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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Saturday, July 27, 2013

मानवजनित विकास की ‘बाढ़’

मानवजनित विकास की 'बाढ़'


पहाड़ में नदियों के किनारे बसे हुये लोग कभी बड़े भाग्यशाली माने जाते थे, क्योंकि उन्हें पेयजल, खेतों की सिंचाई और घराटों को चलाने के लिये पानी आसानी से मिल जाता था. अब स्थिति यह है कि खेती की जमीन और घराट तेजी से मलबे में तब्दील हो रहे हैं. 1991-1999 के भूकम्पों से ही यहां के लगभग 800 लोग असमय काल के मुंह में समा गये...

सुरेश भाई


हिमालयी क्षेत्र में बाढ़, भूस्खलन, भूकम्प की घटनायें लगातार बढ़ रही हैं. उत्तराखण्ड हिमालय से निकलने वाली पवित्र नदियां भागीरथी, मंदाकिनी, अलकनंदा, भिलंगना, सरयू, पिंडर, रामगंगा आदि के उद्गम से आगे लगभग 150 किमी तक वर्ष 1978 से लगातार जलप्रलय की घटनाओं की अनदेखी होती रही है.

apda-uttarakhand-2013

इस वर्ष 16-17 जून 2013 को केदारनाथ में हजारों तीर्थयात्रियों के मरने से पूरा देश उत्तराखण्ड की ओर नजर लगाये हुये है. इस बीच ऐसा लगा कि मानो इससे पहले यहां कोई त्रासदी नहीं हुई होगी, जबकि गंगोत्री से उत्तरकाशी तक पिछले 35 वर्षों में बाढ़ और भूकम्प से लगभग एक हजार से अधिक लोग मारे गये.

वर्ष 1998 में ऊखीमठ और मालपा, 1999 में चमोली आदि कई स्थानों पर नजर डालें तो 600 लोग भूस्खलन की चपेट में आकर मरे हैं. 2010-12 से तो आपदाओं ने उत्तराखण्ड को अपना घर जैसा बना दिया है. इन सब घटनाओं को यों ही नजरअंदाज करके आपदा के नाम पर प्रभावित समाज की अनदेखी की जा रही है.

यहां की नदियों के किनारे बसे हुये लोग कभी बड़े भाग्यशाली माने जाते थे, क्योंकि उन्हें पेयजल, खेतों की सिंचाई और घराटों को चलाने के लिये पानी आसानी से मिल जाता था. अब स्थिति यहां तक पहुंच गयी है कि खेती की जमीन और घराट तेजी से मलबे में बदल रहे हैं. 1991 और 1999 के भूकम्प से उत्तराखण्ड के लगभग 800 लोग असमय काल के मुंह में समा गये. इसके कारण ढालदार पहाडि़यों पर दरारें आयी हैं. इन दरारों के आसपास हजारों गांव बसे हुये हैं.

वैज्ञानिकों ने ऐसे एक हजार से अधिक गांव को सुरक्षित स्थानों पर बसाने की बात भी कही थी, लेकिन इसके बावजूद उत्तराखण्ड में पिछले एक दशक से विकास के नाम पर पहाड़ों की कमर तोड़ने वाली विकास योजनाओं का क्रियान्वयन केवल मुनाफाखोर कम्पनियों के हितों में हो रहा है.

मौजूदा स्थिति में विकास के नाम पर 558 परियोजनाओं से 40,000 मेगावाट बिजली उत्पादन का लक्ष्य रखा गया है. इन बिजली परियोजनाओं के निर्माण के लिये नदियों के किनारों से होकर गुजरने वाले राष्ट्रीय राजमार्गों को चौड़ा ही इसलिये किया जा रहा है, ताकि बड़ी-बड़ी भीमकाय मशीनें सुरंग बांधों के निर्माण के लिये पहाड़ों की गोद में पहुंचाई जा सकें. यहां तो हर रोज सड़कों का चौड़ीकरण विस्फोटों और जेसीबी मशीनों द्वारा हो रहा है, जिसके कारण नदियों के आरपार बसे अधिकांश गांव राजमार्गों की ओर धंसते नजर आ रहे हैं.

सड़क निर्माण का मलबा नदियों, गाड़-गदेरों, जलस्त्रोतों, ग्रामीण बस्तियों में उड़ेला जा रहा है. इसी तरह उत्तराखण्ड में उद्गम से ही बन रहे श्रृंखलाबद्ध सुरंग बांधों के निर्माण से लाखों टन मलबा जिसमें मिट्टी, पत्थर, पेड़ शामिल हैं, नदियों में फेंके जा रहे हैं. कोई भी उत्तराखण्ड में मानवजनित विकास के नाम पर इन त्रासदियों की प्रत्यक्ष तस्वीर देख सकता है, जहां बिना बारिश के भी पहाड़ टूटते नजर आ रहे हैं. उत्तरकाशी में 2003 में वरुणावत त्रासदी की घटना भी सितम्बर-अक्टूबर में हुई थी.

