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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Thursday, June 7, 2012

अच्छे नहीं है नेपाल के हाल

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अच्छे नहीं है नेपाल के हाल

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अच्छे नहीं है नेपाल के हाल
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नेपाल गहन राजनीतिक संकट में है। लोग राजनीतिज्ञ से आजिज आ गए हैं। बीते 27 मई को चार साल से संविधान बनाने की जारी प्रक्रिया थम गई। जिस संविधान सभा पर संविधान बनाने का दारोमदार था उसे भंग कर दिया गया। 2006 में राजतंत्र के खात्मे के बाद 2008 में दो साल में संविधान बना लेने के लिए संविधान सभा का गठन किया गया था। पर संविधान बनाने के मूल उद्देश्य पूरा करने के बजाय संविधान सभा की आड़ में राजनेता राजनीति में व्यस्त हो गए। संविधान सभा के जरिए सरकार बनाने और मतलब न सधने पर सरकार गिराने का ही उपक्रम होता रहा। आखिरकार संविधान तो नहीं बना लेकिन संविधान सभा में शक्ति परीक्षण के जरिए चार साल में नेपाल को चार नए प्रधानमंत्री मिल गए।

संविधान सभा को भंग करने का निर्णय लेते वक्त प्रधानमंत्री बाबूराम भट्टराई का तर्क रहा कि नेपाल में जाति और संस्कृति आधारित संघीय प्रांतों के गठन पर सहमति नहीं बन पाई। संविधान बनाने की मियाद पूरी हो गई। अब मौजूदा संविधान सभा को विस्तार देना जनता के साथ धोखा होगा इसलिए नई संविधान सभा के लिए चुनाव होना चाहिए। आखिरी वक्त तक संविधान की घोषणा इसलिए भी नहीं हो पाई कि सत्तारुढ माओवादी पार्टी के नेताओं का नेपाल में मधेशी,जनजातिय और कतिपय जातीय समूहों के लिए अलग अलग संघीय प्रांत की जरूरत पर जोर है। नेपाल में दस से चौदह संघीय प्रांत बनाने की दुहाई दी जा रही है। जबकि नेपाली कांग्रेस और सीपीएन यूएमएल के प्रभावशाली नेता मनमाने तरीके से संघीय प्रांत में विघटन पर ऐतबार नहीं रखते। माओवादियों के बहुलता वाली विघटित संविधान सभा राजनीतिक तिकडमों के जरिए संघीय प्रांत की जरूरत को पूरा किए बगैर संविधान का एलान नहीं करने पर अड़ी रही। नतीजतन संविधान सभा आखिरी वक्त तक अपना अभिप्राय पूरा नहीं कर पाई।

