश्य की परिभाषा में भी घालमेल है। एक बड़ा सवाल है कि सरकार इस बिल के तहत उन निजी कंपनियों को भी भूमि देगी, जो कंपनियां सार्वजनिक उद्देश्य के लिए उस भूमि का उपयोग करेंगी। यानी जनहित और सार्वजनिक उद्देश्य की आड़ में निजी कंपनियों को भूमि दी जाएगी, जिन कंपनियों का काम सिर्फ अपना मुनाफा कमाना है, जनहित नहीं।

आर्थिक सुधारों का कारपोरेट साम्राज्यवादी साम्प्रदायिक रंगभेदी जनसंहार एजंडा ही जल जंगल जमीन के हक हकूक के विरुद्ध है, जहां सिंगुर और देश के तमाम जनपद, कृषिप्रधान भारत एकाकार है, जिसको तबाह करने के लिए बनती हैं तमाम परियोजनाएं। स्वर्णिम राजमार्ग, जिनपर मूलनिवासी चल भी नहीं सकता और वहां मारे जाने पर मुआवजे का हकदार भी नहीं है, बलिक् वहीं से आता है उनकी बेदखली और मौत का सामान। बड़े बांध और विद्युत परियोजनाएं, जो न उनके खेत सींचते हैं और न उलको बिजली देते हैं बल्कि उनके तड़ीपार हो जाने का सबब बनते हैं। कल कारखाने और खनन परियोजनाएं, परमाणु संयंत्र प्रक्षेपास्त्र अंचल, सेज, सिडकुल, एनएमआईजेड, इंडस्ट्रीयल कारीडोर, इत्यादि जो प्रदूषण, गैस त्रासदी, रेडिएशन के खतरों के साथ जीने मरने की नियति के अलावा बेदखली का कठोर वास्तव है।

देश का कानून इन तमाम लोगों, प्रकृति और प्कृति से जुड़े मनुष्य, कृषि और आजीविका , पर्यावरण के विरुद्ध है, किसी सिंगुर के लिए ये हालात नहीं बदलने वाले हैं। क्या इस प्रस्थान बिंदू पर खड़े होकर दीदी अपना अवस्थान तय करने का दुस्साहस दिखा सकती हैं? राष्ट्रपति चुनाव में सत्तावर्ग के सर्वाधिनायक विश्वपुत्र के विरुद्ध खड़े होकर बाजार के खिलाफ विद्रोह तो उन्होंने कर दिया, पर दीदी को अब समझना ही होगा कि विद्रोह, आंदोलन और विप्लव में अंतर होता है। आंदोलन की राह तक पहुंच कर भटक गये वामपंथी, गांधीवादी, लोहियावादी समाजवादी और अंबेडकर के अनुयायी, क्रांति की मंजिल अब सबके लिए बाजार में मोक्ष का पर्याय बन गया है। पर दीदी तो विद्रोह के अगले पायदान तक ही नहीं पहुंच रही हैं। वामपंथ का अवसान कोई विप्लव नबहीं है, भले ही वैश्विक पूंजी, मीडिया, नीति निर्धारक, सत्तावर्ग के हित, बाजार और कारपोरेट इंडिया ने यह व्यामोह रचने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। क्रांति हुई रहती तो व्यवस्था ही बदल जाती! मरीचझांपी, आनंदमार्गी नरसंहार और भिखारी पासवान के गुनाहगार दीदी के साथ खड़े नहीं होते और न बाजार का उन्हें पुरजोर समर्थन मिलता और न ही हिलेरिया उनसे गीत वितान लेकर घर वापसी पर उनका गुणगान करती।

जल जंगल जमीन के दुशमन, किसानों, मजदूरों के वर्गशत्रुओं, प्रकृति और पर्यावरण के विध्वंसक तत्वों, विस्थापन के विशेषज्ञों और नरसंहार के कलाकारों के साथ राजनीति की जा सकती है, सत्ता में साझेदारी हो सकती है, संसदीय असंसदीय कारोबार संभव है,क्रांति नहीं।चुनावी राजनीति और जीत को जन आंदोलन में तब्दील करना आसान होता तो वामपंथ आंदोलन और प्रतिरोध का रास्ता छोड़कर सत्ता में बने रहने के लिए बाजार और वैश्विक पूंजी का गुलाम न बन गया होता और न सर्वहारा के अधिनायकत्व और वर्ग विहीन समाज का सपना छोड़कर अंध हिदुत्व का अनुसऱण करते हुए पूंजीवादी विकास, अंधाधुंध भूमि अधिग्रहण, शहरीकरण और औद्योगीकरण का रास्ता अख्तियार  करके उसके विरुद्ध प्रबल जनांदोलन के दमन के लिए जनसंहार की संस्कृति का आवाहन नहीं करता। चुनावी जीत से राजनीति नहीं बदल जाती, वल्कि विचारधारा के अंत का तमाशा जरूर होता है और इसके अनेक उदाहरण इस भारत वर्ष में है। उत्तरप्रदेश में बहुजनहिताय का क्या अंजाम हुआ और तमुलनाडु में स्वाभिनमान आंदोलन का?ममतादीदी और बंगाल का रास्ता अलग है , परिवर्तन के बाद लगातार चुनाव जीतते रहने और चुनावी राजनीति करते रहने के अलावा दीदी ने ऐसा कोई संकेत अभीतक नहीं दिया है।

