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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Saturday, July 21, 2012

बांधों की चकाचौंध और दुराग्रहों का दौर

बांधों की चकाचौंध और दुराग्रहों का दौर


Saturday, 21 July 2012 11:55

शेखर पाठक 
जनसत्ता 21 जुलाई, 2012: विकास के बारे में अलग-अलग दृष्टिकोण हो सकते हैं और हर एक को अपनी बात कहने का जनतांत्रिक अधिकार है। इसलिए जीडी अग्रवाल, राजेंद्र सिंह और उनके साथियों, भरत झुनझुनवाला और श्रीमती झुनझुनवाला के साथ पिछले दिनों जो बदसलूकी हुई, वह सर्वथा निंदनीय है। यह हमला कुछ लोगों ने नियोजित तरीके से किया था। 
राजनीतिक पार्टियों का नजरिया बहुत सारे मामलों में एक जैसा हो गया है, पर विभिन्न समुदायों ने अभी अपनी तरह से सोचना नहीं छोड़ा है। नदियों के पानी के इस्तेमाल की बाबत भी एकाधिक दृष्टिकोण हो सकते हैं। ये सभी संतुलित, जनोन्मुख और पर्यावरण-अनुकूल हों यह जरूरी नहीं। लिहाजा, समाज और सरकार के पास सर्वहितकारी दृष्टिकोण को समझने और स्वीकार करने का विकल्प रहता है। जनतंत्र में न मनमाना निर्णय ले सकते हैं न समाज पर उसे थोप सकते हैं। शायद आगे बढ़ने का यही रास्ता सही है।
उत्तराखंड में कृषि-योग्य भूमि बहुत कम है। खेती की जमीन और कुछ संजायती संसाधनों (पनघट, गोचर, वन पंचायत क्षेत्र आदि) को छोड़ कर जंगल, जल और जमीन का बड़ा हिस्सा राज्य यानी सरकार के पास है। यों यह औपनिवेशिक व्यवस्था आजाद भारत में शुरू से प्रचलित रही है। सरकारें प्राकृतिक संसाधनों को ग्राम समाज को सौंपने के बदले उन्हें बेचने या उन पर स्थानीय समुदायों के अधिकार समेटने पर उतारू हैं। उत्तराखंड में तो अभी 'अनुसूचित जनजाति और परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) विधेयक 2006' तक लागू नहीं हो सका है। इस तरह जंगल, जल और जमीन पर तरह-तरह के दबाव हैं। निजीकरण और कॉरपोरेटीकरण के दौर में जनता का कोई रक्षक नहीं रह गया है। जिन प्रतिनिधियों को जनता इन प्रकृति प्रदत्त संसाधनों की हिफाजत के लिए चुनती है, वे इनको बेचने में दिलचस्पी लेने लगे हैं।
इधर के सालों में नदियां सबसे ज्यादा मनुष्य की ज्यादतियों का शिकार हुई हैं। नहरों के निर्माण ने मैदानों में जो कहर नदियों पर ढाया वह सिंचाई-जनित संपन्नता से छिप गया, पर कोई भी व्यक्ति पनबिजली परियोजनाओं से पहाड़ों में हो रही और मैदानों में होने वाली पर्यावरणीय और सामाजिक क्षति को देख  सकता है। इसी तरह पानी और बिजली के रूप में मिलने वाला लाभ भी नहीं छिप सकता है। उसका आकर्षण समाज और सरकार, दोनों को रहता है। 
हिमालय के स्वभाव में भूस्खलन, बाढ़ और भूकम्प अंतर्निहित हैं और समय-समय पर प्रकट भी होते हैं। जल विद्युत परियोजनाओं ने इन खतरों को काफी बढ़ा दिया है। उत्तराखंडवासी सोचते थे कि टिहरी बांध के निर्माण, 1991 और 1998 के भूकम्पों के बाद शायद इन दुस्वप्नों का अंत हो जाएगा। लेकिन नया राज्य और तमाम निहित स्वार्थ उत्तराखंड के विकास का आधार सिर्फ जल विद्युत योजनाओं में देख रहे हैं। यह बहुत-से आधारों में एक जरूर हो सकता है।
