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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Monday, April 1, 2013

टूटे बिखरे ग़ज़ा में ज़िंदगी के धक्केः यात्रा वृतांत

टूटे बिखरे ग़ज़ा में ज़िंदगी के धक्केः यात्रा वृतांत

-जमाल महजूब :: प्रस्तुति और अनुवादः शिवप्रसाद जोशी

अमेरिका ईरान गतिरोध के बीच इज़रायल की युद्ध पिपासा रह रह कर भड़क उठ रही है। इधर उसकी आवृत्तियों में असाधारण तेज़ी आई है। इज़रायल हर दूसरे तीसरे दिन दुनिया को चीखते हुए बताता है कि ईरान ने अपना बम बना डाला। उसका नामोनिशान मिटाने पर आमादा इज़रायल की ईरान के प्रति घृणा को जब कोई मुकम्मल आसरा नहीं मिलता तो इज़रायल अपनी भड़ास अपने क़रीब बसे उस छोटे से भूगोल के बाशिंदो पर निकालता है जो एक देश होना चाहते हैं लेकिन कई दशक बाद भी अघोषित गुलामों की ज़िंदगी बसर करने को मजबूर हैं।

ग़ज़ा के बारे मे बहुत कुछ कहा जा चुका है, लिखा जा चुका है। संयुक्त राष्ट्र में इस बारे में नाना ढोल बजाए जा चुके हैं। हज़ारों लाखों फ़ाइलें इधर से उधर खिसका दी गई हैं। लेकिन एक संभावित देश के संभावित शहर में इज़रायली दमन जारी है। फ़लिस्तीनी लड़ाई जारी है और उसके अपने अंतर्विरोधों के बीच संयुक्त राष्ट्र में अमेरिका और "मित्र देशों" ( जिनकी संख्या इधर अलिखित तौर पर बहुत हो गई है-मामला क़रीब क़रीब एकतरफ़ा ही है) ने फ़लिस्तीन को अलग राष्ट्र का दर्जा देने के बारे में तमाम प्रस्तावों को दरकिनार किया हुआ है। अंतरराष्ट्रीय सौहार्द के नाम पर फ़लिस्तीनी झंडा संयुक्त राष्ट्र में लहराता है लेकिन अंतरराष्ट्रीय कूटनीतिक ख़ुराफ़ातों की जघन्यताओं वाले इस दौर में उसकी फड़फड़ाहट किसी राष्ट्रीय गरिमा या अस्मिता की बुलंदी नहीं बताती, वो महज़ नवउपनिवेशवादी शांति के मसीहाओं के लिए पंखा झलने जैसी ठकुराई के हवाले हो गया है।

ग़ज़ा इसी संभावित राष्ट्र का एक शहर है जो इज़रायल के क़ब्ज़े में महज़ एक बंद गली बनकर रह गया है। अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों को ठेंगा दिखाकर इज़रायल जैसे अहंकारी और उत्पाती देश ने ग़ज़ा की नाकाबंदी की हुई है। और हैरानी है कि इस नाकाबंदी को हटाने के लिए उसके ख़िलाफ़ किसी का ज़ोर नहीं है। भारत जैसे महान सभ्यता संस्कृति वाले और तीसरी दुनिया के प्रतिनिधि देश का भी नहीं जो अपने अंतर्विरोधों से इतना घिरा है कि उसकी विदेश नीति एक अंधकार से निकलकर दूसरे अंधकार में ठोकरें खा रही हैं। गुटनिरपेक्ष देशों के सम्मेलन में पिछले दिनों भारत ने हौसला दिखाया कि ईरान के कार्यक्रम पर अमेरिका विरोधी लाइन पेश की। ये गुटनिरपेक्ष देशों की लाइन बनी। कोई पूछे कौन कैसा गुटनिरपेक्ष। ईरान से गैस पाइप लाइन स्थगित है, उससे तेल खरीदना कम कर दिया गया है। अमेरिका का डर है। और गुटनिरपेक्ष जैसे लगभग मृत मंच से ईरान के एटमी कार्यक्रम की अनुशंसा। आखिर इसमें क्या बिगड़ता है। यथार्थ सब जानते हैं। अमेरिका से बेहतर भला कौन जानता है। तो ये हैं अंतर्विरोध। भारत की विदेश नीति ग़ज़ा में दमन की सिद्धांततः निंदा करती है लेकिन इज़रायल को फटकार नहीं लगाती, आगे बढ़कर उसपर दबाव नहीं डालती। या दबाव के समर्थन में कोई अंतरराष्ट्रीय प्रयास नहीं करती है। ये मानो एक सुविधापरस्त, मौक़ापरस्त और फ़ायदे के हिसाबकिताब वाली नीति है।

