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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Sunday, June 24, 2012

दीदी ने प्रणव का विरोध तो कर दिया, क्या हिंदू राष्ट्रवाद और नरेंद्र मोदी का विरोध कर पायेंगी?

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दीदी ने प्रणव का विरोध तो कर दिया, क्या हिंदू राष्ट्रवाद और नरेंद्र मोदी का विरोध कर पायेंगी?

दीदी ने प्रणव का विरोध तो कर दिया, क्या हिंदू राष्ट्रवाद और नरेंद्र मोदी का विरोध कर पायेंगी?

By  | June 24, 2012 at 6:14 pm | No comments | आपकी नज़र

 संदर्भ सिंगुर : जल, जंगल, जमीन के हक हकूक के मसले अदालती फैसले से सुलझेंगे क्या?

पलाश विश्वास

२००६ से अपनी जनीन की वापसी की लड़ाई लड़ रहे सिंगुर के बेदखल किसानों और खेतिहर मजदूरों को नया कानून बनाकर भी राहत नहीं दे  सकी मां माटी मानुष की सरकार। ३४ साल के वाम शासन के अवसान के बाद परिवर्तन का साल बीतते न बीतते सत्ता में रहते हुए फिर आंदोलन की राह पर हैं मुख्यमंत्री ममता बनर्जी क्योंकि कोलकाता हाईकोर्ट ने सिंगुर के अनिच्छुक किसानों को जमीन वापस दिलाने के लिए नई सरकार के सिंगर कानून को अवैध और असंवैधानिक करार दिया है। राज्य सरकार इसके खिलाफ दो महीने के भीतर सुप्रीम कोर्ट में अपील कर सकती है। सिंगुर कानून के तहत राज्य सरकार ने टाटा मोटर्स के कब्जे से सिंगुर की सारी जमीन अधिग्रहित करने का फरमान जारी किया था, जिस पर सुप्रीम कोर्ट से टाटा ने स्थगनादेश हासिल कर लिया। सिंगुर के किसानों का धीरज भी जवाब देने लगा है। मां माटी मानुष की सरकार का जनाधार खिसकने का भारी खतरा पैदा हो गया है। लिहाजा अपना प्रबल जन समर्थन को अपने हक में बनाये रखने और परिवर्तनपंथी ताकतों को एकजुट बनाये रखने के लिए दीदी के सामने आंदोलन के सिवाय कोई रास्ता नहीं है।बहरहाल टाटा ने जिस नैनो कार को बनाने के लिए पश्चिम बंगाल में हल्दिया जिले के सिंगुर की जमीन राज्य सरकार से पट्टे पर ली थी, वह कार अब गुजरात के सानंद में बनकर सड़कों पर दौड़ती दिख रही है।किसानों को उनकी जमीन वापस मिल सके, इसके लिए सिंगुर भूमि सुधार अधिनियम तैयार किया। लेकिन न जाने किस उत्साह में इस अधिनियम पर राष्ट्रपति की सहमति हासिल करना किसी को भी याद नहीं रहा। इस कानून को अब कोलकाता उच्च न्यायालय के खंडपीठ ने न सिर्फ निरस्त कर दिया है, बल्कि उसे असांविधानिक भी कहा है। इसके निरस्त होने के पीछे राष्ट्रपति की सहमति न लेना भी एक कारण है, लेकिन यह अकेला कारण नहीं है।अदालत का कहना है कि इस कानून और भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 1894 में अंतर्विरोध है। अदालत ने यह भी कहा है कि सरकार के पास इस पुराने कानून को बदलने या उसमें संशोधन करने का कोई अधिकार नहीं है। मुमकिन है कि इस फैसले का टाटा के लिए ज्यादा महत्व न हो। नैतिक जीत के तर्क के अलावा अब यह उम्मीद नहीं है कि टाटा मोटर्स नैनो बनाने के लिए सिंगुर लौटेगी। लेकिन यह फैसला ममता बनर्जी के लिए बड़ी समस्या खड़ी करने वाला है।
सिंगुर, नंदीग्राम, लालगढ़ जनअभ्युत्थान और परिवर्तन अभियान की निरिवावाद नेता के लिए आंदोलन कोई नई चीज नहीं है। भारतीय राजनीति में सिंगुर मसले का महत्व सिर्फ इतना ही नहीं है कि इसने पश्चिम बंगाल से वाम मोर्चे को उखाड़ फेंका और ममता बनर्जी को सत्ता में पहुंचा दिया। सिंगुर मसले ने निजी उद्योगों के लिए सरकार द्वारा कृषि योग्य जमीन के अधिग्रहण पर सबसे पहले सवाल खड़ा किया, जो राष्ट्रीय बहस का मसला बना। सिंगुर के बाद ही यह सवाल उठा कि निजी कंपनियों के लिए भूमि अधिग्रहण में सरकार बिचौलिया की भूमिका क्यों निभाए? साथ ही यह भी कि हर भूमि अधिग्रहण के बाद किसान ही घाटे में क्यों रहते हैं? पर विडंबना यह है कि दीदी अब विरोधी नेत्री नहीं हैं और न सड़क पर हैं। अब वे कैसा आंदोलन और किसके खिलाफ आंदोलन  करेंगी?ही राष्ट्रपति चुनाव के मामले में उन्हें न सिर्फ कांग्रेस के हाथों राजनीतिक मात मिली है, बल्कि वह इस पूरी राजनीति में अलग-थलग भी पड़ गईं। और अब उन्हें उस मसले पर कानूनी मात मिली है, जिससे उन्होंने राज्य की वामपंथी सरकार को हिलाने का अभियान शुरू किया था। ममता बनर्जी सरकार की यह शिकस्त यह तो बताती ही है कि लोकप्रियता की राजनीति में किसी मसले पर हो-हल्ला करना बहुत आसान होता है, लेकिन हकीकत में उसे सुलझाना एक जटिल प्रक्रिया होती है।वैसे वाममोर्चा ने सत्ता में आने के बाद तुरंत एक जनांदोलन चलाया था, जिसे भूमि सुधार कहा जाता है।जो बंगाल और पूर्वी भारत में  १९४७ के सत्तेता हस्भातांतरण से पहले से जारी  जमींदार जोतदार विरोधी तेभागा आंदोलन के कार्यक्रम को असली जामा पहुंचाने का सरकारी आयोजन था। पर दीदी के आंदोलन में किसानों को जमीन वापस दिलाने या भूमि अधिग्रहण का उग्र विरोध होने के बावजूद जल, जंगल और जमीन के मुद्दे पर सोच और कार्यक्रम, या नीति का सिरे से अभाव रहा है। उनका आंदोलन और राजनीति आवेगमय अतिसंवेदन भावनाओं का खेल है, जिससे जल, जंगल और जमीन के मुद्दे हल नहीं होते। ठीक वैसे ही जैसे अदालती फैसले हमेशा सत्तावर्ग के हक में होते हैं या फिर न्याय इतना विलंबित हो जाता है कि विलंबित राग का यह अलाप सदैव सीमांत और बहिष्कृत समुदायों के लिए वसंत विलाप बन जाता है।
गनीमत है कि दीदी अब फेसबुक पर है क्योंकि जिस मीडिया के दम पर आज तलक उनकी राजनीति और भावनाओं का खेल आज राइटर्स के मुकाम हासल करने को कामयाब है और हिलेरिया स्पर्श से अहिल्या उत्कर्ष पर है, उसके लिए दीदी के सरोकार और जनाधार से ज्यादा बाजार की प्राथमिकताएं  ज्यादा जरूरी है। मीडिया का करिश्मा भी यह कि बाजार की प्रथमिकताएं अब लोक प्राथमिकताएं हैं। इस प्रकरण में हस्तक्षेप के लिए सूचनातंत्र में सीधे हस्तक्षेप की दरकार है और सोशल मीडिया के इस वैकल्पिक दरवाजे पर उनका दस्तक स्वागतयोग्य है, निःसंदेह। परन्तु यह भी सोशल मीडिया के व्याकरण से बाहर खड़े होकर सड़क की राजनीति की तर्ज पर एक कलाबाजी में तब्दील होने लगा है। दीदी के वाल पर सोच कम , सरोकार ज्यादा हैं। विमर्श है नहीं, एकतरफा उद्दात्त आवाहन है, भावनाओं का काव्यिक उन्मेष है। बस, और कुछ नहीं। तो इससे क्या कि भावनाओं का समुंदर है और जनसमुद्र को छूते रहने का उल्लास है! यहां भूमि सुधार जैसे मुद्दे और आंदोलन की सोच कहीं है ही नहीं। दरअसल फेसबुक वाल ही दीदी का आधिकारिक नीति दर्पण है और वे न अन्यत्र न अननंतर कुछ बोल लिख रही हैं कि उनका दिलोदिमाग टटोलने का मौका मिलें।
