महिला उत्पीड़न में बढ़ती उत्तराखंड की रफ़्तार
सबसे कम अपराध वाले राज्यों में शुमार और अपेक्षा कृत शांत माने जाने वाले हिमालयी राज्य उत्तराखण्ड की महिलाओं के साथ अत्याचार के मामले काफी तेजी से बढ़ रहे हैं. उन पर होने वाले शोषण की घटनाओं में राज्य बनने के बाद से लगातार इजाफा हुआ है...
देहरादून से शब्बन खान गुल
पहाड़ की जीवनरेखा कही जाने वाली महिलाओं का यहां की संस्कृति और सामाजिक ताने-बाने में अहम योगदान है. जनसरोकारों व समस्याओं को लेकर संघर्ष में इस आधी आबादी ने न केवल बढ़-चढ़कर अपनी भीगीदारी दर्ज करायी है, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हुए कुछ मुद्दे तो ऐसे हैं, जिन्हें महिलाओें ने उठाया तथा अंजाम तक पहुँचाया. हालांकि इन संघर्षों में पहाड़ की मातृशक्ति को कुर्बानियां भी देनी पड़ी हैं.
राज्य गठन के बाद महिलाओं पर अत्याचार तो बढ़े, पर अब तक की सरकारों ने इस आधी आबादी की सुरक्षा और बेहतरी के लिए कोई ठोस पहल करना मुनासिब नहीं समझा. इतना ही नहीं, तमाम मुद्दों में निर्णायक जिम्मेदारी निभाने वाली महिलाएं अपने हक के लिए कोई आंदोलन खड़ा करने में पता नहीं क्यों पीछे खड़ी दिख रही हैं, जबकि उनके प्रति हिंसा का ग्राफ साल दर साल आगे ही बढ़ता जा रहा है. पुरुषों की बदलती सोच और पहाड़ के गांव-कस्बों तक बाहरी लोगों की पैठ ने महिलाओं को कई तरह से असुरक्षित किया है.
उत्तराखंड राज्य पुलिस का नजरिया भी महिलाओं के प्रति गंभीर और सकारात्मक नहीं दिख रहा. शासन स्तर से भी पुलिस का नजरिया बदलने की कोई पहल नहीं की गई. इससे अत्याचारियों को शह मिल रही है तथा उनके हौसले और बुलंद होते जा रहे हैं. पहाड़ में पहाड़ जैसी मुसीबतों से जूझती महिलाओं का यौन हिंसा समेत दूसरी तरह से असुरक्षित महसूस करना भविष्य के लिए खतरनाक संकेत हैं. इस अहम मामले पर सामाजिक पैरोकारों का लापरवाह बने रहना बेचैनी बढ़ा रहा है.
पहाड़ के जिन जनपदों में पहले कभी महिला किसी महिला के साथ बलात्कार की घटना सामने नहीं आई थी, वहां भी इस प्रकार के जघन्य मामले दर्ज होने लगे हैं. दर्ज प्रकरणों को देखा जाए तो नैनीताल, देहरादून, उधमसिंहनगर व हरिद्वार में रेप की वारदातें प्रतिवर्ष बढ़ रही हैं. उत्तराखंड में वर्ष 2012 के अंत तक रेप के 128 प्रकरण दर्ज किए गए, जबकि वर्ष 2011 में 112 तथा 2010 में 96 मामले सामने आए थे. यह ग्राफ कम होने की बजाय बढ़ रहा है. इसी तरह महिलाओं की हत्या के आंकड़े भी स्पष्ट करते हैं कि वर्ष 2010 में 37, वर्ष 2011 में 33 तथा 2012 में 55 को मौत के घाट उतारा गया है. इसी तरह अपहरण के प्रकरण भी कम नहीं हैं. वर्ष 2012 में अपहरण के 205 मामले दर्ज हुए हैं.
देवभूमि में वर्ष 2012 में 66 महिलाओं की दहेज मामलों में हत्या की गई. पिछले दो वर्षों के मुकाबले वर्ष 2012 में 147 महिलाएं अन्य अपराधों का शिकार बनी हैं. छेड़छाड़ और लूटपाट की घटनाएं भी महिलाओं के साथ काफी संख्या में हुई हैं. थानों में दर्ज केसों की ये बानगी मात्रा है, जबकि हकीकत इससे कहीं अधिक भयावह है, क्योंकि ज्यादातर प्रकरण दर्ज ही नहीं होते. पुलिस मात्रा दरख्वास्त लेकर टरका देती है. जो केस दर्ज हो जाते हैं, उनका भी वर्कआउट करने की जहमत नहीं उठाई जाती. कुछ दिनों बाद पुलिस फाइनल रिपोर्ट लगाकरअपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेती है.