सौ साल से अधिक समय से हिमालय में पनबिजली बन रही है। पनचक्की की कहानी तो हजार साल से अधिक पुरानी है। इससे पहले पारंपरिक सिंचाई (गूल) व्यवस्था ने पहाड़ों में खेती के एक छोटे हिस्से को सिंचित कर दिया था। छोटी योजनाएं आपत्ति के दायरे में कभी नहीं आर्इं। क्योंकि उनमें खतरे कम थे, विस्थापन नहीं था और विशाल पूंजी पर निर्भरता नहीं थी। हिमालय में नए नगर के तौर पर छावनियां बस रही थीं, पहला आधुनिकीकरण हो रहा था।
पर्वतवासियों की जमीन, जंगल और जैव विविधता या सांस्कृतिक संपदा कम नष्ट हो रही थी। लाभ ज्यादा लगते थे। फिर, आज जितनी सामाजिक चेतना नहीं थी। विदेशी राज था। दार्जिलिंग, शिमला और नैनीताल के बिजलीघर बहुत कम पानी से चलते थे और वे इन पर्वतीय नगरों की छोटी जनसंख्या की जरूरतों को पूरा करते थे। 
आजादी के बाद सतलुज नदी पर भाखड़ा-नंगल परियोजना बनी, जिसमें विस्थापितों को बसाने का लक्ष्य पूरा किया गया, जो कि पौंग बांध में पूरा नहीं हो सका। उसके बाद काली (शारदा) और टौन्स/यमुना में बनी परियोजनाओं में विस्थापन और अन्य खतरे नहीं के बराबर थे। भाबर-तराई में जो बैराज-बांध बने या उनसे पहले जो अपर गंगा नहर बनी, वे भी इसी तरह के प्रयोग थे। सिंचाई की यह प्रक्रिया कम से कम सल्तनत काल से शुरू हो गई थी। 
फिर उत्तराखंड में मनेरी-भाली जैसी मध्यम आकार की परियोजना आई। इसके लिए बैराज बना, सुरंग बनी और उत्तरकाशी की बेहतरीन खेती की सिंचित जमीन को जबरन लिया गया। ग्रामीणों ने जबर्दस्त प्रतिकार किया, पर सरकार ने नहीं माना। इस परियोजना की सीमा का भान 1978 की भागीरथी की बाढ़ और 1991 के भूकम्प में हो सका। पर सीखना तो जैसे हमें आता ही नहीं था। इसके बाद ही मनेरी भाली का दूसरा चरण बना और मनेरी से ऊपर भी भैरोघाटी, लोहारीनाग-पाला और पाला-मनेरी परियोजनाएं बनने लगीं। उत्तरकाशी से भाली तक भागीरथी फिर सुरंग में डाल दी गई। इससे कुछ आगे तो अब टिहरी बांध की विशाल झील शुरू हो जाती है।
टिहरी बांध के बाद सिंधु, सतलुज, भागीरथी, अलकनंदा से लेकर तीस्ता, सुवर्णसिरी तक हिमालय की हर नदी गिरफ्त में आ गई। इसके विरोध में जन आंदोलनों का सिलसिला भी शुरू हो गया। चिपको आंदोलन के वैज्ञानिक तर्कों के आधार पर विष्णु प्रयाग परियोजना को बंद किया गया। टिहरी बांध तो सतत विरोध- वीरेंद्र दत्त सकलानी के न्यायिक युद्ध, सुंदरलाल बहुगुणा की भूख हड़ताल और कुछेक वैज्ञानिकों की असहमति- के बाद भी बना ही डाला   गया। ऊपर से इस परियोजना के कथित लाभों के बारे में झूठा प्रचार किया गया। 
