पलाश विश्वास
बामसेफ एकीकरण सम्मेलन अंबेडकर भवन, दादर ईस्ट में 2 मार्च और 3 मार्च को बारी कामयाबी के साथ संपन्न हो गया।अविभाजित बामसेफ के निवर्तमान अध्यक्ष बीडी बोरकर, मेहना धड़े के अध्यक्ष ताराराम मेहना और बुजनसमाजवादी पार्टी के साथ काम कर रहे बामसेफ कार्यकर्ताओं समेत देशभर से आये लगभग सभी राज्यों का प्रतिनिधित्व करनेवाले प्रतिनिधियों की मौजूदगी में बामसेफ के एकीकरण की प्रक्रिया शुरु हो गयी। एक राष्ट्रीय पुनर्चना कोर कमिटी का चुनाव हो गया, जो लोकतांत्रेक तरीके से संगठानिक ठांचे का सामाजिक भौगोलिक व भाषायी प्रतिनिधित्व के तहत पुनर्गठन के लिए संगठन के संविधान में जरुरी बदलाव करेगा ताकि समय समय पर नेतृत्व परिवर्तन हो और संगठन पर किसी का व्यक्तिगत या किसा काकस का वर्चस्व स्थापित न हो, संसाधनों को आंदोलन में ही लगाया जाना सुनिश्चित हो। इस समिति के सदस्यों के संपर्क सूत्र हम आपको भेज रहे हैं और आप भी अपने सुझाव उन्हें सीधे भेज सकते हैं, शंकाओं का निराकरण कर सकते हैं।इस दो दिवसीय सम्मेलन में सिर्फ बामसेफ के विभिन्न धड़ों को ही नहीं, सभी अंबेडकरवादियों, सभी मूलनिवासी बहुजनों को एक झंडे के नीचे लाने का एजंडा भी तय हुआ है। छह महीने के भीतर एकीकरण की प्रक्रिया पूरी कर ली जायेगी और इसके बाद बामसेफ के बाहर बिभिन्न दलों और संगठनों के साथ आम सहमति के न्यूनतम कार्यक्रम के तहत साझा मंच बनाने की कार्रवाई शुरु होगी। चूंकि इस अबियान में शामिल कोई भी व्यक्ति नेतृत्व के लिए आकांक्षी नहीं है, इसलिए हमने सभी का यहां हमारे साथ जुड़ने का आमंत्रण दिया है। हमें किसी व्यक्तित्व या समुदाय से कोई अस्पृश्यता का व्यवहार नहीं करना है। इसके साथ ही बामसेफ कार्यकर्ताओं से आह्वान किया गया है कि वे किसी भी प्रकार के व्यक्ति आक्रमण और घृणा अभियान की संस्कृति से दूर रहें। बाबासाहेब अंबेडकर और गौतम बुद्ध ने भाषा का कभी दुरुपयोग नहीं किया है। हम उनकी भाषा का ही इस्तेमाल करें और विचार विमर्श का दरवाजा खुला रखें और हर हाल में लोकतांत्रिक धर्म निरपेक्ष तौर तरीका अपनायें क्योंकि हमारा अंतिम लक्ष्य सिर्फ अंबेडरक वादी ही नहीं, बल्कि गैर अंबेडकरवादी लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष ताकतों का जिनकी आस्था बाबासाहेब रचित भारतीय संविधान में है, सभी सामाजिक और लोकतांत्रिक ताकतों का संयुक्त मोर्चे का निर्माण है, जो कारपोरेट जायनवादी धर्मराष्ट्रवादी अश्वमेध यज्ञ का प्रतिरोध कर सकें।
सम्मेलन के दौराम , उसके बाद और अब भी निरंतर मंथन जारी है। सम्मेलन में माननीय बीडी बोरकर, ताराराम मेहना, ज्योतिनाथ, चमनलाल और दूसरे साथियों ने संगठन के विचलन के कारण बताते हुए एकीकरण के लिए सांगठानिक ढांचे और संविधान में आवश्यक फेरबदल करने के बहुमूल्य सुझाव दिये, जिनका पूरा संज्ञान लिया गया और इसके लिए कोर कमिटी का चुनाव भी हो गया। बोरकर और मेहना समेत सभी धड़ों के पदाधिकारियों ने एकीकरण के लिए सिर्फ सहमति ही नहीं दी, बल्कि हर संभव सहयोग करने का संकल्प भी लिया है। उनके सुझावों पर हमने अमल करना शुरु कर दिया है।हम अंबेडकर विचारधारा के मुताबिक देश की उत्पादक व सामाजिक शक्तियों के साझा मंच से इस देश की बहिष्कृत निनानब्वे फीसद जनगण के डिजिटल बायोमेट्रिक कत्लेआम के लिए आर्थिक सुधारों के नम जारी अश्वमेध अभियान के खिलाफ अविलंब राष्ट्रव्यापी आंदोलन शुरु करने के लिए कोशिश कर रहे हैं, जो सबसे अहम है।इसके बिना न आरक्षण की निरंतरता रहेगी और न जनप्रतिनिधित्व के जरिये संविधान, संसद और लोकतंत्र का वजूद कायम रहेगा।सत्ता में भागेदारी भी असंभव है।सबसे जरुरी है कि इस देश के लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष ढांचे की सुरक्षा के लिए संविधान के मुताबिक लोकतांत्रिक प्रणाली और जीवन के हर क्षेत्र में सभी के लिए समान अवसर।
इस कोर कमिटी में अभी बामसेफ के सभी धड़ों और समविचारी संगठनों की केंद्रीय कमिटियों के प्रतिनिधि शामिल किये जाने हैं और राज्यों से सामाजिक भौगोलिक व भाषायी प्रतिनिधित्व के आधार पर और प्रतिनिधि शामिल किये जाने हैं। यह प्रक्रिया चालू है।बामसेफ आंदोलन और विचारधारा को व्यक्तिवाद और वर्चस्ववाद से ऊपर उठाते हुए संस्थागत रुप देना हमारा लक्ष्य है,जिसके तहत बाबासाहेब के अर्थ शास्त्र के मुताबिक वंचित मूलनिवासी समाज की आर्थिक और भौतिक बेहतरी के लक्ष्य, समता, भ्रातृत्व और सामाजिक न्याय के आधार पर महात्मा गौतम बुद्ध के धम्म के अंतर्गत हासिल किया जा सकें।
हम मानते हैं कि अगर संविधान की पांचवी और छठीं अनुसूचियों के तहत आदिवासियों को उनके हक हकूक मिल गये होते तो माओवाद की कोई संभावना नहीं है। अगर बहिष्कार और नरसंहार की संस्कृति के बजाय भारतीय संविधान की लोक गणराज्य की अवधारणा के तहत लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के आधार पर राजकाज चला होता तो देश में हिंसा और गृहयुद्ध का यह माहौल नहीं होता। इस एकीकरण सम्मेलन में बड़ी संख्या में आदिवासी प्रतिनिधियों ने विभिन्न राज्यों का प्रतिनिधित्व किया। कोर कमिटी में तीन बड़े आदिवासी नेता ताराराम मेहना (राजस्थान), विजय कुजुर(झारखंड) और भास्कर बाकड़े (महाराष्ट्र) शामिल हैं। भविष्य में भी परिवर्तित सांगठनिक ठांचे में सभी समुदायों को समुचित प्रतिनिधित्व दिया जायेगा। आदिवासियों के लिए अपने इलाके से बाहर निकलना विभिन्न कारणों से लगभग असंभव है, इसलिए संगठन अब व्यापक पैमाने पर आदिवासियों के बीच जायेगा। संगठन में शरणार्थियों, महानगरों की गंदी बस्तियों में रहने वाले लोगों और घूमंतू समुदायों को भी समुचित प्रतिनिधित्व दिया जायेगा।
जाति व्यवस्था के भारतीय यथार्थ की अनदेखी का दुष्परिणाम हमारे सामने है। भारतीय विचारकों में से बाबा साहेब अंबेडकर नें ही इस तिलिस्म को तोड़ने का रास्ता बताया है और वह रास्ता लोकतांत्रिक और धर्म निरपेक्ष है। बाबासाहेब विश्वप्रसिद्ध अर्थ शास्त्री भी हैं। राथचाइल्ड की देखरेख में जनसंहार संस्कृति के तहत भारत में जो साम्राज्यवादी कारपोरेट राज है और जिसका धर्म राष्ट्रवाद समर्थन करता है, २०१४ में धर्म राष्ट्र की स्थापना जिसका एजंडा है, उसके लिए अंबेडकर अर्थ शास्त्र और जाति उन्मूलन केंद्रिक, भौतिक उन्ययन, समता और सामाजिक न्याय के बाबासाहेब के दर्शन के सिवाय इस प्रलंयकारी विपर्यय से बच निकलने के लिए भारतीयय आम जनता, रंगभेदी वर्चस्ववादी जायनवादी धर्म राष्ट्रवादी कालाधन की व्यवस्था कारपोरेट राज के शिकार निनानब्वे फीसद नागरिकों के लिए कोई दूसरा विकल्प नहीं है। िस सिलसिले में बेहतर विमर्श के लिए आदिवासी लेखक हरिराम मीणा के विचार और हाशिये पर धकेल दिये गये समाज के प्रति प्रतिबद्ध कारपोरेट साम्राज्यवाद के विरुद्ध निरंतर संघर्षरत लेखिका अरुंधति राय का पूरा एक इंटरव्यू जाति समस्या पर केंद्रित इस रपट के साथ नत्थी है। िइससे रपट थोड़ी लंबी जरुर होगी पर आपको हमारा आशय समझने में सहूलियत होगी।
हमने इस सम्मेलन के लिए कोई संवादाता सम्मेलन का आयोजन नहीं किया। बामसेप के संस्थापकों में से एक मास्टर मानसिंह ९३ वर्ष की अवस्ता के बावजूद आगरा से मुंबई तक आये। न केवल सम्मलन का उद्घाटन किया, विमर्श में बढ़ चढ़कर भाग लिया ौर सम्मेलन के बाद बी वे सक्रिय हैं। इस सम्मेलन को महात्मा ज्योति बा फूले से भी पहले ब्राह्मणवाद को खारिज करके मतुआ आंदोलन शुरु करने वाले नील विद्रोह के किसाननेता हरिचांद ठाकुर को समर्पित किया गया, जिनकी दो सौ वीं जयंती हाल में मनायी गयी है। सम्मेलन स्थल का नाम हरिचांद ठाकुर मंच रहा। हम कारपोरेट मीडिया के आभारी हैं कि उसने स्वतःस्फूर्त होकर अंबेडकर विचारधारा, बामसेफ और मूलनिवासी आंदोलन के बारे में अपने तमाम पूर्वग्रहों को किनारे रखकर सम्मेलन का निरंतर कवरेज किया। उनके मतामत और सुझावों पर हम अवश्य ही गौर करेंगे पर विनम्र निवेदन है कि इस प्रसंग में वे हमारे मतामत को भी समान महत्व दें।सोशल मीडिया शुरु से हमारे साथ है और हमें उनसे एकीकरण प्रक्रिया पूरी करने की दिशा में आगे भी सहयोग की भारी प्रत्याशा है।
लोकसत्ता के मुताबिक
व्यवस्था परिवर्तनाचे उद्दिष्ट डोळ्यासमोर ठेवून स्थापन करण्यात आलेल्या बामसेफमध्ये हुकुमशाही प्रवृत्तीच्या नेतृत्वामुळे फूट पडल्याचा सूर संघटनेच्या निष्ठावंत कार्यकर्त्यांच्या बैठकीत लावण्यात आला. सामाजिक क्रांतीच्या उद्देशाला आणि संघटनेलाही मारक ठरणाऱ्या नेतृत्वाला दूर करुन बामसेफची नव्याने पुनर्रचना करण्याचा निर्धार या वेळी व्यक्त करण्यात आला.