दरअसल कोलकाता हाईकोर्ट के फैसले से न तो सरकार की हार हुई है और न टाटा की जीत। यह तदर्थ यथास्थिति वाद है, जो सिंगुर के भूगोल और इतिहास के आर पार जल जंगल जमीन से बेदखल समस्त जनसमूह की पूर्व नियति है। देश के कानून बाजार और कारपोरेट के हक में हों और संवैधानिक प्रावधानों तक का खुला उल्लंघन हो तो उसी संविधान का हवाला देते हुए देश के कानून को सर्वोपरि बताकार किसानों को जमीन वापसी के प्रावधान को  असंवैधानिक, गैरकानूनी करार देने का कानूनी रास्ता यकीनन भूमि सुधार का रास्ता नहीं है।
जिस भूमि अधिग्रहण कानून,  १८९४ के हवाले से यह फैसला आया, दरअसल उसको बदलने के लिए जो भूमि अधिग्रहण संशोधन कानून का प्रस्ताव है और जो ममता दीदी के विरोध के कारण ही विलंबित है,  उसमें भी भूमि अधिग्रहण के सार्वजनिक हित, यानी कारपोरेट बिल्डर प्रोमोटर माफिया हित प्रमुख हैं। सिर्फ भूमि अधिग्रहण ही क्यों, वन अधिनियम,खनन अधिनियम, पर्यावरण अधिनियम, समुद्रतट संशोधन अधिनियम, नागरिकता कानून, विशेष आर्थिक क्षेत्र कानून, प्रकृतिक संसाधन कानून और सारे संबंधित कानून सिंगुर के किसानों के विरुद्ध हैं।
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने शुक्रवार को कहा कि उनकी सरकार सिंगूर के किसानों के हित के लिए वचनबद्ध है और आशा है कि किसानों की जीत होगी। बनर्जी की टिप्पणी ऐसे समय में आई है, जब कलकत्ता उच्च न्यायालय ने सिंगूर भूमि पुनर्वास एवं विकास अधिनियम-2011 को असंवैधानिक और अमान्य करार दे दिया है। इस अधिनियम के जरिए तृणमूल कांग्रेस, टाटा मोटर्स को दिया गया भूमि का पट्टा रद्द कर जमीन किसानों को लौटाना चाहती थी और उन्हें बेहतर मुआवजा व पुनर्वास पैकेज देना चाहती थी।बनर्जी ने राज्य विधानसभा में कहा, "मैं न्यायालय के फैसले पर टिप्पणी नहीं करना चाहती। लेकिन हम सिंगूर के किसानों के हितों के प्रति वचनबद्ध हैं और उनके साथ लगातार खड़ा रहेंगे। मुझे भरोसा है कि अंतत: किसानों की जीत होगी।" न्यायमूर्ति पिनाकी चंद्र घोष और न्यायमूर्ति मृणाल कांति चौधरी की खण्डपीठ ने सिंगूर भूमि पुनर्वास एवं विकास अधिनियम-2011 को अवैध घोषित करते हुए कहा कि सिंगूर अधिनियम में मुआवजे की धाराएं भूमि अधिग्रहण अधिनियम-1894 से मेल नहीं खातीं।
कैसे होता है भूमि अधिग्रहण , देश ने सिंगुर, नंदीग्राम, कलिंगनगर, नियमागिरि, बरनाला, नवी मुंबई, जैतापुर और कुडनकुलम में लाइव देखा है। पर सर्वत्र मीडिया की पहुंच नही है । मसलन आंध्र के गोदावरी जिले में भूमि अधिग्रहण गोदावरी बांध के लिए हुआ तो डीएम पुलिस के सात गांव पहुंच गये और बंदूक की नोंक पर किसानों को मुआवजा बाट दिया गया! इस बांध परियोजना से डूब में समाहित होने है ओड़ीशा और छत्तीसगढ़ के गोदावरी के उद्गम इलाके। पर कोई जनसुनवाई कहीं नहीं हुई। य़हां तक कि ओड़ीशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की आपत्ति भी खारिज कर दी गयी।
न्यायमूर्ति पिनाकी चंद्र घोष और न्यायमूर्ति मृणाल कांति चौधरी की खण्डपीठ  ने यह भी कहा है कि यह अधिनियम राष्ट्रपति की मंजूरी के बगैर लागू किया गया। ममता बनर्जी सरकार ने सत्ता सम्भालने के ठीक बाद इस अधिनियम को पारित किया था। टाटा मोटर्स ने कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति आई.पी. मुखर्जी के 25 सितम्बर के फैसले के खिलाफ दो सदस्यीय पीठ में याचिका दायर की थी। न्यायालय ने अपने आदेश का क्रियान्वयन दो महीने के लिए स्थगित कर दिया है, लेकिन इस अंतरिम अवधि के दौरान सरकार को भूमि का वितरण करने से रोक दिया है।
खण्डपीठ ने यह भी कहा कि यद्यपि एक सदस्यीय पीठ ने भूमि अधिग्रहण अधिनियम-1894 के आधार पर मुआवजा तय किया था, लेकिन न्यायालय को सिंगूर अधिनियम में कुछ जोड़ने, उसे फिर से लिखने या तैयार करने का कोई अधिकार नहीं है।117 साल पुराने भूमि अधिग्रहण कानून 1894 के अनुसार सार्वजनिक उद्देश्य के तहत किसी भी जमीन को बगैर बाजार मूल्य के मुआवजा चुकाए सरकार अधिग्रहण कर सकती है। इसमें 'सार्वजनिक उद्देश्य' की परिभाषा के तहत शैक्षणिक संस्थानों का निर्माण, आवासीय या ग्रामीण परियोजनाओं का विकास शामिल है। इसके लिए एक अधिसूचना पर्याप्त होती है। भूमि अधिग्रहण कानून, 1894 में संशोधन के लिए 2007 में एक विधेयक संसद में पेश किया था। हालाकि यह विधेयक लैप्स हो चुका है। मौजूदा भूमि अधिग्रहण कानून की खामियों को दुरुस्त करने के लिए फिर से इस तरह के संशोधन बिल पेश किए जाने की बात की जा रही है। सभी राज्य विधायी प्रस्तावों में संपत्ति के अधिग्रहण या माग के विषय पर कोई अधिनियम या अन्य कोई राज्य विधान, जिसका प्रभाव भूमि के अधिग्रहण और माग पर है, में शामिल हैं, इनकी जाच राष्ट्रपति की स्वीकृति पाने के प्रयोजन हेतु धारा 200 (विधयेक के मामले में) या संविधान की धारा 213 (1) के प्रावधान के तहत भूमि संसाधन विभाग द्वारा की जाती है। इस प्रभाग द्वारा समवर्ती होने के प्रयोजन हेतु भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 1894 में संशोधन के लिए राज्य सरकारों के सभी प्रस्तावों की जाच भी की जाती है, जैसा कि संविधान की धारा 254 की उपधारा (2) के अधीन आवश्यक है।
ज्ञात हो कि पूर्व की वाम मोर्चा सरकार ने नैनो कार परियोजना के लिए हुगली जिले के सिंगूर में कुल 997 एकड़ भूमि टाटा मोटर्स और कई वेंडर्स को पट्टे पर दी थी। 645 एकड़ जमीन कम्पनी को आवंटित की गई थी और बाकी जमीन वेंडर्स को दी गई थी। लेकिन तृणमूल कांग्रेस के नेतृत्व में किसानों द्वारा चलाए गए आंदोलन के कारण नैनो कार परियोजना 2008 में सिंगूर से गुजरात के सानंद चली गई। तृणमूल उन किसानों को 400 एकड़ भूमि लौटाना चाहती थी, जो अपनी जमीन नहीं देना चाहते थे।
फैसले पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष सूर्यकांत मिश्र ने कहा कि सरकार विपक्ष के उस आग्रह को न मानने का खामियाजा भुगत रही है, जिसमें कहा गया था कि सरकार अपनी जमीन देने के अनिच्छुक रहे और इच्छुक रहे किसानों के बीच किसी तरह का भेदभाव न बरते। कांग्रेस नेता अब्दुल मन्नान ने किसानों को जमीन लौटाने के बनर्जी के इरादे पर सवाल खड़ा किया। मन्नान ने कहा, "किसानों को जमीन लौटाने का उनका कभी इरादा नहीं था। यह सिर्फ दिखावा भर था। अन्यथा वह जल्दबाजी में कानून नहीं पारित करतीं, बल्कि समय लेकर और विशेषज्ञों की मदद लेकर एक व्यापक कानून तैयार करतीं।"
