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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Monday, April 28, 2014

फिर सुरसाई मंहगाई

फिर सुरसाई मंहगाई

एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास


लोकसभा चुनावों के लिए मतदान 12 मई को पूरा हो जायेगा।अब तक छह चरणों में जो वोड पड़े हैं,उससे नई सराकार का आकार प्रकार भी तय है।यह पहला चुनाव है जो  देश कि ज्वलंत समस्याओं को हाशिये पर रखकर मजहबी और जाति,क्षेत्र भाषा की पहचान के आधार पर राष्ट्रीय और क्षेत्रीय ध्रूवीकरण मार्फत लड़ा गया।जबकि इस चुनाव में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर आरोप प्रत्यारोप के सिलसिले ने मर्यादा और संयम की हदों को पार कर दिया है।आर्थिक मुद्दों पर किसी भी स्तर पर कोई चर्चा नहीं हुई।जबकि देश अभूतपूर्व संकट के दौर से गुजर रहा है। भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहना है कि कांग्रेस गरीब को गरीब नहीं मानती बल्कि वोट बैंक मानती है। वे जनता को वोटबैंक नहीं मानते और गरीबों के बारे में उनका कुछ बी करने का कोई इरादा है,गुजरात माडल या भाजपा के चुनाव घोषणापत्र में उसका खुलासा उसी तरह नहीं हुआ जैसे कांग्रेस और राहुल प्रियंका के लंबे चौड़े वदावों और वित्तमंत्री पी चिदंबरमे के हावई आंकड़ों से।हालत यह है कि लगातार बढ़ती महंगाई की मार पोषक पदार्थों की खपत पर पड़ी है। एक सर्वे में पाया गया है कि घरों में पोषक खाद्य पदार्थों की खपत 40 फीसदी तक घट गई है।यह गरीबी का मामला भी नहीं है,सार्वजनीन सत्य है। ज़माना था जब घर का एक शख्स कमाता था और पूरा परिवार आराम से घर बैठे खाता था और आज के युग में पूरा परिवार कमाता है और घर में एक शख्स भी बैठ कर नही खा सकता कारण मंहगाई इतनी ज्यादा है की कितना भी कमा कर लाओ घर के खर्चे बढे हुए पूरे करने के लिए आमदनी हमेशा छोटी पड़ती चादर की कहानी है।


आम मतदाता अर्थव्यवस्था नहीं समझता और नई सरकार की आर्थिक प्राथमिकताओं पर जो जनादेश का निर्माण हो रहा है,उसे वे पहचान के दायरे से बाहर देख भी नहीं सकते।


अपनी सरकार चुन लेने का जश्न मनाने से पहले थोढ़ा डरना भी सीख लीजिये क्योंकि भारतीय मौसम विभाग को सूखे की आहट भले नहीं लगी, लेकिन बाजार की धड़कनें बढ़ गई हैं। खराब मॉनसून से महंगाई बढ़ने का खतरा बढ़ गया है।


हालांकि कृषि मंत्री शरद पवार का मानना है कि मॉनसून में 5 फीसदी की कमी कोई बड़ी चिंता की बात नहीं है। फिर भी कृषि मंत्रालय चुनौतियों से निपटने के लिए योजनाएं बनाने में जुट गया है हालांकि इस महीने के शुरुआत में ही अल नीनो को लेकर निजी और अंतर्राष्ट्रीय वेदर एजेंसियों के अनुमान सामने आने के बाद सोयाबीन की कीमतों में करीब 12 परसेंट की तेजी आ चुकी है। इसका सीधा असर सरसों और खाने के तेलों पर भी पड़ा है। दरअसल अगले महीने से सोयाबीन की बुआई शुरू होने वाली है। इसलिए मॉनसून पर आए अनुमान का इसपर सबसे ज्यादा असर पड़ा है।


दरअसल पुराने अनुभव बहुत डरावने रहे हैं। आंकड़ों पर गौर करें तो 2002-03 में अलनीनो की वजह से बारिश कम हुई थी, नतीजा खेती की उपज में 18 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई। इस दौरान तिलहन की पैदावार में सबसे ज्यादा 28 फीसदी की गिरावट आई थी। इसके बाद 2004-05 हो या साल 2009-10 कम बारिश से उपज पर बहुत बुरा असर पड़ा है। मौसम विभाग के मुताबिक अलनीनो का असर जुलाई के बाद रहेगा। इससे पहले अच्छी बारिश का अनुमान है। लेकिन जुलाई के बाद अल नीनो मॉनसून की चाल बिगाड़ सकता है। बेशक इकोनॉमी के लिहाज से ये एक खतरे की घंटी जरूर है।



