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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Monday, July 30, 2012

नरसंहारों की भूमि पर बदलाव की बयार

नरसंहारों की भूमि पर बदलाव की बयार


http://www.janjwar.com/janjwar-special/27-janjwar-special/2918-bathani-tola-narsanhar-in-ara-bihar-ajay-kumar


बेलाउर, बाथे और बथानी से लौटकर 

विनोद पासवान बाथे कांड के सूचक हैं. सबसे अधिक नौ लोग इनके ही परिवार से मारे गये थे. सरकार ने उन्हें नौकरी दे दी है और मुआवजा भी. पर उनकी सुरक्षा हटा ली गयी है. विनोद अपने बच्चों को गांव में नहीं रखते. डर है कि फिर कुछ न हो जाये. उनके घर के बाहर ही पत्थर का एक स्मारक लगा है. बाथे में मारे गये 58 लोगों के नाम हैं...

अजय कुमार

हम आरा के बाहरी हिस्से में थे. शहर का अंतिम छोर. एक दशक पहले तक दिन में भी लोगों को इधर आने की जरूरत नहीं होती थी. अब जमीन की कीमत 15 लाख रुपये कट्ठा हो गयी है. नये-नये घर बन रहे हैं. शहर का विस्तार तेजी से हो रहा है और जीरो माइल शहर के गर्भ में समा गया है. सीमाओं का विस्तार समय कर देता है. निःशब्द नहीं है समय. धारा पर सवार धार है उसके पास. उसे पीछे लौटना नहीं आता. लगातार उसे आगे निकलना है.

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पब्लिक स्कूल जीरो माइल से भी तीन-चार किलोमीटर दूर खुल गये हैं. बसें बच्चों को वहां ले जाती हैं. ऐसे नजारे पहले पटना में ही दिखते थे. रात के नौ-दस बजे तक इस इलाके में भीड़-भाड़ बनी रहती है.

हम आगे बढ़े और तेतरिया मोड़ से बायें घूम गये. मोड़ पर बैठे एक ग्रामीण ने बताया- 'जी... इहे रस्ता बेलाउर चल जाई.' हम इत्मीनान हुए. लंबे अंतराल के बाद हम बेलाउर जा रहे थे. इसके पहले रिपोर्टिंग के सिलसिले में तीन बार गया था, जब बिहार में हिंसा-प्रतिहिंसा से भोजपुर जिले का यह दक्षिणी इलाका तप रहा था.

सड़क के बायीं ओर बोर्ड लगा है. उससे बेलाउर गांव जाने में किसी अनजान को सुभिता होती है. गांव में जाने के दो रास्ते हैं. एक नंबर और दो नंबर. रोड नंबर दो से होते हुए हम रणवीर बाबा की प्रतिमा के सामने थे. शिव मंदिर के ठीक सामने यह प्रतिमा है. घोड़े पर सवार और हाथ में तलवार लिये. सामने कुएं पर गांव के ही बुजुर्ग बैठे हैं और शिव मंदिर के चबूतरे पर एक सज्जन. बाद मे पता चला कि वे टीचर हैं. दो-तीन किशोरवय की युवतियां महादेव पर फूल चढ़ाती हैं. घंटा बजता है- टन्न... टन्न... टन्न...

'का जी केकरा के खोजअतानी सभे? ' चबूतरे पर बैठे यह बूढ़े बाबा की आवाज थी. हम उनकी ओर घूमे. बताया-'बाबा हम पत्रकार हैं. पटना से आये हैं. कुछ जानने-समझने. गांव का क्या समाचार है?'

'समाचार छपल बा का ?' वे पूछते हैं. वहीं कुछ और लोग आ गये. बच्चे जुट गये. हमारी बात गौर से सुनने लगे. गांव का एक नौजवान हमारे सवाल पर कहता है - 'मुखिया जी हमारे लिए शांति दूत थे. जब हम पर हमला हो रहा था, तो उन्होंने हमें संगठित किया. '

हमला? किसका हमला? '

एक दूसरा नौजवान कहता है- 'उहे. माले के लोग. किसानों के खेत पर नाकेबंदी कर दी गयी थी. रोज-रोज हड़ताल. हमारा जीना दूभर हो गया था. हम क्या करते?'

हम टोकते हैं- 'अब क्या माहौल है?'

