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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Wednesday, April 2, 2014

और अपने लिये एक नयी जनता चुन लें

और अपने लिये एक नयी जनता चुन लें

और अपने लिये एक नयी जनता चुन लें


अंधड़ का मुकाबला कीजिये… ये रात खुद जनेगी सितारे नए-नए

पलाश विश्वास

माफ कीजिये मेरे मित्रों, भारत और पूरी तीसरी दुनिया के देशों में हूबहू ऐसा ही हो रहा है। सत्ता वर्ग अपने हितों के मुताबिक जनता चुन रही है और फालतू जनता का सफाया कर रही है।

हमने अमेरिकी खुफिया निगरानी तंत्र के सामंजस्य में आंतरिक सुरक्षा और प्रतिरक्षा पर बार-बार लिखा है और हमारे सारे साथी इस बात को बार-बार लिखते रहे हैं कि कैसे राष्ट्र का सैन्यीकरण हो रहा है और धर्मोन्मादी कारपोरेट सैन्य राष्ट्र ने किस तरह अपने ही नागरिकों के विरुद्ध युद्ध छेड़ रखा है।

क्रयशक्ति संपन्न कथित मुख्यधारा के भारत को अस्पृश्य वध्य इस भारत के महाभारत के बारे में कुछ भी सूचना नहीं होती।

जब हममें से कुछ लोग कश्मीर, मणिपुर समेत संपूर्ण पूर्वोत्तर और आदिवासी भूगोल में नरसंहार संस्कृति के विरुद्ध आवाज बुलंद करते हैं, तो उनके खिलाफ राष्ट्रद्रोह का अभियोग चस्पां हो जाता है।

जिस देश में इरोम शर्मिला के अनंत अनशन से नागिक बेचैनी नहीं है, वहाँ निर्वाचन प्रहसन के सिवाय क्या है, हमारी समझ से बाहर है।

पूरे भारत को गुजरात बना देने का जो फासीवादी विकास का विकल्प जनादेश बनाया जा रहा है, उसकी परिणति मानवाधिकार हनन ही नहीं, वधस्थल के भूगोल के विस्तार की परिकल्पना है।

सबसे बड़ी दिक्कत है कि हिंदू हो या अहिंदू, भारत दरअसल भयंकर अंधविश्वासी कर्मकांड में रात दिन निष्णात हैं। जो जाति व्यवस्था के आधीन हैं, वे भ्रूण हत्या के अभ्यस्त हैं तो जाति व्यवस्था के बाहर या तो निरंकुश फतवाबाजी है या फिर डायनहत्या की निरंतर रस्में।

हम जो अपने को भारत का नागरिक कहते हैं, वे दरअसल निष्क्रिय वोटर के सिवाय कुछ भी नहीं हैं। वोट डालने के अलावा इस लोकतंत्र में हमारी कोई राजनीतिक भूमिका है ही नहीं। हमारे फैसले हम खुद करने के अभ्यस्त नहीं हैं।

मीडिया, सोशल मीडिया की लहरों से परे अंतिम सच तो यह है कि लहर वहर कुछ होता ही नहीं है। सिर्फ पहचान होती है। पहचान अस्मिता की होती है।

जाति, धर्म, भाषा और क्षेत्र के आधार पर लोग हमारे प्रतिनिधित्व का फैसला कर देते हैं। जो फैसला करने वाले लोग हैं, वे सत्ता वर्ग के होते हैं।

जो चुने जाते हैं, वे सत्ता वर्ग की गूंगी कठपुतलियां हैं।

सत्ता वर्ग के लोग अपनी अपनी सेहत के मुताबिक हवा और मौसम रचते हैं, हम उसी हवा और मौसम के मुताबिक जीना सीखते हैं।

इस पूरी लोकतांत्रिक प्रक्रिया में हमारी कोई भूमिका नहीं है।

नरेंद्र मोदी या मोदी सर्वभूतेषु राष्ट्ररुपेण संस्थिते हैं, लेकिन अंततः वह ओबीसी हैं और चाय वाला भी। अगर वह नमोमयभारत के ईश्वर हैं और हर हर महादेव परिवर्ते हर हर मोदी है, घर घर मोदी है, तो हम उसे ओबीसी और चायवाला साबित क्यों कर रहे हैं। क्या भारत का प्रधानमंत्रित्व की भूमिका ओबीसी सीमाबद्ध है या फिर प्रधानमंत्री बनकर समस्त भारतवासियों को चाय परोसेंगे नरेंद्र मोदी।