रिपब्लिकन पक्षाप्रमाणेच देशभर फोफावलेल्या बामसेफ या सरकारी-निमसरकारी क्षेत्रातील मागासवर्गीय अधिकारी-कर्मचाऱ्यांच्या संघटनेला फुटीने ग्रासले आहे. गेल्या चार-पाच वर्षांत आठ-दहा गट उदयास आले आहेत. त्यामुळे गेली वीस-पंचवीस वर्षे निष्ठेने काम करणाऱ्या कार्यकर्त्यांंमध्ये अस्वस्थता आहे. त्यातूनच काही निष्ठावंत कार्यकर्त्यांनी अंतर्गत गटबाजीला मूठमाती देऊन बामसेफच्या एकीकरणीसाठी पुढाकार घेतला आहे.
बामसेफच्या एकीकरणाचाच एक भाग म्हणून शनिवारी दादर येथील आंबेडकर भवनमध्ये देशभरातील विविध गटातील निष्ठावंत कार्यकर्त्यांची बैठक आयोजित करण्यात आली होती. या बैठकीला १८ राज्यांतून २०० ते २५० प्रमुख पदाधिकारी आले होते. त्यात बामसेफचे विविध गट चालविणाऱ्या चमनलाल (उत्तर प्रदेश), शिवाजी राय व ज्योतिनाथ (बिहार), अभिराम मलिक (ओरिसा), अब्दुल सुकुर (कर्नाटक), ताराराम मेहना ( राजस्थान), तसेच सुबच्चनराम आणि बामसेफचे माजी राष्ट्रीय अध्यक्ष बी. डी. बोरकर इत्यादी प्रमुख नेत्यांचा समावेश होता. मराठा सेवा संघाचे सल्लागार अॅड. अनंत दारवटकर हेही या बैठकीला उपस्थित होते. बामसेफच्या ऐक्याबरोबरच, मराठा सेवा संघ, संभाजी ब्रिगेड, अशा समविचारी संघटनांनाही बरोबर घ्यावे, असे आवाहन त्यांनी केले.
व्यवस्था परिवर्तनासाठी बामसफेची स्थापना करण्यात आली होती. परंतु काही लोक हे उद्दिष्टच विसरले आणि संघटनेपेक्षा स्वतला मोठे समजू लागले, त्यातून संघटनेत फुटीची प्रक्रिया सुरु झाली असे विश्लेषण बैठकीत करण्यात आले. खास करुन एककल्ली व हुकुमशाही प्रवृत्तीच्या नेतृत्वामुळे संघटनेत फूट पडल्याची टीका बोरकर यांनी केली. उद्या पुन्हा बैठक होणार असून त्यात बामसफेचे एकीकरण, पुढील कार्यक्रम व आंदोलनाची दिशा ठरविली जाणार आहे.
Reconstruction Core committee memebrs are as follows (नीचे कोर कमिटी के सदस्यों के नाम और पते दिये जा रहे हैं, जिनसे आप सीधे संपर्क साध सकते हैं।):
We have been entrusted to draft a document which will help in creating a mechanism for avoiding split in the organization, diversion of funds, haphazardly removal of activists and so on at the 2 day Unification Conference. As you are aware we are short of time and the same should have been used for more constructive work but it is unfortunate that we have to complete this unavoidable task. So kindly circulate your free and frank suggestions, draft, documents, ideas so that we can complete the job well within the time frame of not more than 02 months. The List of co-ordination adhoc committee members is as follows :
NAME | MOBILE NUMBER | e-mail address |
Mr. Jyotinath Kushawah – Hajipur Bihar | 9471008004 | prabhashbeejbhandar@gmail.com / jyotisaro@gmail.com |
Mr. Palash Biswas - Kolkata | 9903717833 | palashbiswaskl@gmail.com |
Mr. Chamanlal - Saharanpur | 9452009503 | chamanlal_moolnivasi@yahoo.com |
Mr. Abhiram Mallick – BBSR, Orrisa | 9437890720 | abhirammallick72@gmail.com |
Mr. Bhaskar Wakde – Chandrapur, Mah. | 9850729521 | ------ |
Mr. Kokan Mitra - Kolkata | 9433124989 | --------- |
Mr. Ravji Patel – Balsad, Gujrat | 9426872677 | Patelrajnish319@gmail.com |
Mr. Abdul Shukoor - Bangalore | 9538326610 | ashukoor42@yahoo.in |
Mr. S.K. Barve - Mumbai | 9869056811 | tathagat1412@gmail.com / barves@bharatpetroleum.in |
Mr. Sarnath Gaikawad | 9021898941 | sarnathgaikwad14@gmail.com |
Mr. Tappen Mandal - Kolkatta | 9434040728 | tapanmandal57@gmail.com |
आगे विस्तृत जानकारी के लिए कृपया संपर्नक करें:
LT COL SIDDARTH BARVE
9869056811 022-24117888 / 24178481 022-24117888
अंध धर्म राष्ट्रवाद की पैदल सेना बनकर भक्तिमार्ग पर देश काल परिस्थिति से अनभिज्ञ बहुजन समाज जिस अंधकार में मारे जाने को नियतिबद्ध है, वहां अंबेडकर विचारधारा और बहुजन महापुरुषों के समता और सामाजिक न्याय के आंदोलन की अटूट परंपरा ही हमारे लिए दिशा निर्देश हैं।
महज आरक्षण नहीं, सिर्फ सत्ता में भागेदारी नहीं, बल्कि अंबेडकरवादी अर्थशास्त्र के मुताबिक देश की अर्थ व्यवस्था और प्राकृतिक संसाधनों, संपत्ति, रोजगार, शिक्षा, नागरिक, स्त्री और मानवअधिकारों के लिए, जल जंगल जमीन और आजीविका से बेदखली के विरुद्ध संविदान के तहत पांचवीं और छठीं अनुसूचियों में प्रदत्त गारंटी लागू करने के लिए, दमन और भय का माहौल खत्म करने के लिए यह अतिशय विलंबित कार्यभार अत्यंत आवश्यक है।इसके लिए सभी अंबेडकरवादियों, धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक ताकतों, जनांदोलनों को बिना किसी बैर भाव और अहम के एक ही लक्ष्य के लिए गोलबंद होना बेहद जरुरी है।
एकाधिकारवादी नेतृत्व के बजाय लोकतांत्रिक सामाजिक,भाषिक व भौगोलिक प्रतिनिधित्व वाले साझा नेतृत्व स्थानीय स्तर पर गांव गांव से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक विकसित करने की आवश्यकता है।
जाति उन्मुलन हमारा लक्ष्य है और हम अस्पृश्यता के विरुद्ध हैं। भेदभाव के विरुद्ध हैं।
राष्ट्रव्यापी आंदोलन के लिए सबसे जरुरी है राष्ट्रव्यापी विचार विमर्श।
जिसके लिए इस देश के पिछड़ों, दलितों, आदिवासियों, शरणार्थियों और अल्पसंख्यकों को कहीं कोई स्पेस नहीं मिलता।
सारे लोग बिखराव के शिकार है।
हम तोड़ने में नहीं, जोड़ने में यकीन करते हैं और इस बिखराव को खत्म करने के लिए प्राथमिक स्तर पर बामसेफ के सभी धड़ों और गुटों के एकीकरण का प्रयास करते हैं।
सभी धड़ों, गुटों के अध्यक्षों को इस सम्मेलन के लिए आमंत्रण पत्र भेजा गया और सबको खुला आमंत्रण
था।जो लोग किसी कारण से इस सम्मेलन में शामिल नहीं हो पाये, एकीकरण कीप्रक्रिया में उनका भी स्वागत है।
हम इस व्यवस्था के सिवाय किसी के खिलाफ नहीं है।
बामसेफ के एकीकरण से हम बहुजनसमाज के निर्माण की दिशा में उत्पादक शक्तियों और सामाजिक शक्तियों का वैश्विक व्यवस्था के विरुद्ध विश्वभर में जारी प्रतिरोध आंदोलन और रंगभेद व दासता के विरुद्ध मुक्तिसंग्राम की परंपराओं के मुताबिक, सुफी संतों .महापुरुषों और बाबासाहेब की विचारधारा व परंपराओं के मुताबिक, मुक्ति के लिए दुनियाबर की जनता के आंदोलनों की सुदीर्घ परंपराओं के मुताबिक ध्रुवीकरण और एकीकरण चाहते हैं।
संवाद और विमर्श के लिए बामसेफ एकीकरण सम्मेलन एक अनिवार्य पहल है। जहां एकमात्र एजंडा यही है कि बहुजन समाज का निर्माण और राष्ट्रव्यापी आंदोलन।
अगर विचारधारा एक है, लक्ष्य एक है, तब अलग अलग द्वीपों में अपने अपने तरीके से लड़कर अपने लोगों का, अपने स्वजनों का नरसंहार का साक्षी बनते रहने के लिए क्यों अभिशप्त रहेंगे हम?मान्यवर कांशीराम, ने दीनाभानाजी, खापर्डे और मास्टर मानसिंह जैसे लोगों ने अंबेडकर विचारधारा के कार्यान्वयन और सूफी,संतों, महापुरुषों के आंदोलन की निरंतरता बनाये रखने के उद्देश्य से बहुजन समाज की गुलामी खत्म करने के लिए बामसेफ की स्थापना की थी, जो बहुजन समाज के सभी कर्मचारियों को संगठित कर उनके जनतांत्रिक अधिकारों के लिए संघर्ष करेगा और समाज के बीच जागरूकता फैलाएगा। एक दौर तक बामसेफ आंबेडकर के विचारों और कांशीराम की सोच को पोषित करता रहा, लेकिन बाद के वर्षों में सोच-विचार की भिन्नताओं और नेतृत्व के व्यक्तिगत अहं और स्वार्थ के चलते बामसेफ आज चार-पांच टुकड़ों में बंट गया है और जातीय, क्षेत्रीयता, भाषायी आधार पर भी संगठन के बीच विभाजन बढ़ता जा रहा है। नेतृत्व की वैचारिक भिन्नता के चलते तन-मन-धन से पूरी तरह समर्पित कार्यकर्ता समझ नहीं पा रहे हैं कि कौन-सा बामसेफ आंबेडकरवादी है और कौन-सा अन्य विचार वाला।कार्यकर्ताओं मेंएक अंधभक्ति-सी है, जिसके चलते उनके नेता ने जो कह दिया वही आखिरी सत्य बन जाता है। बामसेफ के अलग अलग धड़े व्यवस्था परिवर्तन के लिए संघर्ष करने के बजाय अपने अपने वर्चस्व के लिए आत्मघाती अभियान में मग्न हैं। देश और दुनिया में जो कुछ हो रहा है, उससे हम पूरीतरह बेखबर हैं और कारपोरेट में तब्दील वर्चस्ववादी धर्मराष्ट्रवाद के बैनरतले पैदल सेना में तब्दील हो रहे बहुजनों से बामसेफ का कोई संवाद नहीं है। बाबासाहेब ने जाति उन्मूलन का लक्ष्य तय करके समता और सामाजिक न्याय पर आधारित वर्गहीन जातिविहीन शोषणमुक्त समाज की स्थापना की दिशा तय की थी। संविधान की रचना करते हुए भारतीय गणराज्य की नींव डालते हुए मौलिक अधिकारों के साथ साथआरक्षण और संविधान के पांचवीं छठीं अनुसूचियों के जरिये अनुसूचित जनजातियों और अनुसूचित जातियों को संवैधानिक रक्षा कवच दिया था। ओबीसी के अधिकारों के लिए और भारतीय स्त्री के अधिकार सुनिश्चित करने के लिए अपने रचित हिंदू कोड बिल के खारिज होने पर उन्होंने नेहरु मंत्रिमंडल से त्याग पत्र दिया था। आर्थिक सुधार के नाम पर बेरोकटोक संविधान की रोजाना हत्या हो रही है। देश की निनानब्वे फीसद आम जनता के मौलिक अधिकारों को कुचलने के लिए, जल, जंगल, जमीन,नागरिकता और आजीविका, नागरिक और मानवाधिकारों से मूलनिवासी बहुजनों को बेदखल करने के लिए कारपोरेट राज के तहत धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक ठांचा को ध्वस्त करते हुए एक के बाद एक जनविरोधी नीतियां बन रही हैं। लागू हो रही हैं। राष्ट्र का सैन्यीकरण हो रहा है। कश्मीर,मणिपुर समेत समूचे पूर्वोत्तर और देश के सभी आदिवासी इलाकों में सशस्त्र सैन्यबल विशेषाधिकार कानून और सलवा जुड़ुम समेत विभिन्न नामों के अंतर्गत मूलनिवासी बहुजनों के खिलाफ मनुस्मृति नस्ली वर्चस्व वाली व्यवस्था ने युद्ध की घोषणा करके राष्ट्रीय सुरक्षा और आंतरिक सुरक्षा के बहाने रक्षा सौदों के जरिये कालेधन की अर्थ व्यवस्था के तहत बायोमेट्रिक डिजिटल नागरिकता के हथियार के बल पर साम्राज्यवादी जायनवादी ताकतों की पारमाणविक मदद से नरसंहार संस्कृति चलाय़ी हुई है, लेकिन बामसेफ की इस ओर नजर नहीं है। अंबेडकरवादी विचारधारा के तहत जाति उन्मूलन के बजाय जातीय पहचान के आधार पर सत्ता में भागेदारी अब एकमात्र लक्ष्य हो गया है। कारपोरेट चंदा वैध हो जाने के बाद अब तो जो अराजनीतिक थे वे भी राजनीतिक दल बनाकर मैदान में डट गये है और व्यवस्था बदलने के बजाये मूलनिवासी बहुजन समाज को और विभाजित कर रहे हैं।