ग़ज़ा के बारे में इतना कुछ पढ़ने देखने के बाद हैरानी होती है कि आख़िर वे लोग किस मिट्टी के बने हैं जो राख़ के बीच भी किसी तरह सिर उठाए जी रहे हैं। उन पर कितनी कितनी किस्म की मुश्किलें और बरबादी बरसी हुई हैं।( 2009 का इज़रायल दमन अभियान भला कैसे भुलाया जा सकता है) फिर भी फिर भी वो कौनसी जीवटता है जिससे टूटा हुआ बिखरा हुआ ग़ज़ा अपनी मिट्टी में पल रहे जीवन को धक्का देता ही रहता है और वो चलता ही रहता है। ये कैसा विलक्षण धक्का है।

इज़रायल के दमन के समांतर उस चरमपंथी गुट हमस का भी दमन तंत्र ग़ज़ा में जारी है जो अपने ढंग से अपने सरवाइवल और अपनी राजनीति की कीमत वसूल कर रहा है। दूसरी ओर पश्चिमी तट और रामल्ला वाला फ़लिस्तीनी हिस्सा आज़ादी और अस्मिता का राग तो गाता आ रहा है लेकिन वो अमेरिका और मित्र देशों के लिए स्टॉप गैप इंतज़ाम की तरह काम करता है। उसके पास शासन चलाने का न तो जुनून है और न ही दमन के प्रतिरोध की वैसी रीढ़। ग़ज़ा की बेजार गलियों में मानो ये सारी बदक़िस्मतियां चक्कर काट रही हैं।

वक़्त और राजनीति और क्रूरता और अन्याय और उनके समांतर ज़िंदगी की उदासियों, चुप्पियों और रौनकों को देखने इसी साल कुछ महीने पहले लेखकों के एक दल के साथ ग़ज़ा पहुंचे थे युवा उपन्यासकार जमाल महजूब। उन्होंने चार दिन की उस यात्रा का वृतांत गुएर्निका नाम की प्रतिष्ठित ऑनलाइन पत्रिका के लिए लिखा। वहां मूल अंग्रेज़ी में प्रकाशित वृतांत का ये साभार हिंदी रूपांतर है। जमाल महजूब सूडानी मूल के ब्रिटिश लेखक हैं। उनकी मां ब्रिटिश और पिता सूडानी हैं। उनका जन्म लंदन में हुआ। वे ख़ारतूम में भी पले बढ़े। अपने देश सूडान को स्मृतियों का आनुवंशिक फ्रिंगरप्रिंट मानने वाले जमाल इन दिनों स्पेन में रहते हैं। जमाल महजूब की कहानियां और निबंध द गार्जियन, द टाइम्स लिटरेरी सप्लीमेंट, ली मोंदे, डि ज़ाइट समेत दुनिया भर की पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं और उन्होने कई ईनाम जीते हैं। हाल के दिनों में पार्कर बिलाल नाम से उन्होंने अपराध फ़िक्शन की ओर क़दम बढ़ाया है। उनका उपन्यास द गोल्डन स्केल्स 2012 में ब्लूम्सबैरी, अमेरिका से प्रकाशित हुआ है।

West_Bank_&_Gaza_Map_2007_(Settlements)ग़ज़ा पट्टी के निवासियों पर गतिविधि की पाबंदी है। वे अपनी ज़मीन पर क्या ला सकते हैं या वहां से क्या बाहर भेज सकते हैं, यहां तक कि अपने समंदर में वे कितनी दूर तक मछली पकड़ सकते हैं, इन सब पर पाबंदियां हैं। लेकिन शब्द किसी सीमा को नहीं जानते।

जैसे ही हम "वेल्कम टू ग़ज़ा" साइनबोर्ड के नीचे से गुज़रे, पूरी बस में उत्साह की लहर दौड़ गई और हर कोई उस पल को क़ैद करने के लिए अपने टेलीफ़ोन पर झपटा। तीन घंटे राफ़ा बॉर्डर क्रॉसिंग पर वक़्त काटना पड़ा। इस दौरान मिस्र के अफ़सरान ये तै कर रहे थे कि हमें आगे जाने दिया जाए या नहीं (मिस्र के आंतरिक मंत्रालय ने ग़ज़ा जाने की इजाज़त हमें नियत तारीख़ से एक दिन पहले ही दी थी।) काहिरा से आठ घंटे की ड्राइव के बाद ये जीत ही लगती थी कि यहां तक तो आ पहुंचे।