हमने बार-बार लिखा है कि राजनीति पहले रही होगी धर्मोन्मादी और राजनीति अब भी धर्मोन्मादी ही रहेगी। लेकिन राजनीति का कारपोरेटीकरण, राजनीति का एनजीओकरण हो गया है। राजनीति अब बिजनेस मैनेजमेंट है तो सूचना प्राद्योगिकी भी। राजनेता अब विज्ञापनी मॉडल हैं। विज्ञापनी मॉडल भी राजनेता हैं।

तो यह सीधे तौर पर मुक्त बाजार में मार्केटिंग है। मोदी बाकायदा एक कमोडिटी है और उसकी रंगबिरंगी पैकेजिंग वोर्नविटा ग्रोथ किंवदंती या फेयरनेस इंडस्ट्री के काला रंग को गोरा बनाने के चमत्कार बतौर प्रस्तुत की जा रही है।नारे नारे नहीं हैं। नारे माइनस कार्यक्रम है। नारे बिन विचारधारा है।नारे दृष्टिविहीन है। नारे अब विज्ञापनी जिंगल है। जिन्हें लोग याद रख सकें।नारे आक्रामक मार्केटिंग है, मार्केटिंग ऐम्बुस है। खरीददार को चकाचौंध कर दो और बकरा को झटके से बेगरदन करदो। जो विरोध में बोलें, उसे एक बालिश्त छोटा कर दो।

फासीवाद का भी कायाकल्प हो गया है।मोहिनीरुपेण फासीवाद के जलवे से हैलन के पुराने जलवे के धुंधलाये ईस्टमैनकालर समय जीने लगे हैं हम।

मसलन जैसा कि हमारे चुस्त युवा पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव ने लिखा हैः

Forward Press का ताज़ा चुनाव विशेषांक देखने लायक है। मालिक समेत प्रेमकुमार मणि और एचएल दुसाध जैसे बहुजन बुद्धिजीवियों को इस बात की जबरदस्‍त चिंता है कि बहुजन किसे वोट देगा। इसी चिंता में पत्रिका इस बार रामविलास पासवानअठावले और उदित राज की प्रवक्‍ता बनकर अपने पाठकों को बड़ी महीनी से समझा रही है कि उन्‍होंने भाजपा का दामन क्‍यों थामा। जितनी बार मोदी ने खुद को पिछड़ा नहीं बताया होगाउससे कहीं ज्‍यादा बार इस अंक में मोदी को अलग-अलग बहानों से पिछड़ा बताया गया है। इस अंक की उपलब्धि एचएल दुसाध के लेख की ये आखिरी पंक्तियां हैंध्‍यान दीजिएगा:

"चूंकि डायवर्सिटी ही आज बहुजन समाज की असल मांग हैइसलिये एनडीए यदि खुलकर डायवर्सिटी की बात अपने घोषणापत्र में शामिल करता है तो बहुजन बुद्धिजीवी भाजपा से नए-नए जुड़़े बहुजन नेताओं के समर्थन में भी सामने आ सकते हैं। यदि ऐसा नहीं होता है तो हम इन नेताओं की राह में कांटे बिछाने में अपनी सर्वशक्ति लगा देंगे।"

इसका मतलब यहकि भाजपा/संघ अब बहुजनों के लिये घोषित तौर पर non-negotiable नहीं रहे। सौदा हो सकता है। यानी बहुजन अब भाजपा/संघ/एनडीए के लिये दबाव समूह का काम करेंगे। बहुत बढ़िया।

इस पर मंतव्य निष्प्रयोजनीय है। अंबेडकरी आंदोलन तो गोल्डन ग्लोब में समाहित है, समाजवादी विचारधारा विशुद्ध जातिवाद के बीजगणित में समाहित है तो वामपंथ संसदीय संशोधनवाद में निष्णात। गांधीवाद सिरे से लापता।

इस कायाकल्पित मोहिनीरुपेण फासीवाद के मुाबले यथार्थ ही पर्याप्त नहीं है, यथार्थ चैतन्य बेहद जरूरी है। ब्रेख्त की पंक्तियां हमें इसकी प्रासंगिकता बताती हैं।

इसी सिलसिले में कवि उदय प्रकाश ने ब्रेख्त की एक अत्यंत लोकप्रिय, लगभग मुहावरा बन चुकी और बार-बार दुहराई जाने वाली कविता की पुनर्स्मृति कथाकारी अंदाज में उकेर दी है। अब अगली बहस इसी पर।