लेकिन सबसे ताज्जुब है कि चुनाव में बेतहाशा खर्च और अश्लील धनबल की प्रदर्शनी के मध्य मंहगाई ने फिर से विकराल  रुप धारण कर लिया है। कोई नहीं सोच रहा है कि बेरोजगारी,गरीबी और भूख के साथ लगातार होती बेदखली के मध्य गरीबी रेखा के आर पार लोगों का गुजर बसर कैसे हो रहा है। ओडीशा में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं।लेकिन देश भर में भाजपा,कांग्रेस और क्षत्रपों की राज्य सरकारे कायम हैं। ओड़ीशा में नवीन पटनायक की सरकार है तो अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह अब भी देश के प्रधानमंत्री है।


मगर जिस देश कि सतत्तर फीसद आबादी आंकडोंसे परे  गरीबी रेखा के नीचे जीते है,वहां बेरोजगारी,मंहगाई ,भूख,कुपोषण,शिक्षा ,स्वास्थ्य चुनाव के मसले नहीं हैं। इन लोगों का क्या होगा?? सीधा हल है,जिसपर कसरत की कोई जरुरत है नहीं जैसे,भारतीय जनता पार्टी भाजपा के पूर्व अध्यक्ष नितिन गडकरी ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और उनके पुत्र राहुल गांधी पर हमला बोलते हुए कहा कि आप लोग जब तक इनको नहीं हराओगे देश से गरीबी, मंहगाई, भ्रष्टाचार और बेरोजगारी दूर नहीं होगी। नितिन गडकरी अमेठी से भाजपा प्रत्याशी स्मृति ईरानी के समर्थन में चुनावी सभा को सम्बोधित कर रहे थे। उन्होंने कहा कि आप लोग स्मृति ईरानी को जिताओ और कांग्रेस से देश को मुक्त कराओ। उन्होंने कहा कि केन्द्र में नरेन्द्र मोदी की सरकार बनने पर स्मृति ईरानी मोदी के कैबिनेट में मंत्री बनेगीं और कांग्रेस ने जो काम 60 सालों में नहीं किया वह काम पांच सालों में होगा।


चुनाव में गुजरात माडल की खूब चर्चा हो रही है तो कांग्रेस नाना प्रकार के अधिकारों और सामाजिक योजनाों पर दांव लगाये हुए हैं।इसी बीच वित्तमंत्री आर्थिक सुधारों के अगले चरण की ब्लू प्रिंट बनाते रहे,जिसे चाहे जिसकी सरकार बने,उसे अनिवार्यतः लागू करना होगा क्योंकि जनादेश का असली मकसद वहीं है।लेकिन मंहगाई जैसी फौरी समस्या पर किसी की कोई नजर नहीं है।पिछले चुनावों में मंहगाई बड़ा मुद्दा बनती रही है।जिसपर सरकारे बनती गिरती रही है।