दरअसल संविधान सभा में किसी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं होने की वजह से संविधान बनाने की समस्या विकट बनी रही। 28 मई 2008 को नेपाल संघीय गणराज्य के चुनाव परिणाम में सबसे बडे दल के तौर पर उभरने के बावजूद माओवादियों को अपने नेता पुष्पदहल कमल प्रचंड को प्रधानमंत्री बनने के लिए काफी पापड़ बेलने पड़े। चुनाव में राजतंत्र के खिलाफ जनाकांक्षा का आदर करते हुए राजा ज्ञानेद्र विक्रम साहदेव ने 11 जून 2008 को मह छोडने का फैसला किया। राजनीतिक दलों ने 23 जुलाई 2008 को डा. रामवरन यादव को नेपाल का पहला राष्ट्रपति निर्वाचित कर लिया। तील तिकडमों के बीच 15 अगस्त 2008 को यानी चुनाव परिणाम के तकरीबन तीन महीने बाद माओवादी नेता पुष्पदहल कमल प्रचंड लोकतांत्रिक नेपाल के प्रधानमंत्री के तौर पर शपथ ले पाए। मुश्किल से मिली कुर्सी को प्रचंड ज्यादा वक्त तक सम्हाल नहीं पाए। तत्कालीन सेनाध्यक्ष से विवाद में उलझने का खामियाजा प्रंचड को उठाना पडा। नेपाली कांग्रेस ने सीपीएन यूएमएल के साथ मिलकर संविधान सभा में बहुमत का प्रदर्शन किया और सीपीएन यूएमएल के नेता माधव नेपाल को प्रधानमंत्री बनाया गया। लेकिन वक्त के साथ सीपीएन यूएमएल के अंदर ही माधव नेपाल को लेकर गंभीर मतभेद उभर आए। माधव नेपाल से इस्तीफा लिया गया। माधव नेपाल की जगह सीपीएन यूएमएल के अध्यक्ष झलनाथ खनाल को प्रधानमंत्री की शपथ दिलाई गई। लेकिन भी अस्थिरता का शिकार हुए। माओवादियों ने नेपाली कांग्रेस से नया गठजोड कर खनाल को भी प्रधानमंत्री की कुर्सी छोडने को विवश कर दिया और प्रचंड के बजाय माओवादियों के नंबर दो नेता डा. बाबूराम भट्टराई को प्रधानमंत्री बनवा दिया। संविधान सभा के जरिए कुर्सी अदला बदली का यह खेल चलता रहा। नए प्रधानमंत्री के तौर पर शपथ लेते हुए हर नेता देशवासियों को यह भरोसा देते रहे कि वो जल्द से जल्द संविधान बनाने का काम करेंगे।

संविधान बनाने के लिए दो साल का नियत समय 2010 में ही पूरा हो गया था। पर संविधान सभा के सदस्यों ने आपस में मिल बैठकर 27 मई 2010 की मध्य रात्री को अवसान हो रहे संविधान सभा का कार्यकाल पहले चरण में साल भर के बढाया। इस वायदे के साथ कि वो साल भर में संविधान बना लेने का काम पूरा कर लेंगे। और नए संविधान के अनुरूप आम चुनाव कराया जाएगा। 2011 में साल पूरा होने के साथ राजनीतिक ड्रामे के हो हंगामे के बीच फिर से एक साल का विस्तार ले लिया गया। तब सर्वोच्च न्यायालय ने इस विस्तार को आखिरी विस्तार करार दिया था। संविधान सभा की मियाद सुनिश्चित कर दी थी। 27 मई 2012 को इस आखिरी विस्तार का वक्त पूरा हुआ। फिर भी संविधान तैयार नहीं हो पाया, तो प्रधानमंत्री डा. बाबूराम भट्टराई ने आपातकाल घोषित कर विशेष परिस्थिति में संविधान सभा को और विस्तार दिलाने का रास्ता आजमाने के बजाए भंग करने का फैसला कर लिया।

अब इस फैसले के खिलाफ गैर माओवादी नेताओं ने गोलबंद होकर हाय तौबा मचाना शुरू कर दिया। विपक्षी दलों का संशय है कि माओवादी नेता ने अपने दल के नेतृत्व में चुनाव कराने के लिए यह चाल चली है। जाहिर तौर पर सरकार में काबिज दल को चुनाव में मनोवैज्ञानिक दबाव का लाभ मिलेगा। विरोधियों में शामिल नेपाली कांग्रेस के नेता विमलेंद्र निधि का कहना है कि माओवादी नेता के प्रधानमंत्री की कुर्सी पर रहते हुए देश में स्वच्छ और निष्पक्ष चुनाव संभव नहीं है। चुनाव कराने के लिए आम सहमति की नई राष्ट्रीय सरकार बननी चाहिए । और राष्ट्रीय सरकार की देखरेख में ही आम चुनाव होना चाहिए। संविधान बनाने के लिए गंभीरता से काम कर रही संविधान सभा के समिति की राय है कि संविधान का 99 प्रतिशत स्वरुप तय कर लिया गया है। सिर्फ संघीय गणराज्य की बिंदुओं पर मतैक्य नहीं हो पाने की वजह से संविधान ऐलान संभव नहीं हो पाया। ऐसे में विपक्षियों का तर्क है कि संघीय गणराज्य के गठन को फिलहाल टाला जा सकता था और संविधान की घोषणा की जानी चाहिए थी।