We have only one objective to defend republic democratic India with its constitution and democratic set up, we have to work for an inclusive economic order which should ensure material empowerment of all citizens of India , specifically those excluded for thousands of yeras. We as followers of Dr BR Ambedkar have to work for annihiliation of caste to make India a casteless classless society based on equality, fraternity, social justice, freedom, civic and human rights. We have a greater task to make a joint forum of social and productive forces which represent ninety nine percent of Indian population. We have decided to institutionalise our organization BAMCEF with grass root level to national level based on geographical, social and linguistic representation. Those who are engaged in active politics seeking share in power may follow their path in the secular and democratic republic. we have no contradiction. But we must unite against the hell losing against the people of India and have to start afresh to resist the system of exclusion and ethnic cleansing.
We have decided to use only Ambedkarite language and linguistics to give up abusive language and hate campaign as we are not against any particular person or community. We have to root out the brahaminical system and the corporate hegemony. We have great Gautam Buddha, Harichand Thakur, Jyotiba Phule, Naykre, Pariyar, Dr Ambedkar and all Indian saints who fought lifelong against the hegemony and the system.
Let us stand united!
I have just returned from Mumbai. This time, my wife Sabita also accompanied me. Meanwhile she was ill. But we continued the dialogue. Our friends have posted speeches on You Tube. Entire procedure would be posted on You Tube very soon. Our friend Chamanlal, who has been elected coordiantaor of the reconstruction core committee ha posted a preliminary report on facebook. I have talked to Tara Ram Maina and BD Borker and we, all of us in the unification team are in constant touch with activists all over the country. Everyone is ready to rise for the occassion. We have got overwhelming support form face book friends. Thanks.
Chamanlal reported on face book:
A Great Success ! : Around 200 delegates/representatives of different BAMCEF groups and other organizations who are also working on Phule-Ambedkari ideology from across the 18 States of India have gathered at Ambedkar Bhawan, Gokuldas Pasta road, Dadar, Mumbai in the All India BAMCEF Unification Conference. They deliberated on the different subjects of unification and finally concluded that they all should work jointly in the larger interest of mulnivasi bahujan society keeping in view the severe implementation of counter revolution agenda by the ruling caste group. The meeting itself was a feat in the history of mulnivasi bahujan samaj no less than the important Buddhist Sangities that held in history to refine the Buddhism.
The courageous organizers had shown the big hearts to the wicked. Organizers have appealed the participants to discuss over the solution of the cardinal problems of people working dividedly and strictly refrained the participants in the conference from criticizing anybody individuals responsible for the different divisions.
B D Borkar, the Ex National President of BAMCEF says that as man thinks differently so as he works differently. So to work unidirectional people have to think congruently regarding achieving the objective of structural change. He said that they also tried unification of BAMCEFs in 2004 but succeeded a little. However, above all, he offered his all sought required help in this fresh attempt of BAMCEF unification. He says that unification is not a onetime task rather it is a process that may take some time to culminate.
Tara Ram Mehna, National President of one of the factions of BAMCEF says that disintegration of BAMCEF in history took place only when the objective of the Leader deviates from the stipulated objective of social change. The disintegration never took place among the objective, ideology and the people. Without naming anybody he, however, pointed that the objective of a specific person has become becoming billionaire through misappropriation of BAMCEF fund and investing missionary financial asset into his own private Trust and other private limited companies that are meant for his own aggrandizement.
Chaman lal, the ex CEC member of BAMCEF, however, deliberated differently and spoke that the disintegration problem of BAMCEF are cardinally related to structural and functional lacunas of BAMCEF constitution. Apart from this the icon formation (व्यक्ति निर्माण, मसीहा निर्माण) in BAMCEF movement has always resulted in fragmentation and deterioration of BAMCEF movement. Therefore, before working together it is highly recommendable that first of all, all the willing parties coming closer to assimilation must unanimously remove the constitutional and functional lacunas that are otherwise responsible for icons formation in the organization rather than constituting the Mulnivasi Bahujan Samaj institution which is essential for achieving the ultimate objective of social change.
Lt. Col. Siddharth Barve inaugurated the conference explicitly quoting the objectivity of the conference and resolved to achieve the same what so ever be the adversaries in the process. He instructively made aware the people there by showing the projector slide show depicting the counter revolution agenda of the ruling caste groups.
Among the notable speakers those expressed their views on the problem in question were notable journalist and activist Plash Biswas , Subachan Ram-IRS, Chandra Pal (Retd. IAS and President Adarsh Samaj party), Raoji Bhai Patel (CEC member, BAMCEF), Jyotinath kushwaha and shivaji Rai from Bihar, Shivani Biswas, Fakir Chand (USA), Bhaskar wakkde, Manoj motghare and his other collegues.
Conclusion : It was unanimously decided to reconstruct the BAMCEF constitution structurally and laid down the functional and modal code of conduct into it by appointing the ad-hoc committee of representatives of different BAMCEF factions and other similar organizations. Within two-three month the committee will submit its draft to the General Body of BAMCEF for its approval and enactment. The meeting ended with the vote of thanks from the organizers.
आइये, दमन , सामाजिक भेदभाव, अर्थ व्यवस्था और जीवन के हर क्षेत्र से बहिष्कार के विरुद्ध, सैन्य राष्ट्र की अपनी ही जनता के विरुद्ध युद्धघोषणा के खिलाफ हमारे उड़नदस्ते में शामिल हों!
अंबेडकर विचारधारा के मुताबिक समता और सामाजिक न्याय आधारित व्यवस्था निर्माण के लिए इस प्रयास में सहभागी बनने के लिए खुला आमंत्रण है।
हम किसी भी तरह के मिथ्या और घृणा अभियान के परतिरोध के लिए अंगीकारबद्ध हैं। हमें सामाजिक और मानवीय होना चाहिए, पर सामने वाले में भी ऐसा कुछ सोच दिखाई देना चाहिए, जिससे उनका मानवीय होना, सबको बराबर इंसान समझना उनके व्यवहार और कृत्यों से झलकता हो। ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो आज भी दलितों को अपनी अघोषित संपत्ति मानते हैं, मगर इंसान तक मानने को तैयार नहीं हैं। संगठन के नेतृत्व और बाकी लोगों को विवेक से काम लेना होगा। दलितवाद के अंदर निरंतर बढ़ रहे ब्राह्मणवादी मानसिकता को भी समझने की जरूरत है। यब बात अलग है कि आज देश का दलित समाज भी भयंकर ब्राह्मणवाद से ग्रसित हो चुका है। बंधुत्व और समानता जैसे शब्दों के अर्थ अभी खुलने बाकी हैं।
ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HIS SPEECH.
BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7
Published on 10 Mar 2013
ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HIS SPEECH.
http://youtu.be/oLL-n6MrcoM
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BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 3
Published on 5 Mar 2013
ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B.R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013.
Mr.B.D.BORKAR EX PRECEDENT OF BAMCEF DELIVERING HIS SPEECH.
http://youtu.be/ycMDJnrijqM
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BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 2
Published on 5 Mar 2013
ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B.R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013.
Mr.CHAMANLALEX CEC MEMBER OF BAMCEF DELIVERING HIS SPEECH.
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BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 9
Published on 10 Mar 2013
ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mrs. SHIBANI BISWAS (BAMCEF ACTIVIST)DELIVERING HER SPEECH.
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http://www.youtube.com/watch?v=8QNMum9PXB0
BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 4
Published on 8 Mar 2013
ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B.R. AMBEDKAR BHABAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.TARARAM MEHANA (BAMCEF PRESIDENT) DELIVERING HIS SPEECH.
http://youtu.be/CZSX3YZ65pY
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BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 10
Published on 10 Mar 2013
ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.ABHIRAM MALLICK,(BAMCEF FULL TIMER -URISSA ) DELIVERING HER SPEECH.
http://youtu.be/G1NW7WWY55I
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BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 8
Published on 10 Mar 2013
ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.JYOTINATH KUSHAWAG (BAMCEF ACTIVIST -BIHAR) DELIVERING HER SPEECH.
http://youtu.be/bPBZfReKqU4
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BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 1
Published on 5 Mar 2013
ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE WAS HELD AT AMBEDr.B.R. DKAR BHAVAN ,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013.