आम लोगों के लिए मंहगाई को हराने का सबसे बड़ा तरीका है बढ़ती कीमतों के मुकाबले जरुरत के मुताबिक आमदनी में बढञी हुई क्रयशशक्ति। मगर यहां तो सिर्फ छंटाई हो रही है।उत्पादन प्रणाली और आजीविका रोजगार से बेदखली हो रही है।संपत्ति से हाथ धो रहे हैं लोग।संसाधन छिने ही जा रहे हैं।जल जंगल जमीन से उखाड़ा जा रहा है जनता को।खैरात बतौर बांटी जाने वाली क्रयशक्ति और सामाजिक योजनाओं के माध्यम से कथित अधिकारों के मार्फत मिली रियायतों से या बीपीएल कार्ड से इस सुरसामुखी मंहगाई का मुकाबला उतना ही असंभव है जितना सर्वशिक्षा के तहत नालेज इकानामी में क्वालिटी शिक्षा और फिर रोजगार हासिल करना या स्वास्थ्य बाजार में सरकारी अस्पाताल से मरणासण्ण स्वजनों को सही सलामत घर वापस लाना।इस पर तुर्रा यह कि पहले से ही बढ़ी महंगाई पर चुनावी घमासान ने पेट्रोल का काम किया है। चुनाव बाद क्या हाल होगा इसका ट्रेलर अभी से दिखाई पड़ रहा है। होटलों में तैयार खाना मंहगा, तो किराना, सब्जी व फलों सभी जगह बढ़े दामों ने मध्यम वर्ग की कमर ही तोड़ दी है। चुनाव की घोषणा के साथ ही बाजार ने तेजी दिखानी शुरू कर दी थी। चाय की चुस्कियों के बीच अपनी भूख दबाने वालों को चाय अब फीकी लगने लगी है। कारण की पहले दो से चार फिर पांच और अब पांच रुपए से बढ़कर सात रुपए साधारण चाय के दाम लोगों को चुभने लगे हैं। स्पेशल चाय तो अब कहीं-कहीं कोल्ड ड्रिंक से भी महंगी हो गई है। सबका प्रिय समोसा भी पांच रुपए का नहीं रहा इसके भी पटरी किनारे के दुकानदार सात रुपए प्रति समोसा वसूल रहे हैं। वहीं होटलों पर रोटी से लेकर सब्जी, दाल सब महंगा हो गया।


खेती अब घाटे का सौदा है। कृषि बंदोबस्त किसान विरोधी विपणनप्रणाली और बढ़ती लागत की आकत्मघाती हरित क्रांति है।किसान तो आत्महत्या करके पिंड छुड़ा लेते हैं ,लेकिन अनियंत्रित बाजार और ध्वस्त वितरण प्रणाली के तहत अनाज,दाल,तेल,मांस मछली, दूध,घी मक्खन सबकुछ आम उपभोक्ताओं की पहुंच के बाहर है।थोक और खुदरा कारोबार की मिली जुली व्यवस्था में न किसानों को उत्पादन लागत वापस मिलती है और न उपभोक्ताओं को नियंत्रित मूल्य पर पौष्टिक आहार।तो दूसरी ओर, दवा,कपड़ा मकान कुछ भी कभी सस्ता होता नहीं है।जरुरी सेवाएं सस्ती होती नहीं हैं।


इस समय आटा,दाल,चावल,शक्कर,तेल,घी ,मसालों से लेकर ड्राईफूड और सब्जियों के दाम जमकर उछले है। इन चीजों पर मंहगाई बीते एक महीने में चुनावी आचार संहिता के दौरान बढ़ी है। देश भर में अमूमन मंहगाई की औसत दशा का एक रैंडम सैंपल ऐसा हैः


चीनी 500 रुपए प्रति कुंतल, चावल 6-7 सौ प्रति कुंतल के अलावा दालों के दाम में भी इसी पखवारे तेजी आई है। नया गेहूं आने के बाद भी दामों में अनुमानित कमी नहीं आ पाई। पिछले वर्ष जहां गेहूं 7-8 सौ रुपए प्रति कुंतल था, इस वर्ष अभी 15 से 20 रुपए कुंतल अभी भी बिक रहा है। दो रुपए से 10 रुपए प्रति पैकेट तक विभिन्न मसालों में भी वृद्धि हुई है।


सब्जियां भी अछूती नहीं


सब्जी मंडी का हल यह कि आलू दस से बढ़कर 15-20 रुपए , तुरई दस रुपए महंगी होकर 40 रुपए, कद्दू भी पांच से बढ़कर 10 रुपए, घुइंया 30 से बढ़कर 60 रुपए, बैगन 10 से बढ़कर 24 रुपए प्रति किलो, भिंडी 25 से बढ़कर 35-40 रुपए, प्याज भी 12 से बढ़कर 20 रुपए प्रति किलो तक मंहगे हो गए हैं।फल इतने मंहगे हो गए हैं कि खरीद पाना आम आदमी के बस से बाहर हो गया है। सबसे सस्ता पपीता भी 20 से 50 रुपए, केला 35 से बढ़कर 60-70 रुपए, अनार भी 50 से बढ़कर दो सौ रुपए प्रति किलो तक पहुंच गया है।


