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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Monday, July 23, 2012

Fwd: [New post] भारत में सिनेमा के सौ साल – 2



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From: Samyantar <donotreply@wordpress.com>
Date: 2012/7/23
Subject: [New post] भारत में सिनेमा के सौ साल – 2
To: palashbiswaskl@gmail.com


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भारत में सिनेमा के सौ साल – 2

by समयांतर डैस्क

भारतीय समाज में सिनेमा : जवरीमल्ल पारख [पिछ्ला भाग]

बदले हुए दौर में प्रगतिशील

Navrang (1959)आजादी के बाद की बदली परिस्थितियों ने फिल्म क्षेत्र में इप्टा की संगठित भूमिका को हमेशा के लिए खत्म कर दिया। लेकिन इस दौरान जो लेखक और कलाकार प्रलेस और इप्टा से जुड़े थे, उनमें से कइयों ने सिनेमा को आजीविका का ऐसा क्षेत्र मानकर अपनाना शुरू कर दिया जहां कुछ हद तक उनकी रचनात्मक जरूरतें भी पूरी होने की उम्मीद थी। इप्टा से जुड़े ऐसे लेखकों और कलाकारों की लंबी सूची है जिन्होंने फिल्मों से अपने को जोड़ लिया। प्रगतिशील सोच के लेखकों और कलाकारों के फिल्मों में जाने ने फिल्मों पर क्या असर डाला इसका विवेचन होना बाकी है। क्या ये लोग फिल्मों के व्यावसायिक रंग में पूरी तरह डूब गए और प्रगतिशीलता की उस परंपरा से पूरी तरह नाता तोड़ लिया था जिसने उनके अंदर के लेखक और कलाकार का निर्माण किया था और उसे संवारा था, या इन्होंने अपनी वैचारिक, रचनात्मक और कलात्मक परंपराओं से फिल्मों को भी प्रभावित किया। 1950-60 का दौर जिसे भारतीय सिनेमा का स्वर्ण युग कहा जाता है, क्या यह इन प्रगतिशील लेखकों और कलाकारों की भागीदारी के बिना मुमकिन हो पाता? इस दौर की हिंदी, बांग्ला, मराठी, असमिया, तमिल, मलयालम आदि भाषाओं की उल्लेखनीय फिल्मों से ही यह जाना जा सकता है कि इप्टा के कलाकारों ने सिनेमा को किस हद तक प्रभावित किया होगा। इन फिल्मों से इप्टा और प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े लेखकों और कलाकारों ने काम किया था। इस पूरे दौर में वी. शांताराम, मेहबूब खान, ख्वाजा अहमद अब्बास, बिमल रॉय, राजकपूर, गुरुदत्त, के. बालांचदर, ऋषिकेश मुखर्जी, जिया सरहदी, मोहन सहगल, रमेश सहगल, चेतन आनंद, कमाल अमरोही, आदि कई फिल्मकारों ने सामाजिक दृष्टि से सोद्देश्यपूर्ण और कलात्मक दृष्टि से उत्कृष्ट फिल्मों का निर्माण किया। इस दौर के फिल्मकारों ने इस बात का ध्यान रखा कि फिल्मों द्वारा जो संदेश वे दर्शकों तक पहुंचाना चाहते हैं, उन्हें लोकप्रिय ढंग से पहुंचाया जाए। इसके लिए उन्होंने यथार्थवाद और पहले से चली आ रही मेलोड्रामाई शैली का संयोजन किया। उन्होंने फिल्म की भाषा, गीत, संगीत और संवादों पर भी खास ध्यान दिया। इसके लिए उन्होंने शास्त्रीय और लोक परंपराओं का मिश्रण किया। इस बात का ध्यान रखा कि भारत एक बहुसांस्कृतिक और बहु भाषायी देश है इसलिए उन्होंने भारत की विभिन्न जातीय और सांस्कृतिक परंपराओं को अपनी फिल्मों में समाहित करने का प्रयास किया। यह अवश्य है कि साठ के दशक के बाद सिनेमा की यह परंपरा कमजोर होने लगी और व्यावसायिकता और सतही लोकप्रियता फिल्मों पर हावी होने लगी। इसी ने संभवत: नए फिल्मकारों को प्रेरित किया होगा कि वे पूरी तरह से सिनेमा की लोकप्रिय शैली का त्याग करें और एक नया मार्ग अपनाएं। यह और बात है कि नब्बे के दशक तक आते-आते न्यू वेव सिनेमा की यह परंपरा भी कई बाहरी और अंदरूनी कारणों से लुप्त हो गई। लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि लोकप्रियता और कलात्मकता की बहसों में पड़े बिना सामाजिक सोद्देश्यता से परिपूर्ण कलात्मक और साथ ही लोकरंजनकारी फिल्म बनाने की परंपरा आज भी पूरी तरह लुप्त नहीं हुई है।