मतलब नेपाल को प्रादेशिक इकाईयों में बंटाने का मसला फिलहाल अधर में लटकाए रखा जा सकता था। नेपाल में लोकतंत्र स्थापना के साथ ही मधेशी यानी भारत से लगने वाले तराई मूल की आबादी और ऐतिहासिक जनजातियों को माकूल हक दिलाने की राजनीति संविधान निर्माण में आडे आती रही। नेपाल में 101 जनजातियों का वास है। उनकी अलग भाषाएं, अलग परिवेश और अलग संस्कृतियां हैं। संविधान में सभी को संतुलित जगह देने के लिए संविधान सभा की समितियों पर आंदोलनों के जरिए दबाव बनता रहा है। फिर पूरी नेपाल की राजनीति अबतक ब्राह्मण और क्षत्रियों के हाथों में सिमटी रही है। 240 के राजतंत्र के इतिहास में इन्हीं दो जातियों का नेपाल पर ऐनकेन प्रकारेन अधिपत्य रहा है। और यह संविधान सभा की राजनीति में भी बना हुआ है। भारत से लगने वाले मैदानी भूभाग के वाशिंदे मधेशियों को राजतंत्र के बडे कालखंड तक राजधानी काठमांडू आने के लिए वीसा लेने की व्यवस्था रही है। मौलिक मत विभेद के न जाने ऐसे अनेकों कारक है, जिनको सुलझाना संविधान निर्माताओं के लिए आसान नहीं रहा है।

इसके अलावा बड़ी समस्या राजतंत्र के खात्मे से पहले के दस सालों तक नेपाल को हिलाकर रख देने वाली माओवादियों के जनयुद्ध की वजह से उपजी है। इसने नेपाल के आधारभूत ढांचे को बुरी तरह से तबाह कर रखा है। बीते चार साल से इसके पुर्ननिर्माण का काम रुका पडा है। जिससे आम नेपाली नागरिक की जिंदगी मुहाल बनी हुई है। आम नेपाली की मुश्किल का हल करने के बजाय संविधान सभा के सदस्य काठमांडू में बैठकर राजनीतिक मसलों के समाधान में ही वक्त गंवाते रहे हैं। जनयुद्ध में शामिल लडाकू अपने ही देश की सेना के साथ लडते रहे। संविधान सभा के चुनाव के जरिए सत्ता में आए माओवादियों पर लड़ाकूओं के देश की पारंपरिक सेना में समायोजन के लिए दबाव बना रहा। जिस सेना को दुश्मन मानकर माओवादी लडाकू जीजान से लडते रहे राजनीति ने उसी सेना में लडाकूओं को शामिल करने का रास्ता खोल दिया। प्रधानमंत्री माधव नेपाल के कार्यकाल से तेज पकड चुके इस काम को माओवादी प्रधानमंत्री बाबूराम भट्टराई के कार्यकाल में आखिरकार पूरा कर लिया गया। लडाकूओं को स्वेच्छा के मुताबिक नेपाली सेना में जगह दे दी गई।

नेपाल में संकट इसलिए भी गहरा है कि संविधान बनाने के लिए चार साल से अजमाई जा रही प्रक्रिया पर सवाल उठ रहे हैं। लोकतंत्र के पुरोधाओं की काबिलियत पर शंका जताई जा रही है। संविधान सभा के जरिए चार साल तक सत्ता की अदला बदली के खेल ने नेपाल की राजनीति में शायद ही किसी बडे नेता को त्यागी कहलाने के भरोसे लायक छोडा है। ज्यादातर बडे नेता या तो प्रधानमंत्री की कुर्सी से खारिज किए जा चुके हैं या सरकार में पद सम्हालकर जनता की आकांक्षा पर खरे नहीं उतरने का खुद आरोप चस्पां करवा चुके हैं।