पहले कहा गया कि टिहरी परियोजना चौबीस सौ मेगावाट बिजली बनाएगी और दिल्ली को पानी देगी। अंतत: 2005 में यह एक हजार मेगावाट क्षमता की ही बनी। यही नहीं, इसमें बिजली तीन सौ से साढ़े तीन सौ मेगावाट के बीच ही बन रही है। भागीरथी, भिलंगना, मंदाकिनी, पिंडर, विष्णु गंगा, धौली (पश्चिमी), सरयू, गोरी, धौली (पूर्वी) में से कोई भी नदी परियोजनाओं की गिरफ्त से नहीं बची है। एक सूचना के अनुसार, उत्तराखंड में तीन सौ से अधिक जलविद्युत परियोजनाओं पर कार्य करने की बात सोची जा रही है।

विष्णु प्रयाग के बाद मंदाकिनी, धौली और ऋषि गंगा तक परियोजनाएं चली गर्इं। रैणी के जिस जंगल को गौरा देवी और उनकी बहिनों-बेटियों ने 1974 में कटने से बचाया था, आज उसके नीचे की पूरी घाटी खुदी-खरौंची पड़ी है। कई किलोमीटर तक नदियां सुरंगों में डाल दी गई हैं। वैज्ञानिक कहते हैं कि इससे नदी का स्वभाव बदला है और नदी की खुली गत्यात्मकता रुक गई है। 
इन योजनाओं का सिलसिला एक अखिल हिमालयी संकट की तरह सामने खड़ा हो रहा है। पूर्वोत्तर भारत के आठ प्रांतों में 157 जलविद्युत परियोजनाओं की तैयारी हो रही है। इनमें राज्य सरकारों की तीस, केंद्र सरकार की तेरह परियोजनाएं हैं, जबकि निजी क्षेत्र की एक सौ चौदह। इससे मुनाफे और राजनीति से निजी कंपनियों के संबंधों का अनुमान लगाया जा सकता है। पूर्वोत्तर में भी बांधों के विरोध में आंदोलन हो रहे हैं। सिक्किम में तो वहां के मुख्यमंत्री ने तीस्ता नदी के कुछ बांध रोक दिए हैं। काली नदी पर पंचेश्वर बांध नेपाल में राजनीतिक अस्थिरता के कारण रुका पड़ा है। 
किसी भी परियोजना पर स्थानीय जनता की कभी राय नहीं ली गई। उत्तराखंड में गोरी, सरयू, पिंडर, धौली, मंदाकिनी और भिलंगना घाटियों में इन योजनाओं का जनता द्वारा विरोध किया जाता रहा। इस विरोध को मामूली और खंडित नहीं कहा जा सकता। दमन और गिरफ्तारियों का सिलसिला चला। जांच कमेटियां भी बैठीं। कभी-कभी अदालतें भी जनता और प्रकृति के पक्ष में आर्इं। पर हिमालय की नदियों के इस्तेमाल की बाबत कोई स्पष्ट नीति नहीं विकसित हो सकी। 
पिछले लगभग दो साल से जीडी अग्रवाल आदि और विभिन्न संतों ने गंगा की निर्मलता और अविरलता को कायम रखने की मांग की। अनशनों का क्रम चला। 1985 में स्थापित 'केंद्रीय गंगा प्राधिकरण' और 1986 से प्रारंभ 'गंगा कार्य योजना' (फरवरी 2009 में लोकसभा चुनाव के समय इसे 'राष्ट्रीय गंगा नदी घाटी प्राधिकरण' बनाया गया) के माध्यम से गंगा को बचाने का प्रयास शुरू हुआ, पर 'गंगा कार्य योजना' भ्रष्टाचार, सरकारी ढील और जनता को न जोड़ पाने के कारण पूरी तरह विफल रही।
इतने व्यय और बरबादी के बाद भागीरथी घाटी की कुछ परियोजनाएं- भैंरोघाटी, लोहारीनाग-पाला और पाला-मनेरी- समेट ली गर्इं। हाल ही में श्रीनगर परियोजना को रोके जाने का निर्णय भी आया। यह बात चर्चा में आई कि बिना पर्यावरण मंत्रालय की स्वीकृति के बांध की ऊंचाई कंपनी ने बढ़ा दी थी। 
