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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Tuesday, November 19, 2013

कामरेड ज्योति बसु का कोई स्वदेशी चेहरा नहीं है

कामरेड ज्योति बसु का कोई स्वदेशी चेहरा नहीं है

अब असली धर्मसंकट यह है कि कामरेड बसु को केंद्रीय नेतृत्व से फिर फिर खारिज करते रहने से नौबत यह हो गयी है कि कहीं अगले चुनाव में कामरेटों को नेहरु,इंदिरा,राजीव और राहुल के नाम पर वोट न मांगना पड़े।


স্বদেশি মুখের সন্ধানে সিপিএম, তবে বাদ বসু


एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास

इससे क्या कि बंगाल को छोड़कर पूरे भरत ने कभी किसी मार्क्सिस्ट नेता को भारत के प्रधानमंत्री पद देखने की उम्मीद पाली थी।जब राजीव गांधी ने चंद्रशेखर सरकार को गिरा दिया था,तब भी सर्वदलीय सरकार के प्रधानमंत्री बतौर कामरेड ज्योति बसु का नाम प्रस्तावित था।फिर वह ऐतिहासिक भूल जब बंगाल के कामरेडों ने पहलीबार केरल के कामरेडों से हाथ मिलाकर ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनने से रोक दिया था।


यह गल्प बहुत पुराना हो गया है कि भारतीय परिस्थितियों के मद्देनजर मुक्तिकामी जनता का नेतृत्व करने के बजाय भारतीय मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी किस तरह पूंजी की अंधी दौड़ में शामिल होगयी और किसतरह बंगाल में 35 साल के वाम शासन का अंत हो गया।


गाय पट्टी में कभी कम्युनिस्टआंदोलन का गढ़ रहा है और हिमालयकी तराई पट्टी में भारतीय किसान सभा के नेतृत्व में किस तरह एक के बाद एक किसान आंदोलन हुए,भारतीय कामरेडों के स्मृति आइवरी टावर में उसका कोई इतिहास भी नहीं है।


कैसे उत्तरप्रदेश,बिहार,पंजाब और राजस्थान में कभी मजबूत जनाधार वाली कम्युनिस्ट पार्टियां हिंदी जनता को नेतृत्व से लगातार  वंचित करके एकदम हाशिये पर आ गयी हैं,इस पर जाहिर है कि उनका कोई विमर्श नहीं चल रहा है।


बंगाल और केरल के किले ढह जाने के बाद सिर्फ त्रिपुरा में सत्ता के दम पर दिल्ली की राजनीति करने वाले कामरेड चातक समान कांग्रेसी करुणामेघ को टकटकी बांधे देख रहे हैं कि कब उनके बेडरूम में फिर जगह बन जाये। लगातार छीजते जनाधार के बावजूद साख संकट में घिरे कांग्रेस नेतृत्व के लिए वाम विकल्प के बजाय अब भी सर्वोच्च प्राथमिकता ममता बनर्जी की घर वापसी का है।छींका टूटने के इंतजार में वंचित समुदायों को नेतृत्व में लाने की अंदरुनी मांग को सिरे से खारिज करके बूढ़े घोड़ों के दम पर सत्ता महासंग्राम में किसी चमत्कार के इंतजार में हैं कामरेड संसदीय।


वंचित समुदायों के बारे में कामरेड पुनर्विचार करने को तैयार नहीं है और न हिंदी जनता के बारे में उनकी कोई सकारत्मक सोच है,लेकिन अब विदेशी विचारकों के साथ देशी चेहरा चस्पां करने की जेएनयूपलट माकपाई पोलित नेतृत्व की एकदम ताजातरीन कवायद है और इस वैदिकी योगाभ्यास में फिर एकदफा किनारे कर दिये गये हैं कामरेड ज्योति बसु।हालांकि बंगाल में इसे लेकर हल्की सी हलचल है क्योंकि इन चेहरों में कोई दूसरा बंगाली चेहरा भी नहीं जड़ा है।कुल मिलाकर दो देशी चेहरे हैं माकपाई,एक कामरेड सुरजीत और दूसरे कामरेड नंबूदरीपाद।


जबकि बंगाली कामरेडों का संकट यह है कि विशुद्ध बंगाली कुलीन मार्क्सवाद प्रांतीय सीमाबद्धता में जो उनकी प्राचीन कालीन क्रांति एजंडा है,उसका अब कोई सचिन तेंदुलकर है ही नहीं,जिसकी मार्केटिंग से सत्ता मार्ग पर वापसी हो उनकी। अब कामरेड बसु को भी ध्यान चंद बना दिये जाने के पोलित फैसले से कामरेडों की आंखों में सत्ता अंधियारा छा गया है।