SUBACHAN RAM DELEVERING HIS SPEECH.
http://youtu.be/AHllbX4QrjU
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हरिराम मीणा ने एकदम सही लिखा हैः
किसी भी राष्ट्र-समाज के उन घटकों के सम्मिलित समाज को हाशिये का समाज कहा गया है, जो अगुआ तबके की तुलना में सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक स्तर पर किन्हीं कारणों से पीछे रह गया है। इस सामान्यीकृत परिभाषा को विस्तार से समझने से पहले हाशिये शब्द पर थोड़ा विचार करना जरूरी है। किसी पृष्ठ में हस्तलेखन या टंकण करने से पूर्व शीर्ष पर और मुख्य रूप से बार्इं ओर कुछ जगह छोड़ी जाती रही है और इस जगह को हाशिया कहा जाता है। प्रश्न उठता है कि हाशिये का समाज, समग्र समाज के लिए कितना महत्त्वपूर्ण है और उसे शीर्ष का समाज कहना चाहिए या एक ओर छोड़े गए हाशिये का समाज?
भारतीय राष्ट्र के संदर्भ में हाशिये के समाज में निस्संदेह आधी मानवता के रूप में महिलाएं होंगी। इससे इतर स्त्री-पुरुष को साथ-साथ देखता हुआ दलित, आदिवासी और अन्य पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यक-जन हाशिये के समाज में शामिल माने जाएंगे। स्त्री की दशा पुरुष की तुलना में कुल मिला कर दोयम दर्जे की रहती आई, भले मूल में मातृ-सत्तात्मक परिवार की वास्तविकता रही हो या भारतीय शास्त्रों में 'यत्र नार्यस्तु पूज्यंते' का कथन रहा हो। यह दशा प्रकारांतर में पुरुष-वर्चस्व के विकसित होते जाने के साथ पैदा हुई। पुरुष की तुलना में स्त्री की ऐसी दशा के अलावा जब सामाजिक घटकों के स्तर पर बात की जाएगी तो निश्चित रूप से एक बड़ी संख्या दलितों और आदिवासियों की होगी। यह समाज कैसे विकसित हुआ यह शोध का विषय अब भी है, लेकिन जो अध्ययन और इतिहास हमारे सामने है उसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि आर्य-अनार्य संग्राम शृंखला के दौरान जो ज्ञात मूल-जन विजित कर लिए गए और दास, सेवक या शूद्र के रूप में जिनके साथ व्यवहार किया गया, वह आज का दलित समाज है जिसने मुख्य रूप से अछूत होने का दंश सहा।
जो जन-समूह विजेताओं की पकड़ से बाहर रहे, खदेड़ दिए गए या बच कर दूरदराज दुर्गम जंगलों और पहाड़ों में शरण लेने को विवश हुए, वे आज के आदिवासी कहे जा सकते हैं। दलितों के साथ अछूत जैसा व्यवहार एक समाजशास्त्रीय अवधारणा है, जबकि आदिवासी जन राजसत्ता के वर्चस्व से दूर दमन की प्रक्रिया से गुजरते हुए पृथक भौगोलिक क्षेत्रों में चले गए। उनके जीवन की दशा को राजनीतिशास्त्रीय दृष्टिकोण से देखा जाना चाहिए, चूंकि उनकी सामाजिक-सांस्कृतिक परंपरा और राजनीतिक प्रणाली शेष समाज से अलगरही। गणतंत्र की अवधारणा ऐसे ही आदिम समाजों में विकसित हुई थी, जो अब भी किसी न किसी रूप में देखी जा सकती है। पूर्वोत्तर के राज्य इसका श्रेष्ठ उदाहरण हैं।
जहां तक अति पिछड़े अन्य वर्गों का सवाल है तो उन्हें हम अर्थशास्त्रीय अवधारणा से समझ सकते हैं। इन घटकों का प्रमुख संकट प्रभुवर्ग द्वारा श्रम का शोषण था। इन शोषितों में कृषक, शिल्पी और श्रम पर निर्भर अन्य मानव समुदाय आते हैं। हालांकि इस वर्ग ने सामाजिक और सांस्कृतिक स्तर पर दोयम दर्जे का सलूक नहीं झेला, लेकिन आर्थिक दृष्टि से इसका शोषण होता रहा। इसलिए यह वर्ग भौतिक विकास के स्तर पर पीछे चला गया।
हाशिये के समाज में एक और महत्त्वपूर्ण घटक भी है जिसे हम अल्पसंख्यक वर्ग कहते हैं, जिसमें प्रमुख रूप से भारतीय हिंदू या गैर-हिंदू परंपरागत समाज के वे मानव समुदाय आते हैं जो स्वैच्छिक रूप से या दबाव में अन्य धर्मों को अपनाते रहे। इनमें प्रमुख रूप से मुसलिम, ईसाई और सिख शामिल हैं जिनका अधिसंख्यक दलित, आदिवासी और पिछड़े वर्गों से ताल्लुक रखता है। यहां हम बौद्ध और जैन धर्मावलंबियों को शामिल नहीं कर रहे हैं। इसकी वजह यह है कि ये दोनों ही धर्म जड़ होते जा रहे हिंदू धर्म के विरुद्ध धार्मिक क्रांतियों के रूप में सामने आते हैं और हाशिये के समाज से उस रूप में संबंध नहीं रखते जैसे कि यहां चर्चा की जा रही है, हालांकि यह भी अलग से गहन विश्लेषण का विषय हो सकता है।
उक्त विमर्श से यह स्पष्ट होता है कि दलित, दमित, शोषित और धर्म के स्तर पर अल्पसंख्यक घटकों का वृहद समाज हाशिये का समाज बनता है। सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और धार्मिक स्तर पर वर्चस्व रखने वाले समूहों ने हाशिये के समाज को उत्पीड़ित-शोषित किया और उसे हिकारत भरी नजर से देखा। फलस्वरूप यह वर्ग समाज के समग्र विकास की यात्रा में पीछे या हाशिये पर चला गया या उधर जाने के लिए विवश किया गया। वस्तुत: यह हाशिये का समाज ही राष्ट्र-समाज की सबसे बड़ी धारा है, जिसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका सभ्यता और संस्कृति के विकास में हुई और उत्पादन का कार्य भी इसी वर्ग द्वारा किया गया। इसलिए जब राष्ट्र-निर्माण में मानव संसाधन के अवदान पर चर्चा की जाएगी तो श्रमसन्नद्ध इसी हाशिये के समाज को केंद्र में रखा जाएगा, न कि वर्चस्वकारी पराश्रयी प्रभुवर्ग को।
अब वर्ग की अवधारणा हमारे सामने आती है और किसी भी राष्ट्र-समाज में अंतत: दो ही वर्ग उभर कर सामने आते हैं- एक, श्रमसम्मत व्यापक लोक, और दूसरा, वर्चस्वकारी कुलीन वर्ग। ठेठ आदिम अवस्था से वर्तमान तक इस वर्गीय अवधारणा को केंद्र में रख कर चीजों को समझने का प्रयास किया जाए तो व्यापक लोक बनाम वर्चस्वकारी वर्ग की ही तरह शारीरिक श्रम बनाम बौद्धिक श्रम का प्रत्यय हमारे सामने आता है। भारतीय ज्ञान परंपरा के आधार पर यह सिद्ध हो जाता है कि किस तरह चालाक बुद्धिजीवी वर्ग ने शारीरिक श्रम की तुलना में बौद्धिक श्रम को अधिक तवज्जो दी और यह प्रस्थापित कर दिया कि बौद्धिक अवदान ही सभ्यता, संस्कृति और विकास की यात्रा के लिए प्रमुख है। इस प्रस्थापना के कारण श्रम पर आधारित वर्ग, बौद्धिक वर्ग की तुलना में, हेय दृष्टि से देखा जाने लगा।
यह सर्वविदित है कि किस तरह इस बौद्धिक वर्ग ने श्रम और बुद्धिबल की खाई पैदा करते हुए स्वयं का वर्चस्व कायम किया। इसी के साथ विराट पुरुष से वर्ण-व्यवस्था की अवधारणा आगे बढ़ाई गई, जिसने मनुवाद को जन्म देते हुए अंतत: समानता, सामूहिकता, मातृ प्रधानता, सार्वजनिक संपत्ति और प्रकृति और मानवेतर प्राणी जगत से सहअस्तित्व के संबंध जैसे भारत के व्यापक लोक परंपरा के मौलिक गुणों को धीरे-धीरे तिलाजंलि दे दी और यही प्रक्रिया आज के बहुआयामी संकटों की जननी है। राज, धन और धर्म की सत्ताओं पर जो वर्ग काबिज रहा उसने शेष समाज को उपेक्षित रखने का षड्Þयंत्र रचा। यहां तक कि पुरुष वर्चस्व की परंपरा को सुदृढ़ करते हुए स्वयं के वर्ग के नारी समुदाय को भी दोयम दर्जे पर पटक दिया।
जिसे हम हाशिये का समाज कहते हैं उसका अधिकतर देश का मूल निवासी है, यहां की सभ्यता और संस्कृति का निर्माता है और इस राष्ट्र की भूमि का असली वारिस है। जो मानसिकता समानता, सामूहिकता, प्रकृति और मानवेतर प्राणियों के साथ सहअस्तित्व, श्रम की महत्ता आदि में विश्वास नहीं करती, वह राष्ट्रहित में नहीं है। वैश्वीकरण के दौर में विज्ञान और तकनीकी की उपलब्धियों पर भी एक चालाक वर्ग का कब्जा होता जा रहा है, जो बाजार की ताकत के आधार पर शासन प्रणाली और लोकतांत्रिक व्यवस्था को अपने हित में इस्तेमाल करने की क्षमता रखता है। यह ऐसा प्रभावशाली वर्ग है जिसका एकमात्र लक्ष्य अधिकाधिक भौतिक लाभ अर्जित करना है। इस वर्ग को राष्ट्र-समाज के सरोकारों से अधिक मतलब नहीं है। परंपरागत वर्चस्वकारी वर्ग अब हाइटेक पूंजीनायक वर्ग बनता जा रहा है।
बहुसंख्यक समाज की समस्याओं में कुछ समान हैं जिन्हें हम बहुआयामी शोषण, पहचान के संकट और अंतत: मानवाधिकारों के हनन के रूप में देख सकते हैं। विशिष्ट समस्या के तौर पर दलित वर्ग अब भी अस्पृश्यता का दंश झेल रहा है। आदिवासी समाज के लिए तो इस दौर में अस्तित्व का संकट सबसे बड़ी चुनौती के रूप में सामने आया है। अति पिछड़ा वर्ग श्रम के शोषण से अब भी जूझ रहा है और अल्पसंख्यक वर्ग आए दिन सांप्रदायिक हिंसा और उत्पीड़न का शिकार होता है। कुल मिला कर, इन समान और विशिष्ट समस्याओं की जड़ में प्रभुवर्ग का वर्चस्व है, जिसमें विकास के लिए आवश्यक संसाधनों पर उसके कब्जे को निर्णायक तत्त्व के रूप में देखा जा सकता है।
मुक्ति का मार्ग एक ही है कि हाशिये के समाज (जिसे वास्तव में बहुसंख्यक समाज कहा जाना चाहिए) के विभिन्न घटक राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक मोर्चों पर लामबंद हों। वे शिक्षा, जागृति और नेतृत्व विकसित करें और लोकतांत्रिक व्यवस्था में अपना सशक्त प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करें ताकि निर्णय उनके पक्ष में संभव हो सके और साथ ही वर्चस्वकारी वर्ग को यह अहसास हो कि परंपरा-दर-परंपरा उसकी चालाकियां समग्र मानव समाज के हित में नहीं हैं।
वैश्वीकरण के इस दौर में प्रभुवर्ग द्वारा स्वयं के हित में चलाए जा रहे अभियान को यह कह कर उचित ठहराया जाता है कि निजीकरण-उदारीकरण-भूमंडलीकरण आम आदमी के हित में हैं। मोबाइल फोन जैसी कुछ तकनीकें आम आदमी के हित में हो सकती हैं, लेकिन बहुराष्ट्रीय कंपनियों का असल मकसद है प्राकृतिक संसाधनों का दोहन, बाजार पर नियंत्रण, अधिकाधिक मुनाफा, पूंजी और तकनीकी के बल पर अपना व्यावसायिक विस्तार आदि, जहां आम आदमी का हित गौण हो जाता है।
यह दावा किया जाता है कि वैश्वीकरण से रोजगार की संभावना बढ़ेगी, लोगों की माली हालत और आधारभूत सुविधाओं में बढ़ोतरी होगी। लेकिन वास्तव में रोजगार युवा वर्ग के उस हिस्से के लिए ही संभव हो पा रहा है जो तकनीकी दृष्टि से शिक्षित और अनुभवी है या कुशल श्रमिक के रूप में अपने श्रम से व्यवसायकर्ता को अधिकाधिक आर्थिक लाभ पहुंचा सकता है। ऐसा युवा वर्ग पैदा करने के लिए तकनीकी और अन्य विशिष्ट शिक्षा प्रदान करने वाली संस्थाएं स्थापित की जा रही हैं, जो अधिकतर निजी क्षेत्र में हैं। ऐसी शिक्षा या सेवा के नाम पर स्वास्थ्य और अन्य जन-कल्याण के मद भी व्यवसाय-केंद्रित होकर रह जाते हैं।
इस प्रक्रिया में राज्य की कल्याणकारी भूमिका सिकुड़ती जाती है। राज्य के अधिकारों को अपने हित में इस्तेमाल करने के लिए प्रभुवर्ग एक शक्तिशाली दबाव समूह के रूप में काम करने लगता है। वैश्वीकरण की यह समस्त प्रक्रिया सार्वजनिक और निजी दोनों ही क्षेत्रों में अपना बहुआयामी वर्चस्व कायम करने का मार्ग प्रशस्त करती है। यह सब कुछ अंतत: उसी चालाक भद्रलोक के हित में होता है जिसने अधिसंख्यक जन को हाशिये पर धकेलने की साजिशें कीं। और यही वर्तमान पूंजी-केंद्रित इस देश का- धन, धर्म और सत्ता का- यथार्थ है, जहां राष्ट्र-समाज 'इंडिया बनाम भारत' में विभाजित नजर आता है!