नया भूमि अधिग्रहण बिल, जिसे भूमि अधिग्रहण तथा पुर्नवास एवं पुन:स्थापन विधेयक 2011 का नाम दिया गया है, असल में नई पैकिंग में पुराना माल ही है। सरकार ने इस विधेयक को बहस के लिए पब्लिक डोमेन में रखा है, जिसमें सभी लोगों, नागरिक संगठनों आदि की राय मांगी गई है। ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने बड़े मन से इस बिल का मसौदा तैयार किया है और उतने ही मन से किसानों को गुमराह करने का भी जतन किया है।भूमि अधिग्रहण में बड़ा प्रश्न था कि अधिग्रहण किस प्रकार की भूमि का किया जाए। जयराम रमेश ने नए बिल की प्रस्तावना में लिखा है कि किसी भी हालात में बहु-फसलीय, सिंचित भूमि का अधिग्रहण नहीं किया जाएगा। इस बात को मीडिया ने भी जोर-शोर से उठाया, जबकि इसी बिल के भाग-दो में धारा 7 उप-धारा 2 का चौथा बिंदु कहता है कि जिले का कलेक्टर अंतिम विकल्प के रूप में सुनिश्चित सिंचाई वाली भूमि को भी अधिग्रहित कर सकता है। यानी अंतिम विकल्प के नाम पर उपजाऊ भूमि भी सरकार द्वारा हड़पी जा सकती है। मजेदार बात यह है कि ठीक इसके नीचे की पंक्ति में लिखा है कि सिंचित बहु-फसलीय भूमि का अधिग्रहण नहीं किया जाएगा।अब एक ओर बिल सुनिश्चित सिंचाई वाली भूमि अधिग्रहित करने की बात करता है और दूसरी ओर लोगों की आंखों में धूल झोंकने के लिए सिंचित बहु-फसलीय भूमि का अधिग्रहण नहीं करने की बात भी कह रहा है। सवाल यह उठता है कि जब करीब पांच पन्नों में विभिन्न तकनीकी और गैर तकनीकी शब्दों की परिभाषा दी गई है तो क्या एक लाइन में बहु-फसलीय भूमि से क्या अर्थ है, यह नहीं बताना चाहिए था? अब जिला कलेक्टर इसी बात को तोड़-मरोड़ कर  अपने हिसाब से रखेगा और उपजाऊ भूमि, जो हमारी खाद्य सुरक्षा की गारंटी है, हमारे हाथ से छिनती चली जाएगी।इसके अलावा बिल में असिंचित भूमि के अधिग्रहण को उचित ठहराया गया है। लेकिन क्या सभी असिंचित भूमि बंजर है? ऐसा नहीं है, और सरकार की बेरुखी के कारण ही कई क्षेत्रों की उर्वरक भूमि में भी सिंचाई की व्यवस्था नहीं है। असिंचित क्लाज का लाभ लेकर आसानी से अच्छी उर्वरक भूमि का अधिग्रहण कर लिया जाएगा। इसलिए मिट्टी में मौजूद जैविक और पोषक तत्वों के आधार पर ही भूमि का चयन किया जाए और बंजर भूमि का ही सिर्फ अधिग्रहण हो, वरना अच्छी पैदावार देने की क्षमता वाली जमीन भी छिनती चली जाएगी।अगला सवाल उठता है कि जमीन की कीमत तय करने का फार्मूला क्या हो? नया बिल 1894 में बने भूमि अधिग्रहण अधिनियम की जगह लेगा, लेकिन भूमि की कीमत तय करने के लिए 1899 के इंडियन स्टैम्प एक्ट जैसा पुराना कानून क्यों? जब अधिग्रहण का कानून बदल रहा है तो फिर भूमि की कीमत तय करने का कानून भी बदलना चाहिए। नए बिल में नया फार्मूला ही हो, पुराने फार्मूले को पूरी तरह नकारना ही होगा।बिल कहता है कि भूमि का भुगतान बाजार में उसकी मौजूदा कीमत के आधार पर लगाया जाएगा। सुनने में यह बात बहुत अच्छी लगती है, लेकिन बाजार भाव कृषि भूमि या बंजर भूमि का क्या होगा? जबकि जमीन कृषि कार्य के लिए नहीं ली जा रही है। इसलिए जमीन की कीमत तय करने से पहले उसका भू उपयोग बदलने की घोषणा करे। व्यवसायिक, आवासीय या औद्योगिकरण के लिए अधिग्रहित करने की बात कह कर उसके अनुसार लैंड यूज बदले फिर बाजार की कीमत दें, तो कुछ बात बन सकती है। क्योंकि लैंड यूज बदलते ही जमीन की कीमत आसमान पर पहुंच जाती है और इसी में सरकार के मंत्री, अफसर और निजी कंपनियों की सांठगांठ उन्हें मालामाल कर देती है। इसलिए हमारी मांग है कि पहले भूमि उपयोग को बदलें, फिर उसकी बाजार कीमत तय करें।बिल में किस परियोजना के लिए कितनी भूमि की आवश्यकता है? यह भी स्पष्ट नहीं किया गया है। हालांकि बिल में कहा गया है अधिकृत समिति यह तय करेगी की कम से कम भूमि या जितनी आवश्यक हो सिर्फ उतनी ही भूमि अधिग्रहित की जाएगी। लेकिन कम से कम भूमि का पैमाना क्या होगा, इस पर बिल मौन है। उदाहरण के लिए भूमि का अधिग्रहण कार रेस के लिए किया जाता है, तो आने वाले लोगों के मनोरंजन के लिए सिनेमा हाल, ठहरने के लिए फाइव स्टार होटल, पार्किंग, माल, गोल्फ कोर्स आदि की मांग भी की जा सकती है, जिसके लिए वास्तविक आवश्यकता से कई अधिक मात्रा में भूमि अधिग्रहित की जा सकती है। इसलिए न्यूनतम का स्तर और इसको तय करने का पैमाना पूरी तरह स्पष्ट होना चाहिए। वरना बिल्डर खेल परिसर के साथ कुछ समय में माल आदि बना लेगा या फिर अतिरिक्त भूमि को ऊंचे दामों पर किसी और कारोबारी को बेच देगा।इस बिल में जनहित और सार्वजनिक उद्देश्य की परिभाषा में भी घालमेल है। एक बड़ा सवाल है कि सरकार इस बिल के तहत उन निजी कंपनियों को भी भूमि देगी, जो कंपनियां सार्वजनिक उद्देश्य के लिए उस भूमि का उपयोग करेंगी। यानी जनहित और सार्वजनिक उद्देश्य की आड़ में निजी कंपनियों को भूमि दी जाएगी, जिन कंपनियों का काम सिर्फ अपना मुनाफा कमाना है, जनहित नहीं।
आर्थिक सुधारों का कारपोरेट साम्राज्यवादी साम्प्रदायिक रंगभेदी जनसंहार एजंडा ही जल जंगल जमीन के हक हकूक के विरुद्ध है, जहां सिंगुर और देश के तमाम जनपद, कृषिप्रधान भारत एकाकार है, जिसको तबाह करने के लिए बनती हैं तमाम परियोजनाएं। स्वर्णिम राजमार्ग, जिनपर मूलनिवासी चल भी नहीं सकता और वहां मारे जाने पर मुआवजे का हकदार भी नहीं है, बलिक् वहीं से आता है उनकी बेदखली और मौत का सामान। बड़े बांध और विद्युत परियोजनाएं, जो न उनके खेत सींचते हैं और न उलको बिजली देते हैं बल्कि उनके तड़ीपार हो जाने का सबब बनते हैं। कल कारखाने और खनन परियोजनाएं, परमाणु संयंत्र प्रक्षेपास्त्र अंचल, सेज, सिडकुल, एनएमआईजेड, इंडस्ट्रीयल कारीडोर, इत्यादि जो प्रदूषण, गैस त्रासदी, रेडिएशन के खतरों के साथ जीने मरने की नियति के अलावा बेदखली का कठोर वास्तव है।
देश का कानून इन तमाम लोगों, प्रकृति और प्कृति से जुड़े मनुष्य, कृषि और आजीविका , पर्यावरण के विरुद्ध है, किसी सिंगुर के लिए ये हालात नहीं बदलने वाले हैं। क्या इस प्रस्थान बिंदू पर खड़े होकर दीदी अपना अवस्थान तय करने का दुस्साहस दिखा सकती हैं?
राष्ट्रपति चुनाव में सत्तावर्ग के सर्वाधिनायक विश्वपुत्र के विरुद्ध खड़े होकर बाजार के खिलाफ विद्रोह तो उन्होंने कर दिया, पर दीदी को अब समझना ही होगा कि विद्रोह, आंदोलन और विप्लव में अंतर होता है। आंदोलन की राह तक पहुंच कर भटक गये वामपंथी, गांधीवादी, लोहियावादी समाजवादी और अंबेडकर के अनुयायी, क्रांति की मंजिल अब सबके लिए बाजार में मोक्ष का पर्याय बन गया है। पर दीदी तो विद्रोह के अगले पायदान तक ही नहीं पहुंच रही हैं। वामपंथ का अवसान कोई विप्लव नबहीं है, भले ही वैश्विक पूंजी, मीडिया, नीति निर्धारक, सत्तावर्ग के हित, बाजार और कारपोरेट इंडिया ने यह व्यामोह रचने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। क्रांति हुई रहती तो व्यवस्था ही बदल जाती! मरीचझांपी, आनंदमार्गी नरसंहार और भिखारी पासवान के गुनाहगार दीदी के साथ खड़े नहीं होते और न बाजार का उन्हें पुरजोर समर्थन मिलता और न ही हिलेरिया उनसे गीत  वितान लेकर घर वापसी पर उनका गुणगान करती।
