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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Friday, April 11, 2014

डॉ. आंबेडकर और दलित एजेंडे का भगवाकरण

डॉ. आंबेडकर और दलित एजेंडे का भगवाकरण

डॉ. आंबेडकर और दलित एजेंडे का भगवाकरण


HASTAKSHEP

डॉ. आंबेडकर और वर्तमान दलित राजनीति

-एस. आर. दारापुरी

हाल में दलित राजनीति में नयी परिघटना घटित हुयी है। दलित राजनीतिक पार्टियों के कई नेता बड़ी संख्या में अपने लिए नयी ज़मीन तलाशने के लिए दलितों की धुर विरोधी पार्टी- भाजपा में शामिल हुए हैं या उन्होंने भाजपा के साथ गठजोड़ किया है। इन में से आरपीआई (ए) के राष्ट्रीय अध्यक्ष रामदास अठावले हैं जिन्होंने भीमशक्ति और शिवशक्ति को मिलाने की चाह में पहले तो शिवसेना से गठजोड़ किया और अब शिवसेना-भाजपा के सहारे अपने लिए राज्य सभा में सीट पा ली है। एक दूसरे दलित नेता रामविलास पासवान हैं जो कि गठजोड़ के चाणक्य माने जाते हैं और वह हर सरकार में स्थान प्रप्त कर लेने में माहिर हैं, ने भाजपा के साथ गठबंधन किया है। एक तीसरे दलित नेता उदित राज (राम राज) जो कि दलितों के लिए आरक्षण की लड़ाई के बहाने अपनी राजनीति करते रहे हैं, भी कुर्सी पाने की लालसा में भाजपा में शामिल हो गये हैं और दलित एजेंडे का भगवाकरण करने और भाजपा को दलितों की मसीहा के रूप में स्थापित करने में दिन रात एक किये हुए हैं। इन दलित नेताओं के अनुसार उन्होंने यह सब दलित हित के लिए ही किया है क्योंकि उन्हें लग रहा है भाजपा ही अगली सरकार बनाएगी और वह ही दलितों का कल्याण करेगी।

वैसे तो अपने आप को दलितों की मसीहा कहने वाली मायावती भी इसी प्रकार के अवसरवादी और सिद्धान्तहीन गठबंधन करने में किसी से पीछे नहीं रही है। उसने भी भाजपा से तीन बार गठजोड़ करके उत्तर प्रदेश की सत्ता की चाबी हथियाई है जिस के एवज में उसने मोदी को गुजरात 2002 के नरसंहार के लिए कलीन चिट देकर 2003 में मोदी के पक्ष में गुजरात जा कर चुनाव प्रचार किया था और वह आगे भी यथा आवश्यकता भाजपा से हाथ मिला सकती है।

दलित नेताओं के भाजपा के प्रति बढ़ते आकर्षण के बारे में हिंदी की एक पत्रिका ने लिखते हुए कहा है कि यह दलित नेता केवल व्यक्तिगत हित में अपने राजनीतिक अस्तित्व  को बचाने के लिए ही भाजपा में गये हैं क्योंकि दलित समाज उन्हें पहले ही ख़ारिज कर चुका है। इसी लेख में मैंने भी इन दलित नेताओं का दलितों के बीच कोई खास जनाधार न होने का उल्लेख किया है और बताया है कि भाजपा दलितों के एक बड़े हिस्से के लिए आज भी मनुवादी पार्टी के बतौर ही जानी जाती है जो जातिगत भेदभाव पर आधारित है और सामाजिक न्याय की अवधारणा के खिलाफ यथास्थिति की समरसता की घुट्टी पिलाती है। इस परिघटना के सम्बन्ध में डॉ. आंबेडकर की जयंति के मौके पर यह देखना समीचीन होगा कि डॉ. आंबेडकर दलित राजनीति के विकास और समाज के जनवादीकरण को किस दिशा में ले जाना चाहते थे और उन की राजनीतिक सत्ता और राजनीतिक पार्टी की अवधारणा क्या थी।
डॉ. आंबेडकर दलित राजनीति के जनक माने जाते हैं। उन्होंने ही सबसे पहले दलितों के उद्धार के लिए राजनीतिक अधिकारों के महत्व को पहचाना था। वर्ष 1930 से 1932 तक जब भारत के भावी संविधान के निर्माण की दिशा तय करने के लिए लन्दन में गोलमेज़ कान्फ्रेंसें हुईं तो डॉ. आंबेडकर ने उस में अल्पसंख्यकों के प्रतिनिधित्व के मामले पर डिप्रेस्ड क्लासेज़ के प्रतिनिधि के रूप में दलितों के राजनीतिक अधिकारों की वकालत की थी। गांधीजी ने उनके डिप्रेस्ड क्लासेज़ के प्रतिनिधि होने के दावे को यह कह कर चुनौती दी थी कि डॉ आंबेडकर नहीं बल्कि वह (कांग्रेस) सब का प्रतिनिधित्व करती है। इस पर डॉ. आंबेडकर ने गांधीजी के दावे का ज़ोरदार ढंग से खंडन किया था। अंत में ब्रिटिश प्रधानमंत्री मैक डोनाल्ड ने डॉ. आंबेडकर के दावे को स्वीकार करते हुए डिप्रेस्ड क्लासेज़ का अन्य अल्प संख्यक वर्गों के समकक्ष दर्जा स्वीकार किया था।