जनसत्ता में प्रकाशित
इस व्यवस्था को टूटना ही है: अरुंधति राय
हमारे इस दौर में अरुंधति राय एक ऐसी विरल लेखिका हैं जो सरकारी दमन, अन्याय और कॉरपोरेट घरानों की लूट के खिलाफ पूरी निडरता और मुखरता के साथ लगातार अपनी कलम चलाती रहती हैं। वह समाज के सबसे वंचित, शोषित और हाशिए पर खड़े लोगों के साथ पूरे दमखम के साथ खड़ी रहती हैं। प्रस्तुत है पूंजीवाद, मार्क्सवाद, भारतीय वामपंथ, भारतीय राजनीति और समाज से जुड़े विभिन्न मुद्दों पर उनसे नरेन सिंह राव की बातचीत। समयांतर के फरवरी, 2013 के विशेषांक में प्रकाशित और इसके संपादक की अनुमति से हाशिया पर साभार.
आज के दौर में आप बराबरी पर आधारित समाज के विचार को कैसे देखती हैं?
मेरे ख्याल में बहुत कम लोग इसके बारे में सोचते हैं। 1968-69 में जब पहला नक्सलवादी आंदोलन शुरू हुआ था या बराबरी पर आधारित समाज के बारे में जो पूरी सोच थी, लोग कहते थे कि भूमि खेतिहर को मिलनी चाहिए यानी जिनके पास जमीन है उनसे छीनकर जिनके पास नहीं है उनको दे दो। वह पूरी सोच अब बंद हो गई है। अब केवल यह है कि जिसके पास थोड़ा बहुत बचा है उसे मत छीन लीजिए। इससे क्या हुआ है कि अल्ट्रा लेफ्ट, जिसे नक्सलवादी या माओवादी कहते हैं, वे भी इससे पीछे हट गए हैं। वे लोग उन लोगों के लिए लड़ रहे हैं जिनसे राज्य ने उनकी जमीन छीन ली है। दरअसल, ये वे लोग हैं जिनके पास जमीन है। लेकिन जिनके पास कुछ भी नहीं है, जो शहरी गरीब हैं तथा दलित हैं और जो पूरी तरह से हाशिए पर खड़े मजदूर हैं, उनके बीच में अभी कौन-सा राजनीतिक आंदोलन चल रहा है? कोई भी नहीं चल रहा। जो रेडिकल मूवमेंट हैं वो ये वाले हैं जो गांववाले बोलते हैं - हमारी जमीन मत लो। जिनके पास जमीन नहीं है, जो अस्थायी मजदूर हैं या जो शहरी गरीब हैं, वे राजनीतिक विमर्श से बिल्कुल बाहर हैं। बराबरी पर आधारित समाज के मामले में हम सत्तर के दशक से बहुत पीछे जा चुके हैं, आगे नहीं। नवउदारवाद की पूरी भाषा, जिसे ट्रिकल डाउन कहते हैं (जो कुछ बचा खुचा है वह उनको ले लेने दो), उसको (भाषा) ही देख लीजिए। बराबरी पर आधारित समाज के विचार की जो भाषा है वह मुक्कमल है। अगर आप कम्युनिस्ट नहीं हैं और पूंजीवादी हैं, तो अभी जो हो रहा है वह पूंजीवादी लोग भी नहीं करते हैं। जहां प्रतिस्पर्धा के लिए एक-सा मैदान होता है, वह है ही नहीं अब। जो धंधे वाले (व्यापारी) लोग हैं उनको कॉरपोरेट ने किनारे लगा दिया है। छोटे व्यापारियों को मॉल्स ने किनारे कर दिया है। यह पूंजीवाद नहीं है। यह पता नहीं क्या है? यह कुछ और ही चीज (ऑर्गनिज्म) है।
लेखिका और एक्टिविस्ट के बतौर आप मार्क्सवाद को किस तरह देखती हैं?
पहली बात यह कि मैं अपने आप को लेखिका ही समझती हूं, न कि एक्टिविस्ट। ऐसा इसलिए कि इन दोनों से खास तरह की सीमाएं निर्धारित होती हैं। एक वक्त था जब लेखक हर बात पर अपनी राय रखते थे और समझते थे कि यही उनका फर्ज है। आजकल लिटरेरी फेस्टिवल में जाना उनका 'फर्ज' बन गया है। एक्टिविस्टों को लेकर वे समझते हैं कि उनका काम कुछ हटकर है, जिसमें गहराई नहीं है। काम का ऐसा बंटवारा मुझे पसंद नहीं है।
मैं मार्क्सवाद को एक विचारधारा के रूप में देखती हूं। एक अद्भुत विचारधारा जिसके मूल में समानता निहित है, न सिर्फ सैद्धांतिक तौर पर बल्कि प्रशासकीय तौर पर भी। अगर भारतीय परिप्रेक्ष्य में जीवन की जटिलताओं को मार्क्सवाद के नजरिए से देखा जाए तो कई सारी समस्याएं देखने को मिलती हैं। लेकिन मार्क्सवादी नजरिए से जाति से नहीं निपटा गया है। आमतौर पर वे (कम्युनिस्ट) कहते हैं कि जाति ही वर्ग है, लेकिन वास्तव में जाति हमेशा वर्ग नहीं है।
जाति वर्ग हो सकती है, क्योंकि मेरी राय में कई सारे रेडिकल दलित बुद्धिजीवियों ने मार्क्सवाद का आलोचनात्मक चिंतन प्रस्तुत किया है, जो आंबेडकर की डांगे के साथ बहस के समय से ही शुरू हो चुका था। लेकिन मेरी राय में आज भी रेडिकल लेफ्ट ने इस मुद्दे को सुलझाने का रास्ता नहीं खोजा है। क्यों ऐसा है कि रेडिकल लेफ्ट, माओवाद और पूरा का पूरा नक्सलवादी आंदोलन (जिसके लिए मेरे मन में बहुत इज्जत है), सिर्फ जंगलों और आदिवासी इलाकों में ही सबसे मजबूत है, जहां लोगों के पास जमीनें हैं? उनकी रणनीति और कल्पनाशीलता शहरों तक क्यों नहीं पहुंच पाई है? इन सीमाओं के कारण दलित एक बार फिर से कट गए हैं। जब मैं दलितों की बात कर रही हूं तो इसका यह मतलब नहीं है कि वहां सब कुछ साफ है। जो लोग अपने को दलित कह रहे हैं उनके अंदर भी बहुत भेदभाव है। तब इन मुद्दों से रू-ब-रू होने में, हमारी भाषा में- किस तरह का पैनापन होगा जिससे कि ये अस्मिताओं के संघर्ष में तब्दील होकर न रह जाए। हम कितने खुश थे जब वर्ल्ड सोशल फोरम में लाखों लोगों ने हिस्सा लिया था। लेकिन हकीकत यह भी है कि करोड़ों लोग कुंभ मेले में भी जाते हैं। अगर सिर्फ जन सैलाब को देखा जाए तो इस हिसाब से यह सबसे बड़ा आंदोलन है! या फिर बाबरी मस्जिद विध्वंस को भी सबसे बड़ा आंदोलन कहा जा सकता है! बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद आरएसएस, विहिप और शिवसेना जैसी दक्षिणपंथी ताकतों और आमजन के भीतर फासीवादी प्रवृत्ति पर हमने कभी ज्यादा ध्यान नहीं दिया। ये सिर्फ सरकार, आरएसएस और बीजेपी की बात नहीं है। हर रोज, हर जगह, हर गली-नुक्कड़ में, मीडिया में यही विमर्श चल रहा है। ऐसा क्यों है कि धर्म, जाति और अस्मिता के सवाल पर लोगों की चेतना को द्रुत गति से लामबंद किया जा सकता है (ऐसा गुर्जर आंदोलन में हमने देखा), लेकिन मुंबई में रहने वाले शहरी गरीब कभी लामबंद नहीं होते। वहां सब कुछ या तो बिहारी बनाम मराठी होता है या फिर यूपी बनाम ठाकरे। भारत एक ऐसा समाज या राष्ट्र है जो लगातार कॉरपोरेट पूंजीवाद की ओर बढ़ रहा है, लेकिन प्रतिरोध के स्वर को धर्म, जाति, भाषा और अस्मिताओं के आधार पर आसानी से बांट दिया जा सकता है। जब तक हम साझा प्रतिरोध के विचार से रू-ब-रू नहीं होंगे, स्थिति ज्यों-की-त्यों बनी रहेगी। मैं यह नहीं कह रही कि सब लोगों को हाथ पकड़े रहना होगा, क्योंकि ढेर सारे आंदोलन एक साथ नहीं आ सकते। लेकिन कुछ मुद्दों पर उनमें समानता होगी। भारत में जो सबसे एकजुट ताकत है, उसके बारे में मेरा मानना है कि वो उच्च हिंदू जाति का मध्यवर्ग है। ये लोग किसी भी वामपंथ या वामपंथी, (जिसकी विचारधारा ही एकता पर आधारित है) से कहीं ज्यादा एकजुट हैं।
जो लोग हाशिए पर हैं उनका राजनीति से लगातार मोहभंग होता जा रहा है। इसके मद्देनजर भारतीय संदर्भ में मार्क्सवाद के भविष्य को लेकर आपकी क्या राय है?