ताजा खबर यह है कि प्रधानमंत्रित्व के अवसर से वंचित करने के बाद जन्मशताब्दी वर्ष में ही कामरेड ज्योतिबसु को देशज मानने से साफ इंतकार कर दिया पोलित नेतृत्व ने।दिल्ली में केंद्र सरकार से तोहफे में मिली जमीन पर माकपा का भवन कामरेड हरकिशन सिंह सुरजीत और कामरेड नंबूदरीबपाद के नाम पर बनाने का केंद्रीय फैसला हुआ है।बंगाल में शीत काल उत्सव और दावतों का मौसम होता है।लंबी बरसात के अवसान के बाद शहनाइयां गूंजने लगी है और लगन शुरु हो गया है।मिजाज हानीमूनी है।दावत इफरात है।ऐसे में कामरेडों का हाजमा बिगड़ गया है और वह लाइलाज भी है।क्योंकि केंद्रीय नेतृत्व को कहने सुनने लायक नेतृत्व भी नहीं बंगाली कामरेडों के पास। गायपट्टी को नेतृत्व से वंचित करके देशभर में अप्रासंगिक हो गयी नेतृत्वविहीन माकपा के हाथों से आखिरी तुरुप का ताश कामरेड ज्योति बसु को भी छून लिया दिल्ली ने।केरल लाइन ने आखिरकार बंगाल लाइन को एकदम खाली मैदान में पीटकर रख दिया है।


पार्टी की बंगाल में हालत यह है कि जिलों में नेतृत्व का विकल्प भी नहीं मिल रहा है। बूढ़े,बीमार और विकलांग नेतृत्व के बोझ से संगठन खोखला है।कैडरतंत्र बीता हुआ सपना है।वोट मशीनरी अतीत।जन समर्थन अब दिवास्वप्न। हारते हारते हार गले की हार।


लोकसभा में हारे। विधानसभा में हारे। पंचायतों में उम्मीदवार भी नहीं मिले। लाल दुर्ग वर्दमान तक में चुनाव बहिस्कार करना पड़ा। पालिकाओं में सफाया हो गया है।


आखिरी किला हावड़ा में संसदीयउपचुनाव हार चुके हैं कामरेड और अब नगर निगमगवांने की बारी है। कामरेडों ने पहले ही हथियार डाल दिये हैं।मेयर ममता जायसवाल अपना वार्ड बाचाने के लिए चक्रव्यूह में कैद हैं।वाम रथी महारथी हावड़ा को रुख ही नहीं कर रहे हैं।एक अकेले सूर्यकांत मिश्र को किला बचाने की जिम्मेदारी सौंपी गयी है। स्थानीय नेताओं को घर घर जनसंपर्क करने की हिदायत दी गयी है।


जंगी मजदूर आंदोलन खत्म। एक करोड़ की सदस्यता वाली किसानसभा का वजूद नेताओं के टीवी बयानों में है,जमीन पर कहीं नहीं।बंगाल बंद या किसी भी मुद्दे पर जनांदोलन चलाने का दम नहीं है।चुनाव मैदानों में रणछोड़।बंगाल में माकपा की इतनी दुर्गति हो गयी है कि चुनाव सबा करने की स्थित में भी नहीं हो दो साल पहले तक लगातार पैंतीस साल तक सत्ता में रही दबंग पार्टी। अब ध्यानचंद के जीते सारे ओलंपिक पदक बेमतलब हो गये हैं।


सामने लोकसभा चुनाव है।अल्पसंख्यकों,अनुसूचितों,पिछड़ों और आदिवासियों,युवाओं और महिलाओं के वोटबैंक से बेदखल कामरेड सवर्म मतदाताओं को रिझाने धर्म कर्म में लौटे तो हैं लेकिन अनास्था आस्था के तूफान में बदल नहीं रही है।


अब असली धर्मसंकट यह है कि कामरेड बसु को केंद्रीय नेतृत्व से फिर फिर खारिज करते रहने से नौबत यह हो गयी है कि कहीं अगले चुनाव में कामरेटों को नेहरु,इंदिरा,राजीव और राहुल के नाम पर वोट न मांगना पड़े।