यह डॉ. आंबेडकर की ऐतिहासिक जीत थी।
गोलमेज़ कांफ्रेंस में डॉ. आंबेडकर ने अन्य अल्पसंख्यकों की तरह अलग मताधिकार देने की मांग की थी जिस प़र आम सहमति न बन पाने के कारण सभी पक्षों ने ब्रिटिश प्रधान मंत्री मैक डोनाल्ड को हस्ताक्षर कर के सालिश के रूप में स्वीकार क़र निर्णय देने हेतु अधिकृत किया था और सभी पक्षों ने उस निर्णय को मानने का वचन भी दिया था। बाद में जब 18 अगस्त 1932 को ब्रिटिश प्रधान मंत्री ने इस मुद्दे पर अपना निर्णय दिया तो गाँधीजी ने उसका विरोध किया। इस निर्णय में मुसलमानों, सिखों, ईसाईयों और डिप्रेस्ड क्लासेज़ को अलग मताधिकार का हक़ दिया गया था जिस के अनुसार केवल वे ही अपने प्रतिनिधि को चुनने के लिए अधिकृत किये गये थे। इस में अन्य वर्गों का कोई दखल नहीं होना था। गाँधी जी ने इस निर्णय का यह कह कर विरोध किया था कि डिप्रेस्ड क्लासेज़(दलितों) को यह अधिकार दिये जाने से हिन्दू समाज टूट जायेगा। उन्हें मुसलमानों, सिखों और ईसाईयों को यह अधिकार देने पर कोई आपत्ति नहीं थी। गाँधीजी ने अंग्रेज़ सरकार से यह निर्णय वापस लेने का अनुरोध किया और अंतत उसके विरुद्ध आमरण अनशन शुरू कर दिया। आखिर में मजबूर होकर डॉ. आंबेडकर को गाँधी जी की जान बचाने के लिए हिन्दुओं से पूना पैक्ट करना पड़ा और दलितों का अलग मताधिकार के स्थान पर संयुक्त मताधिकार को स्वीकार करना पड़ा। इस से दलितों की राजनीतिक स्वतंत्रता छिन्न गयी और उस के स्थान पर आरक्षित सीटें मिलीं जिस का खामियाजा आज भी दलित समाज भुगत रहा है।

