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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Wednesday, March 13, 2013

असीमित अधिकारों की एनसीटीसी

असीमित अधिकारों की एनसीटीसी


अधिकारों को और सीमित करने की तैयारी 

एनसीटीसी के प्रावधानों पर आरंभ से ही कुछ राज्य यह कहकर आपत्ति उठाते रहे हैं कि इसके जरिये केंद्र राज्य के अधिकारों और विषयों में हस्तक्षेप कर रहा है और इस प्रकार संघीय ढांचे की अवधारणा भी कमजोर पड़ रही है---

अभिनव श्रीवास्तव 


एक लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष राज्य सत्ता की वैधता को अल्पसंख्यकों के प्रति अपनाये जाने वाले नजरिये और उसकी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक भागीदारी बढ़ाने के लिये बनायी जाने वाली नीतियों की कसौटी पर हमेशा परखा जाता है. भारतीय लोकतंत्र में मुस्लिम समुदाय के प्रति राज्य सत्ता का नजरिया लंबे समय से चर्चा का विषय रहा है. इन बहस के पुनः प्रासंगिक हो जाने की वजह बीते दिनों राष्ट्र स्तर पर घटित हुयी कई बड़ी घटनायें रहीं हैं.

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सुरक्षा के लिए एनसीटीसी

अगर यह मान लिया जाये कि पहले भारतीय राज्य सत्ता की मुस्लिम समुदाय के प्रति किये जाने वाले व्यवहार और नजरिये की तस्वीर कुछ धुंधली थी तो कम से कम इन घटनाओं के संदर्भ में उसके चरित्र और व्यवहार के बारे में कुछ निर्णायक निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं. इन घटनाओं के क्रम में सबसे ताजा उदाहरण हैदराबाद के दिलसुखनगर में हुये बम धमाकों के बाद बने हुये माहौल का है. 

ऐसा पहली बार नहीं है कि जब किसी कथित आतंकी हमले के बाद केंद्र और राज्य सरकारें आंतरिक सुरक्षा संबंधी सवालों और उसके मुद्दों में उलझी नजर आ रही हैं. गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे ने राष्ट्रीय आतंकवादी निरोधी केंद्र (एनसीटीसी) के कुछ प्रावधानों से असहमत रही राज्य सरकारों के बीच सहमति बनाने की कोशिशें तेज कर दी हैं. ऐसी भी खबर है कि इस कानून से जुड़े कुछ विवादास्पद प्रावधानों को हटाने के लिये केंद्र सरकार सहमत हो गयी है जिसके बाद राज्य सरकारें इस पर मुहर लगा देंगी. गौर करने वाली बात है कि राष्ट्रीय आतंकवाद निरोधी केंद्र के मूल प्रारूप के अंतर्गत खुफिया तंत्र (आईबी) की आपरेशन विंग और मल्टी एजेंसी सेंटर विंग को यह अधिकार दिया गया था कि वे किसी भी राज्य में राज्य सरकार को बगैर कोई पूर्व सूचना दिये गिरफ्तारी और जांच-पड़ताल का अभियान चला सकती हैं. 

कई राज्य सरकारों ने इस पर आपत्ति जाहिर की थी. न सिर्फ राष्ट्रीय आतंकवाद निरोधी केंद्र की वर्तमान बहस के सन्दर्भ में बल्कि कालांतर में आतंकवाद को नियंत्रित करने के नाम पर बनी नीतियों और कानूनों के सन्दर्भ में कुछ बातें बेहद अहम रही हैं. आतंकी हमलों और वारदातों को सीधे तौर पर कोई भी राज्य सत्ता देश की आंतरिक सुरक्षा से जोड़कर देखती है. यही वजह है कि ऐसी वारदातों और घटनाओं को बेहद 'असामान्य' माना जाता है और देश का शासक वर्ग इन पर कड़ी प्रतिक्रियायें भी देता है. जब-जब किसी 'असामान्य' माने जाने वाली घटना के समाधान की दिशा में राज्य सत्ता द्वारा कोई पहल की जाती है तो घटना की वजहों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में नहीं देखकर महज कानूनी और नीतिगत दायरों में देखा जाता है.

आंतरिक सुरक्षा जैसे मुद्दे पर शासक वर्ग की विभिन्न धुरियों के बीच तमाम वैचारिक अंतर्विरोधों के बावजूद आम सहमति का माहौल होता है. ऐसी स्थिति में ही राज्य सत्ता को प्रतिक्रियावादी समाधानों को लागू करने की अनुकूल जमीन मिल जाती है. इस कोशिश का नतीजा एक ऐसी नीतिगत और कानूनी व्यवस्था के रूप में निकलता है जिसकी कोई लोकतांत्रिक जवाबदेही नहीं होती. सुरक्षा बलों और जांच एजेंसियों को इन वारदातों से निपटने के नाम पर असीमित अधिकार दिए जाते हैं जो तनाव के नये बिंदु पैदा करने की वजह बनते हैं. हैदराबाद बम धमाकों और इस तरह के वारदातों के बाद मुस्लिम नवयुवकों की संदेह और शक के आधार पर होने वाली गिरफ्तारी का लगातार चर्चा में बने रहना इसी प्रक्रिया का नतीजा है. 