স্বদেশি মুখের সন্ধানে সিপিএম, তবে বাদ বসু

জয়ন্ত ঘোষাল • নয়াদিল্লি

ল তাঁকে প্রধানমন্ত্রী হতে দেয়নি। তিনি বলেছিলেন, ঐতিহাসিক ভুল। এ বারও তাঁকে বাদ রেখেই এগোতে চাইছে দল। কেন্দ্রের থেকে পাওয়া জমিতে দিল্লির বুকে হরকিষেণ সিংহ সুরজিৎ এবং ই এম এস নাম্বুদিরিপাদের নামে ভবন গড়ে তোলার সিদ্ধান্ত নিয়েছে সিপিএম। কিন্তু উপেক্ষিত জ্যোতি বসু। সুরজিতের নামে স্থায়ী পার্টি স্কুল এবং নাম্বুদিরিপাদের নামে গবেষণা কেন্দ্র গড়ার সিদ্ধান্ত এমনিতেই সিপিএমের নিরিখে যথেষ্ট তাৎপর্যপূর্ণ। কারণ, এত দিন দলে তাত্ত্বিক প্রশ্নে মার্ক্স, এঙ্গেলস, লেনিন, স্তালিন, মাও জে দং-এর কথা বলা হলেও ভারতীয় কমিউনিস্টরা গুরুত্ব পাননি। সিপিএম নেতাদের অনেকেই এখন মনে করছেন, দেশীয় মুখ সামনে না-রাখাটা গোটা দেশে পার্টির প্রভাব বিস্তারের পথে অন্যতম প্রতিবন্ধক। সেই কারণেই দিল্লির রউস অ্যাভিনিউয়ের জমিতে সুরজিৎ-নাম্বুদিরিপাদের নামে ভবন গড়ে তোলার সিদ্ধান্ত নিয়েছে পলিটব্যুরো।

কিন্তু ২৪ বছর মুখ্যমন্ত্রী থেকে রেকর্ড গড়া জ্যোতি বসু বাদ কেন? বিশেষ করে যখন জন্মশতবর্ষ চলছে!

পলিটব্যুরোর এই সিদ্ধান্তে পশ্চিমবঙ্গের সিপিএম নেতারা অনেকেই ক্ষুব্ধ। তাঁদের অভিযোগ, আগামী বছর ৮ জুলাই জ্যোতি বসুর জন্মের শতবর্ষ উদ্যাপন শেষ হলেও এখনও তাঁকে নিয়ে জাতীয় স্তরে কোনও অনুষ্ঠান হয়নি। আগামী মাসে একটা বৈঠক ডাকা হয়েছে। তড়িঘড়ি করে কিছু করার কথা বলা হচ্ছে। তার উপর এই ভাবে উপেক্ষা করা হচ্ছে তাঁর মতাদর্শগত অবদানকে।

পার্টি-কেন্দ্রের অবশ্য যুক্তি, জ্যোতিবাবু মুখ্যমন্ত্রী ছিলেন। সুরজিৎ বা নাম্বুদিরিপাদের মতো সাধারণ সম্পাদক নন। তাঁকে অনুসরণযোগ্য তাত্ত্বিক নেতা হিসেবে মানতে দলের অনেকেরই আপত্তি রয়েছে। তা ছাড়া, প্রকাশ কারাটরা দলকে যে পথে নিয়ে যেতে চান, তার সঙ্গে জ্যোতিবাবুর বাস্তববাদী দৃষ্টিভঙ্গির একটা মূলগত ফারাকও রয়েছে।

আর জন্মশতবর্ষ উদ্যাপন নিয়ে আলিমুদ্দিনের উষ্মা সম্পর্কে একেজি ভবনের জবাব: পশ্চিমবঙ্গের নেতাদেরই যথেষ্ট উৎসাহ নেই। তাঁদের প্রশ্ন, দিল্লির গবেষণা কেন্দ্রের জন্য কেরল পার্টি, বিশেষ করে পলিটব্যুরো সদস্য এম এ বেবি রাস্তায় রাস্তায় ঘুরে পাঁচ কোটি টাকার বেশি জোগাড় করে ফেলেছেন। জ্যোতিবাবুকে নিয়ে পশ্চিমবঙ্গের নেতাদের তেমন কোনও উদ্যোগ আছে কি?

কিন্তু জ্যোতিবাবু থাকুন বা না-থাকুন, দেশের বাম নেতাদের তুলে ধরার চেষ্টা কেন করতে হচ্ছে সিপিএম-কে? পলিটব্যুরো নেতারা বলছেন, ১৯২৫ সালে ভারতের কমিউনিস্ট পার্টির জন্মলগ্ন থেকে আজ পর্যন্ত দলের প্রধান মতাদর্শগত জনকরা হলেন মার্ক্স, এঙ্গেলস, লেনিন, স্তালিন এবং মাও জে দং। এ দেশের অন্য রাজনৈতিক দলগুলি কিন্তু এমন ভাবে বিদেশি লগ্নি নির্ভর নয়। কংগ্রেস এগিয়েছে গাঁধী এবং নেহরুকে সামনে রেখে। বিজেপি শ্যামাপ্রসাদ মুখোপাধ্যায় থেকে শুরু করে দীনদয়াল উপাধ্যায় হয়ে অটলবিহারী বাজপেয়ীকে তুলে ধরেছে। আঞ্চলিক দলগুলির ক্ষেত্রেও এটা সত্য।