सुरंग बांधों के निर्माण के लिये पहुंचायी जा रही बड़ी-बड़ी मशीनों ने भी पहाड़ में कम्पन पैदा कर दिया है. यहां वनों में बार-बार आग लगने की घटनाओं ने मिट्टी को नीचे की ओर बहने के लिये मजबूर कर दिया है. नदियों के किनारे बिना रोकटोक बन रहे होटलों, रेंस्तराओं व ढाबों के निर्माण से निकलने वाला मलबा भी नदियों में ही गिरता है. इन सबके चलते न तो तीर्थयात्रियों की सुरक्षा का ध्यान होता है और न ही पहाड़ों के गांवों में हो रहे भू-धंसाव व बाढ़ के दुष्प्रभाव पर कोई बात हो पाती है.

इस बार की बाढ़ में तीर्थयात्रियों के मारे जाने की वजह से उत्तराखण्ड में किये जा रहे अनियोजित, अविवेकपूर्ण कार्य का पर्दाफाश हो गया, जबकि बाढ़ से पिछले 4 वर्षों में जितना नुकसान हुआ है उसे तो भुला ही दिया गया था. वर्ष 2008 में जब नदी बचाओ वर्ष मनाया गया, तब से आज तक निर्माणाधीन, प्रस्तावित सुरंग बांधों के विरोध को दबाने के लिये बाकायदा बांध समर्थक तथाकथित बुद्धिजीवियों की एक लाबी बनाकर पक्ष में खड़ा करके नासमझ बहस पैदा करने की कोशिशें करते रहते हैं, जिसका नतीजा प्रकृति के इस रौद्र रूप ने सामने ला दिया है. अब राज्य सरकार भी प्रस्ताव पास कर रही है कि नदियों के किनारे निर्माण कार्य नहीं होने दिया जायेगा. यह याद बहुत देर से आ रही है, वैसे इसकी पुष्टि तो भविष्य में ही हो पायेगी.

उत्तराखण्ड में टिहरी बांध के विरोध का सिलसिला अभी आगे थमता नजर नहीं आ रहा. अब रन ऑफ़ द रीवर का मुगालता देकर डायवर्टिंग आॅफ द रीवर के महाविनाश का चेहरा किसी से छिपा नहीं है.

जहां-जहां पर उत्तराखण्ड में इस तरह के बांध बन रहे हैं, वहां पर गांवों के नीचे से खोदी जा रही सुरंग के कारण आवासीय मकानों पर दरारें आ गयी हैं, जल स्त्रोत सूख गये हैं. खेती की जमीन अधिगृहीत हो गयी हैं. जंगल काटे जा रहे हैं. गांव में आने-जाने के रास्ते विस्फोटों के कारण संवेदनशील हो गये हैं. अब स्थिति यहां तक पहुंच चुकी है कि धरती माता का सब्र का बांध टूट चुका है. इसी का परिणाम है जलप्रलय, बाढ़ और भूस्खलन.

ऐसी विषम स्थिति में राज्य की लालसा को देखें तो उसने ऊर्जा प्रदेश का सपना भी नदियों के स्वरूप को अवरुद्ध करके संजोया हुआ है. जबकि यहां नदियों के पास रहने वाले समाज ने चिपको, रक्षासूत्र, पानी राखो और नदी बचाओ चलाकर प्रकृति के साथ एक रिश्ता बनाकर रखा है. यहां आज भी कई गांवों में महिलायें जब जंगल जाती हैं, तो तौलकर चारापत्ती लाती हैं. राज्य में खिट्टा खलड़गांव, कुडि़यालगांव, धनेटी आदि ऐसे सैकडो़ं गांव हैं, जहां पर लोगों ने ऐसी व्यवस्था बनायी है.

विकास और पर्यावरण के बीच अघोषित युद्ध ने समाज और प्रकृति के रिश्तों की उपेक्षा की है. उत्तराखण्ड में अगर 558 बांध बन गये, तो इसके कारण ही बनने वाली लगभग 1,500 किमी लम्बी सुरंगों के ऊपर लगभग 1,000 गांव आ सकते हैं. यहां पर लगभग 30 लाख लोग निवास करते हैं. विस्फोटों के कारण जर्जर हो रहे गांव की स्थिति आने वाले भूकम्पों से कितनी खतरनाक होगी, इसका आकलन नहीं किया जा सकता है.