जल जंगल जमीन के दुशमन, किसानों, मजदूरों के वर्गशत्रुओं, प्रकृति और पर्यावरण के  विध्वंसक तत्वों, विस्थापन के विशेषज्ञों और नरसंहार के कलाकारों के साथ राजनीति की जा सकती है, सत्ता में साझेदारी हो सकती है, संसदीय असंसदीय कारोबार संभव है,क्रांति नहीं।चुनावी राजनीति और जीत को जन आंदोलन में तब्दील करना आसान होता तो वामपंथ आंदोलन और प्रतिरोध का रास्ता छोड़कर सत्ता में बने रहने के लिए बाजार और वैश्विक पूंजी का गुलाम न बन गया होता और न सर्वहारा के अधिनायकत्व और वर्ग विहीन समाज का सपना छोड़कर अंध हिदुत्व का अनुसऱण करते हुए पूंजीवादी विकास, अंधाधुंध भूमि अधिग्रहण, शहरीकरण और औद्योगीकरण का रास्ता अख्तियार  करके उसके विरुद्ध प्रबल जनांदोलन के दमन के लिए जनसंहार की संस्कृति का आवाहन नहीं करता। चुनावी जीत से राजनीति नहीं बदल जाती, वल्कि विचारधारा के अंत का तमाशा जरूर होता है और इसके अनेक उदाहरण इस भारत वर्ष में है। उत्तरप्रदेश में बहुजनहिताय का क्या अंजाम हुआ और तमुलनाडु में स्वाभिनमान आंदोलन का?ममतादीदी और बंगाल का रास्ता अलग है , परिवर्तन के बाद लगातार चुनाव जीतते रहने और चुनावी राजनीति करते रहने के अलावा दीदी ने ऐसा कोई संकेत अभीतक नहीं दिया है।
बाजार के साथ कीमत, मुआवजा, पुनर्वास पर सौदेबाजी हो सकती है, मोल भाव हो सकते हैं पर आखिरकार जीत बाजार के नियमों का ही होता है। तेलंगाना, श्रीकाकुलम, ढिमरीब्लाक, नक्सलबाड़ी, नियमागिरि, कच्छ, ऩवी मुंबई, लवासा, गंगतोक, उत्तराखंड, ओड़ीशा, झारखंड, छत्तीसगढ़, आंध्र, तमिलनाडु,बिहार, पंजाब सर्वत्र जनांदोलनों को कैश करके बाजार की ही अंतिम जीत होती रही है। इस समीकरण को बदलने के लिए जिस युद्धनीति की आवश्यकता  होती है, दीदी की परिवर्तनपंथी सेना का हर कदम उसीके विरुद्ध है।नोनाडांगा की बेदखली की कथा से क्या सिंगुर की कहानी अलग है बल्कि वहां तो पीड़ितों की संख्या सिंगुर के अनिच्छुक किसानों  से कहीं ज्यादा हैं।
परिवर्तन यानी नया राज्य बनने के बाद झारखंद, छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड में जल जंगल जमीन के हाल हकीकत के बारे में क्या दीदी ब्रिगेड को कुछ मालूम नहीं है? लालगढ़ में तो वे खुद सलवा जुड़ुम का इस्तेमाल कर रहीं हैं। मणिपुर में विशेष सैन्य अधिकार कानून के खिलाफ बोलकर इरोम शर्मिला की रिहाई का मांग करके पूर्वोत्तर में दीदी को मणिपुर के अलावा अरुणाचल में भी भारी कामयाबी हासिल हुई। पर क्या वे विशेष सैन्य अधिकार कानून के विरुद्ध चुनावों के बाद कुछ बोलीं? कश्मीर में अल्पसंख्यकों के सफाया और बाकी भारत में आदिवासी जनता के विरुद्ध राष्ट्र के युद्ध के खिलाफ क्या वे मुखर हुईं? दंडकारण्य में पुनर्वासित शरणार्थियों की आदिवासियों के साथ माओवाद विरोधी अभियान के बहाने नाकेबंदी और शरणार्थियों के देश निकाले के खिलाफ क्या बोलीं वे? तमाम संसदीय समितियों के अध्यक्ष पद पर रहते हुए देश के वास्तविक नीति निर्धारक बाहैसियत प्रणव दादा एक के बाद एक जनविरोधी कानून को जब  अंजाम दे रहे थे, आर्थिक सुधारों के नाम पर कृषि और अर्थव्यवस्था और उत्पादन प्रणाली को तबाह कर रहे थे, तो राजनीतिक सुविधा के  मुताबिक पेंशन बिल, रीटेल एफडीआई, भूमि अधिग्रहण कानून के विरोध के सिवाय दीदी ने क्या इस व्यवस्था को बदलने के लिए कोई आंदोलन, कोई कार्यक्रम चलाया? आपको जानकारी हो तो बतायें!
भूमि सुधार का मुद्दा कभी सत्ता वर्ग की प्राथमिकता में नहीं रहा। क्योंकि सत्ता वर्ग के कब्जे में ही है भूमि।बल्कि बहिष्कृत जनसमुदायों के अब तक वंचित रहते आने से जीवन के हर क्षेत्र में उन्हींका वरचस्व रहा है। लेकिन संवैधानिक प्रवधानों की वजह से सबको समान अवसर के सिद्धांत के तहत सामाजिक न्याय के लक्ष्य और आरक्षण के कारण सत्ता समीकरण के बदल जाने को लेकर सत्ता वर्ग आत्मरक्षा के लिए ही बाजार की अर्थव्यवस्था अपनाकर जल जंगल जमीन के हक हकूक और आजीविका और रोजगार के अवसरों से वंचित कर रहा है निनानब्वे प्रतिशत जनता को। अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री और योजना आयोग के अर्थवेत्ता मोंटेक सिंह अहलूवालिया आदि नीति-नियंता किसान और कृषि को सिर्फ आकड़ा मानते हैं। आखिरकार 117 बरस पुराने भूमि अधिग्रहण कानून में अब तक संशोधन क्यों नहीं हुआ? क्या अलीगढ़-टप्पल के गोलीकांड का इंतजार था। सेज के बहाने लाखों एकड़ जमीन के हड़पने का व्यावसायिक अभियान चला। तत्कालीन ग्राम विकास मंत्री रघुवंश प्रसाद ने इसे भूमि घोटाला बताया था। कृषि मंत्री शरद पवार ने भी सेज से असहमति जताई थी। सोनिया गाधी ने कृषि भूमि अधिग्रहण पर सतर्क रहने की चेतावनी दी थी। अधिग्रहण कानून में संशोधन की माग पुरानी है। 2007 में भूमि अधिग्रहण कानून 1894 में संशोधन का एक विधेयक भी तैयार हुआ था। भूमि अधिग्रहण से प्रभावित लोगों को राहत देने के लिए पुनस्र्थापन व पुनर्वास विधेयक की भी तैयारी थी। 14वीं लोकसभा के अवसान के साथ दोनों विधेयक भी 'वीरगति' को प्राप्त हो गए।
भूमि सुधार का कार्यक्रम सत्ता वर्ग के हित और खुले बाजार की व्यवस्था के विरुद्ध है। इसलिए तमाम कानूनों  में संशोधन करके भूमि और प्रकृतिक संसाधनों , रोजगार, आजीविका और व्यवसाय पर वर्चस्व कायम रखने का खेल जारी है।
मसलन उत्तराखंड में तत्कालीन उत्तरप्रदेश के प्रधानमंत्री और बाद में मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत के संरक्षण में ही तराई के तमाम जिलों नैनीताल, बरेली, रामपुर, मुरादाबाद, पालीभीत, बिजनौर में बनेमी संपत्ति के तहत बड़े बड़े फार्म बने। जंगल में लाकर बसाये गये विभाजन पीड़ित शरणार्थियों तक को भूमिधारी हक नहीं दिया गया और न ही बुक्सा थारु , वन गुर्जर आदिवासियों को। उनकी जमीन भी दबंगों नें दबा ली। चंद्रभानुगुप्त, हेमवतीनंदन बहुगुणा और नारायण दत्त तिवारी ने भूमाफिया का ही प्रतिनिधित्व किया। तराई में भूमि सुधार तो रहा दूर, बल्कि पहाड़ को भी भूमि माफिया के हवाले करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उत्तराखंड बनने के बाद सिडकुल के तहत औद्योगिक घरानों को , जिनकी तराई में भूमि पर पहले से वर्चस्व है, न सिर्प किसानों और शरणार्थियों की जमीन पर कब्जा करने का मौका दिया गया बल्कि पंतनगर विश्वविद्यालय की जमीन भी गिफ्ट में दे दी गयी। सेज कानून के तहत तमाम रियायतें और छूट अलग। उत्तराखंडियों की जमीन तो मुफ्त में चली गयी, नौकरियां भी नहीं मिलीं! जो कल कारखाने लगे , वहा श्रम कानून तो दूर नागरिक और मानवाधिकारों तक की गारंटी नहीं है। अब वहां भूमि सुधार की चर्चा कुछेक हजार परिवरों,  जो विभाजन पीड़ित शरणार्थी हैं, उन्हें बांग्लादेशी बताकर उठायी जा रही है।
इसीतरह गुजरात के कांधला सेज इलाके की जमीन अधिग्रहण करने के लिए पांचवी अनुसूची से बाहर कर दिया गया यह इलाका और आदिवासियों का अनुसूचित जनजाति का दर्जा खत्म कर दिया गया।समूचे कच्छ और गुजरात में यह कहानी विकास और हिदुत्व के नाम दोहरायी गयी। अकारण नहीं है कि बाजार और कारपोरेट इंडिया की पसंद राष्ट्रपति पर प्रणव मुखर्जी और प्रधानमंत्री पद के लिए नरेंद्र मोदी हैं। ममता दीदी ने प्रणव का विरोध तो कर दिया, बंगाल के प्रभल मुस्लिम वोट बैंक के समर्थन के बावजूद क्या वे उग्रतम हिंदू राष्ट्रवाद और नरेंद्र मोदी का विरोध कर पायेंगी?