बाजार के साथ कीमत, मुआवजा, पुनर्वास पर सौदेबाजी हो सकती है, मोल भाव हो सकते हैं पर आखिरकार जीत बाजार के नियमों का ही होता है। तेलंगाना, श्रीकाकुलम, ढिमरीब्लाक, नक्सलबाड़ी, नियमागिरि, कच्छ, ऩवी मुंबई, लवासा, गंगतोक, उत्तराखंड, ओड़ीशा, झारखंड, छत्तीसगढ़, आंध्र, तमिलनाडु,बिहार, पंजाब सर्वत्र जनांदोलनों को कैश करके बाजार की ही अंतिम जीत होती रही है। इस समीकरण को बदलने के लिए जिस युद्धनीति की आवश्यकता  होती है, दीदी की परिवर्तनपंथी सेना का हर कदम उसीके विरुद्ध है।नोनाडांगा की बेदखली की कथा से क्या सिंगुर की कहानी अलग है बल्कि वहां तो पीड़ितों की संख्या सिंगुर के अनिच्छुक किसानों  से कहीं ज्यादा हैं।

परिवर्तन यानी नया राज्य बनने के बाद झारखंद, छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड में जल जंगल जमीन के हाल हकीकत के बारे में क्या दीदी ब्रिगेड को कुछ मालूम नहीं है? लालगढ़ में तो वे खुद सलवा जुड़ुम का इस्तेमाल कर रहीं हैं। मणिपुर में विशेष सैन्य अधिकार कानून के खिलाफ बोलकर इरोम शर्मिला की रिहाई का मांग करके पूर्वोत्तर में दीदी को मणिपुर के अलावा अरुणाचल में भी भारी कामयाबी हासिल हुई। पर क्या वे विशेष सैन्य अधिकार कानून के विरुद्ध चुनावों के बाद कुछ बोलीं? कश्मीर में अल्पसंख्यकों के सफाया और बाकी भारत में आदिवासी जनता के विरुद्ध राष्ट्र के युद्ध के खिलाफ क्या वे मुखर हुईं? दंडकारण्य में पुनर्वासित शरणार्थियों की आदिवासियों के साथ माओवाद विरोधी अभियान के बहाने नाकेबंदी और शरणार्थियों के देश निकाले के खिलाफ क्या बोलीं वे? तमाम संसदीय समितियों के अध्यक्ष पद पर रहते हुए देश के वास्तविक नीति निर्धारक बाहैसियत प्रणव दादा एक के बाद एक जनविरोधी कानून को जब  अंजाम दे रहे थे, आर्थिक सुधारों के नाम पर कृषि और अर्थव्यवस्था और उत्पादन प्रणाली को तबाह कर रहे थे, तो राजनीतिक सुविधा के मुताबिक पेंशन बिल, रीटेल एफडीआई, भूमि अधिग्रहण कानून के विरोध के सिवाय दीदी ने क्या इस व्यवस्था को बदलने के लिए कोई आंदोलन, कोई कार्यक्रम चलाया? आपको जानकारी हो तो बतायें!