 राजनीतिक अधिकार्रों को मूर्त रूप देने के लिए डॉ. आंबेडकर ने सबसे पहले सन् 1936 में स्वतंत्र मजदूर पार्टी (Independet Labour Party) बनाई और 1937 में चुनाव लड़ाया जिस में इस पार्टी ने 17 सीटें जीती जिन में 3 सामान्य सीटें भी थीं। सन 1942 में उन्होंने शैडयूलेड कास्ट्स फेडरेशन (Scheduled Castes Federation) की स्थापना की और 1946 व 1952 का चुनाव लड़ा परन्तु उस में उन्हें कोई खास सफलता नहीं मिली क्योंकि आरक्षित सीटों पर कांग्रेस ने कब्ज़ा कर लिया।
तत्पश्चात उन्होंने 1956 में फेडरेशन को भंग करके रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया (Republican Party of India) की स्थापना की घोषणा की जो बाद में 3 अक्टूबर, 1957 को अस्तित्व में आई। इस पार्टी ने 1957 में चुनाव लड़ा। इस चुनाव में इस पार्टी को बहुत अच्छी सफलता मिली। इस के बाद 1962 और 1967 में भी इस पार्टी ने अच्छी सीटें जीतीं और राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाई। 1964-65 में इस पार्टी ने राष्ट्रीय स्तर पर भूमिहीनों को भूमि, न्यूनतम मजदूरी अधिनियम 1948 में संशोधन, खाद्यानों का पर्याप्त वितरण और अनुसूचित जाति/जन जाति के लिए सेवाओं में आरक्षण की पूर्ति आदि मुद्दों को लेकर जेल भरो आन्दोलन चलाया और 3 लाख से अधिक लोग जेल गये जिस के फलस्वरूप सरकार को ये मांगे माननी पड़ीं। परन्तु 1970 तक आते आते यह पार्टी कई गुटों में बंट गयी और इस के कई नेता कांग्रेस में शामिल हो गये।
रिपब्लिकन पार्टी के टूटने के कई कारण थे। भगवान दास जी के अनुसार "पार्टी की लीडरशिप ने इसे बाबा साहेब के प्रोग्राम और विचारों के अनुसार नहीं ढाला। आरपीआई केवल शैडयूलेड कास्ट्स फेडरेशन का नामान्तर ही सिद्ध हुई। सिर्फ अछूतों में काम करके और सीमित प्रोग्राम लेकर जन साधारण को प्रभावित नहीं किया जा सकता। आरपीआई महाराष्ट्र में एक मजबूत पार्टी बन कर उभर रही थी जिससे भारत की सब से मजबूत राजनीतिक पार्टी कांग्रेस को खतरा हो सकता था। कांग्रेस के नेताओं ने अपने हितों को सुरक्षित रखने के लिए उसके नेताओं की कमजोरियों का फायदा उठाकर तोड़-फोड़ की कोशिश की। ऊँची जातियों की लीडरशिप में चलने वाली अन्य पार्टियों को इस के टूटने से कुछ फायदा हो सकता था। रिपब्लिकन पार्टी एक दम अस्तित्व से मिट नहीं गयी परन्तु टुकड़ों में बंट कर बेअसर हो गयी। हर गुट अपने नाम के साथ रिपब्लिकन पार्टी का नाम जोड़े हुए था क्योंकि अगर नेता नए नाम से पार्टी खड़ा करते तो नेताओं को डर था कि लोग उसे स्वीकार नहीं करेंगे परन्तु छोटे गुट बेअसर हो गये।।"
रिपब्लिकन पार्टी के पतन और कांग्रेस से दलितों के मोहभंग के फलस्वरूप महाराष्ट्र में दलित पैंथर और बिहार व् उत्तर भारत के कई इलाकों में अपने सम्मान के लिए दलितों का उग्रवाम आन्दोलन के प्रति आकर्षण तेज़ी से पैदा हुआ। इसी दौर में दलित राजनीति में कांशी राम ने अपना काम शुरू किया। उसने सबसे पहले बामसेफ नाम से दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक सरकारी कर्मचारियों का एक संगठन बनाया। उसने बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर का मिशन पूरा करने का वादा किया। लोग स्वतः ही उसकी ओर झुकने लगे और उन्होंने उसे चंदा और अन्य सभी सहयोग दिया। बाद में कांशी राम ने डीएस फ़ोर तथा अंत में 1984 में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के नाम से एक राजनीतिक पार्टी की स्थापना की। परन्तु वह रिपब्लिकन पार्टी की तरह एक लोकतान्त्रिक संस्था नहीं थी और न ही उसकी कोई पालिसी या प्रोग्राम था। उसकी कोई कार्यकारिणी कमेटी भी नहींथी। उसका एक सूत्रीय कार्यक्रम था सत्ता पर कब्ज़ा करना। वह संघर्ष और त्याग को बेकार की चीजें समझती है। आरक्षण और भूमि के बंटवारे के बारे में उनका कहना है यह फजूल के संघर्ष हैं। हम जब सत्ता में आएंगे तो हम दूसरों को आरक्षण देंगे। उनका कहना है कि हम बहुजन हैं। हमारी संख्या 85 प्रतिशत है । बहुजन में अछूत, पिछड़ी जातियां, अल्पसंख्यक और आदिवासी सब शामिल हैं