जम्मू कश्मीर

*भूमि अधिग्रहण के लिए जम्मू कश्मीर भूमि अधिग्रहण अधिनियम 1990 लागू है। इस कानून के तहत सार्वजनिक कार्यों, मौलिक अवसंरचना जुटाने और विकास योजनाओं के लिए सरकार किसी भी जमीन को अधिग्रहीत कर सकती है.
* अधिग्रहित जमीन का संबधित भूमालिकों को बाजार भाव के मुताबिक ही  नकद मुआवजा उस तिथि के अनुरूप दिया जाता है,जब उसका अधिग्रहण किया गया हो। रेलवे के लिए अधिग्रहीत जमीन में नकद मुआवजे के अलावा ऐसे प्रत्येक परिवार के एक सदस्य को नौकरी का प्रावधान भी है, जिसकी कुल जमीन का 70 प्रतिशत अधिग्रहित किया गया हो। बंजर जमीन को भी अधिग्रहित किए जाने पर सरकार उसका बाजार भाव के मुताबिक ही मुआवजा देने को बाध्य है, बेशक जमीन में कुछ न उगता हो.

बिहार
*बिहार भू-अर्जन पुन:स्थापन एवं पुनर्वास नीति 2007 के अनुसार अर्जित की जाने वाली भूमि का मूल्य निर्धारण अधिसूचना के तुरंत पहले समरूप भूमि के निबंधन मूल्य में 50 फीसदी जोड़कर तय किया जाता है.
*इस तरह निर्धारित मूल्य पर 30 फीसदी सोलेशियम देकर भू-अर्जन किया जायेगा। लेकिन जहां भू-धारी स्वेच्छा से भूमि देना चाहेंगे, उस स्थिति में सोलेशियम की दर 60 प्रतिशत होगी।
*भू-अर्जन की प्रक्रिया के अन्तर्गत यदि किसी भू-धारी का आवास या आवासीय भूमि अधिग्रहित की जाती है तो आवासीय भूमि का जितना रकबा है, उतनी ही भूमि (अधिकतम 5 डिसमिल) अधिग्रहीत कर उस व्यक्ति को दी जायेगी। इसके साथ ही अस्थायी आवास के लिए दस हजार रुपये, आवासीय सामग्री के परिवहन के लिए पांच हजार रुपये दिये जाने का प्रावधान है.
*यदि कोई कृषक मजदूर जिस कृषि योग्य भूमि पर तीन वर्षों से कार्य करता है और उस भूमि के अधिग्रहण से वह बेरोजगार हो गया है, तो उस व्यक्ति को 200 दिनों का निर्धारित न्यूनतम मजदूरी का एकमुश्त भुगतान व रोजगार गारंटी योजना के तहत जॉब कार्ड मिलेगा.
*औद्योगिक गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिए बिहार कृषि भूमि (गैर कृषि प्रयोजनों के लिए सम्परिवर्तन) नियमावली 2011 में कृषि योग्य भूमि का स्वरूप बदले का प्रावधान किया गया है.

उत्तर प्रदेश

* भूमि अधिग्रहण कानून 1894 के तहत जमीन का अधिग्रहण.
* निजी क्षेत्र करार नियमावली के तहत समझौते के आधार पर जमीन लेंगे.
* निजी कंपनी और किसानों को आमने-सामने बैठकर बात करनी होगी .
* किसानों को प्रतिकर के अलावा 33 साल तक प्रतिवर्ष 20 हजार रुपए प्रति एकड़ की दर से वार्षिकी मिलेगी.
* हर वर्ष मिलने वाली धनराशि में 600 रुपए प्रति एकड़ की दर से बढ़ोत्तरी.
* वार्षिकी न लेने वाले किसानों को दो लाख 40 हजार रुपए प्रति एकड़ की दर से पुनर्वास अनुदान का विकल्प.
* कंपनी के लिए भूमि अधिग्रहण होने पर प्रभावित किसान को जमीन के मूल्य की 25 प्रतिशत धनराशि के बराबर शेयर प्राप्त करने का विकल्प.
* आवास के लिए आवंटित भूखंड न्यूनतम क्षेत्रफल 120 वर्गमीटर होगा जबकि अधिकतम एरिया प्राधिकरण निर्धारित करेगा.
* अधिग्रहीत भूमि पर बनने वाली आवासीय परियोजनाओं में किसानों को भूखंड़ों के आवंटन में 17.5 प्रतिशत आरक्षण.