भूमि सुधार का मुद्दा कभी सत्ता वर्ग की प्राथमिकता में नहीं रहा। क्योंकि सत्ता वर्ग के कब्जे में ही है भूमि।बल्कि बहिष्कृत जनसमुदायों के अब तक वंचित रहते आने से जीवन के हर क्षेत्र में उन्हींका वरचस्व रहा है। लेकिन संवैधानिक प्रवधानों की वजह से सबको समान अवसर के सिद्धांत के तहत सामाजिक न्याय के लक्ष्य और आरक्षण के कारण सत्ता समीकरण के बदल जाने को लेकर सत्ता वर्ग आत्मरक्षा के लिए ही बाजार की अर्थव्यवस्था अपनाकर जल जंगल जमीन के हक हकूक और आजीविका और रोजगार के अवसरों से वंचित कर रहा है निनानब्वे प्रतिशत जनता को। अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री और योजना आयोग के अर्थवेत्ता मोंटेक सिंह अहलूवालिया आदि नीति-नियंता किसान और कृषि को सिर्फ आकड़ा मानते हैं। आखिरकार 117 बरस पुराने भूमि अधिग्रहण कानून में अब तक संशोधन क्यों नहीं हुआ? क्या अलीगढ़-टप्पल के गोलीकांड का इंतजार था। सेज के बहाने लाखों एकड़ जमीन के हड़पने का व्यावसायिक अभियान चला। तत्कालीन ग्राम विकास मंत्री रघुवंश प्रसाद ने इसे भूमि घोटाला बताया था। कृषि मंत्री शरद पवार ने भी सेज से असहमति जताई थी। सोनिया गाधी ने कृषि भूमि अधिग्रहण पर सतर्क रहने की चेतावनी दी थी। अधिग्रहण कानून में संशोधन की माग पुरानी है। 2007 में भूमि अधिग्रहण कानून 1894 में संशोधन का एक विधेयक भी तैयार हुआ था। भूमि अधिग्रहण से प्रभावित लोगों को राहत देने के लिए पुनस्र्थापन व पुनर्वास विधेयक की भी तैयारी थी। 14वीं लोकसभा के अवसान के साथ दोनों विधेयक भी 'वीरगति' को प्राप्त हो गए।

भूमि सुधार का कार्यक्रम सत्ता वर्ग के हित और खुले बाजार की व्यवस्था के विरुद्ध है। इसलिए तमाम कानूनों  में संशोधन करके भूमि और प्रकृतिक संसाधनों , रोजगार, आजीविका और व्यवसाय पर वर्चस्व कायम रखने का खेल जारी है। मसलन उत्तराखंड में तत्कालीन उत्तरप्रदेश के प्रधानमंत्री और बाद में मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत के संरक्षण में ही तराई के तमाम जिलों नैनीताल, बरेली, रामपुर, मुरादाबाद, पालीभीत, बिजनौर में बनेमी संपत्ति के तहत बड़े बड़े फार्म बने। जंगल में लाकर बसाये गये विभाजन पीड़ित शरणार्थियों तक को भूमिधारी हक नहीं दिया गया और न ही बुक्सा थारु , वन गुर्जर आदिवासियों को। उनकी जमीन भी दबंगों नें दबा ली। चंद्रभानुगुप्त, हेमवतीनंदन बहुगुणा और नारायण दत्त तिवारी ने भूमाफिया का ही प्रतिनिधित्व किया। तराई में भूमि सुधार तो रहा दूर, बल्कि पहाड़ को भी भूमि माफिया के हवाले करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उत्तराखंड बनने के बाद सिडकुल के तहत औद्योगिक घरानों को , जिनकी तराई में भूमि पर पहले से वर्चस्व है, न सिर्प किसानों और शरणार्थियों की जमीन पर कब्जा करने का मौका दिया गया बल्कि पंतनगर विश्वविद्यालय की जमीन भी गिफ्ट में दे दी गयी। सेज कानून के तहत तमाम रियायतें और छूट अलग। उत्तराखंडियों की जमीन तो मुफ्त में चली गयी, नौकरियां भी नहीं मिलीं! जो कल कारखाने लगे , वहा श्रम कानून तो दूर नागरिक और मानवाधिकारों तक की गारंटी नहीं है। अब वहां भूमि सुधार की चर्चा कुछेक हजार परिवरों,  जो विभाजन पीड़ित शरणार्थी हैं, उन्हें बांग्लादेशी बताकर उठायी जा रही है।

इसीतरह गुजरात के कांधला सेज इलाके की जमीन अधिग्रहण करने के लिए पांचवी अनुसूची से बाहर कर दिया गया यह इलाका और आदिवासियों का अनुसूचित जनजाति का दर्जा खत्म कर दिया गया।समूचे कच्छ और गुजरात में यह कहानी विकास और हिदुत्व के नाम दोहरायी गयी। अकारण नहीं है कि बाजार और कारपोरेट इंडिया की पसंद राष्ट्रपति पर प्रणव मुखर्जी और प्रधानमंत्री पद के लिए नरेंद्र मोदी हैं। ममता दीदी ने प्रणव का विरोध तो कर दिया, बंगाल के प्रभल मुस्लिम वोट बैंक के समर्थन के बावजूद क्या वे उग्रतम हिंदू राष्ट्रवाद और नरेंद्र मोदी का विरोध कर पायेंगी?

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