हमारे दल से दो लेखकों को प्रवेश की मनाही कर दी गई। उन्हें ज़रूरी क़ागज़ात जुटाने के लिए काहिरा लौटना पड़ा। यहां आने के लिए राज़ी होते हुए भी हम सब जानते थे कि हो सकता है हमें ग़ज़ा जाने ही न दिया जाए। "पैलफ़ेस्ट" के साथ ये मेरी तीसरी यात्रा थी। 2008 में पश्चिमी तट की यात्रा के साथ ये साहित्यिक रोड शो शुरू हुआ था। पैलफ़ेस्ट यानी पैलीस्टीन(फ़लीस्तीन) साहित्यिक उत्सव का मक़सद है- साधारण फ़लीस्तीनियों के अलगाव को तोड़ना और सांस्कृतिक गतिविधियों, परिचर्चाओं, रचनापाठों और वर्कशॉप के ज़रिए उनसे संपर्क क़ायम करना। फ़लिस्तीन दौरे के हर मौक़े पर, अनिश्चितता का साया पूरे मुआमले पर हमेशा मंडराता रहा। ग़ज़ा शहर की ओर बढ़ते हुए फ़िजां में रात भरने लगी थी जो एक सामान्य बात ही थी। और हो भी क्यों न।।।।। खजूर के पेड़ों की छिटपुट कतार और ओलिव पेड़ो का संकरा झुरमुट उस देहाती रोमान की याद दिलाता था जो कुछ समय पहले के अतीत में ढह चुका था। हम मिस्र में नहीं हैं, इस बात की पहली निशानदेही उन गैस स्टेशनों से मिलती थी जहां वाहनों की कतार लगी हुई थी और तीन कारों की चौड़ाई जितनी सड़क पूरी भरी हुई थी। 2008 से ईंधन आयात पर लगभग पूरा प्रतिबंध है। ये कतारें और बिजली कटौतियां(जो बारह बारह घंटो तक गुल रह सकती थी) छिटपुट और अनिश्चित आपूर्ति के बारे में बताती थीं।

ग़ज़ा पट्टी के बारे में जो ग़ौर करने वाली बात है वो है साक्षात सेना की ग़ैरमौजूदगी। पश्चिमी तट में चेकपोस्टों और क्रॉसिंग्स पर, इज़रायली सैन्य बल अपनी कसी हुई हरी वर्दियों में तैनात रहते हैं। उनके पास हरदम तैयार स्वचालित राइफ़लें हैं। वे युवा हैं, उनमें से कुछ किशोर उम्र के हैं, क़ाग़ज़ात और आवाजाही के आदेश तलब करते हुए वे अपने कंधों पर हथियारों को गिटार की तरह उठाए रहते हैं। 2008 में येरुशेलम और रामल्ला के बीच कालान्दिया क्रॉसिंग पर, मैं उस गेट की छड़ों और जालियों की भूलभुलैया में फंस गया था जो एक बार में एक के ही निकलने के लिए बने होते हैं। मेटल डिटेक्टर और एक्सरे मशीनों से पार होने की कोशिश जो थी सो अलग। मैं घिसटता हुआ आगे बढ़ा ही था कि लाउडस्पीकरों पर हिब्रू में चिल्लाहटें गूंजने लगीं। ये साफ़ नहीं था कि वे क्यों और किस पर चीख रहे थे। मैंने दर्द में तड़पते एक अधेड़ आदमी को देखा। उसे वापस जाने के लिए कहा जा रहा था। उसे इलाज के लिए अस्पताल ले जाने की कोशिश में आई उसकी पत्नी और जवान बेटी बिलखती थी। हेब्रॉन में सेना पूरे लड़ाका पोशाक और साजोसामान से लैस होकर गश्त करती है। सिर पर हेलमेट, शरीर पर कवच और रेडियो सेट और बच्चे अपनी साइकिलों में उनके इर्दगिर्द वैसे ही मंडराते हैं जैसे हर जगह के बच्चे।

चालीस किलोमीटर लंबी और औसतन एक चौथाई से कुछ कम चौड़ी ग़ज़ा की पट्टी में सैन्य मौजूदगी नहीं दिखती लेकिन वो है तो है ही। ग़ज़ा शहर में अपने होटल की छत के टैरेस से मैं दूर समंदर में रोशनी के तीखे, सफ़ेद धब्बों की कतार देखता हूं। मुझे ये समझने में कुछ वक़्त लगता है कि उजाले के ये गुच्छे पानी पर तैरने वाले निशान हैं। पिछले कई वर्षों से फ़लिस्तीनी मछुआरों के लिए मछली पकड़ने का दायरा तै कर दिया गया है। ओस्लो संधि में बीस नॉटिकल मील की छूट दी गई थी। लेकिन वास्तव में ये मछुआरे ज़्यादा से ज़्यादा तीन नॉटिकल मील तक ही जा सकते हैं। इज़रायल ने ये बंदिश जनवरी 2009 में लागू कर दी थी। इस तरह ग़ज़ा के समंदर के 85 फ़ीसदी हिस्से पर स्थानीय मछुआरों का हक़ नहीं है। 2000 में यहां दस हज़ार मछुआरे थे और आज साढ़े तीन हज़ार ही रह गए हैं। उन रोशनियों से मछलियां खिंची हुई सतह पर चली आती हैं, इसका अर्थ ये होता है कि मछली पकड़ने की सबसे मुफ़ीद जगह उस लाइन के क़रीब ही है जिसके पार जाने की मनाही है। लेकिन ये एक ख़तरे वाला काम है। इज़रायल के गश्ती जहाज मछली पकड़ने वाली छोटी नावों के इर्दगिर्द चक्कर काटते रहते हैं। और नियमित रूप से उन पर ज़िंदा बारूद से फ़ायर भी झोंक देते हैं।