उदय प्रकाश ने एक जरूरी बहस के लिये इशारा कर दिया है। इसलिये उनका आभार।

हिटलरशाही का नतीजा जो जर्मनी ने भुगता है, आज के धर्मोन्मादी कारपोरेट समय में उसे समझने के लिये हमें फिर पिर ब्रेख्त की कविताओं और विशेषतौर पर उनके नाटकों में जाना होगा।

सामाजिक यथार्थ महज कला और साहित्य का सौंदर्यबोध नहीं है, जो चकाचौंधी मनोरंजन की अचूक कला के बहुरंगी बहुआयामी खिड़कियां खोल दें हमारे लिये। सामाजिक यथार्थ के प्रति वैज्ञानिक दृष्टिभंगी इतिहास बोध के सामंजस्य से ही जनपक्षधर सृजनधर्मिता का चरमोत्कर्ष तक पहुंचा जा सकता है।

फासीवाद के जिस अनिवार्य धर्मोन्मादी कारपोरेट यथार्थ के बरअक्स, हम आज हैं, वह ब्रेख्त का अनचीन्हा नहीं है और कला माध्यमों को हथियार बतौर मोर्चाबंद करने की पहल इस जर्मन कवि और नाटककार ने की, यह खास गौरतलब है।

''सरकार का

जनता पर से विश्वास

उठ चुका है

इसलिये

सरकार को चाहिए

कि वह जनता को भंग कर दे

और अपने लिये

एक नयी जनता चुन ले ।।।"

(यह सटीक अनुवाद तो नहीं, ब्रेख्त की एक अत्यंत लोकप्रिय, लगभग मुहावरा बन चुकी और बार-बार दुहराई जाने वाली कविता की पुनर्स्मृति भर है। जिन दोस्तों को मूल-पाठ की याद हो, वे प्रस्तुत कर सकते हैं।)

उदय प्रकाश ने यह उद्धरण भी दिया हैः

"उनके माथे और कनपटियों की

तनी हुई,

तनाव से भरी,

उभरी-फूली हुई

नसों को ग़ौर से देखो ।।।

ओह!

शैतान होना

कितना मुश्किल हुआ करता है ।।।!"

(ब्रेख़्त और Tushar Sarkar के प्रति आभार के साथ, अनुकरण में इस छूट के लिये !)

इस बहस के भारतीय परिप्रेक्ष्य और मौजूदा संकट के बारे में विश्लेषण से पहले थोड़ा ब्रेख्तधर्मी भारतीय रंगमंच और ब्रेख्त पर चर्चा हो जाना जरूरी भी है।

संक्षेप में जर्मन कवि, नाटकार और निर्देशक बर्तोल्त ब्रेख्त का जन्म 1898 में बवेरिया (जर्मनी) में हुआ था। अपनी विलक्षण प्रतिभा से उन्होंने यूरोपीय रंगमंच को यथार्थवाद के आगे का रास्ता दिखाया। बर्तोल्त ब्रेख्त मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित थे। इसी ने उन्हें 'समाज' और 'व्यक्ति' के बीच के अंतर्संबंधों को समझने नया रास्ता सुझाया। यही समझ बाद में 'एपिक थियेटर' जिसकी एक प्रमुख सैद्धांतिक धारणा 'एलियनेशन थियरी'(अलगाव सिद्धांत) या 'वी-इफैक्ट' है जिसे जर्मन में 'वरफ्रेमडंग्सइफेकेट' (Verfremdungseffekt) कहा जाता है।ब्रेख्त का जीवन फासीवाद के खिलाफ संघर्ष का जीवन था। इसलिये उन्हें सर्वहारा नाटककार माना जाता है। ब्रेख्त की मृत्यु 1956 में बर्लिन (जर्मनी) में हुई।

भारतीय रंगकर्म के तार ब्रेख्त से भी जुड़े हैं। दरअसल, संगीत, कोरस, सादा रंगमंच, महाकाव्यात्मक विधान, यह सब ऐसी विशेषताएं हैं जो ब्रेख्त और भारतीय परंपरा दोनों में मौजूद हैं, जिसे हबीब तनवीर और भारत के अन्य रंगकर्मियों ने आत्मसात किया। छत्तीसगढ़ी कलाकारों के टीम के माध्यम से सीधे जमीन की सोंदी महक लिपटी नाट्य अनुभूति की जो विरासत रच गये हबीब साहब, वह यथार्थ से चैतन्य की सार्थक यात्रा के सिवाय कुछ और है ही नहीं।