सिनेमा एक लोकप्रिय माध्यम है। इसमें सब तरह के फिल्मकार सक्रिय हैं। सिनेमा को साहित्य की तरह कला मानने वाले फिल्मकार भी हैं, तो ऐसे फिल्मकार भी हैं जिनके लिए यह महज पैसा बनाने और अमीर बनने का जरिया है। ऐसे लोगों के लिए फिल्म न तो एक कला माध्यम है और न ही वे यह मानते हैं कि मनोरंजन के अलावा भी सिनेमा का कोई सामाजिक उद्देश्य हो सकता है। सिनेमा यदि कला है और यदि उसका कोई सामाजिक उद्देश्य है तो यह मुमकिन नहीं है कि फिल्मकार उसके रचनात्मक और कलात्मक पहलुओं पर विचार न करे। साहित्य की तरह सिनेमा भी अपनी प्राणशक्ति समाज से ही प्राप्त करता है। लोकप्रिय सिनेमा शुरू से ही मूलगामी सिनेमा नहीं रहा। लेकिन इसने लोकप्रियता के ढांचे में रहते हुए ही उन जरूरी कार्यभारों को अंजाम देने की कोशिश की जिससे कि धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक गणतंत्र के रूप में देश को बनाये रखने में मदद मिले। भारतीय गणतंत्र की स्थापना के समय जो फिल्मकार सक्रिय थे उन्होंने अपने-अपने ढंग से न सिर्फ उस समय के यथार्थ को अपनी फिल्मों का विषय बनाया है बल्कि उस भविष्य की भी चिंता की है जो इस वर्तमान से ही बनेगा। इसलिए वे अपनी फिल्मों को ऐसे भारत के निर्माण में हिस्सेदार बनाना चाहते थे जो काफी हद तक उन्हीं आदर्शों और मूल्यों पर टिका था जिनका उल्लेख भारतीय संविधान में किया गया था और जिसका स्वरूप आजादी की लड़ाई के दौरान बना था। इन्होंने कोई क्रांतिकारी एजेंडा हाथ में नहीं लिया था लेकिन इन फिल्मकारों को यह महसूस हो रहा था कि समतावादी भारत के बनने में भी कई मुश्किलें हैं जिनको दूर करना जरूरी है। इनमें गरीबी, भुखमरी, औरतों की आजादी, दलितों का उत्पीडऩ, मुनाफाखोरी और लोभ-लालच के लिए गैरकानूनी कामों में लिप्त रहना और धार्मिक और सांप्रदायिक वैमनस्य आदि का उल्लेख किया जा सकता है। भारतीय सिनेमा ने आजादी के बाद के दो दशकों तक इन सभी सवालों को अपने खास अंदाज में उठाया है। वे किसी एक समस्या को केंद्र में रखते हुए दूसरे मसलों को भी मूल कथा से इस तरह जोड़ देते हैं कि वे उनसे अलग और पैबंद की तरह नजर न आए। यहां तक कि इनमें से कुछ ने फिल्म रूढि़ का रूप ले लिया था। मसलन हिंदू और मुसलमान या अन्य किसी धार्मिक अल्पसंख्यक की आत्मीय मित्रता। फिल्म की कथा कोई भी क्यों न हो इसमें धार्मिक सहिष्णुता और सद्भाव को जरूर शामिल किया जाता था। यथार्थवाद और मेलोड्रामाई शैली के कलात्मक संयोजन की यह परंपरा 1960 के बाद कमजोर हुई।