देखिए, मैं इतनी आसानी से नहीं मान सकती कि उन लोगों का मोहभंग हो गया है। हम चाहते हैं कि उनका मोहभंग हो जाए! लेकिन ऐसा हुआ नहीं है। अभी भी वे बहुत बड़ी संख्या में वोट देने आते हैं। हम लोग कहते रहते हैं कि ये सभी एक ही हैं, ये पार्टी या वो पार्टी। लेकिन लोगों में अभी भी एक उत्साह है, यह मानना ही पड़ेगा। किसलिए है, उनकी उम्मीदें क्या हैं? उनकी उम्मीदें शायद ये नहीं हैं कि जिंदगी बदल जाएगी या देश बदल जाएगा या पूंजीवाद खत्म हो जाएगा। उनका सपना है कि यहां नल लग जाएगा, हॉस्पिटल खुल जाएगा आदि। हालांकि चुनावी प्रक्रिया से तो मैं उम्मीद नहीं रखती हूं, लेकिन जनता गहरी उम्मीद रखती है। वे वोट डालने आते हैं, हमको मानना ही पड़ेगा। इतनी बड़ी राजनीतिक ताकत (पॉलिटिकल फोर्स) को यूं ही खारिज नहीं कर सकते। आजकल की बहसें देखिए - भ्रष्टाचार के खिलाफ या आम आदमी पार्टी को लेकर है। मैं उनसे पूछती रहती हूं कि जो जगनमोहन रेड्डी भ्रष्टाचार के मामले में जेल में बंद है वह अगर कोई रैली करेगा तो उसको सुनने के लिए लोग गाड़ी से उतरकर पंद्रह किलोमीटर पैदल चलकर आते हैं। लोग अच्छे लोगों के लिए वोट नहीं देते हैं। वे वोट क्यों दे रहे हैं, किसको दे रहे हैं- सभी भ्रष्टाचार के बारे में अच्छी तरह जानते हैं। हम लोग वही सोचते हैं जो हम लोगों को सोचते हुए देखना चाहते हैं या जो हमें अच्छा लगता है! यह बहुत दूर की कल्पना है कि लोगों का मोहभंग हो गया है। बहुत अधिक भ्रष्टाचार के बावजूद लोग इस चुनावी प्रक्रिया में पूरी तरह शरीक होते हैं। लोग इसको अच्छी तरह से देख भी सकते हैं, फिर भी वे इसमें भागीदारी करते हैं। ऐसा इसलिए नहीं है कि ये लोग बेवकूफ हैं। ऐसा बहुत सारे जटिल कारणों की वजह से है। मैं मानती हूं कि हमें निश्चित तौर पर अपने आपको बेवकूफ बनाना छोड़ देना चाहिए, क्योंकि हम कुछ चीजें जानते हैं, इन चीजों की लोगों के वोट डालने में या नहीं डालने में कोई भूमिका नहीं है। जो मैं सोचती हूं वह यह है कि हमारे सामने कोई खूबसूरत-सा विकल्प खड़ा नहीं होने वाला है। चलो इसको वोट देते हैं, वह व्यवस्था को बदलेगा। ऐसा नहीं होने वाला है। व्यवस्था इतनी जमी हुई है- कॉरपोरेट, राजनीतिक दल, मीडिया जैसे रिलायंस के पास 27 टेलीविजन चैनल हैं, किसी और के पास अखबार हैं। मुझे लगता है कि इससे क्या होगा? इससे यह होगा कि बहुत ज्यादा लंपटीकरण और अपराधीकरण बढ़ेगा। जैसे अभी जो छत्तीसगढ़ और झारखंड में चल रहा है। वहां राजनीति, विचारधाराओं, बहसों और संरचनाओं में एकरूपता दिखती है। लेकिन जैसे आप सबको शहर की ओर भगाएंगे, उनका आप अपराधीकरण करेंगे, जैसे इस बलात्कार की घटना के बाद मनमोहन सिंह ने साफ-साफ कहा कि हमें इन नए प्रवासियों से, जो शहरों में आते हैं, सावधान रहना पड़ेगा। पहले आप उन्हें शहरों की तरफ धकेलते हैं और फिर उनका अपराधीकरण करते हैं। इन स्थितियों में फिर आपके लोग ज्यादा पुलिस, सुरक्षा और ज्यादा कड़े कानून की बात करते हैं। एक बार अपराधीकरण होने के बाद फिर उनको अपराधियों की तरह व्यवहार करना ही पड़ता है। उनके पास कोई कानून और काम नहीं है। आप एक ऐसी व्यवस्था कायम करना चाहते हैं जहां लोगों के व्यापक हिस्से का अस्तित्व नहीं होना चाहिए। यह गलत है। अब ऐसे में वामपंथ क्या करने वाला है, क्योंकि जिसे हम अल्ट्रा लेफ्ट कहते हैं वो जंगलों में फंसा हुआ है, आदिवासी आर्मी के साथ। बुद्धिजीवी लोगों के लिए यह कहना बिल्कुल जायज और आसान है कि वे पेरिस कम्यून जैसा सपना देख रहे हैं। उनमें से बहुत सारे लोग तो जानते ही नहीं है कि जगदलपुर, भोपाल अस्तित्व में हैं। लेकिन नक्सली लड़ रहे हैं। उन्हें पता है कि वे किसके लिए लड़ रहे हैं। यह हो सकता है पार्टियां, आप और मैं विचाराधारत्मक रूप से उनसे सहमत न हों। लेकिन जंगल के बाहर वामपंथ क्या कर रहा है? जब मार्क्स सर्वहारा के बारे में बात करते हैं, तो उनका सर्वहारा से मतलब मजदूर वर्ग है। ज्यादातर जगहों पर मजदूरों की संख्या को कम करने की पूरी कोशिश की जा रही है। वहां पर रोबोट्स और उच्च तकनीक इस्तेमाल की जा रही है। अब श्रमिकों की तादाद वह नहीं बची है जो हुआ करती थी - क्लासिक सेंस में। तो, इस नए दौर में बहुत ही विशेषाधिकर प्राप्त श्रम शक्ति (वर्कफोर्स) है, उदाहरण के लिए मारुति में काम करने वाले श्रमिकों को ले सकते हैं। लेकिन, उनके साथ क्या हुआ - वहां वाम क्या कर रहा है? वाम के पास उनको कहने के लिए कुछ नहीं है। नक्सल क्षेत्रों के बाहर ऐसा कोई लेफ्ट नहीं है जो इन चीजों के साथ लड़ रहा है। मैं नहीं जानती कि आप उनका राजनीतिकरण कैसे करेंगे। बहुत बड़ी संख्या में शहरी गरीब हैं जिन्हें कोई विधिवत काम नहीं मिला है, जो श्रमिक (वर्कर्स) नहीं हैं। उन्हें सांप्रदायिक तत्त्वों के द्वारा कभी भी बरगलाया और भड़काया जा सकता है। उन्हें कभी भी एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा किया जा सकता है।
क्या आपको लगता है कि भारत फासीवाद की तरफ बढ़ रहा है?
मुझे लगता है कि यह सवाल आपने पांच साल पहले पूछा होता तो मैं कहती कि बढ़ रहा है। अब मैं यह नहीं कहूंगी कि यह बढ़ रहा है। उसके सामने यह पूरा कॉरपोरेट और मध्य वर्गीय अभिजात्य है। उनका नरेंद्र मोदी की तरफ जो यह रुझान (शिफ्ट) है, यह एक फासीवाद से दूसरे फासीवाद की तरफ जाना (शिफ्ट) है। वहां एक तरफ अनिल अंबानी और दूसरी तरफ मुकेश अंबानी बैठकर यह कहते हैं कि यह (मोदी) राजाओं का राजा है। इसका मतलब यह नहीं है कि वह बदल गया है। जबकि, हकीकत यह है कि वह एक तरह के फासिस्ट से दूसरी तरह का फासिस्ट बन गया है। मुझे लगता है कि आजकल यह हो गया है कि बहुत बड़ी संख्या में मध्य वर्ग को पैदा किया गया है। उनके मन में, उनके सपनों में एक पुच्छलतारे का मार्ग (ट्रेजेक्टरी) बनाया गया है, जिससे वे उधर से इधर आएं और अब बिल्कुल ठहर गए हैं। जहां आगे कोई रास्ता नहीं है। और अब यह गुस्सा अलग-अलग तरह से फूटता हुआ दिखाई दे रहा है। लेकिन मैं इससे बहुत आहत होती हूं।
हाल के दिनों में हुए आंदोलनों का क्या भविष्य है? जैसे अण्णा हजारे ...
अण्णा हजारे तो दफ्तर बंद करके चले गए। जब ये लोग बिना कोई काम किए हुए टेलीविजन चैनलों के स्टूडियो में अपने मूवमेंट का निर्माण करते हैं तो उनका क्या भविष्य हो सकता है? जब टेलीविजन चैनल चाहेंगे तो उन्हें आगे बढ़ाएंगे! जब उन्हें कोई खतरा नजर आएगा तो इन आंदोलनों को बंद कर देंगे। उसमें क्या है? मसलन आम आदमी पार्टी को देखिए! जिसने एक बार रिलायंस का जिक्र किया और टांय-टांय फिस्स। जब मीडिया उनका (कॉरपोरेट) है तो आखिर आप वहां कैसे हो सकते हैं? मतलब थोड़ा तो आगे सोचना चाहिए ना! ऐसे तो होगा नहीं। यह जो बचपना है, यह कैसे चलेगा? मतलब, ये इतना हो-हल्ला मचा के रखते हैं कि अगर कोई इनके खिलाफ बोलेगा तो सिद्ध करेंगे कि वह या भ्रष्टाचार के समर्थन में है या फिर बलात्कार के समर्थन में है। क्या इनके पास जरा-सी भी समझ नहीं है राजनीतिक इतिहास की? इसमें कुछ लोग अच्छा काम करते हैं। वे कोशिश करते हैं इसको आगे अंजाम देने की। लेकिन मेरे ख्याल में जहां पर विरोध प्रदर्शन हो रहा है वह हमें बहुत उत्तेजित करता है, लेकिन लोग उस नजरिए से चीजों को नहीं देख रहे। वे नहीं समझते कि हर विरोध प्रदर्शन यकीनन प्रगतिशील और क्रांतिकारी नहीं हो सकता। हर जन आंदोलन महान नहीं होता। जैसे मैं अक्सर कहती हूं कि इस देश में सबसे बड़ा आंदोलन बाबरी मस्जिद का विध्वंस है, जिसको वीएचपी और बजरंग दल ने चलाया। जैसे जब लड़की का बलात्कार हुआ था, उस हफ्ते दो-तीन दिन आगे-पीछे नरेंद्र मोदी चौथी बार चुनाव जीता। अब उन्हीं टीवी चैनलों में वही लोग, जो बलात्कार के खिलाफ इतना चिल्ला रहे थे, उस आदमी (मोदी) जिसके राज में महिलाओं के शरीर को चीरकर उनकी बच्चेदानी को निकाल दिया गया, जिनका बलात्कार करके जिंदा जला दिया गया, अब (टीवी चैनल) कह रहे हैं कि इन पुरानी बातों को भूल जाओ। आप अतीत में क्यों जा रहे हैं। यह किस तरह की राजनीति है मैं नहीं समझ पाती हूं। मुझे यह समझने में बहुत दिक्कत होती है। ये बहुत ही पेचीदा, बौद्धिक और भावुक पहेली है। क्योंकि, आप तब विरोध नहीं कर सकते, जब संस्थानिक तरीके से महिला का बलात्कार होता है। नारीवाद की राजनीति बहुत ही जटिल है। जब यथास्थितिवाद के लिए बलात्कार को एक हथियार की तरह इस्तेमाल किया जाता है - चाहे वह कश्मीर हो, चाहे मणिपुर हो, चाहे नगालैंड हो या ऊंची जाति का एक आदमी दलित महिला के साथ बलात्कार कर रहा हो या हरियाणा में ऑनर किलिंग हो। इन सभी मामलों में एक ही तरह की प्रतिक्रिया आती है। ... जो बच्चियां बड़ी हो रही हैं... जवान होती लड़कियों को सड़कों पर घूमते हुए देखना कितना खूबसूरत और मनमोहक होता है। और जो हुआ वह कितना भयानक है। हम कैसे कह सकते हैं लोग बलात्कार के मामले को लेकर परेशान थे, जबकि वे सिर्फ 'इस बलात्कार' के मामले को लेकर परेशान थे। यह ठीक है, लेकिन यह खास तरह की राजनीति है! यह बहुत ही कठिन पहेली है। लेकिन इसके बारे में सोचना बहुत जरूरी है और मैं सोचती हूं कि आप लोगों से यह उम्मीद नहीं कर सकते कि जो चीजें उन्हें परेशान नहीं करती हैं वह उन्हें झकझोर दे। लेकिन इस वजह से बहुत बड़ी राजनीति को आप वैसे ही नहीं छोड़ सकते हैं। आप यह समझना चाहते हैं कि वह क्या है?