'अब कौनो दिक्कत न है. उनलोगों ने अपना पार्टी बाँध लिया है. हमलोगों का अपना है. अपनी मर्जी के दोनों मालिक हैं. लेकिन कुछ खुर-खार होगा तो हम भी चुप नहीं बैठेंगे. जवाब देने में एक मिनट भी देर न होगा.' - यह कहते हुए युवक तैश में आ जाता है. दूसरे लोग हंसते हैं. मतलब साफ है कि गांव की भीड़ युवक की बातों को तवज्जो नहीं देती. बेलाउर में आये इस बदलाव को साफ-साफ महसूस किया जा सकता है. छोटे लोगों को पार्टी बांधने की आजादी पहले नहीं थी. अब बड़े लोगों ने भी इसे स्वीकार कर लिया है. यह बहुत बड़ा परिवर्तन है. मजदूरी से भी बढ़कर.

बेलाउर बड़ा और समृद्ध गांव है. दस हजार के आसपास वोटर हैं. गांव का शायद ही कोई परिवार हो जो आरा में अपने बच्चों को तालीम नहीं दिला रहा हो. वहां किराये का मकान लेकर. रत्नेश सिंह कहते हैं- 'फिलहाल किसी बात को लेकर दिक्कत नहीं है. मजूर-किसान शांति चाहते हैं. गांव में एक ही बात की कमी है, यहां बिजली नहीं है. बिजली कटे जमाना हो गया.' रत्नेश की पढ़ाई-लिखाई पतरातू में हुई है. परिवार के सभी लोग बाहर ही रहते हैं. एक बहन विदेश में है. रत्नेश घर पर ही खाद का कारोबार करते हैं.

खेतों में मोबाइल के टावर खड़े हो गये हैं. दो-तीन-चार. अलग-अलग टावर कुछ दूरी पर दिख जायेंगे. लोग मोबाइल पर बात तो करते ही हैं उससे गाना भी सुनते हैं.

बेलाउर के बाद हम बथानी टोला पहुंच गये. यहीं 11 जुलाई 1996 को रणवीर सेना के हमले में 21 लोग मारे गये थे. उनमें अधिकतर बच्चे और महिलाएं थीं. घटना के समय एकाध मिट्टी के घर चंवर में बने थे. दरअसल, यह बड़का खडांव गांव का बाहरी हिस्सा हुआ करता था जहां गाय-गेरू बांधे जाते थे. इसे बोलचाल में बथान कहा जाता है. खड़ांव से जब दलित-पिछड़े बाहर आकर यहां बसने लगे तो यह बथानी टोला हो गया. नरसंहार के बाद इस टोले में जाने के लिए सोलिंग की सड़क बन गयी है. चंवर की जमीन का पट्टा उन परिवारों को मिल गया है जिनके सदस्य मारे गये थे. सोलर लाइट भी लग गयी है. पर वह कभी-कभार ही जलती है. सोलर लगाने में पैसों का खूब खेल हो रहा है. ऐसा गांव के लोग मानते हैं.

हीरालाल चौधरी हैं तो मछुआरे पर मछली मारने में फायदा नहीं है. सोन में मछली अब उतनी नहीं आती. सोंस भी नहीं आते. जब से रिहंद में बांध बन गया तब से यह हालत है. हीरा अब मजदूरी करते हैं. हम उनके दालान पर पहुंचते हैं. दरवाजे की ऊँचाई पांच फुट. अंदर पहुंचे. दो बकरियां सुस्ता रही हैं. हीरा खाट लाते हैं. कहते हैं- 'बुनी-बरसात में तनी परेसानी होईबे करेला. रउरा तनी हेन्ने खिसक जाईं पानी टपकता.' हम पूछते हैं- खेती करते हैं? 'हं, हम मजूरी करते हैं.' कितना मिलता है? 'सत्तर रोपेया.' मनरेगा में भी काम मिलता है? हीरा कहते हैं- 'मोसकिल से दस-पंद्रह दिन. सवा सौ मिलता है.'

हम इस दालान से बाहर निकलते हैं. बाहर सकुंती मोसमात खड़ी हैं. सफेद बाल. चेहरे पर झुर्रियां. उदासी के साथ बताती हैं- 'हमें कुछ नहीं मिला. बासगीत जमीन का पर्चा भी नहीं.' वह आरजू करती हैं- 'सरकार से हमरो के तनी दियाव लोग.' सकुंती मोसमात के परिवार से कोई नहीं मारा गया था. उस दिन कहां थीं आप? 'एहिजे चंवर में. दुपरिया रहे. तीन बगल से हल्ला भईल. मरद लोग भाग गईलन. मेहरारू लोग एक गो घर में लुका गईल रही. आके काट देलन स. हम जान बचाके खेत में भाग गइनी. पुलिस के पलटन तीनों तरफ रहे. लेकिन उहो कुछ ना कइलन स.'