उत्तराखंड

*केंद्र सरकार के भूमि अधिग्र्रहण कानून 1894 को ही राज्य में लागू किया गया है।
*प्रोजेक्ट आधारित विस्थापन के लिए भारत सरकार की पुनर्वास नीति लागू
सरकार को भूमि अधिग्रहण और पुनर्वास विधेयक, 2011 के मसौदे के प्रावधानों में बदलाव करना चाहिए, ताकि उद्योग जगत के लिए भूमि हासिल करना आसान हो। यह बात फेडरेशन ऑफ चैम्बर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री (फिक्की) ने कही। फिक्की ने कहा कि उद्योग जगत को भूमि हासिल करने में काफी कठिनाई होती है और विधेयक का मसौदा इस प्रक्रिया को और दुरूह बनाता है, क्योंकि यह भूसम्पत्तियों के लिए भूमि बेचना कठिन बनाता है।
फिक्की ने कहा, कानून को यह समझना चाहिए कि बड़ी संख्या में लोग कृषि का पेशा छोड़कर अपनी कृषि भूमि बेचना चाहते हैं। वर्तमान विधेयक इस तथ्य की अनदेखी करता है। विधेयक पिछले साल सितम्बर माह में संसद में पेश किया गया।
फिक्की ने यह भी सलाह दी है कि कम्पनियों को सीधे भूमि के मालिक से बाजार मूल्य चुकाकर भूमि खरीदने की सुविधा मिलनी चाहिए। विधेयक के मसौदे में मुआवजा और पुनर्वास के प्रावधान पर फिक्की का मानना है कि इन प्रावधानों से उद्योग जगत पर काफी अधिक बोझ बढ़ जाएगा।
फिक्की ने सलाह दी है कि विधेयक के मसौदे में मुआवजा और पुनर्वास की ऊपरी सीमा तय की जानी चाहिए और इसे भूमि अधिग्रहण मूल्य के अधिकतम 30 से 40 फीसदी में सीमित रखा जाना चाहिए। फिक्की ने यह भी सलाह दी है कि भूमि अधिग्रहण कानून 1894 के तहत आवेदन की गई भूमि को नए कानून के तहत नहीं देखा जाना चाहिए।
कृषि भूमि सीमित है। अंधाधुंध शहरीकरण उपजाऊ भूमि निगल रहा है। औद्योगिक विकास की अनंत क्षुधा भी कृषि भूमि खा रही है। आबादी बढ़ रही है, अन्न की जरूरतें बढ़ रही हैं, लेकिन कृषि भूमि घट रही है। सरकारें औद्योगिक घरानों पर मेहरबान हैं। पश्चिम बंगाल के सिंगुर और नंदीग्राम भूमि अधिग्रहण से जुड़े ताजा किसान संघर्ष हैं। स्पेशल इकोनामिक जोन के नाम पर लाखों एकड़ जमीन का अधिग्रहण हुआ है। उत्तर प्रदेश के अलीगढ़, आगरा और मथुरा क्षेत्रों के किसानों का संघर्ष सुर्खियों में है। पुलिस की गोली-लाठी से पिछले हफ्ते ही कई जानें गई हैं, तमाम घायल भी हुए हैं। इस मुद्दे पर संसद ठप रही, राज्य सरकार कठघरे में है। सरकार ने यमुना एक्सप्रेस हाईवे के नाम पर हजारों एकड़ जमीन एक औद्योगिक समूह के लिए अधिग्रहीत की है। किसान नोएडा की भूमि दर पर मुआवजा माग रहे हैं। सभी दल आंदोलन में कूदे हैं। राजनाथ सिंह, राहुल गाधी और अजित सिंह किसानों से मिल चुके हैं।
अंग्रेजीराज का जन्म कंपनीराज से हुआ था। अंग्रेजीराज ने भूमि अधिग्रहण कानून 1894 में जनहित के साथ कंपनी हित में भी भूमि अधिग्रहण के अधिकार लिए थे, लेकिन यह कानून भी किसी राज्य सरकार को कंपनियों/व्यावसायिक हितों में भूमि अधिग्रहण के लिए मजबूर नहीं करता। सरकारें अपने हित में कंपनी हित को जनहित बनाती हैं। उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल के मामले आईने की तरह साफ हैं। 2007 में प्रस्तावित भूमि अधिग्रहण संशोधन अधिनियम में 'कंपनी' शब्द को पूरे तौर पर हटाने का प्रावधान था। बेशक इसमें भी निजी क्षेत्र के लिए मुनाफे का एक सूराख बनाया गया था। निजी क्षेत्र, कंपनी, फर्म को अपनी योजना के लिए सीधे किसानों से रेट तय करके 70 फीसदी जमीन स्वयं लेनी थी। इसके बाद बाकी 30 फीसदी जमीन सरकार द्वारा अधिग्रहीत करके कंपनी को देने का प्रावधान था। यहा सवाल यह है कि सरकार बाकी 30 प्रतिशत जमीन भी जबर्दस्ती क्यों छीने? लेकिन संप्रग सरकार के 2007 के विधेयक में भी व्यावसायिक हित संव‌र्द्धन की ही पैरवी है। प्रस्तावित विधेयक में भूमि के मालिक और अधिग्रहण से प्रभावित जनजाति आदि वर्र्गो को मुआवजे का अधिकारी माना गया है। अच्छा होता कि प्रस्तावित उद्योग, प्रतिष्ठान आदि के कारण भविष्य की कठिनाइयों के मद्देनजर योजना को निरस्त करने की भी व्यवस्था होती। कृषि राष्ट्र की आजीविका है। ऋग्वेद के ऋषि एक फटेहाल जुआरी से कहते हैं कि व्यसन छोड़ो कृषि करो। किसान कृषिधर्म का नियंता है। वही शोषित है, पीड़ित है और कीटनाशक खाने को बाध्य है। पूंजीपतियों के लिए उसी की जमीन छीनी जाती है। आखिरकार कृषि हित में पूंजीपतियों के प्रासाद क्यों नहीं अधिग्रहीत होते? खेती का अधिग्रहण होता है, लेकिन सेना, अस्पताल या स्कूल के लिए सीमेंट, इस्पात, पत्थर और यथानिर्मित भवनों का अधिग्रहण कभी नहीं होता। प्रथमवरीय चुनाव कार्य के लिए भी ग्रामवासियों के ही वाहन कप्तान कलेक्टर छीनते हैं, किसी उद्योगपति का हेलीकाप्टर बाढ़ जैसी आपदा में भी अल्पकाल के लिए भी अधिग्रहीत नहीं होता।
केंद्र मुक्त अर्थव्यवस्था का हिमायती है। स्वतंत्र प्रतियोगिता मुक्त अर्थव्यवस्था का आधार है। सभी औद्योगिक उत्पादों कार, टीवी, फ्रिज, सेलफोन आदि की कीमतें कंपनिया तय करती हैं। किसान अपने गाढ़े श्रम से तैयार गेहूं, धान का भाव भी स्वयं नहीं तय करता। उसकी कृषि भूमि भी सरकारें छीन लेती हैं, लेकिन कीमत प्रशासन तय करता है। किसानों की लड़ाई में दम है, लड़ाई अन्याय के खिलाफ है।
राजनीतिक दल 'अंधाधुंध भूमि अधिग्रहण' को सिर्फ किसान समस्या मानते हैं। वे कृषि योग्य भूमि के घटते जाने को राष्ट्रीय समस्या नहीं मानते। बुनियादी सवाल किसानों का मुआवजा ही नहीं है, असली सवाल 'कृषि भूमि संरक्षण' का है। नगर महानगर हो रहे है, महानगर मेट्रो हो रहे हैं, वे कृषि भूमि ही निगल रहे हैं। अब जब पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान भिड़ कर बलिदान हो गए हैं तो अधिग्रहण कानून पर सतही बहस चली है। 11वीं पंचवर्षीय योजना (2007-12) के मसौदे में कृषि विकास दर को 2 से 4 प्रतिशत करने का लक्ष्य है। योजना का आधे से ज्यादा समय बीत गया, कृषि विकास दर कदमताल ही कर रही है। समुन्नत कृषि ही खाद्यान्न आत्मनिर्भरता की गारंटी है। एक इसी तत्व में ही खाद्यान्न सुरक्षा की गारंटी थी, लेकिन राजनीति मुनाफाखोर निकली।
