आखरी क्रांतिकारी साहित्यकार की कुछ विचारोत्तेजक पंक्तियाँ
इतिहास की गति की दिशा के निर्धारण में साहित्य और कलाओं की हैशियत मूलतः दूसरे दर्जे की-मुद्राराक्षस
‘मान लें जीसस क्राइस्ट एक कवि ही होते.होमर की तरह उन्होंने भी कोई महाकाव्य लिखा होता.आइन्स्टाइन यहूदी मेनहिन की तरह वायलिन बजाते होते ,वैज्ञानिक सारे के सारे विज्ञान की बजाय संगीत में काम कर रहे होते .मार्क्स ‘दास कैपिटल ‘की जगह फोरसाईट सागा लिखते या हैमलेट या ओथेलो जैसा नाटक लिखते .गौतम बुद्ध गुणाढ्य की तरह महागाथा के लेखक होते,बौद्ध चिन्तक नहीं .पेरियार अगर वह न होते जो वे थे और बाल मुरलीकृष्णन की तरह संगीतकार होते तो यह देश कैसा होता?डॉ.आंबेडकर अगर साहित्य के समीक्षक होते और विश्वविद्यालयों में संगोष्ठियों की अध्यक्षता करते हुए कहानीकारों को बिल्ले बांट रहे होते तो यह देश कैसा होता?माओत्से तुंग कविता भी लिखते थे पर उन्होंने चीन के लिए जो किया वह न करते हुए ,लू शुन की तरह पूर्णकालिक साहित्यकार होते तो चीन का आज का स्वरूप कैसा होता?जवाहरलाल नेहरु अगर वह न करते जो उन्होंने किया ?इसका अर्थ यह न लगाया जाय कि उनका किया काम तब कोई और करता.
मैं ऐसी स्थिति की कल्पना करने का सुझाव दे रहा हूँ जिसमें इन प्रतिभाओं द्वारा किया गया काम उन्होंने ही नहीं,किसी और ने भी नहीं किया होता यानी बुद्ध ने बौद्ध चिंतन तो किया ही नहीं होता ,किसी और ने भी वह काम नहीं किया होता .समूची मानव सभ्यता में के इतिहास में सिर्फ कविता,कथा,साहित्य,चित्रकला,संगीत और नृत्य ही होता तो विश्व की शक्ल क्या हुई होती? बौद्धिक और वैज्ञानिक चिंतनविहीन दुनिया और विशेतः भारत का नक्शा क्या होता?चर्चा है कि हिंदी में अच्छा लिखा जा रहा है.सही है अच्छी कहानियां और अच्छे उपन्यास लिखे जा रहे हैं.पर अच्छे उपन्यास या कहानी या फिर कवितायेँ भी सामाजिक परिवर्तन का कारगर खाका कभी नहीं देते.अपने आप में सृजनात्मक लेखन केवल सामाजिक परिवर्तन का माहौल बनाने में मदद कर सकते हैं.ताल्स्तॉय या गोर्की यही करते हैं.सामाजिक परिवर्तन के लिए मार्क्स और लेनिन की जरुरत पड़ती है.इस तरह इतिहास प्रक्रिया में सृजनात्मक लेखन की अधिकतम भूमिका सहयात्री की सकती है.संभव है रचनाकारों को यह बात बुरी लगे पर इतिहास की गति की दिशा के निर्धारण में साहित्य और कलाओं की हैशियत मूलतः दूसरे दर्जे की ही होती है’-मुद्राराक्षस(राष्ट्रीय सहारा,6 अक्तूबर,2002)
इतिहास की गति की दिशा के निर्धारण में साहित्य और कलाओं की हैशियत मूलतः दूसरे दर्जे की-मुद्राराक्षस
‘मान लें जीसस क्राइस्ट एक कवि ही होते.होमर की तरह उन्होंने भी कोई महाकाव्य लिखा होता.आइन्स्टाइन यहूदी मेनहिन की तरह वायलिन बजाते होते ,वैज्ञानिक सारे के सारे विज्ञान की बजाय संगीत में काम कर रहे होते .मार्क्स ‘दास कैपिटल ‘की जगह फोरसाईट सागा लिखते या हैमलेट या ओथेलो जैसा नाटक लिखते .गौतम बुद्ध गुणाढ्य की तरह महागाथा के लेखक होते,बौद्ध चिन्तक नहीं .पेरियार अगर वह न होते जो वे थे और बाल मुरलीकृष्णन की तरह संगीतकार होते तो यह देश कैसा होता?डॉ.आंबेडकर अगर साहित्य के समीक्षक होते और विश्वविद्यालयों में संगोष्ठियों की अध्यक्षता करते हुए कहानीकारों को बिल्ले बांट रहे होते तो यह देश कैसा होता?माओत्से तुंग कविता भी लिखते थे पर उन्होंने चीन के लिए जो किया वह न करते हुए ,लू शुन की तरह पूर्णकालिक साहित्यकार होते तो चीन का आज का स्वरूप कैसा होता?जवाहरलाल नेहरु अगर वह न करते जो उन्होंने किया ?इसका अर्थ यह न लगाया जाय कि उनका किया काम तब कोई और करता.
मैं ऐसी स्थिति की कल्पना करने का सुझाव दे रहा हूँ जिसमें इन प्रतिभाओं द्वारा किया गया काम उन्होंने ही नहीं,किसी और ने भी नहीं किया होता यानी बुद्ध ने बौद्ध चिंतन तो किया ही नहीं होता ,किसी और ने भी वह काम नहीं किया होता .समूची मानव सभ्यता में के इतिहास में सिर्फ कविता,कथा,साहित्य,चित्रकला,संगीत और नृत्य ही होता तो विश्व की शक्ल क्या हुई होती? बौद्धिक और वैज्ञानिक चिंतनविहीन दुनिया और विशेतः भारत का नक्शा क्या होता?चर्चा है कि हिंदी में अच्छा लिखा जा रहा है.सही है अच्छी कहानियां और अच्छे उपन्यास लिखे जा रहे हैं.पर अच्छे उपन्यास या कहानी या फिर कवितायेँ भी सामाजिक परिवर्तन का कारगर खाका कभी नहीं देते.अपने आप में सृजनात्मक लेखन केवल सामाजिक परिवर्तन का माहौल बनाने में मदद कर सकते हैं.ताल्स्तॉय या गोर्की यही करते हैं.सामाजिक परिवर्तन के लिए मार्क्स और लेनिन की जरुरत पड़ती है.इस तरह इतिहास प्रक्रिया में सृजनात्मक लेखन की अधिकतम भूमिका सहयात्री की सकती है.संभव है रचनाकारों को यह बात बुरी लगे पर इतिहास की गति की दिशा के निर्धारण में साहित्य और कलाओं की हैशियत मूलतः दूसरे दर्जे की ही होती है’-मुद्राराक्षस(राष्ट्रीय सहारा,6 अक्तूबर,2002)
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