नई लहर

1960 के दशक तक सिनेमा में व्यावसायिकता और अव्यवसायिकता या कलात्मकता और अकलात्मकता जैसा भेद नहीं था। इस भेद की शुरुआत खासतौर पर उस न्यूवेव सिनेमा से हुई जिसने सजग रूप से फिल्मों की लोकप्रिय परंपरा से अपने को अलगाने की कोशिश की। सत्यजित राय, ऋत्विक घटक और मृणाल सेन ने छठे दशक में और बाद में अदूर गोपालकृष्णन, जी. अरविंदन, एम. एस. सथ्यु, श्याम बेनेगल, कुमार शहानी, मणि कौल, सईद अख्तर मिर्जा, गिरीश कासरवल्ली आदि फिल्मकारों ने सचेत रूप से फिल्मों में यथार्थवाद और नवयथार्थवाद की उन परंपराओं को अपनाया जो यूरोप में पांचवें और छठे दशक में प्रतिष्ठित हुई थी। हॉलीवुड की अतिरंजनकारी शैली को इन फिल्मकारों ने भी नहीं अपनाया। इस शैली का असर सिर्फ मनोरंजन के लिए फिल्में बनाने वाले फिल्मकारों पर ही अधिक दिखा जिन्होंने मेलोड्रामाई शैली को हॉलीवुडीय शैली के साथ मिलाकर अपराध प्रधान फिल्मों का निर्माण किया था। इनमें से अधिकतर फिल्में फिल्म इतिहास के कूड़ेदान में पहुंच चुकी हैं।

अपनी व्यापक पहुंच ने सिनेमा को भारत जैसे बहुभाषी और बहुसांस्कृतिक परंपरा वाले देश के लोगों के लोकरंजन का सर्वाधिक लोकप्रिय माध्यम बना दिया है। जैसाकि पहले उल्लेख किया जा चुका है भारत में पचीस से अधिक भाषाओं में फिल्में बनती हैं जिनमें एक चौथाई फिल्में हिंदी की होती है जिनके दर्शक सिर्फ हिंदी-उर्दूू क्षेत्रों तक सीमित नहीं है। यहां यह प्रश्न जरूर उठता है कि क्या बांग्ला, तमिल, तेलुगु, मराठी आदि की तरह हिंदी सिनेमा भी क्षेत्रीय सिनेमा है? जब भी हिंदी सिनेमा की बात की जाती है तो हमारे सामने वह सिनेमा आता है जिसमें पात्रों की बातचीत हिंदी में होती है, लेकिन जरूरी नहीं कि बात करने वाले पात्र भी हिंदी भाषी भी हों। यह भी जरूरी नहीं कि कहानी का संबंध हिंदी भाषी क्षेत्र से हो और यह भी जरूरी नहीं कि उस फिल्म का निर्माता, निर्देशक, पटकथा लेखक, अभिनेता-अभिनेत्री, संगीतकार आदि भी हिंदी भाषी हों। अगर हम किसी भी दौर की महत्त्वपूर्ण हिंदी फिल्मों के बारे में विचार करें चाहे वे लोकप्रिय सिनेमा के अंतर्गत आती हों या कलात्मक सिनेमा के अंतर्गत उनमें से अधिकतर के फिल्मकार हिंदी भाषी नहीं हैं। यह भी चौंकाने वाला तथ्य है कि ज्यादातर हिंदी भाषी क्षेत्र के फिल्मकार उर्दू पृष्ठभूमि से आये हुए हैं। यदि किसी एक क्षेत्र में हिंदी-उर्दू भाषियों का बाहुल्य है तो वह है संवाद और गीत लेखन में। यहां भी ज्यादातर लेखक उर्दू परंपरा से आये हुए हैं हिंदी परंपरा से कम। यह भी गौरतलब है कि हिंदी के वे ही लेखक फिल्मों में कामयाब हुए जिन्होंने फिल्मों की भाषायी परंपरा को अपनाकर ही अपनी पहचान बनायी। नरेंद्र शर्मा, शैलेंद्र, सरस्वती कुमार दीपक, प्रदीप, नीरज, राही मासूम रजा, कमलेश्वर आदि फिल्मों में सफल रहे तो इसी वजह से।