सार्वजनिक उद्देश्य के लिए भूमि अधिग्रहण और मुआवजे के कानूनी पहलुओं पर गौर करें तो पायेंगे कि राज्य द्वारा निजी भूमि का अधिग्रहण किए जाने एव उस पर दिए जाने वाले मुआवजे को लेकर पिछले कुछ वर्षो में किसानों द्वारा कई आदोलन किए गए हैं। अभी भत्र-पारसौल पर पूरे देश की नजर है, जहां इसी मुद्दे पर वहां के निवासी आदोलित हैं। समस्या नई नहीं है और इस कारण ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में इसे समझने की जरूरत है। सरकार विकास के लिए निजी जमीन का अधिग्रहण करती रही है। दरअसल, सर्वोच्च कार्यक्षेत्र की शक्ति सप्रभुता का अटूट हिस्सा है। इसका तात्पर्य है कि सार्वजनिक उद्देश्यों के लिए राज्य को निजी संपत्ति के अधिग्रहण का कानूनी अधिकार है। ये शब्द पहली बार ह्यूगो ग्रोटियस ने 1925 में इस्तेमाल किए थे, किंतु उसके भी पहले 1883 में अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने यूनाइटेड स्टेट्स वनाम जोंस में निर्णय दिया कि चूंकि यह सप्रभुता का अभिन्न अंग है, इसलिए सरकार को इस शक्ति को अलग से देने की जरूरत नहीं है। भारतीय उच्चतम न्यायालय ने भी कामेश्वर सिह वनाम बिहार में कहा कि हालांकि इस शक्ति की मान्यता है, लेकिन संवैधानिक प्रावधान वे सीमा निर्धारित करते हैं जिनके अंदर उसका इस्तेमाल होना है। कूले ने अपनी पुस्तक कास्टीट्यूशनल लिमिटेशंस में लिखा है कि अमेरिका में तीन सीमाएं हैं। एक, संपत्ति के अधिग्रहण के लिए कोई वैध कानून होना चाहिए। दो, अधिग्रहण सार्वजनिक इस्तेमाल के लिए होना चाहिए तथा तीन, उचित मुआवजा दिया जाना चाहिए।
भारतीय सविधान के अनुच्छेद 31 के अंतर्गत संपत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकार बनाया गया था। इसमें स्पष्ट कहा गया कि किसी व्यक्ति को उसकी संपत्ति से बिना कानूनी प्रावधान के बेदखल नहीं किया जाएगा, यह केवल सार्वजनिक उद्देश्य के लिए होगा और इसके लिए मुआवजा दिया जाएगा। मुआवजे के मुद्दे पर अनुच्छेद 31 को 6 बार सशोधित किया गया तथा अंतिम बार 44वें सविधान सशोधन में संपत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकार से हटाकर कानूनी अधिकार बना दिया गया। इस प्रकार, अनुच्छेद 31 समाप्त कर दिया गया और उसकी जगह अनुच्छेद 300-ए जोड़ दिया गया। जब उच्चतम न्यायालय ने बेला बनर्जी वनाम पश्चिम बगाल मामले में निर्णय दिया कि 'मुआवजे' का अर्थ है अधिग्रहीत संपत्ति की सही कीमत तो ससद ने चौथे सविधान सशोधन अधिनियम, 1954 के द्वारा प्रावधान कर दिया कि किसी कानून को इस आधार पर किसी अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकेगी कि मुआवजा पर्याप्त नहीं है। इस तरह उच्चतम न्यायालय के निर्णय को निष्प्रभावी कर दिया गया। चौथे सशोधन ने सपत्ति के अधिग्रहण करने के राज्य के अधिकार को स्पष्ट रूप से दोहराया। साथ ही अनुच्छेद 31 ए की परिधि को बढ़ाकर आवश्यक जनकल्याण के कानून भी उसके अंदर समेट लिए गए। 17वें सविधान सशोधन ने सपत्ति के मौलिक अधिकार में और कटौती कर दी। हम पाते हैं कि अधिकतर मामलों में अदालत एव ससद के बीच टकराव संपत्ति के अधिकार के इर्द-गिर्द घूमता रहा। जब अदालत ने 'मुआवजा' की व्याख्या पर जोर दिया तो ससद ने 25वें सविधान सशोधन, 1971 के जरिए उसकी जगह 'राशि' शब्द कर दिया। नेहरू के कार्यकाल में 17 सशोधन किए गए और उनमें सर्वाधिक विवादास्पद वे थे जिनमें संपत्ति के अधिकार के सदर्भ में न्यायिक समीक्षा के दायरे को काफी कम कर दिया गया। स्वाभाविक है कि धनाढ्य वर्ग इससे चितित हुआ। मुद्दा यह था कि क्या ससद अपने सशोधन के अधिकार का प्रयोग कर सविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकार को छीन सकती है। अनुच्छेद 13 (2) के अनुसार राज्य वैसा कोई कानून नहीं बनाएगा जो मौलिक अधिकारों में कटौती करता है। सविधान सशोधन को कानून की श्रेणी में नहीं रखा गया है। 1967 में एक ऐतिहासिक फैसले में उच्चतम न्यायालय ने व्यवस्था दी कि अनुच्छेद 368 के तहत किया जाने वाला संविधान सशोधन अनुच्छेद 13 (2) के अंतर्गत कानून की श्रेणी में आता है। इसलिए ससद मौलिक अधिकरों में कोई कटौती नहीं कर सकती है। इस निर्णय से पहले किए गए सविधान सशोधन भी निरस्त हो जाते, परंतु मुख्य न्यायाधीश सुब्बा राव ने यह व्यवस्था दी कि यह निर्णय भविष्य में किए जाने वाले सशोधनों पर लागू होगा।
माफ कीजियेगा, यह सवाल ब्राह्मणवाद, हिंदुत्व या राजनीति से जुड़ा नहीं है, यह विशुद्ध रुप से जल जंगल जमीन और सिंगुर के किसानों की नियति से जुड़ा सवाल है जो विदर्भ और अन्यत्र, बंगाल में बी व्यापक पैमाने पर आत्महत्या करने को मजबूर किसानों के लिए बेहद प्रासंगिक है।दीदी से संवाद का कोई उपाय नहीं है। अगर उनका कोई सिपाहसालार ये पंक्तियां पढ़ रहा हो और उन्हें ये सवाल और मुद्दे वाजिब लगे, तो दीदी के फेसबुक वालों पर इन यक्षप्रश्नों के जवाब का इंतजार रहेगा।
मालूम हो कि भूमि अधिग्रहण को सरकार की एक ऐसी गतिविधि के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसके द्वारा यह भूमि के स्वा मियों से भूमि का अधिग्रहण करती है, ताकि किसी सार्वजनिक प्रयोजन या किसी कंपनी के लिए इसका उपयोग किया जा सके। यह अधिग्रहण स्वापमियों को मुआवज़े के भुगतान या भूमि में रुचि रखने वाले व्य।क्तियों के भुगतान के अधीन होता है। आम तौर पर सरकार द्वारा भूमि का अधिग्रहण अनिवार्य प्रकार का नहीं होता है, ना ही भूमि के बंटवारे के अनिच्छुणक स्वा मी पर ध्याअन दिए बिना ऐसा किया जाता है।संपत्ति की मांग और अधिग्रहण समवर्ती सूची में आता है, जिसका अर्थ है केन्द्रन और राज्यी सरकारें इस मामले में कानून बना सकती हैं। ऐसे अनेक स्थाजनीय और विशिष्ट् कानून है जो अपने अधीन भूमि के अधिग्रहण प्रदान करते हैं किन्तुन भूमि के अधिग्रहण से संबंधित मुख्ये कानून भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 1894 है।
117 साल पुराने भूमि अधिग्रहण  कानून, 1894 के अनुसार  सार्वजनिक उद्देश्य के तहत किसी भी जमीन को बगैर बाजार मूल्य के मुआवजा चुकाए सरकार को अधिग्रहण  करने का अधिकार है। इसमें 'सार्वजनिक उद्देश्य' की परिभाषा   के तहत शैक्षणिक संस्थानों का निर्माण, आवासीय या ग्र्रामीण परियोजनाओं का विकास शामिल है। इसके लिए एक अधिसूचना पर्याप्त होती है.
इस कानून में दो प्रमुख बातें स्पष्ट नहीं की गई है। एक तो अधिग्रहण  की जाने वाली जमीन की वाजिब कीमत क्या होनी चाहिए? दूसरी बात क्या सार्वजनिक मकसद के तहत टाउनशिप या विशेष आर्थिक क्षेत्रों (एसईजेड) को जमीन उपलब्ध कराना जायज है? क्या निजी कारखानों के लिए जमीन ली जा सकती है? कई मामलों में सुप्रीमकोर्ट से भी यह बातें साफ नहीं हुईं.
प्रस्तावित विधेयक में प्रावधान
भूमि अधिग्रहण कानून, 1894 में संशोधन के लिए 2007 में एक विधेयक संसद में पेश किया था। हालांकि यह विधेयक लैप्स हो चुका है। मौजूदा भूमि अधिग्रहण  कानून की खामियों को दुरुस्त करने के लिए  फिर से इस तरह के संशोधन बिल पेश किए जाने की बात की जा रही है। 2007 के संशोधन बिल में मौजूदा कानून में कई परिवर्तनों का प्रस्ताव पेश किया गया था:
उद्देश्य : सेनाओं की रणनीतिक जरूरतों के लिए भूमि अधिग्रहण संभव, सावर्जनिक हित के किसी भी मकसद के लिए.