महानगरों में यह रेट दोगुणी से लेकर तीन गुणा तक तेज है।

सरकारें महज वसूली के लिए है और बाजार छुट्टा सांढ़।इसी बाजार से हजारों हजार करोड़ रुपये रंग बिरंगी बहुरंगी राजनीति पर लगी है और लोकतंत्र के इस महोत्सव का खामियाजा भुगत रहे हैं , वे लोग जिनके पास वोट के सिवा जमा पूंजी कुछ नहीं।वोट तो फुसला बहकाकर लूट ही लिया ,अब लंगोट भी नहीं बच रही है।खाने के लाले पड़ रहे हैं।


मौसम की मार अब बहार है और बहार सिरे से गायब है।अल नीनो मुंङ बांए खड़ा है।मानसून में घाटा ही घाटा। या फिर अति वृष्टि बाढ़ का प्रलयंकर चेहरा।तापमान पर अंकुस है नहीं।पेयजल भी खरीदकर पी रहे हैं और सारी नदियां जल स्रोत बिक चुके।विनाशकारी विकास और आर्थिक अश्वमेध के मध्य बची खुची खेती से इस देश के एक सौ बीस करोड़ लोगों की जरुरत की फसल पैदा हो भी जाये,तो वहां आईपीएल की  बेटिंग फिक्सिंग ऐसी कि इस देश के बच्चों में से ज्यादातर में से ज्यादातर को भूखों नंगे जिंदगी रेंगनी पड़े और आयात निर्यात के खेल में कारोबारी और नेता अफसरान मालामाल होते रहे।करोड़ों टन अनाज सड़ जाये लेकिन मुनाफे की गरज ऐसी कि जरुरत मंद तक एक दाना राहत का नहीं।


दिल्ली से लेकर कोलकाता,कोलकाता से लेकर मुंबई और मुंबई से लेकर चेन्नई औद्योगिक गलियारे बन रहे हैं खेती चोपट करने को तो गलियारे मंहगाई और भूख की भी सुरसामुखी हैं।दाम बतहाशा बढ़ रहे हैं।बाजारों में सब्जियां हैं ही नहीं।चावल आटा दालें तेल सबकुछ मंहगे रेट पर।दूध और पावरोटी के बाव भी बार बार बढ़ रहे हैं।परिवहन खर्च में आमदनी का बढ़ा हिस्सा चला जाता है।मकान किराया में आधी आमदनी साफ।शिक्षा और चिकित्सा के बाद शफेदपोश मध्यवित्त वर्ग तक को कोई राहत नहीं,जो मंहगाी भत्ते से बलवान है तो बिना सब्सिडी गरीबी रेखा के आर पार गुजर बसर करते लोग कैसे जियेंगे।विदेशी पूंजी की धूम ऐसी कि जरुरू जीवनदायी दवाएं रोज मंहगी होती जा रही है।पढ़ाई सबसे मंहगी होती जा रही है और रोजगार है ही नहीं।


इस चुनाव में धर्म अधर्म धर्म निरपेक्षता,भर्ष्टाचार और ईमानदारी पर चर्चा तो खूब हुई,लेकिन कोई माई का लाल इस सुरसामुखा मंहगाई का मुंह तोड़ने के लिए बजरंगबली बनकर अवतरित नहीं हो रहा।अब भला बाढ़ में मगर मच्छ से लड़कर मंदिर के शिकर पर ध्वजा फहराने वाले लोगों से क्या फिर उम्मीद कीजिये।


पहले से मंदी झेल रही एफएमसीजी और कंज्यूमर ड्यूरेबल्स कंपनियों की हालत सुधरने की उम्मीद नहीं है। मौसम विभाग के मुताबिक इस बार मॉनसून धोखा दे सकता है। अगर ऐसा हुआ तो इन कंपनियों की बिक्री 20 फीसदी तक कम हो सकती है।


गर्मी आने के साथ ही एसी, फ्रिज जैसे कंज्यूमर ड्यूरेबल्स बनाने वाली कंपनियां नए नए प्रोडक्ट भले ही लॉन्च कर रही हों, लेकिन इसके खरीदार ज्यादा मिल पाएंगे, कहना मुश्किल है। कमोबेश ऐसी ही हालात खाने-पीने के सामान बनाने वाली एफएमसीजी कंपनियों की भी रहने वाली है। पहले से ही बदहाल बाइक, कार, ट्रैक्टर बनाने वाली ऑटो कंपनियों की भी हालत और बदतर हो सकती है। और इन सबकी वजह है मॉनसून का सामान्य से कम होना।