सिनेमा की भाषा

Mother_India_posterइससे यह निष्कर्ष निकालना उचित नहीं है कि हिंदी सिनेमा की भाषा उर्दू के निकट है। इसके विपरीत यह उस बोलचाल की भाषा के निकट है जिसे आसानी से हिंदी या उर्दू कहा जा सकता है और जिसे ही हिंदुस्तानी जबान नाम भी दिया गया। यही नहीं इसने न सिर्फ हिंदी क्षेत्र की विभिन्न बोलियों के शब्दों को जरूरत के अनुसार अपनाया बल्कि अन्य भाषायी क्षेत्रों के शब्दों को अपनाने में भी कोई कोताही नहीं की। कहानी और पात्रों की जरूरत के अनुसार सिनेमाई भाषा अपने को ढालती रही है। श्याम बेनेगल की फिल्में इसका सर्वोत्तम उदाहरण हैं जिनकी फिल्में प्राय: भारत के अलग-अलग प्रांतों के जीवन यथार्थ से संबंधित होती हैं। उनकी फिल्मों की भाषा और पात्रों का हिंदी बोलने का ढंग भी उसी के अनुरूप बदल जाता है।

हिंदी फिल्मों ने अपने को क्षेत्रीय और भाषायी संकीर्णता से दूर रखा। उन्होंने फिल्मों की कहानी को ऐसे रूप में प्रस्तुत किया कि वे किसी एक क्षेत्र तक सीमित न दिखाई दें और यदि वे किसी क्षेत्र विशेष से संबद्ध दिखाई भी दें तो उसकी अपील अवश्य सार्वभौमिक हो। प्रसिद्ध फिल्मकार महबूब की अत्यंत लोकप्रिय फिल्म मदर इंडिया का उदाहरण लिया जा सकता है जो गुजराती पृष्ठभूमि में बनी है जिसे पात्रों की वेशभूषा से आसानी से पहचाना जा सकता है, लेकिन फिल्म के किसी भी अंश में कोई पात्र या प्रसंग इस बात का संकेत नहीं देता कि उनका संबंध किसी खास क्षेत्र से है। इस फिल्म के गीत जो शकील बदायुंनी ने लिखे थे और जिसका संगीत नौशाद ने दिया था उसका विदाई गीत खड़ी बोली में लिखा गया है लेकिन ब्रज-अवधी के शब्दों के मिश्रण ने उसे लोकगीत का ऐसा गहरा स्पर्श दे दिया है कि वह आज भी विवाह के अवसर पर गाया-बजाया जाता है: 'पी के घर आज प्यारी दुल्हनिया चली, रोए माता-पिता उनकी दुनिया चली'। इस गीत को लोकमय बनाने में इसके संगीत का योगदान सर्वाधिक है। यह संगीत ही है जो लोकचेतना के सर्वाधिक नजदीक है। क्या यह महज संयोग है कि जो गीत अपनी आत्मा और अपनी देह दोनों में पूर्णत: लोकमय है और इसीलिए पूरी तरह भारतीय भी है, उस गीत को महबूब की फिल्म के लिए लिखा शकील बदायुंनी ने, संगीत दिया नौशाद ने, गाया शमशाद बेगम ने और फिल्माया गया नरगिस पर। यह वह साझा विरासत है जिसे हिंदू और मुसलमान के खानों में बांटकर नहीं देखा जा सकता।