मुआवजा : यदि कृषि योग्य जमीन को किसी औद्योगिक प्रोजेक्ट के लिए अधिग्रहीत किया जाता है तो उसको औद्योगिक जमीन माना जाएगा और इस तरह की जमीन को निर्धारित दरों पर ही खरीदा जा सकेगा .
प्रक्रिया : कई बदलावों के प्रस्ताव में सामाजिक प्रभाव का आकलन (एसआइए) खास है। 400 से अधिक परिवारों के विस्थापन की स्थिति में अधिग्रहण के पहले एसआइए होगा.
उपयोग : अधिग्रहीत की गई जमीन का इस्तेमाल पांच वर्षों के भीतर करना होगा। अन्यथा जमीन सरकार के पास चली जाएगी। इसके अलावा यदि किसी अधिग्रहीत जमीन को किसी अन्य पार्टी को हस्तांतरित किया जाता है तो उसमें होने वाले कुल लाभ के 80 प्रतिशत हिस्से में से भूमि के वास्तविक मालिक और उसके कानूनी वारिसों को भी हिस्सा देना होगा.
यह अधिनियम सरकार को सार्वजनिक प्रयोजनों के लिए भूमि के अधिग्रहण का प्राधिकरण प्रदान करता है जैसे कि योजनाबद्ध विकास, शहर या ग्रामीण योजना के लिए प्रावधान, गरीबों या भूमि हीनों के लिए आवासीय प्रयोजन हेतु प्रावधान या किसी शिक्षा, आवास या स्वायस्य्मि  योजना के लिए सरकार को भूमि की आवश्यिकता। इससे उपयुक्तर मूल्यर पर भूमि के अधिग्रहण में रूकावट आती है, जिससे लागत में विपरीत प्रभाव पड़ता है।
इसे सार्वजनिक प्रयोजनों के लिए शहरी भूमि के पर्याप्तव भण्डाधर के निर्माण हेतु लागू किया गया था, जैसे कि कम आय वाले आवास, सड़कों को चौड़ा बनाना, उद्यानों तथा अन्या सुविधाओं का विकास। इस भूमि को प्रारूपिक तौर पर सरकार द्वारा बाजार मूल्या के अनुसार भूमि के स्वालमियों को मुआवज़े के भुगतान के माध्येम से अधिग्रहण किया जाता है।
इस अधिनियम का उद्देश्य  सार्वजनिक प्रयोजनों तथा उन कंपनियों के लिए भूमि के अधिग्रहण से संबंधित कानूनों को संशोधित करना है साथ ही उस मुआवज़े का निर्धारण करना भी है, जो भूमि अधिग्रहण के मामलों में करने की आवश्युकता होती है। इसे लागू करने से बताया जाता है कि अभिव्यनक्तह भूमि में वे लाभ शामिल हैं जो भूमि से उत्पसन्नस होते हैं और वे वस्तुकएं जो मिट्टी के साथ जुड़ी हुई हैं या भूमि पर मजबूती से स्थासयी रूप से जुड़ी हुई हैं।
इसके अलावा यदि लिए गए मुआवज़े को किसी विरोध के तहत दिया गया है, बजाए इसके कि इसे प्राप्तद करने वाले को इसके प्रभावी होने के अनुसार पाने की पात्रता है, तो मामले को मुआवज़े की अपेक्षित राशि के निर्धारण हेतु न्याायालय में भेजा जाता है।
ग्रामीण विकास मंत्रालय भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 1894 को प्रशासित करने वाली नोडल संघ सरकार होने के नाते समय समय पर कथित अधिनियम के विभिन्नस प्रावधानों के संशोधन हेतु प्रस्तागवों का प्रसंसाधन करता है।
पुन: इस अधिनियम में सार्वजनिक प्रस्तािवों को भी विनिर्दिष्टे किया जाता है जो राज्यू की ओर से भूमि के इस अधिग्रहण के लिए प्राधिकृत हैं। इसमें कलेक्टथर, उपायुक्तभ तथा अन्यइ कोई अधिकारी शामिल हैं, जिन्हें4 कानून के प्राधिकार के तहत उपयुक्तय सरकार द्वारा विशेष रूप से नियुक्तण किया जाता है। कलेक्टंर द्वारा घोषणा तैयार की जाती है और इसकी प्रतियां प्रशासनिक विभागों तथा अन्यह सभी संबंधित पक्षकारों को भेजी जाती है। तब इस घोषणा की आवश्याकता इसी रूप में जारी अधिसूचना के मामले में प्रकाशित की जाती है। कलेक्टभर द्वारा अधिनिर्णय जारी किए जाते हैं, जिसमें कोई आपत्ति दर्ज कराने के लिए कम से कम 15 दिन का समय दिया जाता है।
सभी राज्यि विधायी प्रस्ताीवों में संपत्ति के अधिग्रहण या मांग के विषय पर कोई अधिनियम या अन्यव कोई राज्यि विधान, जिसका प्रभाव भूमि के अधिग्रहण और मांग पर है, में शामिल हैं, इनकी जांच राष्ट्रकपति की स्वीककृति पाने के प्रयोजन हेतु धारा 200 (विधयेक के मामले में) या संविधान की धारा 213 (1) के प्रावधान के तहत भूमि संसाधन विभाग द्वारा की जाती है। इस प्रभाग द्वारा समवर्ती होने के प्रयोजन हेतु भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 1894 में संशोधन के लिए राज्या सरकारों के सभी प्रस्तानवों की जांच भी की जाती है, जैसा कि संविधान की धारा 254 की उपधारा (2) के अधीन आवश्यरक है।
SPECIAL MENTION: Need To Make A New Law For Land Acquisition In The … on 29 December, 2011
Title: Need to make a new law for land acquisition in the country.
श्री हंसराज गं. अहीर (चन्द्रपुर):  माननीय अध्यक्ष महोदया, मैं आपके माध्यम से भूमि अधिग्रहण के मामले को सदन में उठाना चाहता हूं। मेरे निर्वाचन क्षेत्र चन्द्रपुर जिले में कोयले की खानों और पावर प्लांट्स के लिए बड़े पैमाने पर भूमि अधिग्रहण होता रहा है और होने जा रहा है। भूमि अधिग्रहण कानून 1894 का है, जो कि बहुत पुराना है। उस पर कई बार सदन में चर्चा हो चुकी है और सरकार द्वारा बार-बार कहा जाता है कि हम कानून बनाने जा रहे हैं जो किसानों कि हित में होगा, विस्थापित किसानों को न्याय देने वाला होगा। लेकिन बरसों से मांग चली आ रही है कि कानून बदला जाए और ग्रामीण विकास मंत्री जी इस बारे में घोषणा भी कर चुके हैं। मैं यह उम्मीद करता हूं कि सरकार इस बिल को जल्द से जल्द लेकर आएगी और भूमि अधिग्रहण कानून विस्थापितों के हित में होगा। सरकार को इस बारे में पहल करनी चाहिए।
मैं अपने संसदीय क्षेत्र चन्द्रपुर की बात करना चाहता हूं। हमारे यहां कोयले की खानों और पावर प्लांट्स के लिए भूमि अधिग्रहण हो रहा है। जिलाधिकारी द्वारा भूमि अधिग्रहित की जाती है तो प्रति एकड़ 20,000 रुपए से 40,000 तक का ही मुआवजा दिया जाता है। यह अतिशय बहुत कम मूल्य किसानों को दिया जा रहा है। जो किसान विस्थापित हो रहे हैं, उनमें इस बात को लेकर भारी रोष और गुस्सा है। वे कई बार आंदोलन कर चुके हैं और हमने भी आंदोलन किया है। इस तरह से किसानों की जो लूट हो रही है, उनकी भूमि का कम मूल्यांकन किया जा रहा है। मैं चाहता हूं कि सरकार ने जो घोषणा की है कि वह भूमि अधिग्रहण के सम्बन्ध में नया कानून बनाने जा रही है और सरकार किसानों के हित में निर्णय लेगी।  तो सरकार ऐसा आदेश निकाले कि जब तक नया कानून नहीं बनेगा, तब तक पुराने कानून के अंतर्गत जो 1894 का एलए एक्ट है या 1957 का कोल-बीअरिंग एक्ट है, इन दोनों के अंतर्गत भी भूमि अधिग्रहण पर रोक लगे और नया कानून बनने तक सरकार किसानों को न्याय देने के लिए इस कानून को जल्दी से जल्दी बनाए। यह विनती मैं आपको माध्यम से करता हूं। धन्यवाद।

पलाश विश्वास। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं । आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के पॉपुलर ब्लॉगर हैं। "अमेरिका से सावधान "उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना ।

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