क्या आप मानती हैं कि नव उदारवादी नीतियां भारतीय राज्य के मूल चरित्र को उजागर करती हैं?
देखिए, भारतीय राज्य का नहीं, बल्कि समाज का। ये नवउदारवादी नीतियां सामंती और जाति आधारित समाज के बिल्कुल मनमाफिक है लेकिन यकीनी तौर पर यह किसी गांव में फंसे दलित के लिए ठीक चीज नहीं है। यह सभी असमानताओं को मजबूत करती है, क्योंकि यह निश्चित तौर पर ताकतवर को और ताकतवर बनाती है। यही तो कॉरपोरेट पूंजीवाद है। हो सकता है कि यह शास्त्रीय पूंजीवाद की तरह न हो, क्योंकि शास्त्रीय पूंजीवाद नियमों पर चलता हो और वहां 'चेक एंड बैलेंस' का सिस्टम होता हो। लेकिन हमारे यहां इसमें ऐसा कुछ नहीं होता। यकीकन इससे ताकतवर लगातार ताकतवर बनता जाता है। और यही लोग तो बनिया हैं। यह सबसे अहम बात है जिसके बारे में कभी कोई बात नहीं करता - भारतीय बनियों की राजनीति। इन्होंने पूरे देश में क्या कर दिया है? रिलायंस एक बनिया है। वे बनिया जाति के तौर पर दृश्य से पूरी तरह बाहर रहते हैं, लेकिन वे बहुत ही अहम भूमिका अदा करते हैं। यह इन्हें बहुत मजबूत बनाता है। यही कारण है कि रिटेल में एफडीआई के मामले में भाजपा सबसे ज्यादा गुस्से में आई क्योंकि 'उनके छोटे बनिये' दांव पर लग गए हैं क्योंकि वो जाति (बनिया) उनका (भाजपा) आधार है।
दूसरी तरफ आप ग्रामीणों, आदिवासियों और दलितों के साथ कुछ भी कर दीजिए किसी के उपर कोई फर्क नहीं पड़ता।
भारतीय वामपंथ का दायरा बहुत ही सीमित दिखाई देता है। आप इसका क्या कारण मानती हैं और इसके लिए किसे जिम्मेदार मानती हैं?
मुझे लगता है कि इसमें जाति एक बहुत बड़ा कारण है। अगर आप सीपीएम को देखें तो उसमें ऊपर बैठे लोग सारे ब्राह्मण हैं। केरल में भी सारे नायर और ब्राह्मण हैं। उन्होंने कभी यह समझने की कोशिश नहीं की कि मार्क्स वादी विचार का बेहतरीन इस्तेमाल कैसे करें, जहां पर लोगों के साथ व्यवस्थागत तरीके से भेदभाव किया जाता है। अक्सर जब आप ऊंची जाति से आते हैं तो समस्याओं को नहीं देख पाते हैं। हालांकि इसका यह मतलब नहीं है कि आप खराब आदमी हैं। बस बात यह है कि आप इसे देख ही नहीं पाते। मैं एक बार कांचा इल्लैया से बात कर रही थी, जो एक समय में पीपुल्स वार ग्रुप से जुड़े थे। वह अकेले ऐसे आदमी थे जो अपने समुदाय में पढ़े-लिखे थे। उनके भाई ने बहुत कोशिश की कि वह उनको पढ़ा-लिखा देंखे। जबकि उनकी पार्टी चाहती थी कि वह भूमिगत हो जाएं। यह उस तरह से नहीं है कि किसी ब्राह्मण को भूमिगत हो जाने के लिए कह दें, क्योंकि उनके (ब्राह्मण) परिवार में बाकी लोग पढ़-लिख सकते हैं। इस मामले को आपको बिल्कुल ही अलग तरीके से समझना पड़ेगा।
मेरी समझ से दूसरा कारण यह है कि आप इस मुगालते में रहें कि चुनाव लड़कर राज कर सकते हैं। और फिर आप एक ही समय में राजा भी बने रहें और क्रांतिकारी भी बने रहें! यह कैसे हो सकता है। यह तो एक तरह का फरेब है!
भारत में माओवादी आंदोलन की संभावनाओं और चुनौतियों को आप कैसे देखती हैं?
माओवादी आंदोलन के लिए वहां पर बहुत अवसर हैं जहां पर वे बहुत मजबूत हैं। लेकिन अब यहां पर बहुत बड़ा हमला होने वाला है। आर्मी, एयरफोर्स सभी पूरी तैयारी में लगे हैं। शायद यह हमला 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद होगा और ये माओवादी आंदोलन के लिए बहुत बड़ी चुनौती है। लेकिन दूसरी तरफ माओवादियों ने अभी सीआरपीएफ के जवान के साथ जो किया (मृत जवान के पेट में बम डाल दिया था) वह बहुत ही वाहियात काम है। हम लोग उनका इन कारणों की वजह से समर्थन नहीं करते। मुझे नहीं मालूम है कि इस तरह का काम कैसे होता है? मुझे लगता है कि या तो उनके कमांड सिस्टम (नेतृत्व) में प्रोब्लम आ गई है या उनके साथ लंपट (लुम्पैन) लोग शामिल हो गए हैं। मैं इसके बारे में ज्यादा नहीं जानती, खास तौर से झारखंड के बारे में। लेकिन इस हमले में अगर उनका अनुशासन टूटता है तो उनके लिए बहुत ही मुश्किल आ जाएगी, क्योंकि एक समय ऐसा था जब उनके साथ बहुत ज्यादा बौद्धिक और नैतिक समर्थन था, जो अब भी है। अगर आप ऐसे काम करते रहेंगे तो आपका यह समर्थन बंद हो जाएगा। उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वे जंगल से बाहर कैसे काम करेंगे। अगर जंगल से बाहर नहीं जा सकते तो हम सोचेंगे कि ये सिर्फ एक क्षेत्रीय प्रतिरोध है, चाहे जिसका भी हम समर्थन करें। बात यह है कि जंगल से बाहर इतनी बड़ी जो गरीबी पैदा की गई (मैनुफैक्चर्ड पॉवर्टी) है, उसको आप राजनीतिक कैसे बनाएंगे। क्योंकि लोगों के पास समय नहीं है, जगह नहीं है और ये जंगल से बाहर कैसे काम करेंगे, यह बहुत बड़ा प्रश्न है।
क्या यह हो सकता है कि वे हिंसा छोड़कर चुनावी राजनीति में आएं?
हिंसा क्या होती है? अगर छत्तीसगढ़ के किसी गांव में एक हजार सीआरपीएफ के जवान आकर गांव को जलाते हैं, औरतों को मारते हैं और बलात्कार करते हैं, तो ऐसे हालात में आप क्या करेंगे? भूख हड़ताल पर तो नहीं बैठ सकते। मैं हमेशा से यही कहती आई हूं कि जिसे बुद्धिजीवी, अकादमिक लोग, पत्रकार और सिद्धांतकार आदि एक विचारधारात्मक तर्क कहते हैं,वह मुझे टैक्टिकल लगता है। यह सब कुछ लैंडस्केप (भौगोलिक स्थिति)पर निर्भर करता है। आप छत्तीसगढ़ में बिल्कुल वैसे नहीं लड़ सकते जैसे आप मुंबई या दिल्ली में लड़ते हैं और मुंबई-दिल्ली में बिल्कुल वैसे नहीं लड़ सकते जैसे आप छत्तीसगढ़ में लड़ते हैं। इसमें कोई द्वंद्व नहीं है। आप सड़कों पर गांधीवादी बन सकते हैं और जंगलों में माओवादी बनकर काम सकते हैं। गांधीवादी होने के लिए तो आपके आसपास टेलीविजन कैमरा और रिपोर्टर होना जरूरी है, अगर ऐसा नहीं है तो ये सब बेकार है। प्रतिरोध की विविधता बहुत जरूरी है। यह भी ध्यान रखना पड़ेगा कि हर काम करना माओवादियों की ही जिम्मेदारी नहीं है। दूसरी तरह के लोग दूसरी चीजें कर सकते हैं। जैसे लोग मुझे कहते हैं कि वहां बांध बन रहा है, यहां ये हो रहा है... मैं उनसे कहती हूं कि यार तुम भी तो कुछ करो। मैंने तो कभी नहीं कहा कि मैं तुम्हारी लीडर हूं। मैं वह कर रही हूं जो मैं कर सकती हूं। और आप वह करें जो आप कर सकते हैं।
मैग्लोमेनिएकल एप्रोच नहीं होनी चाहिए कि हर काम एक ही पार्टी या एक ही इंसान या एक बड़ा लीडर करेगा। बाकी लोग कुछ क्यों नहीं करते? एक ही पर क्यों निर्भर रहना चाहते हैं? माओवादी लोग गलतियां कर रहे हैं, लेकिन बहुत बहादुरी से लड़ रहे हैं और हम लोग सिर्फ बैठकर कहते हैं कि ये लोग ऐसे हैं, वैसे हैं। अरे यार, आप भी तो कुछ करो। अगर वाकई कुछ करना चाहते हो तो।
हमारे लेखकों, बुद्धिजीवियों, कलाकारों, फिल्मकारों, रंग निर्देशकों के काम क्या भारतीय सच्चाई को अभिव्यक्त करते हैं?
