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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Thursday, October 17, 2013

अदालती उलझन से फंसे हैं बंगाल में लोग,उद्योग कारोबार पर बुरा असर

अदालती उलझन से फंसे हैं बंगाल में लोग,उद्योग कारोबार पर बुरा असर

एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास​


चूंकि बढ़ते हुए मकदमों और लंबित मामलों की संख्या में लगातार बढ़ोतरी की वजह से सुनवाई या तो हो ही नहीं पाती और होती है तो लंबी चलती है,बेगुनाह आम जनता के लिए मुकदमों से निजात पाना बेहद मुश्किल है बंगाल में। तारीख पर तारीख लेकिन सुनवाई होती नहीं।


उद्योग कारोबार पर बुरा असर

लंबित मुकदमों की वजह से परियोजनाओं लटक जाती हैं। परियोजना लागत में कई कई गुणा बढ़तरी हो जाती है और निवेशकों का दिवाला निकल जाता है।अंततः निवेश का फायदा हो नहीं पाता मामूली से मामूली मुकदमा के लंबा खींच जाने से।मैदान छोड़कर भाग निकलते हैं निवेशक। कुछ समय पहले तक तेजी से फैलने वाले आरोप थे कि दलाल व पंजीयक कार्यालय के अफसरों की मदद से कुछ वकील (बेंच) पीठ को फिक्स कर सकते हैं। यह भ्रष्टाचार का अतिप्राचीन तरीका है, जिसे कंप्यूटरीकरण की वजह से जबरदस्त झटका लगा है। अब विषय और इसमें शामिल विधान के हिसाब से मामले को वर्गों में बांटा जाता है और फिर ऐसे मामलों को बेंच को सौंपा जाता है।लेकिन अदालती इस सुधार का मामलों के निपटान पर खास असर हो नहीं रहा अदालतों की संख्या कम होने से।



घट गयीं अदालतें,घटने लगे फैसले

मसलन अदालत सूत्रों के मुताबिक 11 अगस्त, 2005 कोलकाता नगर दायरा अदालत चालू होने के वक्त कुल नौ फास्ट ट्रैक  दायरा अदालतें थीं जो अब घटकर तीन हो गयी हैं। जिनमें से मात्र दो में ही फास्ट ट्रैक सुनवाई हो पाती है।चूंकि अदालतों की संख्या घट रही है और इस पर किसी की नजर है ही नहीं, अदालतों में मुकदमों के फैसलों की संख्या में तेजी सेघटने लगी है और उसी अनुपात में नागरिकों की मुश्किलात में इजाफा होने लगा है चौतरफा।


छुट्टा घूमते अपराधी


फौजदारी मामलों में फैसला न होने से और अपराधियों को सजा न होने से,उनके जमानत पर छुट्टा घूमते रहने से आम जनता के जान माल को खतरे अलग हैं।खूनी वारदातें अलग हैं।कानून व्यवस्था की समस्यायें अलग हैं।


संपत्ति का अधिकार खतरे में

सबसे ज्यादा मुश्किल दीवानी मुकदमों को लेकर है,जो संपत्ति के नागरिकों के अधिकार बहाल रखने के सिलसिले में बेहद जरुरी हैं।इन मामलों का निपटारा हो ही नहीं पाता।विवाद घनघोर है और अदालतें विवाद खत्म करने को सुनवाई कर ही नहीं पाती।


दांपत्य विवाद और घरेलू हिंसा


और तो और दांपत्य विवाद और घरेलू हिंसा के मामलों, नागरिक व मानवाधिकार हनन के मामलों,पर्यावरण मामलों में भी तारीखे लंबी हो जाती है।न्याय होता भी है तो इतनी देर से कि उस न्याय की प्रासंगिकता नहीं रहती।विडंबना यह है कि बंगाल में अदालती परिदृश्य यही है।

बंगाल के आंकड़े नामालूम


पूरे देश के संदर्भ में तो आंकड़े हाजिर हैं, लेकिन बंगाल के आंकड़े भी बने नहीं हैं,बने हैं तो उपलब्ध नहीं हैं।होते तो इसमसले को सुलझाने का मौका बनता।


देशभर में तीन करोड़ मामले लंबित


बहरहाल  कानून के राज का आलम यह है कि देश की अदालतों में लंबित मामलों की संख्या अगले तीन दशक में 3 करोड़ से बढ़ कर 15 करोड़ होने का अनुमान है। फिलहाल लंबित 3 करोड़ मामलों में चेक बाउंस, मोटरवाहन दावों संबंधी विवाद, बिजली कानून संबंधी मामलों की संख्या करीब 33 फीसदी से 35 फीसदी है।कानून मंत्री कपिल सिब्बल ने राज्यसभा में प्रश्नकाल के दौरान कहा है ''देश की अदालतों में फिलहाल 3 करोड़ मामले लंबित हैं और साक्षरता, प्रति व्यक्ति आय, तथा जनसंख्या में वृद्धि के चलते यह संख्या अगले तीन दशक में पांच गुना बढ़ कर 15 करोड़ हो सकती है।''  


न्याय परिदृश्य  


कानून मंत्री कपिल सिब्बल भी मानते हैं कि कुल लंबित मामलों में से 26 फीसदी मामले 5 साल से अधिक पुराने और 40 फीसदी मामले एक साल से अधिक पुराने हैं. शेष मामले एक साल से कम अवधि के हैं.लंबित मामलों के निपटारे के लिए और अधिक बुनियादी सुविधाओं की जरुरत पर जोर देते हुए सिब्बल ने कहा कि अभी देश में प्रति दस लाख की आबादी पर अदालतों की संख्या 15 है। अगले पांच साल में अदालतों की संख्या बढ़ा कर प्रति दस लाख की आबादी पर 30 करने की योजना है।


राज्यों को पांच हजार करोड़


13वें वित्त आयोग की सिफारिशों पर 2010 से 2015 के बीच पांच वर्ष के लिए राज्यों को अनुदानों के रूप में पांच हजार करोड़ मंजूर किए हैं। इसका मकसद लंबित मामलों की संख्या में कमी लाना है। इनमें अदालतों के कार्यघंटों की संख्या में वृद्धि, लोक अदालतों के गठन पर जोर देना, वैकल्पिक विवाद समाधान तंत्र स्थापित करना आदि पहलू शामिल हैं।


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