इतिहासकार इलान पापै ने, ग़ज़ा में जो हो रहा है, उसे "धीमी गति का जनसंहार" कहा है। कहने को क़ब्ज़ा 2005 में ही ख़त्म हो गया था जब 21 बस्तियां हटा दी गई थीं और इज़रायली, गज़ा पट्टी से निकल गए थे। वापसी में कई इमारतें ध्वस्त कर दी गईं थीं, कुछ मकान और यूनिवर्सिटी का कुछ हिस्सा रह गया था। ग़ज़ा पट्टी की नाकाबंदी का ये पांचवां साल है। चीज़ों का आयात निर्यात, वायु, जल या थल मार्ग से लोगों की आवाजाही, ईंधन, दवाइयों और पानी पर कड़े प्रतिबंध हैं। हमस ने फ़लिस्तीनी विधायी परिषद पर नियंत्रण हासिल किया और उसकी प्रतिक्रिया में इज़रायल ने ये सब पाबंदियां लगा दीं। इस काम में मिस्र ने इज़रायल की मदद की है जो हमस को समर्थन करता हुआ नहीं दिखना चाहता है, हो सकता है मिस्र में मुस्लिम ब्रदरहुड का राष्ट्रपति बन जाने से अब उसके रवैये में कुछ फ़र्क आए।

न्युयार्क टाइम्स ने नाकाबंदी को "सामूहिक सज़ा" बताया है। निश्चित रूप से ग़ज़ा में रहने वाले साढ़े दस लाख लोगों के लिए ज़िंदगी मुश्किल हो गई है, इनमें से 49 फ़ीसदी लोग तो आधिकारिक तौर पर बेरोज़ग़ार हैं। संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक वहां जीवन स्तर का ग्राफ़ 1967 के स्तर पर पहुंच गया है। विडंबना ये है कि इस नाकाबंदी से हमस मज़बूत हुआ है। आयात पर लगभग पूर्ण प्रतिबंध और ईंधन की किल्लत से अर्थव्यवस्था सिकुड़ गई है और इसके समांतर मिस्र की सीमा के नीचे सुरंगों के ज़रिए गुप्त कारोबार से राजस्व उगाही की जा रही है। ये सब हमस के नियंत्रण में है।

मैं इन ख़बरों पर निगाह रखता रहा हूं। राजनैतिक संघर्ष, नाकाबंदी के नतीजे, रॉकेट हमलों की निरर्थकता, ऑपरेशन कास्ट लीड के विनाशकारी असर और फ़्रीडम फ़्लोटिला पर आक्रमण। ग़ज़ा नाकाबंदी का समानार्थी बन गया है। इसमें पश्चिमी तट से ज़्यादा, दुनिया की सबसे बड़ी खुली जेल का विचार निहित है। यहां रहने वालों की ज़िंदगियों के बारे में ज़ाहिर है, मैं बहुत कम जानता था।

ग़ज़ा के चार विश्वविद्यालयों में इस्लामी यूनिवर्सिटी के पास बेहतरीन फ़ंड हैं। ये भी है कि अकेली यही है जो सेक्युलर नहीं हैं। पहले दिन, हमें अलगथलग पड़े कैंपस का दौरा कराया गया, हम महिलाओं के सेक्शन में जा घुसे तो हमारे पुरुष गाइड खिलखिलाने लगे। अहाते करीने से चमकाए गए हैं। वे पेड़ों से सजे हैं जो बड़ी, आधुनिक इमारतों के बीच खड़े हैं। इनमें तीन मंज़िला लाइब्रेरी भी है। 2009 में दो इमारतों पर बम गिराए गए थे लेकिन अब उन्हें फिर से पूरी तरह बना दिया गया है। बरबादी और किल्लत के कोई निशान नज़र नहीं आते। मैं इस बारे में अपने गाइडों से दरयाफ़्त करता हूं तो मुझे बताया जाता है कि उनके पास साजोसामान लाने के "अपने तरीके" हैं।

ठसाठस भरे लेक्चर हॉल में दो अन्य लेखकों के साथ मैं ख़ुद को ज़्यादातर युवा औरतों के जमघट के सामने पाता हूं। कमोबेश सभी रंगबिरंगे हेडस्कार्फ़ और सादे धूसर या काले "जिलबाब" पहने हुए हैं। अंग्रेज़ी बोलने की रफ़्तार अलग अलग है और यूं वे हमारे दौरे के बारे में बहुत उत्साह दिखाती हैं फिर भी ये साफ़ नहीं है कि वे हमसे क्या चाहती हैं। ये सत्र बतौर वर्कशॉप रखा गया था लेकिन तवारुफ़ के एक सिलसिले के बाद मैं देखता हूं कि छात्र असल में जो चाहते हैं वो है बात करना।

