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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Saturday, June 29, 2013

बंगाल को आत्मघाती हिंसा से बचायेगा कौन?

बंगाल को आत्मघाती हिंसा से बचायेगा कौन?


राजनीतिक ध्रूवीकरण का परिणाम बंगाल भुगत ही रहा है और अब पंचायत चुनाव के मौके पर धार्मिक ध्रूवीकरण हो गया तो केंद्रीय वाहिनी के लिए भी ऐसी विस्फोटक हालात का मुकाबला करना असंभव होगा।


एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास​


पंचायत चुनावों के बहाने आत्मघाती हिंसा की जो लहर चल रही है,राज्य चुनाव आयोग की मांग के मुताबिक केंद्रीय वाहिनी की मौजूदगी में मतदान कराने की स्थिति में भी उसपर अंकुश लगने की संभावना कम ही है। पूरा बंगाल कुरुक्षेत्र में तब्दील है और लोग पक्ष विपक्ष में बंट गये हैं। अपनी अपनी जीत के लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार है। मतदान के वक्त इलाके और भाषा से अनजान केंद्रीय वाहिनी के लिए बिना जनसमुदाय से कोई संवाद की स्थिति बनाये इस युद्धपरिस्थिति को बदलने की संभावना कम ही है। सुप्रीम कोर्ट में तय नयी तारीखों लेकर सबसे ज्यादा परेशानी इस बात को लेकर है कि ये तारीखें रमजान महीने में पड़ रहीं है। जिसे लेकर अल्पसंख्यक समुदाय सड़क पर उतर रहे हैं। वे रमजान के दौरान चुनाव नहीं चाहते। जो मामला अब तक राजनीतिक था, वह आहिस्ते आहिस्ते सांप्रदायिक होता जा रहा है।इस मामले को कायदे से न सुलझाया गया तो इसके खतरनाक नतीजे हो सकते हैं। राजनीतिक ध्रूवीकरण का परिणाम बंगाल भुगत ही रहा है और अब पंचायत चुनाव के मौके पर धार्मिक ध्रूवीकरण हो गया तो केंद्रीय वाहिनी के लिए भी ऐसी विस्फोटक हालात का मुकाबला करना असंभव होगा।


हाईकोर्ट में लंबे विवाद का निपटारा नहीं हुआ तो राज्य चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। अभूतपूर्व चुस्ती दिखाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने नये सिरे से पांच चरणों में मतदान की तारीखें तय कर दी और राज्य चुनाव आयोग के वर्चस्व को बनाये रखते हुए मतदान के दौरान केंद्रीय वाहिनी तैनात करनेके आदेश भी दे दिये हैं । लेकिन राज्य सरकार संतुष्ट नहीं है और वह इस फैसले के खिलाफ अपील करने की तैयारी कर रही है। उच्चतम न्यायालय द्वारा पश्चिम बंगाल में पंचायत चुनावों की तारीख फिर से तय किए जाने और इन्हें पांच चरणों में कराए जाने के निर्देश दिए जाने के बाद राज्य निर्वाचन आयोग ने 4 जुलाई को सर्वदलीय बैठक बुलायी है ।


रमजान महीने में चुनाव कराने के फैसले के खिलाफ जमायत उल हिंद आंदोलन की तैयारी में हैं। सिदिकुल्ला चौधरी ने कहा है कि वे इस सिलसिले में विधि विशेषज्ञों की राय ले रहे हैं।मतदान की तिथियां बदलने के लिए वे भी सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाने की तैयारी में हैं।


पश्चिम बंगाल में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस ने शनिवार को कहा कि राज्य में पंचायत चुनाव रमजान से पहले कराने के लिए वह सर्वोच्च न्यायालय का रुख कर सकती है। पश्चिम बंगाल में पंचायत चुनाव रमजान के समय में ही होने वाले हैं। इस्लाम धर्म का यह पाक महीना जुलाई के दूसरे सप्ताह से शुरू हो रहा है।


तृणमूल सांसद कल्याण बनर्जी ने यहां कहा, "चुनाव रमजान के दौरान होना है। ऐसे में हम तिथियां बदले जाने तथा इसे रमजान से पहले सम्पन्न कराने के आदेश के लिए सर्वोच्च न्यायालय से सम्पर्क करने की योजना बना रहे हैं।"उन्होंने कहा कि यदि चुनाव रमजान के दौरान होते हैं तो इससे मुसलमानों को असुविधा होगी।