কিন্তু ভারতে কমিউনিস্ট পার্টির যাত্রা শুরু কমিনটার্নের অধীনে, অর্থাৎ আন্তর্জাতিক কমিউনিস্ট আন্দোলনের ছাতার তলায়। এমনকী পার্টির উপর থেকে যখন নিষেধাজ্ঞা উঠে গেল, মুজফ্ফর আহমেদ তখন সরোজ মুখোপাধ্যায়কে বলেন, সাইনবোর্ড ও লেটারহেডে যেন ভারতীয় কমিউনিস্ট পার্টি লেখা না হয়। বরং লেখা হোক, ভারতের কমিউনিস্ট পার্টি তথা কমিনটার্নের শাখা।

কমিনটার্নের প্রভাব নিয়ে অতীতে বিতর্ক যে হয়নি, তা নয়। একদা মানবেন্দ্র রায় কমিনটার্নের বিরুদ্ধে চ্যালেঞ্জ ছুড়েছিলেন। কিন্তু দলে বিশেষ সমর্থন পাননি। বরং কিছুটা একঘরেই হয়ে যান। পরে পি সি জোশীও কমিউনিস্ট পার্টিকে ভারতীয় করে তোলার পক্ষে সওয়াল করেছিলেন। তিনি দল থেকে বিতাড়িত হন।

এত বছর পরে ওই প্রশ্নে দলে ফের আলোচনা শুরু হয়েছে। কেন?

সিপিএম শীর্ষ নেতৃত্ব বলছেন, ১৯২৫ সালে কমিউনিস্ট পার্টির সঙ্গে একই সঙ্গে জন্ম রাষ্ট্রীয় স্বয়ংসেবক সঙ্ঘের (আরএসএস)। গত ৮৮ বছরে তারা গোটা দেশে বাম আন্দোলনের থেকে যে বেশি প্রভাব বিস্তার করতে পেরেছে, তার অন্যতম কারণ হল ভারতীয় ঐতিহ্য ও সংস্কৃতির সঙ্গে একাত্মতা তৈরি করে ফেলতে পেরেছে সঙ্ঘ পরিবার। প্রকাশ কারাট, সীতারাম ইয়েচুরিরা তাই মনে করছেন, মার্ক্স-এঙ্গেলস অনেক হয়েছে, এ বার ভারতীয় নেতৃত্বকে সামনে রেখে দলকে এগিয়ে নিয়ে যাওয়া দরকার।

পলিটব্যুরোর এক নেতার কথায়, "স্বদেশি হয়ে ওঠার কাজটা খুবই সাবলীল ভাবে করেছে চিন। কমিনটার্নের ছাতার তলা থেকে বেরিয়ে এসে দেশের ঐতিহ্যকে ও সংস্কৃতিকে সামনে রেখে পার্টির রূপান্তর ঘটিয়েছে।"

সেই পথে হাঁটতেই নাম্বুদিরিপাদ এবং সুরজিতকে সামনে রাখার সিদ্ধান্ত নিয়েছে সিপিএম। কারণ, ইএমএস দক্ষিণ ভারতে কমিউনিস্ট আন্দোলনের অবিসংবাদিত নেতা ছিলেন। আর সুরজিৎ ছিলেন উত্তর ভারতে আন্দোলনের মুখ।

কিন্তু জ্যোতিবাবু যে পূর্বাঞ্চলের প্রতিনিধি ছিলেন, সেখানে তো সিপিএমের দাপট সব চেয়ে বেশি! তা ছাড়া, জ্যোতিবাবুর সর্বভারতীয় গুরুত্বও তো উপেক্ষা করার নয়। দলের কট্টরপন্থীরা নারাজ হলেও তাঁকে সামনে রেখেই তো এক সময় কেন্দ্রে জোট সরকার গড়তে চেয়েছিল আঞ্চলিক দলগুলি। তা হলে তাঁকে উপেক্ষা করার পিছনে কি কাজ করছে সেই দিল্লি-বাংলা সাবেক বিরোধ? যে বিরোধের জেরে পার্টি-কেন্দ্র দিল্লিতে হয়েছিল, কলকাতায় নয়।

এই প্রশ্নে অবশ্য চুপ বাম নেতারা।


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