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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Saturday, April 6, 2013

केजरीवाल का हथियार 'इमोशनल अत्याचार'

केजरीवाल का हथियार 'इमोशनल अत्याचार'


दुर्भाग्य से हमारी 'इंस्टेंट' परिणाम वाली पीढ़ी के नए क्रांतिकारी एक ही साल में सब कुछ हासिल कर लेना चाहते हैं. फिर चाहे वो जंतर मंतर पर क्षणिक करिश्मा दिखाने वाले आन्दोलन हों या मौजूदा अनशन - दोनों ही राजनीतिक सत्तापलट की अतिमहत्वाकांक्षी और बचकानी लड़ाई में जा फंसे...

संजय जोठे 


आज एक और राजनीतिक आन्दोलन के महत्वपूर्ण अध्याय का पटाक्षेप हो रहा है. आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविन्द केजरीवाल द्वारा दिल्ली में बिजली और पानी के नाजायज बिलों के खिलाफ 23 मार्च से शुरू किये आमरण अनशन को शनिवार की शाम पांच बजे ख़त्म करने की घोषणा हुई है. राजनीति में शुचिता के आग्रह को लेकर चले अरविन्द केजरीवाल के आन्दोलन का जो परिणाम आ रहा है वो बहुत कुछ सिखाता है. एक तरह के नैतिक सदाचार को राजनीति में प्रवेश दिलाने के लिए - या फिर राजनैतिक कदाचार को बाहर निकाल फेंकने के लिए जो रणनीति बनायी गयी वो स्वयं ही राजनीति का शिकार हो गयी है.

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'इमोशनल अत्याचार' का एक पोज

केजरीवाल और अन्ना खेमे का आतंरिक मनमुटाव हो या फिर जनता का इन दोनों से मोहभंग हो जाना हो - दोनों अर्थों में एक बात साबित होती है कि शुद्धतम नैतिक आग्रहों पर खड़े आन्दोलन कोई बड़ा परिवर्तन नहीं ला सकते. और जब तक इनको एक सामाजिक आन्दोलन की तरह धीरे धीरे विकसित नही किया जायेगा तब तक इनसे ज्यादा उम्मीद नहीं की जा सकती. गांधी के सत्याग्रह की तर्ज पर रचा गया ये आन्दोलन आरम्भ से ही राजनीति केन्द्रित हो गया था, इस कारण इस आन्दोलन ने जनता के एक बड़े वर्ग की सहानुभूति खो दी. साथ ही अपने कारपोरेट आकाओं के इशारे पर इलेक्ट्रानिक मीडिया ने भी इन लोगों को पहले जैसा महत्व देना बंद कर दिया. अब जो परिणाम होना था वो हो रहा है.

एक बड़ी जनसँख्या को सिर्फ मीडिया अपील के आधार पर या घोटालों, महंगाई जैसे कुछ तात्कालिक मुद्दों के आधार पर बहुत देर तक एकमत नहीं रखा जा सकता. ये इस पूरे अध्याय का कुल सार है. जनता को एक ज्यादा ठोस और भावनात्मक मुद्दा चाहिए जिसका भले ही उनकी रोजमर्रा की जिन्दगी से कोई सम्बन्ध ना हो, लेकिन एक तरह का भय या प्रलोभन जो जनता के अपने ही सामूहिक मन से निकलता हो - वो उस मुद्दे के केंद्र में होना चाहिए. इस तरह का एक भावनात्मक जाल- जिसे रचने में महात्मा गांधी की कुशलता बेजोड़ थी - उस कौशल के बिना सिर्फ राजनैतिक सत्याग्रह का कोई अर्थ नहीं है.