राज्य के शहरी विकास मंत्री फरहद हाकिम ने भी कहा, "हम हमेशा चाहते थे कि पंचायत चुनाव रमजान से पहले हो, लेकिन राज्य निर्वाचन आयोग के कारण हमारी सभी कोशिशें व्यर्थ हो गईं।"


इस बीच, विपक्षी वाम मोर्चा और कांग्रेस ने पंचायत चुनाव रमजान के महीने में जाने के लिए मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की सरकार को जिम्मेदार ठहराया है। विपक्ष के नेता सूर्यकांत मिश्रा ने कहा, "हमने सरकार से कई बार यह सुनिश्चित करने के लिए कहा कि पंचायत चुनाव रमजान के दौरान न हों। लेकिन हमारी बात नहीं सुनी गई।"


बहरहाल दो जुलाई को पहले चरण का मतदान अब होने वाला नहीं है। नये सिरे से चुनाव प्रक्रिया जारी नहीं होगी। राहत इस बात को लेकर है। वरना अब तक चुनाव प्रक्रिया में जितना खून बहा बैकार चला जाता। निर्विरोध उम्मीदवारं की भी जान में जान आयी। वे विजयी ही मान लिये गये हैं।


लेकिन पंचायतों का कार्यकाल खत्म हो जाने की वजह से होने वाले संवैधानिक संकट को टालना लगता है अब असंभव है। पश्चिम बंगाल राज्य चुनाव आयोग (एसईसी) की प्रमुखता को बरकरार रखते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने शुक्रवार को आयोग को राज्य में पंचायत चुनाव 11 जुलाई से पांच चरणों में कराने के लिए कहा।


बंगाल में पंचायत चुनावों को लेकर चल रही अनिश्चितताओं के बीच राज्य सरकार ने निष्क्रिय पंचायत इकाइयों का प्रभार जिला प्रशासन को सौंपना शुरू कर दिया है। पंचायत मंत्री सुब्रत मुखर्जी ने कहा कि सरका ने डीएम, एसडीओ और बीडीओ को तीन स्तरीय पंचायत इकाइयों का प्रभार देना शुरू कर दिया है। 30 जून तक सभी चुनी हुईं पंचायत इकाइयां काम करना बंद कर देंगी, क्योंकि वे पांच साल अपना कार्यकाल पूरा कर चुकी हैं।


राज्य सरकार के सूत्रों के अनुसार संविधान के अनुसार बिना चुनी हुई पंचायत इकाइयां छह महीने तक ही कार्य कर सकती हैं। अगर न्यायालय पंचायत चुनाव टाल देता है तो भी पंचायत इकाइयों के काम सरकारी अधिकारियों की प्रत्यक्ष देख-रेख में जारी रहेंगे। वरिष्ठï अधिवक्ता अरविंद घोष का मानना है कि इसे संवैधानिक मान्यता जरूर प्राप्त है, लेकिन सरकार की मंशा स्पष्टï है। घोष मानते हैं, 'शुरू से ही ममता बनर्जी पंचायत इकाइयों को अपने नियंत्रण में लाने की कोशिश करती रही हैं। जब से बनर्जी सत्ता में आई हैं तब से उन्होंने पंचायत इकाइयों के चुने हुए प्रतिनिधियों की परवाह किए बिना इकाइयों को अपने नियंत्रण में लाने के प्रयास कर रही हैं।'


चुनाव के लिए पर्याप्त सुरक्षा बल मुहैया कराने की मांग को लेकर दायर एसईसी की अर्जी पर सुनवाई करते हुए न्यायमूर्ति एके पटनायक और रंजन गोगोई ने निर्देश दिया कि चुनाव 11, 15, 19, 22 और 25 जुलाई को कराए जाएं।


सर्वोच्च न्यायालय ने ममता बनर्जी नीत राज्य सरकार को हर चरण के लिए 35,000 सुरक्षाकर्मी मुहैया कराने का निर्देश दिया है। शेष सुरक्षा बल केंद्र सरकार मुहैया कराएगी।