हालांकि इस राजनीतिक काम में देरी की बड़ी वजह राजतंत्र खात्मे के बाद से नेपाल में संयुक्त राष्ट्र और पश्चिमी मुल्कों की सक्रिय भूमिका रही। लडाकूओं की उचित संख्या की गणना और उनके सेना अथवा अन्य महकमे में समायोजन का काम संयुक्त राष्ट्र शांति समिति के नेपाल छोडकर जाने के बाद ही संभव हो पाया। राजनीति इतने भर से खत्म हो जाती तो खैर थी लेकिन समायोजन के बाद माओवादियों के अंदर  इसे लेकर गंभीर राजनीतिक मतभेद उभर आए हैं। कामरेड मोहन वैद्य के नेतृत्व में माओवादियों का उग्र धडा लडाकूओं को हथियारविहीन करने और उसके सेना में समायोजन से खुश नहीं है। यह धडा प्रधानमंत्री भट्टराई और माओवादी प्रमुख प्रचंड पर सत्ता सुख के लिए मध्यम मार्गी होने का इल्जाम लगा रहा है। माओवादी प्रमुख प्रचंड फिलहाल भट्टराई के साथ हैं लेकिन मोहन वैद्य समर्थकों से सुलह समझौते की स्थिति में माओवादी लडाकूओं की बनी बात फिर से बिगडने की आशंका अब भी बनी हुई है।

माओवादियों के अंदरुनी विवाद के अलावा जनयुद्ध की प्रताडना से जुडा एक तबका ऐसा भी है जिनकी लगातार अनसुनी होती रही। यह तबका चुनाव की तारीखों का इंतजार कर रहा है और मतदान के जरिए हिसाब किताब करने की फिराक में है। राजनीतिक उलझन के बीच ना जाने ये वक्त कब आएगा। इनकी शिकायत है कि जनयुद्द के नाम पर माओवादियों ने स्थायी वासियों की कई हेक्टयर घर,जमीन और संपत्तियों पर कब्जा कर रखा है। लोकतंत्र बहाली के नाम पर सरकारों ने इन्हीं लडाकूओं की खैर मकदम की है। आम लोगों से व्यभिचार करने वाले इन लडाकूओं को बैरकों में रखकर संयुक्त राष्ट्र से डालर में पैसे दिलवाए हैं। सेना में समायोजन करवाया है। जबकि माओवादी लडाकूओं के व्याभिचार से पीड़ित मूलवासियों की अवैध तरीके से कब्जा की गई जमीन, घर और संपदा वापसी का काम कायदे से शुरू ही नहीं हो पाया है। जनयुद्ध की समाप्ति के छह सालों के बाद भी इनके घर और जमीन पर लाल झंडे का आतंक बना हुआ है।

माओवादी को जनयुद्ध के खात्मे का इनाम और माओवादी हिंसा से पीडितों के शिकवे शिकायत के बीच आम नेपाली चक्की में घुन की तरह पिस रहा है। सीपीएन यूएमएल के बुजुर्ग नेता भरत मोहन अधिकारी का मानना है कि लोकतंत्र बहाली के बाद से आम नेपाली की कोई खोज खबर नहीं ली गई है। राजधानी काठमांडू में सरकार होने का अहसास तो इसलिए है कि यह ऐन केन प्रकारेन राजनीति का अखाडा बना हुआ है। सभी प्रमुख राजनीतिक दलों के दफ्तर काठमांडू में ही हैं, धरना प्रदर्शन के लिए बाकियों को यहीं आना होता है। इसलिए सरकारी मशीनरी मजबूरी में काठमांडू में काम करती हुई नजर भी आती है लेकिन इस दौरान बाकी नेपाल का बुरा हाल है। लोकतंत्र बहाली के बाद से नेपाल के पुर्निर्माण का काम रुका पडा है। जमीन पर विकास का माकूल काम नहीं हो रहा। कृषि के लिए सरकार से कोई सहयोग नहीं मिल रही। स्वास्थ्य सेवाओं का बुरा हाल है। शिक्षा के लिए कोई प्रभावी योजना शुरू नहीं हो पाई है। आधारभूत सुविधाओं की भरपाई के लिए कृषि संसाधन भारत से तस्करी करके लाए जा रहे हैं। स्वास्थ्य सुविधा के लिए बडी संख्या में नेपाली नागरिक भारतीय अस्पतालों के सहारे जी रहे हैं। शिक्षा के लिए सक्षम आबादी अपने बच्चों को विदेशों में भेज रहे हैं। विकट हालात की वजह से ही जितनी आबादी नेपाल में रहकर भरन पोषण कर रही है उससे दोगुनी नेपाली आबादी रोजगार के लिए भारत में नौकरी कर रही है। भारत के अलावा दूसरे देशों के लिए पलायन करने वाले मजदूरों में नेपालियों की संख्या ज्यादा है।