"काले अंग्रेजों से स्वतंत्र देश या असली स्वराज" आज कोई मुद्दा नहीं बन सकता. इसको बहुत गहराई से समझने की जरूरत है. एक नयी राजनीतिक पार्टी का भय दिखा कर या, पर्दाफ़ाश की धमकियों या अनशन जैसे इमोशनल अत्याचारों से किसी स्थायी व्यवस्था परिवर्तन की उम्मीद करना एक बचकानी बात है. ऐसे अनशन या पर्दाफ़ाश एक हद तक खबर तो बन जाते है लेकिन कोई सार्थक या दीर्घजीवी जनजागरण नहीं कर पाते. इस तरह के उपायों से राजनीति में शुचिता को लाने के प्रयास ना केवल आज असफल हो रहे हैं बल्कि ऐतिहासिक रूप से असफल होते रहे है.

सवाल यह भी है कि क्या राजनीती में शुचिता संभव है और क्या शुचिता की राजनीति संभव है? इस प्रश्न में गहरे उतरें तो हम देखते हैं कि भारत के ज्ञात इतिहास में आज तक शुचिता की राजनीति नहीं हुई है. जो सफल उदाहरण इस सन्दर्भ में दिए भी जाते रहे है वो राजनीतिक प्रकृति के नहीं वरन सामाजिक और धार्मिक प्रकृति के उदाहरण है. जैसे कि गांधी का सत्याग्रह और आजादी का संघर्ष - जो कि एक अलग ही तरह के मनोविज्ञान को लेकर आरम्भ हुआ था और जिसकी प्रक्रिया और परिणाम में पुनः भावनात्मक जनज्वार ही साधन रहा है.

ऐसे उदाहरणों को दुर्भाग्य से राजनीति के सफल प्रयोगों की श्रेणी में रखकर प्रचारित किया गया है. अब ये स्वयं में एक षडयंत्र है. जो साधन और नीतियाँ धार्मिक और नैतिक पक्ष से आती है उन्हें राजनीति का विषय बनाकर पेश करना वस्तुतः राजनीतिक "आत्मगान" की विवशता से संचालित गोरखधंधा है, जिसका उपयोग वंशवादी राजनीति ने स्वयं की जड़ें मजबूत करने के लिए किया है. महात्मा गांधी के परवर्ती नेताओं में ना तो इस बात का साहस रहा है ना ही अंतर्दृष्टि कि समाजनीति, नैतिकता, धर्म और राजनीति को अलग अलग परिभाषित करें और उनके अलग अलग उपायों को उनकी योग्य जगहों पर इस्तेमाल करें.

ये एक गंभीर बात है. इस बात को प्रयोग में लाने के लिए अदम्य नैतिक साहस और निःस्वार्थ मन चाहिए. समाज से सीधे सीधे बात करते हुए समाज की नैतिक धारणाओं में देश के भविष्य की चिंताओं को प्रवेश करवा देना एक सफलतम प्रयोग था जो महात्मा गांधी ने किया. लेकिन ये राजनैतिक प्रयोग नहीं वरन सामाजिक या समाज मनोवैज्ञानिक प्रयोग था, जो धर्म की एक विशिष्ट व्याख्या से प्रेरित था और इसके बीज हम स्वयं उनके सत्य के प्रयोगों में ढूंढ सकते है.

दुर्भाग्य से इन सफलताओं को एक गलत सन्दर्भ में रखकर प्रचारित करने की परिपाटी चल पडी है. दशकों-दशक अपने राजनीतिक उत्तरजीवन को साधे रखने की विवशता इसके केंद्र में रही है. इस एक बात ने ना सिर्फ स्वयं राजनीति को एक परजीवी बना दिया है, बल्कि आज़ादी के बाद के सामाजिक धार्मिक और नैतिक आन्दोलनों के औचित्य और अस्तित्व पर भी गंभीर हमला किया है. अब हर सामाजिक या नैतिक/धार्मिक आन्दोलन अनिवार्य रूप से राजनीतिक बन जाता है. हम आज कल्पना भी नहीं कर पाते कि राजनीतिक बहस में पड़े बिना सिर्फ आमजन के चरित्र में और उसकी सोच में आधारभूत परिवर्तन लाकर कोई बड़ा काम किया जा सकता है.