परन्तु गौर से देखें तो जनता दल या भारतीय जनता पार्टी का भी यही मतलब है। परन्तु अछूत, पिछड़ी जातियां और अल्प संख्यकों को जोड़ने वाली कौन सी चीज़ है? वे जातपात, छुआछूत की पैदा की हुई ऊँचीं दीवारों में कैद हैं।आपसी फूट और घृणा के कारण स्वयं अछूत जातियां एक जगह इकठ्ठी नहीं हो पाती हैं। केवल संसद और विधान सभा में दाखिल होने भर की इच्छा से कोई पार्टी नहीं बन सकती। यदि बड़ी संख्या में सदस्य पहुँच भी जाएँ तो ज़्यादा दिन टिक नहीं सकती। वर्तमान में मैं आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट के प्रत्याशी के रूप में राबर्ट्सगंज (उत्तर प्रदेश) लोक सभा सीट से चुनाव लड़ रहा हूँ। यह देख कर बहुत दुःख और कष्ट होता है किमायावती के प्रदेश में चार बार मुख्य मंत्री रहने के बावजूद भी मैंने खुद अपनी आँखों से इस इलाके में दलितों को कच्चे कुएं और चुआड़ से पानी पीते देखा है जिन में मेंढक, काई और घास फूस भी है। एक तरफ मायावती के करोड़ों के महल बन रहे हैं वहीँ दूसरी तरफ दलितों के कच्चे झोंपड़े बिना किवाड़ के विकास के सच्च के बेपर्दा कर रहे हैं।

इसी पर भगवान दास जी ने ठीक ही कहा था कि "ऐसा संगठन (पार्टी) डाकुओं के संगठन की तरह रहता है और केवल लूट के माल का लालच उन्हें बांधे रखता है। इस किस्म की पार्टी सही मायनों में लोकतान्त्रिक नहीं होती। वह एक व्यक्ति की पार्टी बन कर जी सकती है। उस में फासिस्ट रुझान रहते हैं।"

    गौर करने की बात यह है कि डॉ. आंबेडकर ने कहा था कि "राजनीतिक सत्ता सभी समस्यायों के समाधान की चाबी है और इस का इस्तेमाल समाज के विकास के लिए किया जाना चाहिए।"