एसईसी के वकील समरादित्य पाल ने कहा, "अदालत ने आज (शुक्रवार को) पूरे पंचायत चुनाव का कार्यक्रम पुनर्निधारित कर दिया और निर्देश दिया है कि 11 जुलाई से यह पांच चरणों में कराया जाना चाहिए। अदालत ने राज्य सरकार को हर चरण के लिए 35,000 सुरक्षाकर्मी मुहैया कराने का निर्देश दिया है जबकि केंद्र सरकार जरूरत के हिसाब से शेष सुरक्षा बल मुहैया कराएगी।"


बंगाल के पंचायत चुनाव जो अभूतपूर्व हिंसा हो रही है, उसके पीछे सत्ता के विकेंद्रीकरण और केंद्र संचालित सामाजिक योजनाओं पर होने वाले खर्च के हक हासिल करने का मामला है।जाहिर है कि सिर्फ वर्चस्व की लड़ाई नहीं है, कारोबारी जंग भी है पंचायत चुनाव और इसीलिए खून की नदियां!सामाजिक योजनाओं के लिए केंद्रीय अनुदान चूंकि अब पंचायतों के मार्फत ही खर्च होता है, इसलिए कारोबारी लिहाज से यह जीने मरने का सवाल है, जाजनीतिक तौर पर हो या न हो। इसीलिए पंचायतों पर कब्जे के लिए नाते रिश्तेदार भी कटखने खूंखार जानवरों की तरह अलग अलग रंग बिरंगे झंडों के साथ आपस में मारकाट करने लगे हैं। आम जनता के सशक्तीकरण कीपूरी प्रक्रिया ही आपराधिक तत्वों के हाथों में चली गयी है।इसीलिए लोकसभा और विधानसभा चुनावों के मुकाबले बंगाल ही नहीं सभी राज्यों में खून की नदियां बहना आम रिवाज बन गया है।


विधानसभा सीटें कम होती हैं और लोकसभा सीटें उससे भी कम। लेकिन पंचायतों की भारी संख्या के अनुपात में पंचायती कारोबार में दावेदारों की संख्या भी बेहिसाब है। मसलन बंगाल में कुल 32 हजार ग्राम पंचायतें हैं।पंचायत समितियां 320 हैं, जो विधानसभा सीटों से ज्यादा हैं और सत्रह जिलों की जिला परिषदें। आर्थिक हितों का लढ़ाई यहां गलाकाटू है क्योंकि हर पंचायत को दो से लेकर पांच करोड़ रुपये तक खर्च करने होते हैं। इनके अलावा एक हजार ग्राम पंचायतें ऐसी भी हैं, जिन्हें केंद्र और राज्य सरकारों के अलावा विश्व बैंक से बी भारी रकम मिलती है। इसलिए पंचायत चुनाव दरअसल खजाने के लिए कत्लेआम में तब्दील होता जा रहा है बंगाल ही नहीं , देश भर में।पंचायतों को अपनी योजना बनाने और नीति निर्धारण का अवसर मिलने ही वाला है। पिछड़ा क्षेत्र अनुदान कोष योजना का मूल उद्देश्य ही विकास के क्षेत्रीय असंतुलन को दूर करना है। इन कार्यों के लिए केंद्र सरकार शत प्रतिशत अनुदान देती है।


वित्‍त आयोग के फैसले के बाद राज्‍यों को कर्ज के रुप में केंद्रीय सहायता मिलना बंद हो गया है। राज्‍य सरकारें अब बाजार से ही कर्ज लेती हैं और बाजार राज्‍य की वित्‍तीय सूरत देखकर ही कर्ज देता है। केंद्र से अब केवल अनुदान मिलते हैं। लेकिन यूपीए सरकार ने पिछले एक दशक में अनुदान खर्च करने के अधिकार भी राज्‍यों से छीन लिये है। केंद्रीय स्‍कीमों के तहत अधिकांश सहायता सीधे पंचायतों को जाती है जिसमें राज्‍य सरकारों का कोई दखल नहीं है। बिहार बंगाल यदि विशेष राज्‍य बनकर ज्‍यादा संसाधन चाहेंगे तो उन्‍हें मनरेगाओं, सर्वशिक्षा अभियानों को बंद कराना होगा जो कि राज्‍यों के वित्‍तीय अधिकारों को निगल गई हैं। ऐसा होना नामुमकिन है इसलिए विशेष राज्‍य होने के वित्‍तीय फायदे सीमित हो गए हैं।


इसलिए केंद्रीय अनुदान का पैसा चाहिेए तो हर हाल में राज्य में काबिज सत्तादल का त्रिस्तरीय पंचायत पर कब्जा अनिवार्य है, जिसकी कोशिश में है तृणमूल कांग्रेस।