कोई भी नयी पहल जो देश के औसत चरित्र को ऊंचा उठाना चाहती है उसे समाज के साथ सीधा संवाद कायम करके चुपचाप काम करना चाहिए. इसी के क्रम में एक समय आयेगा जब ये ऊंचाई राजनीति में भी छलकने लगेगी. यह एक धीमा काम है जो बहुत धैर्य मांगता है. लेकिन दुर्भाग्य से हमारी 'इंस्टेंट' परिणाम वाली पीढ़ी के नए क्रांतिकारी एक ही साल में सब कुछ हासिल कर लेना चाहते हैं. फिर चाहे वो जंतर मंतर पर क्षणिक करिश्मा दिखाने वाले आन्दोलन हों या नितांत व्यक्तिगत और सामूहिक स्वास्थ्य के लिए योग की प्रस्तावना को लेकर उपजा आन्दोलन हो - दोनों ही राजनीतिक सत्तापलट की अतिमहत्वाकांक्षी और बचकानी लड़ाई में जा फंसे. 

यहाँ बड़ा प्रश्न ये है कि हम जिस राजनीति को गरियाते हैं, उसी में उम्मीद क्यों देखते हैं? क्या किसी तरह का राजनीतिक सत्तापलट बड़े पैमाने पर समाज के औसत चरित्र को ऊपर उठाये बिना हितकारी हो सकता है? यह बात बहुत विचारणीय है क्योंकि सत्ता से लड़ने वालों में जब सत्ता का मोह जाग जाता है तब वो पुराने अधिनायकों से ज्यादा खतरनाक साबित होते हैं. इस अनंत लड़ाई में समाज में व्याप्त एक जागरूकता और शुचिता ही अंततः हर भांति के अधिनायकत्व का शमन कर पाती है. 

इस बिंदु पर भारतीय जनता का चरित्र एक पहेली बन जाता है, क्या भारतीय समाज भ्रष्टाचारी, सामंतवादी और वंशवादी राजनीति को बनाए रखना चाहता है? या फिर भारतीयों की राजनीतिक चेतना कुंद हो चुकी है? या कि भारतीय समाज सदा से ही राजनीति से तटस्थ होकर जीता आया है ? वो पुरानी उक्ति - "को नृप होउ हमें का हानि" क्या आज भी हमारे सामूहिक मनोविज्ञान को अभिशप्त किये हुए है? इन सब प्रश्नों का जो भी उत्तर हो एक बात तय है कि जो भी लोग समाज की मूलभूत सोच में परिवर्तन लाये बिना तुरंत कोई क्रान्ति या व्यवस्था परिवर्तन करना चाहते हैं उनसे बहुत कुछ हासिल नहीं होने वाला. ज्यादा से ज्यादा हम एक जानी पहचानी समस्या को दूसरी अपरिचित समस्या से बदल दे सकते हैं, अक्सर इसी को क्रान्ति कहा गया है.

अगर ऐसी क्रान्ति और व्यवस्था परिवर्तन हमारे आज के क्रांतिकारियों का ध्येय है तो इन क्रांतियों के साधनो और लक्ष्यों पर गंभीर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है. इसीलिये राजनीति को सीधे सीधे शुद्ध करने के उपाय करने की बजाय समाज में एक लम्बे और निरंतर जागरण की आवश्यकता है. सरल शब्दों में हमें राजनीतिक आन्दोलन से ज्यादा सामाजिक आन्दोलन की जरुरत है.

sanjay-jotheसंजय जोठे इंदौर में कार्यरत हैं.

http://www.janjwar.com/2011-05-27-09-00-20/25-politics/3886-kejarival-ka-hathiyar-emotional-atyachar-by-sanjay-jothe

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