मैं पूछती हूं कि इंडियन रियलिटी (भारतीय यथार्थ) होती क्या है। मैं हमेशा से सोचती आई हूं कि बॉलीवुड के इतिहास में सबसे बड़ी थीम क्या है? सबसे बड़ी थीम तो प्यार है। लड़का लड़की से मिलता है और वे भाग जाते हैं... लेकिन हमारे समाज में तो यह बिल्कुल नहीं होता। सिर्फ दहेज, जाति, ये-वो और सिर्फ गणित ही गणित (कैल्कुलेशन) है। तो जो चीज समाज में है नहीं उसे हम फिल्म में जाकर देखते हैं। कहने की बात ये है कि हमारा पूरा समाज जाति के आसपास घूमने वाला छोटे दिमाग (स्मॉल माइंडिड) का जोड़तोड़ करने वाला है। हम बस लोगों को सिनेमाई पर्दे पर नाचते-गाते देखकर खुश हो जाते हैं। हमारे साहित्य का यथार्थ से कुछ लेना-देना नहीं है। इस मामले में यह बिल्कुल निरर्थक है। हालांकि, इसमें कुछ अपवाद जरूर हो सकते हैं। आजकल साहित्य और सिनेमा में जो हो रहा है उसे मैं 'क्लास पोर्नोग्राफी' कहूंगी। जिसमें लोग गरीबी की तरफ देखते हैं और कहते हैं कि ये लोग तो ऐसे होते हैं, वैसे होते हैं, गाली देते हैं, गैंग वॉर करते हैं। मतलब, अपने आप को बाहर रखकर ये चीजों को ऐसे देखते हैं जैसे उनका इनसे कुछ लेना-देना नहीं हो। यह ऐसा ही है जैसे गरीबों का ग्लेडिएटर संघर्ष देखना और फिर यह कहना कि ये कितने हिंसक होते हैं ! यह एक तरह की एंथ्रोपोलॉजी (नृशास्त्र) है, जहां पर आप युद्ध को बाहर से एक तमाशे की तरह देखते हैं और मजा लेते हैं। फिर एक और तरह से चीजों को महत्त्वहीन (ट्रिवीयलाइज) बनाते हैं। ये इतना 'ट्रिवियल' होता है कि आपके कान पर जूं भी नहीं रेंगती।
विश्व स्तर पर पूंजीवाद ने कमजोर समुदायों को और भी हाशिए पर तरफ धकेल दिया है। इन हालात में किस तरह के राजनातिक विकल्प उभर सकते हैं?
देखिए, मुझे लगता है कि इसका कोई भी सभ्य विकल्प नहीं है। केवल यह बात नहीं है कि सत्ता के पास सिर्फ पुलिस, सेना और मीडिया ही है, बल्कि कोर्ट भी उन्हीं के हैं। अब इनके आपस में भी 'जन आंदोलन' होने लगे हैं। और उनका अपना एक शील्ड यूनीवर्स (सुरक्षित खोलवाला संसार) है। इस सबको किसी सभ्य तरीके से बिल्कुल भेदा नहीं जा सकता। कोई सभ्य तरीके से आकर बोले कि मैं बहुत अच्छा हूं मुझे वोट दे दो, तो ऐसा हो नहीं सकता। दरअसल उनका अपना एक तर्क है। यही तर्क खतरनाक हिंसा और निराशा पैदा कर देगा। और ये गुस्सा इतना ज्यादा होगा कि ये लोग बच नहीं पाएंगे। अपने इस विशेषाधिकार के खोल में ये ज्यादा दिन सुरक्षित नहीं रह पाएंगे। अब अच्छा बनने में कोई समझदारी नहीं है। इस संदर्भ में मैं अब सभ्य नहीं हूं। मैं हैंडलूम साड़ी पहनकर यह नहीं कहूंगी कि मैं भी गरीब हूं! मैं बिल्कुल नहीं हूं। मैं भी इसी पक्षपाती व्यवस्था का हिस्सा हूं। मैं वह करती हूं जो मैं कर सकती हूं, लेकिन मैं यह नहीं मानती कि बदलाव एक बहुत ही खूबसूरत और शांत ढंग से आने वाला है। जो कुछ चल रहा है उसकी अनदेखी कर अब ये लोग अपने लिए ही एक खतरनाक स्थिति पैदा करने वाले हैं। मैं नहीं मानती कि हम इस बदलाव के बारे में कोई भविष्यवाणी कर सकते कि यह कैसे होने वाला है या कहां से आने वाला है। यह तय है कि यह बदलाव बहुत ही खतरनाक होगा। इस व्यवस्था को टूटना ही है, जिसने बहुत बड़े पैमाने पर अन्याय, फासीवाद, हिंसा, पूर्वाग्रहों और सेक्सिज्म (यौनवाद) को संरचनात्मक तौर पर पैदा किया है।
जो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टियां संसदीय राजनीति में हैं उनके बारे में आप क्या सोचती हैं? खास तौर पर अगर सीपीआई (भाकपा), सीपीएम (माकपा) और सीपीआई-एमएल (भाकपा-माले)जैसी कम्युनिस्ट पार्टियों के संदर्भ में बात करें।
देखिए, जब पार्टियां बहुत छोटी होती हैं, जैसे कि सीपीआई (एमएल) और सीपीआई, तो आपके पास इंटिग्रिटी होती है। आप अच्छी पॉजिशंस और हाई मॉरल ग्राउंड (उच्च नैतिक आधार) ले सकते हैं। क्योंकि आप इतने छोटे होते हैं कि इससे आपको कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन अगर आप सीपीएम जैसी बड़ी पार्टी हैं तो स्थिति दूसरी होती है। अगर हम केरल और बंगाल के संदर्भ में सीपीएम की बात करें तो दोनों जगह इसके अलग-अलग इतिहास रहे हैं। बंगाल में सीपीएम बिल्कुल दक्षिणपंथ की तरह हो गई थी। वे हिंसा करने में, गलियों के नुक्कड़ों को कब्जाने में, सिगरेट वालों के खोमचे को कब्जाने में बिल्कुल दक्षिणपंथ जैसे थे। यह बहुत अच्छा हुआ कि जनता ने उनकी सत्ता को उखाड़ फेंका। हालांकि मैं निश्चिंत हूं कि ममता बनर्जी की सत्ता का दौर जल्दी खत्म हो जाएगा। दूसरी तरफ केरल में स्थिति अलग थी, क्योंकि वे सत्ता से हटते रहे हैं जो कि एक अच्छी चीज है। वे वहां पर कुछ अच्छी चीजें भी कर पाए। लेकिन इसका श्रेय पार्टी को बिल्कुल नहीं दिया जा सकता, बल्कि यह इसलिए था क्योंकि वहां पर सत्ता का संतुलन बना रहा। अगर आप देखें तो उनकी हिंसा अक्षम्य है। दूसरी तरफ जिस तरह मलियाली समाज आप्रवासी मजदूरों का शोषण कर रहा है वह बहुत शर्मनाक है। ऐसे में आप बताएं, सीपीएम अपने आप को कम्युनिस्ट पार्टी कैसे कह सकती है? जिस पार्टी ने ट्रेड यूनियनों को बर्बाद कर दिया और पश्चिम बंगाल में नव उदारवाद के साथ कदमताल मिलाते रहे। वे अक्सर यह तर्क देते हैं कि अगर हम सत्ता में नहीं रहेंगे तो सांप्रदायिक लोग सत्ता हथिया लेंगे। लेकिन आप मुझे यह बताएं कि क्या सीपीएम के लोग हिम्मत जुटाकर गुजरात गए? जहां खुलेआम इतनी मारकाट चल रही थी वे दुबक कर बैठे रहे। जब नंदीग्राम में लोगों को बेघर कर उजाड़ दिया गया तो वे महाराष्ट्र में आदिवासियों के साथ जाकर बैठ गए। मतलब जनता इतनी भी बेवकूफ नहीं है कि इतनी छोटी बातों को भी न समझ पाए। यह वाकई बहुत दयनीय है कि वाम (लेफ्ट) ने खुद को इतना नीचे गिरा दिया है। यहां तक कि ये संसदीय राजनीति में भी खुद को नहीं बचा पाए और जिन मुद्दों पर वामपंथी स्टैंड लेने चाहिए थे, ये वो तक नहीं ले पाए। इस सबके लिए ये खुद ही जिम्मेदार हैं और इनके साथ यही होना चाहिए था। इतने सालों में ये लोग कभी पार्टी को ऊंची जातियों के वर्चस्व से मुक्त नहीं करा पाए। और आज भी आप देखें कि पोलित ब्यूरो में यही लोग भरे पड़े हैं।
अगर लेफ्ट ने जाति के मुद्दे को सुलझाया होता, ईमानदारी से काम किया होता, इनके पास दलित नेता और बुद्धिजीवी होते और अगर ये पूंजीवाद की जगह लेफ्ट की भाषा बोलते तो आप अंदाजा लगा सकते हैं कि इस देश में लेफ्ट आज कितना मजबूत होता? ये लोग अपनी जातीय पहचान को कभी नहीं छोड़ पाए। और इनकी निजी जिंदगी के बारे में ही तो मेरा उपन्यास गॉड ऑफ स्माल थिंग्स है।
वर्तमान हालात में कम्युनिस्ट पार्टियों का क्या भविष्य है?
देखिए, मैं सीपीआई-एमएल, आइसा से कभी-कभी सहमत होती हूं। ये लोग शहरी गरीबों के बीच काम करते हैं। बिहार में ये जाति के सवाल के हल करने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन ये सफल नहीं हो रहे हैं क्योंकि जैसा कि मैंने कहा कि इनकी ताकत बहुत ही सीमित है और ये हाशिए पर हैं। लेकिन बहुत सारी चीजें जो ये कहते हैं, उनका मैं सम्मान करती हूं। मैं बिल्कुल नहीं समझ पाती कि ये कैसे इतने हाशिये पर (मार्जिनलाइज्ड) रह गए और खुद को अप्रासंगिक बनाकर छोड़ दिया। मुझे माओवादियों और लिबरेशन के बीच विचारधारात्मक युद्धों को देखकर बहुत दुख होता है। इन लोगों ने टैक्टिक्स को विचारधारा के साथ जोड़कर भ्रम पैदा कर रखा है। सीपीआई (एमएल) के लोग जंगल के बाहर रहकर काम करते हैं और यह जरूरी नहीं कि वे हथियारों के साथ ही काम करें। लेकिन सीपीआई (एमएल) की राजनीति छत्तीसगढ़ में काम नहीं कर सकती। फिर आप देखिए कि अपने हाथों से इन्होंने खुद को हाशिए पर धकेल दिया है। ये छत्तीसगढ़ में माओवादियों के साथ गठजोड़ कर सकते थे। लेकिन ये राज्य से नफरत करने के बजाय एक दूसरे से ज्यादा नफरत करते हैं और अपना समय गंवाते हैं। जो कि कम्युनिस्टों की एक बड़ी खासियत है!
और सीपीएम किस तरफ बढ़ रही है...
सीपीएम बाकी संसदीय पार्टियों की तरह ही है। जिसे देखकर यह बिल्कुल नहीं लगता कि ये किसी भी तरीके से कम्युनिस्ट पार्टी है।
(नरेन सिंह राव मीडिया अध्यापन से जुड़े हैं और सिनेमा तथा साहित्य में दखल रखते हैं।)
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