हम उसी सड़क पर पैदल आगे बढ़ते हैं खडांव गांव जाने के लिए. दलित टोला से आगे पिच की सड़क है. दोपहर का वक्त. चारों ओर सन्नाटा. कुछ दूर से पक्का का एक घर दिखता है. हम नजदीक पहुंचते हैं. सीढ़ियों से होते हुए बरामदे तक जाते हैं. सिर उठाते हैं. पत्थर पर लिखा है- राधाकृष्ण सिंह. हम बरामदे में दाखिल होते हैं. एक सज्जन कुर्सी पर बैठे हैं. कई चौकियां बिछी हैं. कुछ लोग उस पर लेटे हैं. हमें समझते देर नहीं लगी कि ये पुलिस के जवान हैं.

जी नमस्ते. हम अखबार वाले हैं. यह सुनते ही हट्ठे-कट्ठे लोग हमें घेर लेते हैं. तो साहब हमारे बारे में लिखिए न. देखिए यहां एक बाथरूम भी नहीं है. रोजे सांप निकलता है. कल्हे रात में एक पांच फुट का सांप निकला था. छत चू रहा है. देखिए न. वहां. इधर भी. आप बाहर के हैं क्या? जी, हां. हम उत्तराखंड के रहने वाले हैं. फौज में थे. सैप की वेकेंसी निकली थी. हम यहां आ गये. कितना तनख्वाह है? यही बारह हजार. उनके बगल में लेटे एक जवान अपना जनेउ ठीक करते हुए हमारे करीब आते हैं. कहते हैं- 'एतना कम पइसा में कईसे काम चलेगा सर. हमरा पइसवा कईसे बढ़ेगा?' सामने खड़ी बोलेरो आपलोगों की है? जवान बताते हैं- यह मकान मालिक की है. हमारे पास कोई गाड़ी-छकड़ा नहीं है.

बथानी टोला नरसंहार में खडांव गांव के अधिकांश लोग अभियुक्त थे. अजय सिंह को निचली अदालत ने फांसी की सजा दी थी. हम अजय सिंह की तलाश करते हैं. गांव वालों की मदद से उन्हें बुलाया जाता है. हमारे सामने आते हैं. आंखों में भय साफ समाया हुआ है. वे कहते भी हैं- अब हमें छोड़ दीजिए. इस पचड़े से हम आजाद होना चाहते हैं. बथानी टोला नरसंहार के वक्त अजय की उम्र कोई 15-17 साल होगी. आरा में रहकर पढ़ते थे. खून-खराबे के बाद पुलिस ने आरा से पकड़ा था. सब कुछ तहस-नहस हो गया.

अजय कहते हैं- हाईकोर्ट का फैसला हमारे लिए नया जीवन लेकर आया. हमारा घर-परिवार उजड़ गया. भविष्य खराब हो गया. अब हमारा दिन कौन लौटाएगा? अजय के सवालों का जवाब किसी के पास है? वहीं मिलते हैं- कन्हैया सिंह. आजीवन कारावास की सजा लोअर कोर्ट ने दी थी. हम उनसे बात करने उनके घर पहुंचते है. दरवाजे पर गोबर. भूसे की बोरियां. हम एक अंधेरे कमरे में दाखिल होते हैं. मुश्किल से पांच बाई पांच का कमरा. कन्हैया पुरानी बातों को याद करते हुए तल्ख हो जाते हैं.

उसी रास्ते हम वापस होते हैं. निषाद टोला के पास गड्ढे में पानी भर गया है. छोटे-छोटे बच्चे-बच्चियां उसमें डुबकी लगाते हैं. गड्ढे के बाहर खड़ी एक महिला आवाज लगाती है- अरे रिनवा. निकल बे रे. घंटा भर से तोरा नेहइले ना भईल? अरे निकलबे कि तोर बाप के बोलाईं? पानी में नहा रहा एक बच्चा किसी दूसरे को निर्विकार भाव से गरिया रहा है. मां-बाप के नाम पर. शायद उसे इन गालियों का मतलब नहीं मालूम.

बथानी के लोगों से हम बाथे के बारे में जानना चाहते हैं. पहले से हमने तय किया था कि बथानी टोला से हम आरा पहुंचेंगे. वहां से बिहटा होते हुए अरवल और तब बथानी टोला. अर्थात नब्बे किलोमीटर की दूरी. लेकिन यह क्या? बथानी टोला के लोगों ने बताया कि सोन पार करिए और बाथे पहुंच जाईये. बथानी के कई लोगों की रिश्तेदारी बाथे में है. हम जहां खड़े थे वहां से बाथे गांव का बाहरी हिस्सा दिखायी दे रहा था. बीच में सोन. सोन के इस किनारे खड़े होकर नाव आने का इंतजार कर रहे हैं. वहां छोटा सा मचान है. बंसवाड़ी के पास दो-तीन लोग काम कर रहे हैं. वे जाल बुन रहे हैं. मछुआरे हैं. हम उनसे बात करते हैं.