उत्तरकाशी जाने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग धरासू से डुण्डा तक लगभग 10 किमी के चैड़ीकरण के कारण अब तक एक दर्जन से अधिक लोग मर गये हैं और कई गाडि़यां यहां पर क्षतिग्रस्त हो चुकी हैं. विस्फोटों से हुये इस निर्माण के कारण पिछले 5-6 वर्षों से इस मार्ग से गंगोत्री पंहुचने वाले तीर्थ यात्री घंटों फंसे रहते हैं. यही स्थिति बदरीनाथ, केदारनाथ, यमनोत्री की तरफ जाने वाले सभी राजमार्गों की है. इस विषम स्थिति में ही चारधाम यात्रा होती है.

इसी प्रकार उत्तरकाशी में मनेरी भाली फेज-1, फेज-2 (394 MW), असीगंगा पर निर्माणाधीन फेज-1, फेज-2 (5 MW) ने सन् 2012 में भयंकर बाढ़ की स्थिति पैदा की है. दुःख इस बात का है कि मनेरी भाली फेज-1, फेज-2 का गेट वर्षाकाल के समय रात को बंद रहते हैं, जिसे ऊपर से बाढ़ आने पर अकस्मात खोल दिया जाता है.

इसी के कारण उत्तरकाशी में तबाही हुई है. यही सिलसिला केदारनाथ से आने वाली मंदाकिनी नदी पर निर्माणाधीन सिंगोली-भटवाड़ी (90 MWद्ध, फाटा व्यूंग (75 MW), अलकनंदा पर श्रीनगर (330 MW ), तपोवन विष्णुगाड़ (520 MW), विष्णुगाड़ (400 MW), आदि दर्जनों परियोजनाओं ने तबाही की रेखा यहां के लोगों के माथे पर खींची गयी है.

वर्ष 2008 में राज्य सरकार ने नदी बचाओ अभियान के साथ खड़े होकर कहा था कि वह बड़े सुरंग बांधों के निर्माण की स्वीकृति नहीं देगी. इसके स्थान पर सुझाये गये विचारों के अनुसार कहा गया था कि प्रदेश में बिना सुरंग वाली छोटी जलविद्युत परियोजनाओं की अपार संभावनायें हैं.

उत्तराखण्ड में बड़ी मात्रा में सिंचाई नहरें, घराट और कुछ शेष बची जलराशि अवश्य है, लेकिन पानी की उपलब्धता के आधार पर ही छोटी टरबाइनें लगाकर हजारों मेगावाट से अधिक पैदा करने की क्षमता है. इसको ग्राम पंचायतों से लेकर जिला पंचायतें बना सकती है. यह काम लोगों के निर्णय पर यदि किया जाये तो, उत्तराखण्ड की बेरोजगारी समाप्त होगी.

मौजूदा स्थिति में उत्तराखण्ड में 16 हजार सिंचाई नहरें हैं, जो निष्क्रिय पड़ी हैं. इन्हें बहुआयामी दृष्टि से संचालित करके इनसे सिंचाई और विद्युत उत्पादन दोनों किया जा सकता है. केवल इन्हीं सिंचाई नहरों से 30 हजार मेगावाट बिजली बन सकती है. उत्तराखण्ड राज्य की आवश्यकता तो 1,500 मेगावाट से पूरी हो जाती है. शेष बिजली से यहां के लोगों की भाग्य की तस्वीर बदल सकती है और उत्तराखण्ड से पलायन हो चुके लगभग 35 लाख लोगों को अपने घरों में पुनर्स्थापित करके रोजगार दिया जा सकता है और बाकी बिजली निश्चित ही देश को मिलेगी.

इसी तरह सड़कों का निर्माण ग्रीन कंस्ट्रक्शन के आधार पर होना चाहिये. जिसमें सड़कों के निर्माण से निकलने वाले मलबे से नयी जमीन का निर्माण हो. पहाड़ी ढलानों के गड्डों को इस मलबे से पाट दिया जाये और लोगों की टेढ़ी-मेढ़ी जमीन में भी सड़कों के निर्माण से निकलने वाली उपजाऊ मिट्टी से कृषि क्षेत्र को बढ़ाया जा सकता है. इस प्रकार की नयी जमीन पर होर्टीकल्चर का निर्माण हो सकता है.   

suresh-bhaiसुरेश भाई उत्तराखण्ड नदी बचाओ अभियान से जुड़े तथा उत्तराखण्ड सर्वोदय मंडल के अध्यक्ष हैं.

http://www.janjwar.com/janjwar-special/27-janjwar-special/4206-manvjanit-vikas-kee-badh-by-suresh-bhai-for-janjwar

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