दरअसल, मौसम विभान के मुताबिक इस बार मॉनसून सामान्य से 5 फीसदी तक कम रह सकता है। कई बार देश में सूखा ला चुका अल नीनो के आने की आशंका भी 60 फीसदी है। मॉनसून अगर खराब होता है तो सबसे बुरा असर पड़ता है ग्रामीण इलाकों से आने वाली मांग पर।


एफएमसीजी कंपनियों के कारोबार का 60 फीसदी हिस्सा इन्हीं ग्रामीण इलाकों से आता है। जबकि कंज्यूमर ड्यूरेबल्स कंपनियों का 40-45 फीसदी कारोबार छोटे शहरों या गांवों में होता है। टू व्हीलर और ट्रैक्टर की मांग एक बड़ा हिस्सा गांवों से आता है। मसलन हीरो मोटो कॉर्प की 46 फीसदी और मारुति सुजुकी की 25 फीसदी बिक्री ग्रामीण इलाकों में होती है। ऐसे में मॉनसून की खराब हालत इनकी बिक्री में 20-25 फीसदी तक कमी ला सकती है। जैसा कि 2009 में सूखे के वक्त हुआ था।


ऑटोमोबाइल सेक्टर के साथ-साथ कंज्यूमर ड्यूरेबल सेक्टर पर भी कमजोर मॉनसून का बुरा असर देखने को मिल सकता है। जानकारों के मुताबिक मॉनसून सामान्य न रहने की स्थिति में मंहगाई बढ़ने के आसार लगातार बने रहते है जिसका सीधा असर कंज्यूमर डिमांड पर पड़ता है। कंज्यूमर ड्यूरेबल कंपनियों का कहना है कि कमजोर मॉनसून के चलते बिक्री के लिहाज से जून से सितंबर तक के 4 महीने मुश्किल भरे रहे सकते हैं।


एफएमसीजी, कंज्यूमर ड्यूरेबल और ऑटो सेक्टर के हालत पहले से ही काफी खराब हैं। फरवरी के औद्योगिक उत्पादन के आंकड़ों के मुताबिक कंज्यूमर ड्यूरेब्ल की ग्रोथ में करीब 10 फीसदी की गिरावट आई थी। ऑटो सेक्टर में लगातार 2 साल से निगेटिव ग्रोथ देखने को मिला है। महंगाई की आशंका को देखते हुए रिजर्व बैंक ब्जाज दरें घटाएगा अब इसकी संभावना भी काफी कम रह गई है। ऐसे में मॉनसून की ये मार इन परेशानी दोगुनी कर सकती है।




পেঁয়াজের মতোই কাঁদাবে ডাল

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নয়াদিল্লি: গত সেপ্টেম্বর-অক্টোবরে সাধারণ মানুষের চোখে জল এসে গিয়েছিল ৮০ টাকা কেজি দরে পেঁয়াজ কিনতে গিয়ে৷ এ বছর ডালজাতীয় শস্যের ক্ষেত্রেও একই ঘটনার পুনরাবৃত্তি হতে পারে বলে এক সমীক্ষায় জানিয়েছে বণিকসভা অ্যাসোচ্যাম৷


এল নিনোর প্রভাবে এ বছর দেশের ডাল জাতীয় শস্য উত্‍পাদনকারী একাধিক রাজ্যে বর্ষা কম হবে এবং এর বিরূপ প্রভাব পড়বে ডাল উত্‍পাদনে, অ্যাসোচ্যামের সমীক্ষা বলছে৷ দেশের ৮০ শতাংশ ডাল জাতীয় শস্য উত্‍পাদন হয় মধ্যপ্রদেশ, মহারাষ্ট্র, রাজস্থান, উত্তরপ্রদেশ, কর্নাটক এবং অন্ধ্রপ্রদেশে৷ এই রাজ্যগুলিতে ফসল কম হলে জোগানে টান পড়বে৷ চাহিদার তুলনায় জোগান কমে গেলে আগামীদিনে আকাশ ছোঁয়া হতে পারে ডালজাতীয় শস্যের দাম৷