हमें पूछे गए ज़्यादातर सवाल हमारी मंशा को समझने की कोशिश हैं। हम लोग यहां क्यों आए हैं। हमने क्या सोचा था कि क्या मिलेगा। मैं कुछ कुछ बेयक़ीनी, यहां तक कि नाख़ुशी महसूस करता हूं। "जिलबाब" और हेडस्कार्फ़ पहने इन लड़कियों को देखकर लगता है कि वे आश्रित जीवन जीती हैं। लेकिन इसके उलट वे बेहिचक होकर बातचीत करती हैं, मैं इस बात को पसंद करता हूं। उनमें से कई पहले से लिखती हैं। दो लड़कियों ने आगे आकर अपनी कविताएं पढ़ीं। बोलने के लिए इजाज़त मिलने का वे इंतज़ार नहीं करती हैं। जैसे दुनिया में सब जगह हर कक्षा में छात्र जिज्ञासु हैं, वे भी सुनना चाहती हैं कि हम अपना काम कैसे प्रकाशित करा पाते हैं और वे कैसे अपनी कहानियां दुनिया के सामने पेश कर सकती हैं। वे एक अजीबोग़रीब और आपात हालात की चश्मदीद हैं। आख़िर में, हम जाने को निकलते ही हैं कि बहुत सारी लड़कियां हमारे इर्दगिर्द जुट आती हैं और अपने एक सवाल का जवाब पा लेना चाहती हैं। मुझे क्या लिखना चाहिए। मैं वही सलाह दोहराता हूं जो ऐसी स्थितियों में हमेशा देता रहा हूं- लिखो, तुम बस लिखो और लिखते ही रहो।

दिन के वक़्त, जब रोशनियां बंद हैं, समंदर खाली और शांत है। होटल के टैरेस पर टाइटेनिक फ़िल्म के टाइटल गीत का विवियन बशहरा का अरबी संस्करण बजाया जा रहा है। रसीली धुन के ऊपर दूर कहीं लगातार कुछ चटखने की आवाज़ गूंजती है। ये इज़रायली लड़ाकू जेट विमानों की गूंज है। ख़ामोश मौक़ो पर मैं कल्पना करता हूं कि मैं एक टोही विमान ड्रोन की मद्धम भिनभिनाहट सुन सकता हूं। शहर का चक्कर लगाते हुए हम अल अंदलस टावर पर रुके। ये स्थानीय लैंडमार्क है। 2009 में ऑपरेशन कास्ट लीड के दौरान ये इज़रायली हमले का निशाना बना था। अपार्टमेंट की इमारत ग़ज़ा में सबसे ऊंची इमारतों में से है, उस पर इज़रायली जहाज ने समंदर से गोलाबारी की थी। 22 दिनों तक चली हमले की उस कार्रवाई में ये इमारत बरबादी के सबसे असाधारण उदाहरणों में से है। लोहे की मुड़ीतुड़ी छड़ों में कंक्रीट के फ़र्श झूल रहे हैं, ताश के पत्तों की ढहती हुई मीनार की तरह जो किसी तरह बीच हवा में अटकी है। मुझे बताया जाता है कि इसे फिर से बनाया जा रहा है तो मुझे एकबारगी यक़ीन नहीं होता।

GAZA_devastationऔर भी निशान हैं, नेस्तनाबूद इमारतें, यहां वहां बिखरी हुई, लेकिन नुकसान के पैमाने को देखते हुए ये ख़ासा ग़ौर करने लायक है कि कितना कुछ फिर से बना दिया गया है। (संयुक्त राष्ट्र का आकलन है कि सत्रह हज़ार इमारतें आंशिक रूप से नष्ट हुई थीं, चार हज़ार पूरी तरह और क्रंक्रीट का छह लाख टन मलबा हटाया गया था।) सरायेवो में युद्ध ख़त्म होने के दस साल बाद भी इमारतों पर गोलियों से बने छेद और बम के टुकड़ों के दाग जस के तस हैं, मानो सरायेवो के लोगों को डर था कि जो उन्होंने भुगता है उसे भुला दिया जाएगा। इधर ग़ज़ा में, संसाधनों की कमी के बावजूद, फ़लिस्तीनी अथक निर्माण और पुनर्निर्माण कर रहे हैं, मानो मनुष्य के तौर पर उनका अस्तित्व उनकी शारीरिक अदम्यताओं पर ही निर्भर रह गया हो। मुझ जैसे बाहरी व्यक्ति को वे मरम्मत और बरबादी के निराशा भरे चक्कर में फंसे हुए दिखते हैं।