अतः दलित राजनीतिक पार्टियों को एक निश्चित राजनीतिक एजेंडा बनाना होगा जो न केवल दलित मुद्दों बल्कि शेष समाज के मुद्दों से भी सरोकार रखता हो। दूसरे पिछले कुछ चुनावों से लगता है कि लोग अब जाति की राजनीति के स्थान पर जन मुद्दों की राजनीति चाहते हैं। अतः दलित मुद्दे राजनीति का मुख्य एजेंडा होना चाहिए। तीसरे भूमंडलीकरण और निजीकरण ने गरीबी, भुखमरी और बेरोज़गारी को बढ़ावा दिया है। अतः दलित राजनीति को इस के अनियंत्रित रूप का विरोध करना होगा। दलित राजनीति को साम्प्रदायिकता और कट्टरवाद के विरोध में भी खड़े होना पड़ेगा। दलितों को वर्तमान में देश में प्राकृतिक संसाधनों की हो रही लूट को रोकने के लिए भी आगे आना होगा।
डॉ. आंबेडकर ने 1952 में शैडयूलेड कास्ट्स फेडरेशन की मीटिंग में राजनीतिक पार्टी की भूमिका की व्याख्या करते हुए कहा था, " राजनैतिक पार्टी का काम केवल चुनाव जीतना ही नहीं होता, बल्कि यह लोगों को शिक्षित करने, उद्देलित करने और संगठित करने का होता है।" इसी तरह एक दलित नेता के गुणों को बताते हुए उन्होंने कहा था, " आपके नेता का साहस और बुद्धिमत्ता किसी भी पार्टी के सर्वोच्च नेता से कम नहीं होनी चाहिए। दक्ष नेताओं के अभाव में पार्टी ख़त्म हो जाती है।" अतः दलितों को अपने नेताओं का मूल्यांकन इस माप दंड पर करना होगा।
डॉ. आंबेडकर ने एक बार कहा था, " मेरे विरोधी मेरे विरुद्ध तमाम प्रकार के आरोप लगाते रहे हैं परन्तुकोई भी मेरे चरित्र और ईमानदारी पर ऊँगली उठाने की हिम्मत नहीं कर सका। यही मेरी सबसे बड़ी ताकत है।" क्या दलितों के वर्तमान नेता ऐसा दावा कर सकते हैं?

इसी प्रकार व्यक्ति पूजा के खतरों से सावधान करते हुए डॉ. आंबेडकर ने कहा था, " अगर आप लोगों ने शुरू में ही इसको नहीं रोका तो व्यक्ति पूजा आप को बर्बाद कर देगी। किसी व्यक्ति को देवता बना कर आप अपनी सुरक्षा और मुक्ति के लिए एक व्यक्ति में आस्था रखने लगते हैं। परिणामस्वरूप आप आश्रित होने और अपने कर्तव्य के प्रति उदासीन होने की आदत डाल लेते हैं। अगर आप ऐसे विचारों का शिकार हो जायेंगे तो आप जीवन की राष्ट्रीय धारा में लकड़ी के लट्ठे से भी बुरे हो जायेंगे। आपका संघर्ष ख़त्म हो जायेगा।" दलितों को अब तक इस दिशा में की गयी गलतियों से अवश्य सीखना होगा।
डॉ. आंबेडकर ने संघर्ष और ज़मीनी स्तर के सामाजिक एवं राजनीतक आंदोलनों को बहुत महत्व दिया था। वास्तव में यह आन्दोलन ही उनकी राजनीति का आधार थे परन्तु वर्तमान दलित पार्टियाँ संघर्ष न करके सत्ता पाने के आसान रास्ते तलाश करती हैं। बसपा इस का सब से बड़ा उदहारण है। डॉ. आंबेडकर का "शिक्षित करो , संघर्ष करो और संगठित करो " का नारा दलित राजनीति का भी मूलमंत्र होना चाहिए।
दरअसल दलित राजनीतिक पार्टियों को डॉ. आंबेडकर द्वारा रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया के गठन के समय बनाये गये संविधान और एजेंडा से सीखना होगा। यह सही है कि एक तो वर्तमान में रिपब्लिकन पार्टी इतनी खंडित हो चुकी है कि उसका एकीकरण तो संभव दिखाई नहीं देता है।

दूसरे बसपा का प्रयोग भी लगभग असफल हो चुका है। इससे उत्तर भारत में दलित राजनीति जातिवाद, दिशाहीनता, अवसरवादिता, मुद्दाविहीनता और भ्रष्टाचार का शिकार हो गयी है और अब यह अपने पतन के अंतिम चरण में है। ऐसी दशा में आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट नाम के नए संगठन की हम ने स्थापना की है जो सही अर्थों में एक प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष संगठन है जो समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के आधार पर देश औ़र उसके लोगों का उत्थान करना चाहता है और समाजिक न्याय के मुद्दे पर डॉ. आंबेडकर की विचारधारा और आदर्शों का इमानदारी से अनुसरण कर रहा है।

About The Author

जाने-माने दलित चिंतक व मानवाधिकार कार्यकर्ताएस. आर. दारापुरी आई. पी. एस (से.नि.) व् आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं

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