कितना भाड़ा है उस पार जाने का? एही बीस रोपेया. ई घाट के ठेका मछुआरा लोग लेले बा. उ घाट के ठेका अरवल के एगो भूमिहार लेले बाड़न. बातचीत के क्रम में नाव किनारे पहुंचने को होती है. हम वहां तक जाने के लिए रेत में उतरते हैं. आधा किलोमीटर चलने के बाद नाव पर सवार होते हैं. नाव के किनारा छोड़ते ही नाविक पैसे मांगता है. बारी-बारी से. एक बुजुर्ग को वह टोकता भी नहीं. आधे घंटे की सवारी के बाद हम दूसरे किनारे पर होते हैं. पानी से बाहर आते ही मन में उठ रहे सवाल का जवाब मिलता है- 'उ देखिए, सफेद रंग का बिल्डिंग दिख रहा है न, वही बाथे का सामुदायिक भवन है. वहां जाने में आधा-पौन घंटा आसानी से लग जाएगा. खैर मनाईए कि बर्सा हो गयी. रेत थोड़ा चलने लायक हो गया. नहीं तो डेढ़-दो घंटा तो लग ही जाता.' यह भी पता चलता है कि जिस बुजुर्ग से भाड़ा नहीं मांगा गया था, वे खडांव गांव के हैं.

दोपहर के दो बज रहे थे. ठीक-ठाक वर्षा के बाद सूरज निकल गया था. हमने हिम्मत बांधी. चलना शुरू किया. राह बताने को हमने हीरा लाल चौधरी को ले लिया था. राह काटने के इरादे से हमने 50-60 की उम्र वाले हीरा से पुराने दिनों के बारे में कुछ बताने को कहा. वे कहते हैं- बड़ी दुर्दशा था. बहुते दब के रहे हैं हमलोग. डर के मारे कोई कुछ बोलता भी नहीं था. मर-मजुरी कुछ भी तय नहीं था. एक बार की बात है. हमलोगों का मजुरी को लेकर बिबाद हो गया था. दोनों पक्षों को चौरी थाने पर बुलाया गया. हम वहां पहुंचे. आरा से कलक्टर भी आये थे. मीटिंग शुरू हुई. हमलोगों ने अपनी मांग रखी तो बबुआन लोग गरम हो गये. कहने लगे कि मजूरों की बात सुनी जाएगी कि जोतदारों की? हम देखते हैं कि मजूरी कईसे बढ़ेगी? इसी बात पर मनोज कुुमार श्रीवास्तव उखड़ गये. डपट कर उनलोगों को चुप कराया था. हीरा को आज भी मनोज श्रीवास्तव याद हैं. कहते हैं-गरीबों के लिए उन्होंने बहुत किया था.

हीरा के पांव जहां बिना थके डग भर रहे थे, हम थकान से निढ़ाल हुए जा रहे थे. हमारी हालत देख हीरा ने कहा-अब तो आ गये हमलोग. थोड़ी ही देर में हम बाथे गांव में दाखिल हुए. बड़ा सा बरगद का पेड़. महिलाओं की चौपाल बैठी है. कोई ढील निकाल रही है तो कोई गपिया रही हैं. बच्चे भी चुहल कर रहे हैं. हम आगे बढ़ते हैं. एक दालान में दो लोग सो रहे हैं. उनके पास जाते हैं. उनमें से एक टीचर हैं और दूसरे गृहस्थ. एक दिसंबर 1997 को सोन पार कर आये हमलावर बाथे को रक्तरंजित कर गये थे. रास्ते में पांच मछुआरों को मार दिया था उनलोगों ने. रात नौ बजे अचानक गोलियों की तड़तड़ाहट शुरू हो गयी थी. विनोद कहते हैं- ऐसा धांय-धांय तो हमने दिवाली पर भी नहीं सुना था.

विनोद पासवान बाथे कांड के सूचक हैं. सबसे अधिक नौ लोग इनके ही परिवार से मारे गये थे. सरकार ने उन्हें नौकरी दे दी है और मुआवजा भी. पर उनकी सुरक्षा हटा ली गयी है. विनोद अपने बच्चों को गांव में नहीं रखते. डर है कि फिर कुछ न हो जाये. उनके घर के बाहर ही पत्थर का एक स्मारक लगा है. बाथे में मारे गये 58 लोगों के नाम हैं. उसके ठीक बगल में लोहे का चदरा गड़ा हुआ है. उस पर लिखे नाम लगभग मिट गये हैं और चदरे को जंग खा गया है. पत्थर वाला स्मारक माले ने लगवाया है लोहा वाला संग्रामी परिषद ने.