राफ़ा को जाने वाला तटीय रास्ता, समंदर से बाड़े की तरह लगी रेत की पतली पट्टी के किनारे किनारे गुज़रता है। हमारा गाइड बताता है कि ये पानी नहाने लायक नहीं है। मशरत मे इसकी वजह साफ़ हो जाती है, जहां से गुज़रते हुए सीवेज की बहुत तीखी दुर्गंध मेरी नाक से टकराती है। ग़ज़ा में पानी एक गंभीर मुद्दा है। पानी की सफ़ाई के लिए "कोस्टल एक्वीफ़र" के ग्राहक बहुत ज़्यादा हैं और साफ़ पानी की निकासी लायक उसे पर्याप्त रूप से भरा नहीं जाता है। जल शोधन संयंत्रों की बरबादी और ज़रूरी औजारों के आयात पर प्रतिबंध का मतलब ये है कि बड़ी मात्रा में नालियों का मलबा जल व्यवस्था मे बहता आ रहा है, जिससे एक्वीफ़र प्रदूषित होता है और फिर जिसकी वजह से स्वास्थ्य समस्याएं आती हैं।

ये बेशकीमती ज़मीन है। समृद्ध और उर्वर। ग़ज़ा के लोग अमरूद, संतरे और अंगूर उगाते हैं। हम लोग खजूर के पेड़ों के झुरमुट से ग़ुज़रे। दाउर अल-बलाह शरणार्थी शिविर का नाम इन्हीं से है। हम लोग संयुक्त राष्ट्र के बनाए एक स्कूल से गुज़रे, हवाई हमलों से बचाने की कोशिश के तौर पर जिसकी इमारत पर नीला और सफेद रंग पोता गया है। वहां बसें नहीं हैं और कुछ बच्चों को तीस मिनट पैदल चलकर स्कूल पहुंचना होता है। सड़क संपर्क काटने के लिए, वक़्त बेवक़्त इज़रायली नदी के पानी का बहाव रोकने वाला फाटक खोल देते हैं। पश्चिमी तट जाने वाले ग़ज़ा के लोगो और वहां से आने वाले बाशिंदों के लिए यही नीति लागू है। पश्चिमी तट के दायरे में, मिसाल के लिए बेथलेहम में पंजीकृत फ़लिस्तीनियों को येरुशेलम जाने की मनाही है। जो नौ किलोमीटर की दूरी पर है।

राफ़ा में हम राशेल कॉरी सेंटर का दौरा करते हैं, जहां बच्चों के लिए गतिविधियां की जाती हैं और चिकित्सा मदद दी जाती है। कॉरी अंतरराष्ट्रीय सॉलिडैरिटी मूवमेंट की एक्टिविस्ट थीं। 2003 में उनका निधन ग़ज़ा में हो गया था। उन्हें इज़रायली बुलडोज़रो ने कुचल दिया था। फ़लिस्तीनी घरों को ढहने से बचाने के लिए वो बुलडोज़रों के आगे जा खड़ी हुई थीं। स्कूल से बाहर बच्चों के जाने के लिए कोई जगह नहीं है। यहां उनके पास नाटकों में अभिनय करने का मौक़ा है, चित्र बनाने का और रंग भरने का। व्यवहार में असामान्य बच्चों की शिनाख़्त की जाती है और उनके लिए बाल मनोचिकित्सक रखे गए हैं।

इस सेंटर से निकलकर हम सीमाई इलाक़ा देखने के लिए शहर के किनारों की ओर निकले। वहां एक फटेहाल टेंट और भद्दे ढंग से वर्दी पहना आदमी था जिसके हाथ में एक घिसापिटा नोकिया और एक-47 थी। बॉर्डर के किनारे बने कई मकानों को इज़रायलियों ने 2009 में ध्वस्त कर दिया था। कुछ बच्चे हमारे साथ साथ हो लिए और चहक चहक कर बताने लगे कि कौन से मकान फिर से बन गए हैं। उनके लिए सब कुछ बहुत पुराने ज़माने की ही बात है। एक छोटे बच्चे की स्मृति ऐसी होती है। एक दिन वे सारी बातें जान जाएंगें, लेकिन अभी तो ये उनके लिए एक खेल ही है।

भारीभरकम ट्रक धूल के बादलों से गड़गड़ाते हुए निकले और आगे की गलियों में ग़ायब हो गए। इन ट्रकों की रफ्तार से उठी धूल की आंधी जब रुकी तो हमारी गली अटपटे ढंग से ख़त्म हो चुकी थी। गार्ड चौकी बम से तबाह है जहां मुट्ठी भर पुलिसकर्मी तैनात हैं, वे खाना खा रहे थे। हमने उन्हें डिस्टर्ब कर दिया। सेम से भरा टीन का कटोरा और थोड़े से ब्रेड के टुकड़े नंगी टेबल पर पड़े हैं। वहां कोई दीवार नहीं है, कोई दरवाज़ा नहीं, तीखी हवा को रोकने के लिए कुछ भी नहीं। हमारे कैमरों के बारे में कुछ सुगबुगाहट होती है। हमने उन्हें चुपचाप किनारे रख दिया है। इस बीच वे अंदाज़ा लगा रहे हैं कि सैलानियों के इस ग्रुप का क्या करें। हमारे पैरों तले की ज़मीन सुरंगों से भरी हुई है। अटकलें हैं कि ऐसी हज़ारों सुरंगें हैं, 200 मीटर से लेकर क़रीब एक किलोमीटर तक की। इनके ज़रिए मिस्र से हर क़िस्म की चीज़ ग़ैरक़ानूनी ढंग से लाई जाती है। सटीक आंकड़ा स्तब्ध कर देने वाला है।