ইতিমধ্যেই, ডালের ঊর্ধ্বমুখী দাম, মাথাপিছু ডালের জোগান কমে যাওয়া এবং আমদানির উপর অতিরিক্ত নির্ভরশীলতা যথেষ্ট উদ্বেগ সৃষ্টি করেছে৷ এল নিনোর প্রভাবে এ বছর দেশের বিস্তীর্ন এলাকায় স্বাভাবিকের চেয়ে কম বৃষ্টি হতে পারে বলে সম্প্রতি পূর্বাভাস দিয়েছে ভারতীয় আবহাওয়া দপ্তর৷ গত চার বছর ধরে স্বাভাবিক বা স্বাভাবিকের চেয়ে বেশি বর্ষা হয়েছে ভারত৷ কিন্ত্ত, এ বছর ৯৫ শতাংশ বা তারও কম বৃষ্টিপাতের ইঙ্গিত দিয়েছে আবহাওয়া দপ্তর৷ এর মূলে রয়েছে প্রশান্ত মহাসাগরের জল গরম হয়ে এল নিনোর পরিস্থিতি তৈরি হওয়ার আশঙ্কা৷


২০১৬ পর্যন্ত দু'কোটি ১০ লক্ষ টন ডাল উত্‍পাদনের ক্ষমতা রয়েছে ভারতের৷ কিন্ত্ত, আগামী কয়েক বছরে দেশের বাজারে ডালের চাহিদা দু'কোটি ৩০ লক্ষ টনে পৌঁছবে বলে দাবি অ্যাসোচ্যামের৷ এ বছরের বর্ষার ঘাটতি হলে চাহিদার চেয়ে জোগান অনেকটাই কমে যাবে৷ অ্যাসোচ্যাম জানিয়েছে, গত তিন বছর ধরে ডালের উত্‍পাদন যথেষ্ট বেড়েছে৷ কিন্ত্ত, ঘরোয়া বাজারে ডালের দাম সবসময়ই ঊর্ধ্বমুখী৷ আগামী বছরগুলিতে চাহিদা বাড়তেই থাকবে কিন্ত্ত জোগান সে অর্থে বাড়তে পারবে না৷ তাই বাড়তেই থাকবে ডালের দাম৷


সব্জির চড়া দাম, তবু চুপ সব পক্ষ


vegetables

এই সময়: ভোটের উত্তাপের মধ্যেই খুচরো বাজারে সব্জির দাম নিয়ে চলছে ফাটকা ব্যবসা৷ বেশ কিছু ক্ষেত্রে এক শ্রেণির ব্যবসায়ী পাইকারি বাজারে যে দামে কেনা তার থেকে বেশি দাম নিচ্ছেন বলে অভিযোগ৷ খুচরো বিক্রেতাদের কাছে বেশি দাম নিয়ে ক্ষোভ জানালেই পাইকারি বাজারে দাম বেশি বলে ক্রেতাদের বোকা বানানোর চেষ্টাও চলছে৷ যদিও পাইকারি বাজারে গত বছরের তুলনায় সব্জির দামের তেমন একটা হেরফের হয়নি বলে দাবি সরকারি আধিকারিকদের৷ বাজারে এই ফাটকা ঠেকাতে কারোর কোনও হেলদোল নেই৷ আর এক শ্রেণির কাছে অপ্রিয় হয়ে যাওয়ার আশঙ্কায় ভোটের মুখে শাসক-বিরোধী কোনও পক্ষই এদের বিরুদ্ধে মুখ খুলছে না৷