फिल्म में संगीत

फिल्म संगीत का सृजन स्वायत्त संगीत कला के रूप में नहीं होता। इसका सृजन फिल्म के एक अंग के रूप में होता है। इसी वजह से उसे मौलिक नहीं मानी जाती, ठीक उसी प्रकार जैसे फिल्म की पटकथा मौलिक रचना नहीं माना जाता। फिल्म की जरूरत के मुताबिक ही गीत और संगीत की रचना की जाती है और सिचुएशन के अनुसार ही उन्हें प्रस्तुत किया जाता है। लेकिन इन सीमाओं के बावजूद भारतीय फिल्म संगीतकारों ने जो मधुर और कर्णप्रिय संगीत रचा है, वह अपनी मिसाल खुद है। भारतीय फिल्म संगीत ने तीन स्रोतों सेे अपने लिए रस ग्रहण किया है-भारतीय शास्त्रीय संगीत, विभिन्न प्रदेशों का लोक संगीत और पश्चिम का शास्त्रीय और पॉपुलर संगीत। संगीतकारों ने इनके संयोग से एक ऐसी संगीत परंपरा विकसित की जो आम आदमी के हृदय को भी स्पर्श करे। पांचवे-छठे दशक में फिल्मी गीत और संगीत का उत्कर्ष इसलिए दिखाई देता है क्योंकि इन दोनों क्षेत्रों से ऐसे प्रतिभावान और प्रगतिशील रचनाकार जुड़े, जिन्होंने फिल्म की सीमाओं को स्वीकारते हुए भी उसमें कुछ नया कर गुजरने का साहस दिखाया। इस दौर के संगीतकारों ने प्राय: भारतीय रागों में गीतों को प्रस्तुत किया। लेेकिन इन रागों को उनके शुद्ध और शास्त्रीय रूपों में कम, बल्कि जरूरत के अनुसार उनमें इस तरह के परिवर्तन किये, जिससे कि वे राग सामान्यजन की चेतना में आसानी से उतर सकें। फिल्म संगीत की इस बात के लिए आलोचना की जाती रही है कि उसने हमारे शास्त्रीय रागों की शुद्धता को नष्ट किया है। लेकिन ऐसा कहने वाले यह भूल जाते हैं कि ये शास्त्रीय राग भी कभी लोक संगीत का हिस्सा रहे होंगे(यह भारतीय रागों के नामों से साफ है) जिन्हें कालांतर में परिनिष्ठित रूप दिया गया और इस तरह वे शास्त्रीय रूप धारण कर सके। इस तरह वह लोक संगीत जो शास्त्रीय होकर जनता से दूर हो गया था, वही फिल्मों के माध्यम से वापस उसी जनता तक पहुंच रहा था। निश्चय ही अपने पुराने रूप में नहीं, बल्कि नितांत नए रूप में। एक तरह से फिल्मों ने प्राय: लुप्त होती लोक परंपराओं को कुछ हद तक बचाये रखने और नया जीवन प्रदान करने का काम किया। एक अन्य अर्थ में भी फिल्मी गीतों ने लोकगीतों का स्थान ले लिया है, वह यह कि लोकगीतों की तरह फिल्मी गीत भी मनुष्य की विभिन्न स्थितियों और प्रसंगों से जुड़ी सामूहिक भावनाओं और वैयक्तिक संवेदनाओं को अभिव्यक्त करते हैं। यह भारतीय उपमहाद्वीप की फिल्मों की विशेषता रही है कि फिल्म के खास प्रसंग के लिए लिखे गए गीत उससे स्वतंत्र होकर भी दशकों तक लोगों की स्मृतियों का हिस्सा बने रहते हैं।

पिछले दो दशकों में भारतीय सिनेमा ने अपनी जातीय और लोक परंपरा को काफी हद तक भुला दिया है। पहले की तरह अब भारतीय फिल्मों का संबंध ग्रामीण यथार्थ से लगभग खत्म हो गया है। इसके साथ यह भी सच है कि आज बनने वाली अधिकतर फिल्मों में उस मध्यवर्ग का जीवन प्रस्तुत किया जाता है जो महानगरों या विदेशों में रहता है। इस महानगरीय मध्यवर्ग का संबंध उस भारत से खत्म होता जा रहा है जो आज भी देश की कुल आबादी का 80-85 प्रतिशत है। लेकिन फिल्मों में यह बहुसंख्यक जनता लुप्त होती जा रही है। इसका स्थान जिस मध्यवर्ग ने लिया है, उसके लिए भारत की विभिन्न सांस्कृतिक परंपराओं का महत्त्व उतना ही है, जितना कि फैशन की दुनिया में एथनिक पोशाकों का होता है। इस वर्ग के लिए न साझा सांस्कृतिक परंपरा की कोई प्रासंगिकता है, न हिंदुस्तानी जबान की और न ही लोक परंपराओं की। भूमंडलीकरण और आर्थिक उदारीकरण की जन विरोधी नीतियों के वर्चस्व और साझा संस्कृति और लोक परंपराओं के विरुद्ध सक्रिय ताकतों के दबाव ने भारतीय सिनेमा की बहुसांस्कृतिक और बहुजातीय परंपरा के सामने चुनौतियां खड़ी कर दी हैं। साहित्य और अन्य कला माध्यमों के सामने भी ये चुनौतियां मौजूद हैं। साहित्य और अन्य कला माध्यमों की तरह सिनेमा में भी इनसे संघर्ष करने वाली प्रवृत्तियां आज भी सक्रिय हैं।

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