धूलोगुबार के बीच से मैं पनाहगाहों के झुरमुट का अंदाज़ा लगा सकता हूं। बम से तहसनहस इमारतों के बचेखुचे हिस्से जो सैंडविच की तरह चपटे हो गए हैं। कुछ लोहे की छड़ों और झूलते हुए कैनवास से बने कमज़ोर निर्माण हैं। आदमियों का एक दल एक खाली ट्रक से लगे ट्रेलर से जाता है। हमारे पास से गुज़रते हुए वे चहककर हाथ हिलाते हैं। आगे रेत की एक लहर उन्हें निगल लेती है। हम लोग तमाशा बन गए हैं। अंधेरो से खीसे निपोरते हुए प्रेत प्रकट हो उठते हैं। ये सुरंग खोदने वाले हैं। इन्हें देखकर लगता है कि मध्ययुग से आए हैं, सिर से पांव तक सफेद पाउडर में सने हुए। उनकी हर पलक और हर झुर्री, कान और बालों पर वो पाउडर पेंट की तरह चिपक गया है। वे हमें जाते हुए घूरते हैं।

पांवों के नीचे रेत नरम लगती है। हम एक शरणगाह के पास हैं जहां हमें अंधेरेपन के एक कुएं में झांकने की दावत दी गई है। चार मीटर व्यास वाला ये कुआं 24 मीटर गहरा है। नीचे जाने का एक ही तरीक़ा है। लकड़ी के दो तख्तों को चरखी से बांधकर और उनसे एक बिजली की मोटर को जोड़कर सीट बनाई गई है। हवा नहीं बहती। लिफ़्ट रुक गई है। और झूलती है। एक आदमी बताता है, बिजली चली गई। वो नहीं पूछता कि नीचे अंधेरे में कोई ऊपर आने का इंतज़ार तो नहीं कर रहा है।

कुछ सुरंगे चौथाई मीटर ऊंची हैं। जबकि कई इतनी ऊंची हैं कि लोग अंदर चल सकें। वहां कारें भी लाई जाती हैं, एक सुरंग ऐसी बताई जाती है जो 20 हज़ार डॉलर मिले तो कार को एक ही बार में यहां से वहां पार करा सकती है। ये सुरंगें नियमित रूप से ढहती रहती हैं, रेत के भुरभुरेपन को देखते हुए ये कोई हैरानी की बात भी नहीं है। अमेरिका की एक लीक केबिल(संदर्भ विकीलीक्स) के मुताबिक दो साल पहले मिस्र ने सुरंग निर्माण रोकने के लिए एक इस्पाती दीवार बनाई थी लेकिन ये बेअसर ही रही। सुरंगों को साफ़ करने के लिए बताते हैं कभी कभार मिस्र ज़हरीली गैस का रिसाव भी कराता है। तस्करी जोखिम भरा "उद्यम" है लेकिन इसकी बढ़िया भरपाई होती है। छोटी सुरंगे बनाने वाले लड़के एक दिन में सौ डॉलर कमा लेते हैं। चरखी चलाने वाले लोग उसका आधा कमा लेते हैं। वे सब कुछ ले आते हैं, दवाइयों से लेकर सीमेंट की बोरियों तक। ईंधन रबर पाइप से आता है।

विशाल ट्रक शीतल पेयों और स्नैक्स से लदे हैं। जो कुछ भी यहां से आता है, हमस उसपर टैक्स वसूल करता है। सुरंगों के बारे में राय बंटी हुई हैं। ग़ज़ा के कई लोग उनके ख़िलाफ़ हैं क्योंकि बॉर्डर के दोनों छोरों पर एक छोटे से समूह के लिए ही वे पैसा कमाती हैं। और, क्योंकि उनका इस्तेमाल हथियारों की तस्करी में हो सकता है, सुरंगें इसी कारण इज़रायल को पक्के बहाने मुहैया कराती हैं- नाकाबंदी जारी रखने के लिए और किसी भी वक़्त हमले को जायज़ ठहराने के लिए।