তৃণমূল সরকার ক্ষমতায় আসার পরে ২০১২ সালে সব্জি বাজার আগুন হয়েছিল৷ ঢেঁরস ৬০ টাকা, বেগুন ৮০ টাকা কেজি দেখে গেল গেল রব উঠেছিল কলকাতায়৷ গত বছর এই এপ্রিলের শেষে সেখানে পাইকারি বাজারে ঢেঁরস কেজি প্রতি বিকিয়েছে গড়ে ১৫ টাকা কেজি দরে৷ বেগুন ২০ থেকে ৩০ টাকা কেজি৷ আর এ বছর একই সময়ে ঢেঁরস ১০ থেকে ১৩ টাকা কেজি৷ বেগুন কেজি প্রতি গড়ে ১৬ থেকে ১৮ টাকা৷ গত বছর এই সময়ে পাইকারিতে উচ্ছে পাঁচ কেজি দাম ছিল ৯০ থেকে ১০০ টাকা৷ এ বছর দাম ৭০-৯০ টাকা৷ গত বছর ঝিঙে ছিল (পাঁচ কেজি) ১০০-১১০ টাকা৷ আর এবার ৮০ থেকে ১২০ টাকা৷ একইভাবে সিম ছিল ১৮০-২০০ টাকা৷ এবার ১৩০-১৫০ টাকা৷ তবে অন্যান্য সব্জির ক্ষেত্রেও খুব বেশি গতবছরের সহ্গে দামের হেরফের না হলেও আলু এবং আদার দাম এবার তুলনায় বেড়েছে৷


পাইকারি বাজারে দামের খুব পার্থক্য না হলেও এবার ভোটের সুযোগে খুচরো বাজারে দাম বৃদ্ধি ক্রেতাদের বিরূপ করছে৷ অথচ সেই দাম কমাতে কোনও উদ্যোগ নেই৷ সরকারের গঠিত টাস্ক ফোর্স নিয়ম করে সপ্তাহে একদিন নবান্নে বৈঠক করছে৷ কিন্ত্ত বাজারে হানা দেওয়া বা নজরদারি--সবটাই উধাও-সৌজন্যে লোকসভা নির্বাচন৷ পাইকারি বাজারে গতবারের তুলনায় সব্জির দাম না বাড়ায় আধিকারিকরা তুষ্ট৷ কিন্ত্ত খুচরো বাজারের এই হাল কেন, তা নিয়ে মাথা ব্যাথা নেই৷ বাজারে নজরদারির অভাবের জন্য পুলিশকর্তারা দোহাই দিচ্ছেন নির্বাচনের কাজের চাপের৷ ভোটের কাছে কর্মী-অফিসারদের ছাড়তে হয়েছে বলে সাফাই এনফোর্সমেন্ট ব্রাঞ্চের৷ ফলে খুচরো বাজারে ফড়ে-দালালদের বাড়তি দাম হাঁকা বন্ধ হবে, এমন কোন‌ে নিশ্চয়তা নেই কোনও দিন থেকেই৷ সব্জির দাম নিয়ন্ত্রণে গঠিত রাজ্যের টাস্ক ফোর্সের সদস্য কমল দে স্বীকার করছেন, কিছু জায়গায় অন্যায়ভাবে খুচরো ব্যবসায়ীরা দাম বেশি নিচ্ছেন৷ কিন্ত্ত তাঁদের বাগে আনা যাবে কিভাবে সে ব্যাপারে কোনও আশ্বাস দিতে পারছেন না আধিকারিকরা৷



আলু-পেঁয়াজের চড়া দর, বাজারে ডিজিট্যাল বোর্ড


অমিত চক্রবর্তী


ভোটের সুযোগে বেড়েছে ফড়েদের দাপট৷ কলকাতার বেশ কিছু খুচরো বাজারে ফের মাথা তুলছে আলু-পেঁয়াজের দাম৷ টাস্ক ফোর্সের জুজুতেও রাশ টানা যাচ্ছে না সেই দামে৷ এ বার তাই শহরের কিছু বাজারে ইলেকট্রনিক ডিজিট্যাল বোর্ডে সব্জির দরদাম লিখে নাগরিকদের সজাগ করতে চাইছে সরকার৷ বিষয়টি নিয়ে ইতিমধ্যে মুখ্যমন্ত্রীর উপস্থিতিতে টাস্ক ফোর্সের বৈঠকে আলোচনাও হয়েছে৷ ভোট মিটলে বিষয়টি নিয়ে কোমর বেঁধে নামার পরিকল্পনা করছে সবজির দাম নিয়ন্ত্রণে গঠিত টাস্ক ফোর্স৷ পরিকল্পনা বাস্তবায়িত হলে প্রথম দফায় শহরে পুরসভার ২৯টি বাজারে এমন বোর্ড বসানো হবে৷