राजनीतिक तौर पर अपने समर्थकों को राज्य और केंद्र की योजनाओं का ज्यादा से ज्यादा लाभ पहुंचाने का माध्यम बन गया है पंचायत चुनाव। पंचायतों में जो लोग हैं, देहात का राजकाज उन्हींके हाथों में है। आम आदमी के लिए उनके विरोध करने का मतलब है जल में रहकर मगरमच्छ से लड़ाई मोल लेना। इसी पंचायती राज ने बंगाल में वाम मोर्चे का अटूट जनाधार बनाया जो सत्ता से बेदखल होने के बावजूद टूटा नहीं है। वाम मोर्चा अपना दखल छोड़ने को तैयार है नहीं और छल बल कल कौशल से कायदा कानून ताक पर रखकर, राज्य चुनाव आयोग से अदालती रस्साकशी के जरिये सत्तादल तृणमूल काग्रेस वाम मोर्चा को बेदखल करना चाहता है हर कीमत पर। अपनी साख और कानून व्यवस्था की कीमत पर भी। चूंकि इस कारोबारी लड़ाई में प्रशासनिक लोगों की भी हिस्सेदारी तय होनी है और बैहतर हिस्सा सत्ता का साथ निभाने से ही मिल सकता है, इसलिए हालात पर प्रशासन का कोई नियंत्रण नहीं है।


दखल की यह कार्रवाई सीधे रास्ते से हो नहीं सकती। लोकतात्रिक तरीके से जनादेश के लिए कोई पक्ष इंतजार के पक्ष में नहीं है। जीतने पर रातोंरात अकूत खजाने का इंतजाम हाथ में और पक्का वोट बैंक का स्थाई इंतजाम। हारने पर धंधा चौपट। चूंकि धंधा और राजनीति दोनों में आपराधिक तत्वों को ही विरोधियों से निपटने की खुली छूट है और गड़बड़ होनेपर उन्हें कुछ न होने का भरोसा भी मिला हुआ है, इसलिए पूरी चुनाव प्रक्रिया पर राजनीति के बजाय आपराधिक तत्वों की भूमिका प्रमुख हो गयी है। औद्योगिक इलाकों में और कोयलांचल में जहां पहले से संगठित माफिया गिरोह राजनीति में गहरी पैठ रखते हैं, वहां संघर्ष ज्यादा तेज नजर आ रहे हैं। आदिवासी और अनुसूचित इलाकों में क्योंकि योजनाएं और अनुदान दोनों भारी भरकम हैं, यह एंजंडाअसंगठित अपराधी  गिरोह पार्टी के ही माफियाकरण के जरिये पूरा करने में लगे हैं। जिनपर स्थानीय से लेकर शीर्ष नेतृत्व का कोई नियंत्रण भी नही ंहै।राजनीतिक नेतृत्व हिंसा रोकना भी चाहे तो राजनीति में गहरे पैठे अपराधी तत्व इसकी इजाजत हरगिज नहीं देंगे।


इसलिए बंगाल में अपराधों का ग्राफ तेजी से उछाला मार रहा है क्योंकि अपराधकर्म का मुख्य मकसद ही विरोधियों को सबक सिखाना है। इसतरह के अपराध कर्म को चूंकि राजनीतिक संरक्षण बहुत ऊंचाई से मिलता है, इसलिए पुलिस उनके खिलाफ कार्रवाई भी नहीं कर सकती।


पंचायतों के जरिये जो महालूट का इंतजाम चालू हुआ है, उसका जायजा लेने के लिए बहुचर्चित मनरेगा के बारे में कैग रपट पर पर जरा गौर फरमायें!गौरतलब है कि मनरेगा अकेली योजना नहीं है, जिसका पैसा पंचायतों के जरिये खर्च होता है।लेकिन पंचायत में लोकसभा और विधानसभा की तुलना में ज्यादा सत्ता संघर्ष के पीछे छुपे राज को समझने के लिए मनरेगा को समझना काफी है।