पहाड़ की महिलाओं को हिंसा से बचाने और उन्हें सुरक्षा देने के कोई पुख्ता इंतजाम नहीं किए गए हैं, न ही इस तरह की कोई नीति ही सरकार की ओर से धरातल पर उतारने की कवायद की जा रही है, जबकि कागजी फाइलों में बड़े-बड़े दावे किए जा रहे हैं. यहां तक कि प्रदेश में खुले नाममात्र के महिला थाने व महिला पुलिस भी कागजों में कारगर साबित हो रहे हैं. उत्तर प्रदेश के समय वर्ष 1993 में अल्मोड़ा में एक महिला थाना स्थापित हुआ था तथा इसके बाद एक महिला थाना श्रीनगर में भी बनाया गया था, लेकिन ये दोनों ही महिला थाने मात्रा शो-पीस बने हुए हैं. इनमें न तो कोई खास केस दर्ज हुए और न ही महिलाओं के मामले में कुछ कर सकने की स्थिति में रहे.
आश्चर्य की बात है कि श्रीनगर महिला थाने में कोई प्रकरण ही दर्ज नहीं हुआ है, बल्कि अब तक करीब 150 शिकायतों को समझा-बुझाकर रफा-दफा कर दिया गया. जानकारी के मुताबिक अगर कोई महिला अपनी शिकायत लेकर यहां आती है, तो दूसरे पक्ष को तलब कर सुलह-समझौता करा दिया जाता है. नियमतः प्राथमिकी लिखकर कार्रवाई करनी चाहिए. कुछ ऐसी ही दशा अल्मोड़ा महिला थाने की भी है. पिछले तीन वर्षों का रिकार्ड देखें तो यहां भी कमोबेश दस केस ही दर्ज हुए हैं, जो कि महिलाओं के साथ घटित घटनाओं के लिहाज से बेहद कम हैं. इन महिला थानों को खोलने का मकसद था महिला अपराधों में कमी लाना तथा उन्हें सुरक्षा एवं न्याय प्रदान करना, लेकिन ये महिला थाने महिलाओं की मदद करने में नकारा साबित हो रहे हैं.
हाल में महिलाओं के साथ बढ़ती घटनाओं को देखते हुए पुलिस मुख्यालय अन्य ग्यारह जनपदों में भी महिला थाने खोलने की बात कर रहा है, जबकि पहले से ही चल रहे थानों में स्टाफ की कमी, केस दर्ज न होना आदि कुछ ऐसे सवाल हैं जिससे नहीं लगता कि पुलिस अपनी मंशा में कामयाब हो पाएगी. वैसे प्रदेश पुलिस प्रमुख का मानना है कि ऐसा न होना गंभीर है तथा थानों में केस क्यों नहीं दर्ज हो रहे हैं, इसकी जांच कराई जाएगी. सभी जनपदों के पुलिस अधीक्षकों से केस रजिस्टर्ड न होने तथा महिला थाना खोले जाने की आवश्यकता सम्बन्धी समीक्षा रिपोर्ट तलब की गई है.
डीआईजी पिथौरागढ़ के मुताबिक महिला थाने में केस क्यों नहीं दर्ज हो रहे हैं, इसकी समीक्षा की जा रही है तथा महिला मामलों की जांच महिला पुलिस ही करे, इसका भी निर्णय लिया गया है. पौड़ी रेंज के डीआईजी का मानना है कि महिला सम्बन्धी अपराध् न होने की वजह से ही केस दर्ज नहीं हुए हैं. आपसी विवादों को आपसी रजामंदी के माध्यम से लगातार निपटाया जा रहा है. इसके अलावा श्रीनगर कोतवाली को स्पष्ट निर्देश जारी किए गए हैं कि महिलाओं के जो भी मामले आएं, उन्हें महिला थाना भेजा जाए.
वैसे पुलिस की समीक्षा रिपोर्ट जो भी हो, लेकिन प्रदेश में महिलाओं पर बढ़ते अपराधों के प्रकरणों को देखते हुए सभी जनपदों में महिला थाने खोलना जरूरी हो गया है तथा इन थानों पर स्टाफ व अन्य संसाधनों का मौजूद रहना भी आवश्यक है, ताकि महिला थाने ढंग से काम कर सकें. उत्तराखंड में कुरीतियों के विरोध में हाथ में दरांती लेकर जीवट का परिचय देने वाली मातृशक्ति के उफपर खुद ही दरांती तनी दिख रही है.