টাস্ক ফোর্সের নজরদারি, এনফোর্সমেন্ট শাখার ধরপাকড় বা পুলিশের ভয়--কোনও কিছুতেই বাগে আনা যাচ্ছে না বাজারে দামের আগুন৷ ভোট রাজনীতি এবং বেজায় গরমের মধ্যে আলুর দাম চড়চড় করে বেড়ে গিয়েছে৷ চন্দ্রমুখী আলু কেজি প্রতি ১৮ থেকে ২০ টাকা নেওয়া হচ্ছে বিভিন্ন বাজারে৷ আর জ্যোতি আলু বিক্রি হচ্ছে ১৫ থেকে ১৬ টাকার মধ্যে৷ গত বছর আলু এবং পেঁয়াজের দাম লাগামছাড়া হয়ে গিয়েছিল৷ কৃষি বিপণন দপ্তর তা সামাল দিতে ব্যর্থ হওয়ায় মুখ্যমন্ত্রী নিজে ওই দপ্তরের দায়িত্ব নিয়ে নেন৷ বেশ কয়েকটি বাজারে রাজ্য সরকার নাম-কা-ওয়াস্তে কম দামে আলু বিক্রি শুরু করে৷ কিছুদিন যাওয়ার পরই সব উদ্যোগ থেমে যায়৷ তখনই মুখ্যমন্ত্রী এই টাস্ক ফোর্স গড়ে দিয়েছিলেন৷


কৃষি বিপণন দপ্তরের এক কর্তা বলেন, 'পাইকারিতে সবজির দাম অন্যান্য বারের তুলনায় কম হলেও কিছু বাজারে দালাল, ফড়েরা খুচরোয় দাম অনেক বেশি নিচ্ছে৷ আলু-পেঁয়াজ-আদা ছাড়া অন্য কোনও সবজির দাম অন্যান্যবারের এই মরসুমের তুলনায় বেশি নয় বলে দাবি কৃষি বিপণন দপ্তরের৷ এদের নিয়ন্ত্রণে তাই শেষ পর্যন্ত ক্রেতাদের প্রতিবাদকেই হাতিয়ার করতে চাইছে রাজ্য৷ টাস্ক ফোর্সের সদস্য কমল দে বলেন, 'বাজারের গুরুত্বপূর্ণ জায়গায় ইলেকট্রনিক বোর্ডে প্রতিদিনের সবজির পাইকারি দাম লেখা থাকলে তার সঙ্গে বাজারের খুচরো দাম মিলিয়ে দেখে ক্রেতারাই সঠিকটা বুঝে নিতে পারবেন৷ নির্বাচন মিটলে ফের মুখ্যমন্ত্রীর সঙ্গে বৈঠকে গোটা বিষয়টি তুলে ধরা হবে৷' দপ্তরের এক আধিকারিক জানান, ভোটের আগে পরিকল্পনাটি নিয়ে আলোচনার সময়ই মুখ্যমন্ত্রী বিষয়টি শুনে উত্‍সাহ দেখিয়েছিলেন৷


কলকাতা শহরে এখন ছোট-বড় মিলিয়ে মোট ৩৫৮টি বাজার রয়েছে৷ প্রথমে পুর বাজারগুলিতে এই বোর্ড বসানো হবে৷ কৃষি বিপণন দপ্তরের অফিস, নবান্ন বা মহাকরণে একটি ঘরে এর কন্ট্রোল রুম করা হতে পারে৷ সেখান থেকেই আধুনিক প্রযুক্তির সাহায্যে ওই বোর্ড নিয়ন্ত্রণ করা হবে৷ এছাড়া শহরের সব বাজারে শৌচাগার গড়ার পরিকল্পনা নেওয়া হয়েছে৷ ভোটের আগেই নেওয়া পরিকল্পনা অনুযায়ী, পুরুষদের পাশাপাশি মহিলাদের জন্য সব বাজারে শৌচাগার তৈরি করা হবে৷ এ ব্যাপারে কড়া নির্দেশ দিয়েছেন মুখ্যমন্ত্রী৷ ইতিমধ্যে কৃষি বিপণন দপ্তরের একটি দল শহরে ১৪১টি ওয়ার্ডের অধিকাংশ বাজার ঘুরে দেখেছে৷


http://eisamay.indiatimes.com/city/kolkata/story-on-market-price/articleshow/34167361.cms?


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