200 जिले और 15 हजार करोड़ से शुरू हुआ नरेगा आज की तारीख में देश के सभी 624 जिलों और सालाना 33 हजार करोड़ खर्च करने तक जा पहुंचा है। इस योजना के तहत अब तक सबसे ज्यादा 41 हजार करोड़ का बजट आवंटित किया गया।कैग की आडिट रिपोर्ट अप्रैल, 2007 से मार्च, 2012 की अवधि की है जिसे 28 राज्यों और चार संघ शासित प्रदेशों की 3848 ग्राम पंचायतों में मनरेगा की जांच करने के बाद प्रस्तुत किया गया है।वर्तमान बजट के अनुसार 33,000 करोड़ रुपए की इस वार्षिक योजना पर कैग रिपोर्ट के कुछ बिंदुओं पर नजर दौड़ाइए। संक्षेप में हम ऐसे दस बिंदुओं का उल्लेख कर सकते हैं। एक, 47 हजार 687 से अधिक मामलों में लाभार्थियों को न रोज़गार मिला और न बेरोज़गारी भत्ता। दो, 3 राज्यों में लाभार्थियों को रोज़गार दिया गया लेकिन मजदूरी नहीं। तीन, कहीं मजदूरी मिली भी तो काफी देर से। चार, मनरेगा के तहत किए गए काम पांच वर्षों में भी आधे-अधूरे रहे हैं। पांच, निर्माण कार्य की गुणवत्ता भी अत्यंत खराब रही। छह, मनरेगा के तहत आबंटित धन का 60 प्रतिशत मजदूरी और 40 प्रतिशत निर्माण सामग्री पर खर्च करने के नियम का पालन नहीं हुआ। सात, केंद्र के स्तर पर निधियों के आबंटन में भी ख़ामियाँ पाई गईं। आठ, वर्ष 2011 में जारी हुए 1960.45 करोड़ रुपए का हिसाब ही नहीं मिला। नौ, निगरानी के काम में भी जमकर ढिलाई बरती गई। दस, भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने में केंद्र ने कार्रवाई नहीं की, बल्कि उल्टे भ्रष्टाचार करने वालों को बचाया गया। इसका दसवां बिंदू सबसे ज्यादा चिंताजनक एवं इस योजना पर ही प्रश्न खड़ा करने वाला है।


सवा-सवा करोड़ के तालाब है पर एक बूंद पानी नही. सवा-सवा लाख के कुंए हैं पर दो फुट भी गहरे नहीं। बीस-बीस लाख की सड़कें हैं पर कागजों पर हैं वजूद। मरे लोगों के नाम पर जॉब कार्ड पर जिन्दा है बेरोजगार।ये महालूट की मुकम्मल गाथा की कुछ किस्‍से हैं। ये हाल पौने दो लाख करोड़ रुपये वाली महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना यानी मनरेगा की है। महात्मा गांधी के नाम पर चल रही ये दुनिया की सबसे बड़ी रोज़गार योजना है, जो बन गया है लूट और घोटाले का अड्डा


केंद्र सरकार की ऐसी योजना जिसका लक्ष्य समाज के निर्धनतम तबके को वर्ष में कम से कम 100 दिन रोज़गार देना है, या रोज़गार न मिलने पर उनको बेरोज़गारी भत्ते के रूप में इतनी राशि देनी है ताकि उनके न्यूनतम जीवनयापन में सहायता मिल सके। जिसे कांग्रेस एवं यूपीए आज़ादी के बाद ग़रीबों को रोज़गार अधिकार का ऐतिहासिक कदम बताकर प्रचारित करता है तो इस ढंग की धांधली पर किसका हृदय नहीं फटेगा। स्वयं कैग कह रहा है कि भ्रष्टाचार से संबंधित जिन 85 मामलों की फाइलें उसने मांगी, उनमें से उसे जांच के लिए सिर्फ 21 दी गईं। जाहिर है, शेष 64 फाइलें मिलती तो खजाने के धन का वारा-न्यारा होने के और प्रमाण मिलते। इसी तरह 25 राज्यों और संघ शासित प्रदेशों में 2,252.43 करोड़ रुपए के 1,02,100 ऐसे कार्य कराए गए जिनकी कभी मंजूरी नहीं ली गई या उनका मनरेगा में प्रावधान नहीं था। इन कामों में कच्ची सड़क, सीमेंट कंक्रीट की सड़क, मवेशियों के लिए चबूतरे का निर्माण शामिल हैं। उत्तर प्रदेश में वनीकरण, बाढ़ सफाई, रामगंगा कमान और सिंचाई विभाग के पूरक बजट में मनरेगा के धन का इस्तेमाल किया गया।  





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