होटल लौटते हुए हम शहर में एक चौक पर रुकते हैं। इज़रायली जेलों में बगैर मुक़दमों के बंद हज़ारों फ़लिस्तीनियों की रिहाई के लिए यहां सामूहिक भूख हड़ताल चल रही है। चौक झंडो और बैनरों से पटा हुआ है। लाउडस्पीकरों से आवाज़ें चीखती हैं। बाद में बायकॉट और डाइवेस्टमेंट सोसाएटी(बीडीएस) के बारे में एक बैठक रखी जाती है। इसका मक़सद है- इज़रायली वस्तुओं, अकादमिक संस्थानों और खेल मुक़ाबलों में भागीदारी के अंतरराष्ट्रीय बहिष्कार से इज़रायल पर दबाव बनाना। दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के ख़ात्मे में भूमिका निभाने वाले आंदोलन से प्रेरित होकर गठित किए गए बीडीएस अभियान का लक्ष्य है साधारण लोगों से जुड़ाव। और नेताओं से परहेज़।

हमारी आख़िरी शाम को पैलफ़ेस्ट का समापन कार्यक्रम सुरक्षा बलों ने बंद करा दिया। ये साफ़ नहीं है कि हमने किसके ख़िलाफ़ गुस्ताख़ी की, लेकिन हर चीज़ अविश्वास के जमा होते जाने की ओर इशारा करती है। उसी सार्वजनिक जगह पर जब आदमी और औरतें जमा होती हैं तो हमस उन्हें खदेड़ता है। हमारे इस रोड शो की ख़ास बात है-मिस्र का बेहद लोकप्रिय और बहुत प्रतिभाशाली संगीत ग्रुप एस्केनद्रैला। ये ग्रुप हमारे साथ ही यात्रा कर रहा है। दो रात पहले एस्केनद्रैला ने एक कंसर्ट पेश किया था जिसे ज़बर्दस्त ख़ुशी के साथ लोगों ने पसंद किया था। एस्केनद्रैला के क्रांति गीत पिछले साल काहिरा में ख़ूब गूंजे थे, तहरीर चौक पर हुए कार्यक्रमों में उसी का साउंडट्रेक बजता था। पैलफ़ेस्ट के स्थानीय आयोजकों से कहा गया था कि कंसर्ट हॉल को दो भागों में बांटें। एक ओर आदमी और दूसरी ओर औरतें। लेकिन उन्होंने मना कर दिया। हमारे कई लेखक मिस्र से हैं और सत्ताविरोधी जोश पाठ के सत्रों और साक्षात्कारों में ख़ासा बुलंद है। हैरानी की बात नहीं कि हमस को इससे असुविधा होती थी। कुछ भी हो, उस आख़िरी शाम को कस्र अल-बाशा कल्चरल सेंटर के उस छोटे से स्टेज की अचानक बिजली कट जाती है और माइक बंद हो जाता है। कुछ ही देर बाद सादा भेस में एक अधिकारी एक युवा महिला से कैमरा छीनने के लिए दौड़ता है। उसके बाद टकराव शुरू हो जाता है, वहां हथियारबंद पुलिस और सादा वर्दी में सुरक्षा अधिकारियों की बेतुकी भीड़ जमा है। आख़िर में हमें वापस बस की ओर रवाना किया जाता है और होटल जाने दिया जाता है। हम लोग अपने साथ जितना संभव हो सकता है उतने श्रोताओं को ले आते हैं। उनमें से कई संभावित नतीजों से आशंकित है, ख़ासकर हमारे लौट जाने के बाद। सुरक्षा अधिकारियों ने ज़्यादातर लोगों की तस्वीरें खींच ली थी। इधर होटल का टैरेस एक तात्कालिक मंच में बदल दिया जाता है और कंसर्ट रात भर कविता पाठ और गीतों के साथ जारी रहता है।

अगले दिन राफ़ा क्रॉसिंग को जाने वाली सड़क पर, मैं ख़ुद को वो हर चीज़ दर्ज करता हुआ पाता हूं जो मैं बस कि खिड़कियों से देख सकता हूं। एक मकान की चारदीवारी के भीतर चरती भेड़ें, हाथों मे बंदूकें और ओलिव की टहनियां भींचें जंगजुओं के फीके पड़ते म्युरल, तरबूज की तरह रंगी प्लास्टिक की गेंदें, कब्र का एक पुराना तुर्की पत्थर, बार्का कमीज़ें, ऊंट, बमबारी में ध्वस्त हुए पुलों की मरम्मत, मिट्टी के टूटेफूटे बर्तन। जो कुछ भी मैं पिछले चार दिनों मे देख पाया, ये उसे समझने की कोशिश है, उसे कुछ देर अपने पास ही रख लेने की कोशिश। बाद में जब मैं अपनी नोटबुक पर निगाह डालता हूं, चलती हुई गाड़ी के भीतर लिखने की कोशिश में अक्षर हिलते हैं, ऐसा लगता है ये एक पागल शख़्स का कांपता प्रलाप है।

http://www.guernicamag.com/ और जमाल महजूब का आभार।

-शिवप्रसाद जोशी

http://www.samayantar.com/

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