उत्तराखंड पुलिस महिला हिंसा पर कितनी ईमानदार, कितनी सजग व गंभीर है, इसकी बानगी के तौर पर जनपद टिहरी गढ़वाल के घनसाली थाना क्षेत्र के गांव पिपोला में दहेज के लिए जलाकर मारी गई पूनम बडोनी (पुन्नी) प्रकरण काफी है. मामले में घनसाली पुलिस का थानेदार हत्यारे का खुलकर साथ दे रहा है. 11 नवंबर 2012 को आग के हवाले की गई पूनम बडोनी की 17 नवंबर को सुबह मौत हो गई थी. पूनम की गरीब बूढ़ी मां थाने में लाख रोई-गिड़गिड़ाई, लेकिन रिपोर्ट दर्ज नहीं की गई.
आरोप है कि थाना पुलिस मामले को रफा-दफा करने के लिए मृतका की मां को धमाका रही है. इस सनसनीखेज हत्याकांड की प्राथमिकी दर्ज कराने व दोषियों को दंडित किए जाने को लेकर प्रदेश पुलिस मुखिया से लेकर मुख्यमंत्री के पास लिखित शिकायतें भेजी गईं, लेकिन आज तक कोई नतीजा नहीं निकला. यहां तक कि स्थानीय थाना पुलिस ने हत्यारे पति को बचाने के लिए सभी हथकंडे अपनाते हुए उल्टे अपनी जांच रिपोर्ट में लिख दिया कि पूनम ने अपने पति से आपसी विवाद के चलते अपने उफपर मिट्टी का तेल छिड़ककर आग लगा ली.
घनसाली थानाध्यक्ष राजेन्द्र सिंह रावत के अनुसार घटना का कोई प्रत्यक्षदर्शी नहीं है तथा मृतका के आठ-नौ वर्षीय बेटे का बयान है कि मां ने अपने शरीर पर मिट्टी का तेल छिड़ककर आग लगाई थी. थानाध्यक्ष ने यह भी बताया कि पूनम बडोनी का दिल्ली में इलाज चल रहा था तथा उसने दिल्ली पुलिस को ही बयान दिया था कि इस मामले में मेरे पति या ससुराल वालों का कोई दोष नहीं है.
इस बयान को कितना प्रमाणिक माना जा सकता है? इसे सब जानते हैं, लेकिन हत्यारे का साथ देने पर आमादा थानाध्यक्ष ने केस दर्ज कर अपने ढंग से जांच-पड़ताल करना जरा भी जरूरी नहीं समझा. मृतका की मां ने लिखित दिया, फिर भी केस न दर्ज करने के सवाल पर थाना इंचार्ज ने बेशर्मी से बताया कि ऐसे आरोप तो लगते ही रहते हैं. क्या हर आवेदन पर रिपोर्ट दर्ज की जाएगी. बहरहाल, मृतका की मां ने जहां-जहां शिकायत भेजी थी, मैंने दिल्ली पुलिस को दिए बयान के आधार पर जांच रिपोर्ट भेज दी है.
श्रीनगर स्थित महिला थाने की इंचार्ज जानकी भंडारी कहती हैं कि पिछले तीन वर्षों से महिला हिंसा का कोई भी केस दर्ज नहीं हुआ है. इसके पीछे थाना प्रभारी का तर्क है कि यहां पर इस प्रकार के केस होते ही नहीं हैं. यदि कोई प्रकरण थाने में आएगा तो प्राथमिकी दर्ज कर उचित कार्रवाई की जाएगी. हां, आपसी विवाद के पारिवारिक मामले जरूर आते हैं, इनको काउंसिलिंग कर निपटाया जाता है.
अब सवाल यह उठता है कि जब थाना प्रभारी कहते हैं कि उनके इलाके में रामराज्य चल रहा है तो सरकार इस थाने पर पुलिस स्टाफ का समय और खजाने का पैसा क्यों बर्बाद कर रही है? जब महिलाओं का थाना महिलाओं के लिए ही किसी काम का नहीं है तो इसे बंद कर देना ही बेहतर होगा. वहीं पुलिस महकमा सभी जिलों में महिला थाना स्थापित करने की सोच रहा है. इससे यही लगता है कि सूबे की पुलिस महिला सुरक्षा के प्रति गंभीर न होकर मात्र रस्म अदायगी ही कर रही है.
शब्बन खान गुल पत्रकार हैं.
http://www.janjwar.com/society/crime/3782-women-harassment-state-uttarakhand-by-shabban-khan-gul
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