बाथे के इस दलित टोले में पक्के मकान बन गये हैं. मुआवजे के पैसे से. झोपड़ियां उनके हिस्से रह गयी हैं जिनका कोई नहीं मारा गया था. एक दलित नौजवान हमें अपने आंगन में ले जाता है. बताता है कि उस रात हमला हुआ तो उसके परिवार के सभी 11 लोग एक मिट्टी के घर में छुप गये थे. उसका दरवाजा बंद नहीं था. हमलावरों ने समझा कि इनका काम तमाम हो गया है. तभी तो दरवाजा खुला है. आपके चारों बगल पक्का मकान बन गये हैं. आपने क्यों नहीं बनवाया? वे कहते हैं- हमारे सभी लोग बच गये थे. मुआवजा हमें कइसे मिलता?

दलित बस्ती में इसी पीपल पेड़ के नीचे कौन नहीं आया? अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर लालू प्रसाद तक. सबकी बातें यहां के लोगों को याद हैं. नौजवान प्रकाश आज 15-16 साल का हो गया है. घटना के समय वह अपनी मां की गोद में था. होश संभालने पर घर-परिवार के लोगों से हमले के बारे में सुना. उसके मन में गुस्सा है. कहता है- आखिर हमारे मां-बाप का कसूर क्या था?

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घटना के बारे में बात छेड़ते ही रामकिशुन की आंखें भर आती हैं. अपनों को खोने का गम दिल से बाहर जाने में कितने साल लगेंगे? वे कहते हैं- गांव के लोग हमें काटने में शामिल थे. इन्हीं लोगों ने उस पार से लोगों को बुलाया था. बथानी में हमारे भाइयों को न्याय मिल गया. यहां क्या होगा? बाथे नरसंहार में लोअर कोर्ट ने 16 को फांसी और दस को आजीवन कारावास की सजा दी है. इस फैसले को हाईकोर्ट में चुनौती दी गयी है. पटना लौट कर सरकार से कहिएगा कि हम दलितों को बोरा में बांध कर गंगा जी में फेंकवा दे. बगल से गुजर रहे सोन का वह जिक्र नहीं करते. नाम गंगा का लेते हैं.

हम उसी रास्ते वापस होते हैं. रास्ते में उदवंतनगर का खुरमा लेकर आरा पहुंचते हैं. शहर की सड़कें अब भी उबड़-खाबड़ हैं. स्टेशन से गोपाली चौक वाली मुख्य सड़क की किस्मत कितने साल में बदलेगी? उसी सड़क से होते हुए हम कतिरा पहुंचते हैं. दिवंगत ब्रह्मेश्वर मुखिया के घर. उनकी पत्नी से भेंट होती है. बीमार हैं. पति को शांति का अवतार बताती हैं. कहती हैं-वे गोली-बंदूक से दूर ही रहे. घर के अहाते में सुरक्षा गार्ड तैनात है.

वहां से निकलकर हम अनुसूचित जाति के छात्रावास में पहुंचते हैं. पारंपरिक छवि से एकदम अलग है छात्रावास. अच्छा भवन. खेलने का मैदान. पर गेट पर करीब दर्जन भर जली साइकिलें बताती हैं कि आधुनिकता के साथ-साथ दलित हमारे चिंतन में अब भी सम्मान के हकदार नहीं हैं. बथानी और बाथे तो ठेठ गांव हैं, आरा के दलित छात्रावास को निशाना बनाने के पीछे हमारी कौन सी मानसिकता काम कर रही है?

बहरहाल, हम जैसे अनजान को देख कमरों से लड़के निकलने लगते हैं. उन्हें जब पता चलता है कि हम पत्रकार हैं, वे हमलों के निशान दिखाने लगते हैं. एक-एक कमरा. जले टेबुल. किताबें. वायरिंग. बिखरे अनाज. उन लड़कों की शिकायत आम है कि इतने दिनों बाद भी उनके बीच कोई नहीं आया. वे भेदभाव पर अफसोस जताते हैं. छात्रावास पर हमले की वजह? एक छात्र कहता है- बहुत सारे लोगों को लगता है कि दलित होकर इतना बढ़िया कैंपस में रहेगा?

ajay-kumarअजय कुमार बिहार में वरिष्ठ पत्रकार हैं.

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