संविधान सभा बनने के बाद से नेपाल के चारों प्रधानमंत्रियों का ताल्लुक गरीबों के लिए बनी काम्युनिस्ट विचारधारा से है। पहले कामरेड पुष्प दहल कमल प्रचंड, दूसरे कामरेड माधव नेपाल, तीसरे कामरेड झलनाथ खनाल और चौथे डा. बाबूराम भट्टराई हैं। प्रधानमंत्री के तौर पर इन कामरेडों की मौजूदगी के बावजूद किसी सम्यक नीति के अभाव ने नेपाल में गरीबों की आबादी बढाने का ही काम किया है। यही वजह है कि राजतंत्र के खात्मे के बाद से दिन ब दिन होते बुरे हाल ने नेपाल में मौजूद राजतंत्र के इक्के दुक्के समर्थकों में राजतंत्र पुर्नबहाली का भरोसा पैदा कर रखा है। एकबार फिर से राजा ज्ञानेंद्र के हाथों में सत्ता सुपुर्दगी की उम्मीद लगाकर राजनीतिक ताकतें सक्रिय हैं। राजतंत्र के लिए हिंदूवाद की आड़ में नई लहर पैदा करने की कोशिश हो रही है। राजनीतिक रुप से अति संवेदनशील नेपाली जनमानस में तमाम परेशानियों के बावजूद लोकतंत्र के खिलाफ अब कोई जगह बन पाएगा और राजमहल को सत्ता का प्रतिष्ठान बनाया जाएगा यह असंभव लगता है।

इस दुरूह धार के बीच स्वच्छ लोकतंत्र के लिए लडाई जारी है। भट्टराई को प्रधानमंत्री की कुर्सी से भी हटाने की मांग को लेकर सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया है। नेपाल के 16 राजनीतिक दलों के दबाव में राष्ट्रपति रामबरन यादव ने प्रधानमंत्री भट्टराई के अधिकार सीमित कर दिया है। उनको महज कामचलाऊ प्रधानमंत्री के तौर पर काम करने की सलाह दी है। विपक्षी दलों को आशंका है कि माओवादी प्रधानमंत्री के रहते स्वच्छ और स्वतंत्र चुनाव करा पाना मुमकीन नहीं है। भट्टराई के प्रधानमंत्री रहने तक चुनाव टलवाने का तानाबाना बुना जा रहा है। नई संविधान सभा के चुनाव के लिए सभी दलों की सहभागिता वाली नई राष्ट्रीय सरकार बनाने की पैरवी हो रही है। जोर शोर से कहा जा रहा है कि डा. बाबूराम भट्टराई के प्रधानमंत्री की कुर्सी पर रहते हुए चुनाव कराने का सीधा लाभ प्रधानमंत्री की पार्टी यूनाइटेड काम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (माओवादी) को मिलेगा। ताजुज्ब की बात है कि विरोध की यह आवाज माओवादी नेताओं के मोहन वैद्य के नेतृत्व वाले धडे की तरफ से भी उठ रही है।

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