इसे राहत की बात माना जाना चाहिये कि आंतरिक सुरक्षा के मुद्दे पर आम तौर पर कड़े कानूनों और नीतियों से सहमत नजर आने वाले राजनीतिक दलों के बीच संसद में बड़े पैमाने पर होने वाली इन गिरफ्तारियों के विरोध में सवाल उठाये गये हैं और पहली बार इस मुद्दे पर केंद्र सरकार के ऊपर एक तरह का लोकतांत्रिक दबाव पड़ा है. वैसे एनसीटीसी के कुछ विवादास्पद प्रावधानों पर केंद्र सरकार के पीछे हटने के संकेतों की भी वजह ऐसे ही लोकतांत्रिक दबाव को माना जा रहा है. जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि केंद्र सरकार इस कानून को अंतिम रूप देने से पहले राज्यों की उस मांग पर सहमत हो गयी है जिसमें उन्होंने एनसीटीसी अधिकारियों के संबंधित राज्य में किसी भी तरह की गिरफ्तारी और जांच-पड़ताल से पहले राज्य सरकार से अनुमति लेने की बात कही थी. 

केंद्र ने यह एनसीटीसी की परिधि से खुफिया तंत्र को दूर रखने का भी संकेत दिया है. एनसीटीसी के जिस मूल प्रारूप को लागू कर केंद्र सरकार सुरक्षा एजेंसियों और पुलिस बलों को असीमित अधिकार और शक्तियां देने की कोशिश कर रही थी, उस प्रारूप पर केंद्र सरकार राज्यों के विरोध के चलते पीछे तो हटी है, लेकिन अब भी इस बात की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि इस कानून के जरिये ऐसी नीतियों को व्यवस्थागत रूप प्रदान किया जायेगा जो मूलभूत नागरिक अधिकारों और संवैधानिक अधिकारों के अतिक्रमण की वजह बनेगी. केंद्र सरकार एनसीटीसी को एक ऐसी स्वतंत्र जांच संस्था बनाने के पक्ष में है जो सीधा गृह मंत्रालय के प्रति जवाबदेह होगी. 

एनसीटीसी के प्रावधानों पर आरंभ से ही कुछ राज्य यह कहकर आपत्ति उठाते रहे हैं कि इसके जरिये केंद्र राज्य के अधिकारों और विषयों में हस्तक्षेप कर रहा है और इस प्रकार संघीय ढांचे की अवधारणा भी कमजोर पड़ रही है. बहुत संभव है कि राज्यों का इस कानून के सन्दर्भ में केन्द्र से कोई बुनियादी अंतर्विरोध नहीं हो, लेकिन यह सच है कि आंतरिक सुरक्षा से जुड़े कई मुद्दों पर केंद्र ने राज्य के विषयों में अपने हस्तक्षेप को बढ़ाया है और इसकी एक बड़ी वजह राज्यों की केंद्र पर बढ़ती आर्थिक निर्भरता भी रही है. 

इस प्रक्रिया के संदर्भ और परिप्रेक्ष्य को अगर राष्ट्र स्तर से उठाकर वैश्विक स्तर पर ले जायें तो भी कुछ ऐसे ही निष्कर्ष निकलकर सामने आते हैं. हाल में न्यूयार्क स्थित एक मानवाधिकार संगठन की रिपोर्ट में यह बात सामने आयी है कि अमेरिकी जांच एजेंसी (सीआईए) के नेतृत्व में अमेरिका ने 9/11 आतंकी हमले के बाद करीब 54 देशों में नजरबंदी और पूछताछ अभियान चलाया जिसमें खुले तौर पर मानवाधिकारों का उल्लंघन हुआ. 

इस सूची में भारत का नाम नहीं था, लेकिन ये सवाल विचारणीय है कि आखिर 54 देशों की सरकारों ने अमेरिकी दबाव में अपनी जमीन पर पूछताछ और नजरबंदी अभियान चलाने की इजाजत क्यों और किस आधार पर दी. गौर से देखा जाये तो साल 2008 में मुंबई आतंकवादी हमले के बाद से लेकर हैदराबाद में हुये हालिया बम धमाकों की घटना तक एनसीटीसी की बहस जिस निर्णायक स्थिति में पहुंच गयी है, उसका सार यही है कि राज्य सत्ता नागरिक अधिकारों और मानवाधिकारों को ताक पर रखकर आतंकवाद के खिलाफ लड़ते हुये प्रतिबद्धता का परिचय दे. 

एक लोकतांत्रिक राज्य व्यवस्था से यह उम्मीद की जाती है कि वह आंतरिक सुरक्षा या राष्ट्रीय सुरक्षा की दिशा में कोई भी पहलकदमी नागरिक और संवैधानिक अधिकारों की बलि चढ़ाकर नहीं करे.यह अफसोसजनक स्थिति है कि इस पहलकदमी में मुस्लिम समुदाय के नागरिक और संवैधानिक अधिकार पहले निशाना बनेगें और संवैधानिक दायरों में इसे चुनौती देने की जगह भी लगातार कम होगी. इन बातों की परवाह किये बगैर आतंकवाद से लड़ने के लिये एनसीटीसी को अंतिम रूप प्रदान किये जाने के लिये केन्द्र सरकार तत्पर और सक्रिय दिखायी दे रही है. इन स्थितियों में अल्पसंख्यकों खासकर मुस्लिम समुदाय के प्रति राज्य सत्ता की पक्षधरता के बारे में जो संकेत मिलते हैं, वे अफसोसजनक हैं.

abhinav-srivastavaअभिनव श्रीवास्तव दिल्ली विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं.

http://www.janjwar.com/2011-05-27-09-06-02/2011-05-27-09-06-23/3781-asimit-adhikaron-kee-nctc-abhinav-srivastava

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