भारत में बांग्ला, हिंदी, मराठी और कन्नड़ रंगकर्म से जुड़े मूर्धन्य तमाम लोगों ने इस चैतन्य यात्रा में शामिल होने की अपनी अपनी कोशिशें कीं। हबीब तनवीर और गिरीश कर्नाड,बा। बा। कारंथ से लेकर कोलकाता के नादीकार तक ने।दरअसल भारत में नये नाट्य आंदोलन के दरम्यान 60-70 के जनआंदोलनी उत्ताल समय में ब्रेख्त भारतीय रंगमंच के केंद्र में ही रहे। इसी दौरान जड़ों से जुड़े रंगमंच का नारा बुलंद हुआ और आधुनिक भारतीय रंगमंच पर भारतीय लोक परंपरा के रंग प्रयोग किए जाने लगे। यह प्रयोग नाट्य लेखन और मंचन दोनों क्षेत्रों में हो रहा था। ऐसे समय में ब्रेख्त बहुत अनुकूल जान पड़े।

गौरतलब है कि ब्रेख्त के लिये नाटक का मतलब वह था, जिसमें नाटक प्रेक्षागृह से निकलने के बाद दर्शक के मन में शुरू हो। उन्होंने नाटक को एक राजनीतिक अभिव्यक्ति माना, जिसका काम मनोरंजन के साथ शिक्षा भी था। ब्रेख्त ने अपने सिद्धांत एशियाई परंपरा से प्रभावित होकर गढ़े थे। 1935 में ब्रेख्त को चीनी अभिनेता लेन फेंग का अभिनय देखने का अवसर रूस में मिला, जहां हिटलर के दमन और अत्याचार से बचने के लिये ब्रेख्त ने शरण ली थी। फेंग के अभिनय से प्रभावित होकर ब्रेख्त ने कहा कि जिस चीज की वे वर्षो तक विफल तलाश करते रहे, अंतत: उन्हें वह लेन फेंग के अभिनय में मिल गई। ब्रेख्त के सिद्धांत निर्माण का यह प्रस्थान बिंदु है।

कवि उदय प्रकाश मौजूदा संकट को इस तरह चित्रार्पित करते हैं-

23 दिसंबर 1949 की आधी रातजब फ़ैज़ाबाद के डी।एम। (कलेक्टर) नायर थेउनकी सहमति और प्रशासनिक समर्थन सेबाबरी मस्ज़िद के भीतर जो मूर्ति स्थापित की गईउसकी बात इतिहास का हवाला बार-बार देने वाले लोग क्यों नहीं करते ?

इस तथ्य के पुख्ता सबूत हैं कि इस देश में सांप्रदायिकता को पैदा करने वाले और इस घटना के पूर्व,30 जनवरी1948 में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या करने वाली ताकतें अब केंद्रीय सत्ता पर काबिज होना चाहती हैं।

उनके अलंकृत असत्य और प्रभावशाली वागाडंबर (लफ़्फ़ाज़ी) के सम्मोहन ने और पूरी ताकत और तैयारी के साथउन्हीं के द्वारा खरीद ली गयी सवर्ण मीडिया के प्रचार ने देश के बड़े जनमानस को दिग्भ्रमित कर दिया है।

क्या 'विकासकी मृगमरीचिका दिखाने वाले नेताओं के पास अपना कोई मौलिकदेशी विचार और परियोजना हैया यह तीसरी दुनिया के देशों की प्राकृतिक और मानवीय संपदा को बर्बरता के साथ लूट करउसे कार्पोरेट घरानों को सौंप करसिर्फ़ अपना हित साधने वाले सत्ताखोर कठपुतलों के हाथों में समूचे देश की संप्रभुता को बेचने वालों को सपर्पित कर देने की एक देशघाती साजिश हैजिसे'राष्ट्रवादका नाम दिया जा रहा है ?

यह एक गंभीर संकट का समय है।

सिर्फ़ चुनाव में जीतने और हारने की सट्टेबाज़ी का सनसनीखेज़ विज़ुअल तमाशा और फ़कत राजनीतिक जुआ यह नहीं है।

ऐसा मुझे लगता है ।

राजीव नयन बहुगुणा का कहना है

इतिहास के सर्वाधिक रक्त रंजित, अंधकारपूर्ण और कम ओक्सिजन वाले दौर के लिये तत्पर रहिये। संभवत इतिहास की देवी अपना मुंह अपने ही खून से धोकर निखरना चाहती है। एक बार वोट देने के बाद जो क़ौम पांच साल के लिये सो जाती है, उसे ये दिन देखने ही पड़ते हैं। अंधड़ का मुकाबला कीजिये… ये रात खुद जनेगी सितारे नए-नए

About The Author

पलाश विश्वास। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं। आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के लोकप्रिय ब्लॉगर हैं। "अमेरिका से सावधान "उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना।

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