यह समझ से परे है कि जिन परियोजनाओं का काम इतना आगे बढ़ गया था, उन्हें बंद करने की क्या तुक थी। या, वे शुरू ही क्यों की गई थीं। आगे नई परियोजनाओं को रोका जा सकता था। जैसे भिलंगना, मंदाकिनी, धौली, पिंडर, सरयू, गोरी आदि नदियों में। अब भागीरथी घाटी से अलकनंदा और इसकी सहायक और अन्य नदियों की तरफ रुख हुआ। इस बीच परियोजनाओं के मुखर और मूक समर्थक भी सामने आए। तरह-तरह के आर्थिक स्वार्थ अब तक विकसित हो चुके थे। नए राज्य ने रोजगार के अवसर तो नहीं बढ़ाए, पर रोजगार की आकांक्षा जरूर बढ़ा दी। आर्थिक और राजनीतिक स्वार्थ सर्वोपरि और निर्णायक सिद्ध हुए।
जीडी अग्रवाल, संत और शंकराचार्य और उमा भारती जैसे जाने-माने लोग गंगा और अन्य नदियों को लेकर विवेक-सम्मत दृष्टि विकसित नहीं कर सके हैं। उनमें आपसी मतभेद भी रहे हैं। गंगा के आसपास खनन के खिलाफ स्वामी निगमानंद ने हरिद्वार में अपने प्राण दे दिए, पर स्वामी रामदेव सहित कोई भी मुखर संत इससे चिंतित नजर नहीं आया। 
गंगा के मुद््दे को राजनीतिक-धार्मिक और भावनात्मक तो बनाया जा रहा है, पर तार्किक नहीं। सीमित हिंदू नजर से गंगा को देखने वालों को कैसे बताया जाए कि गंगा करोड़ों मुसलमानों और बौद्धों की मां भी है। गंगा आरती में उत्तराखंड के राज्यपाल शामिल नहीं हो सकते, क्योंकि वे मुसलिम हैं। संत और शंकराचार्य मानव अस्तित्व के मुकाबले आस्था को ऊपर रख रहे हैं। उन्हें गंगा के किनारे रहने वालों में गरीबी, बेरोजगारी या पिछड़ापन नजर नहीं आता है। 
इसी तरह का दृष्टिकोण जीडी अग्रवाल, राजेंद्र सिंह आदि ने विकसित किया है। वे जनता के बदले संतों के साथ संयुक्त मोर्चा बनाना चाहते हैं। गंगा के 'राष्ट्रीय नदी' घोषित होने भर से क्या संकट का समाधान हो जाएगा? जब तक आम लोगों के रोजगार, शिक्षा और अन्य बुनियादी जरूरतों को नहीं समझेंगे, आप उनसे और वे आपसे नहीं जुड़ सकते हैं। यह काम एक व्यापक जन आंदोलन के जरिए ही हो सकता है। 
अति उपभोग के खिलाफ भी वैज्ञानिकों, बुद्धिजीवियों, संतों और राजनीतिकों, सभी को बोलना चाहिए। अमेरिका के 'वाइल्ड ऐंड सिनिक रीवर एक्ट' की तरह कानून बने ताकि किसी नदी का बहने का प्राकृतिक अधिकार कायम रखा जा सके। बहु-राष्ट्रीय और बहु-प्रांतीय नदियों के प्रबंध और जलोपयोग पर गंभीर बहस हो और आम   राय बनाई जाए। पारिस्थितिकी और विकास के भी आयामों पर नजर डाली जाए। जैसे, क्या आज गंगा में मुर्दे बहाने और जलाने का औचित्य है? इस मुद्दे को कोई धर्माचार्य या राजनेता उठाए तो अच्छा होगा। ऐसे ही पूरी नदी-घाटी  में पॉलीथीन प्रतिबंधित होे। नाजुक हिमालयी इलाकों में जाना प्रतिबंधित या नियंत्रित होे। जलवायु परिवर्तन के विभिन्न पक्षों के साथ ग्लेशियरों का लगातार गहन अध्ययन हो ताकि कोई एकाएक आइपीसीसी की तरह घोषणा न कर सके कि 2035 तक हिमालय और तिब्बत के ग्लेशियर पिघल कर बह जाएंगे।

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