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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Friday, June 7, 2013

राज्य अवधारणा विरोधी शासनादेश

राज्य अवधारणा विरोधी शासनादेश

चन्द्रशेखर करगेती

uttarakhand-state-movementहाल ही में राज्य सरकार द्वारा मूल निवास और जाति प्रमाण पत्र के सम्बन्ध में जारी शासनादेश भविष्य के लिए खतरनाक है। यह शासनादेश ऐसे समय आया जब राज्य में यह बहस जोरों पर है कि आखिर राज्य किसके लिए बना ? शासनादेश में मूल और स्थायी निवास को एक मानते हुए इसकी कट ऑफ डेट 1985 मानी है, जबकि पूरे देश में यह 1950 है। उल्लेखनीय है कि पृथक राज्य निर्माण की आग को नवयुवकों द्वारा तब और तेज किया था, जब तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार ने यहाँ 27 प्रतिशत ओबीसी आरक्षण लागू करने का शासनादेश जारी किया। उस समय मसला नवयुवकों के हितों का अधिक था और ओबीसी आरक्षण का मसला उत्तर प्रदेश में रहते न सुलझने की आशंका के कारण ही पृथक उत्तराखंड राज्य आंदोलन तीब्र हुआ। यह शासनादेश भी भविष्य के लिए फिर वही स्थितियाँ राज्य में पैदा कर रहा है।

राज्य पुनर्गठन के बाद मूल, स्थायी और जाति प्रमाण-पत्र का विवाद उत्तराखंड राज्य के अलावा हर उस राज्य के सामने आया, जो अपने पूर्ववर्ती राज्यों से अलग कर बनाए गए थे। लेकिन बाकी राज्यों की सरकारों ने बाहर के राज्यों से आए लोगों के वोट के लालच में इसे राजनीतिक मुद्दा बनाने के बजाय उच्चतर कानूनी संस्थाओं द्वारा उपलब्ध कराए गए प्रावधानों एवं समय-समय पर इस सम्बन्ध में देश की सर्वोच्च न्यायपालिका द्वारा दिए गए न्यायिक निर्णयों की रोशनी में अविवादित एवं स्थायी रूप से हल कर लिया। जबकि उत्तराखंड की सत्ता एवं विपक्ष में बैठे राजनेता इसे वोट-बैंक और मैदानी क्षेत्रवाद का मुद्दा बनाकर अपने फायदे के लिए चुनावों में इस्तेमाल करते रहे। राज्य के उच्च न्यायालय की एकल पीठ में लचर पैरवी के परिणामस्वरूप मन माफिक निर्णय आ जाने पर इस संवेदनशील तथा भावना से जुड़े मुद्दे पर नीति बनाते समय वे उत्तराखंड राज्य निर्माण की उस मूल अवधारणा को ही भूल गए जिसके लिए यहाँ का हर वर्ग आन्दोलित रहा। ऐसे में राजनेताओं की मंशा पर सवाल उठना लाजमी है कि जब उच्च न्यायालय की एकल पीठ का यह निर्णय अंतिम नहीं था, तो इसके खिलाफ डबल बेंच में और फिर उच्चतम न्यायालय में चुनौती क्यों नहीं दी गई? राजनीतिज्ञों द्वारा राज्य निर्माण की भावना के साथ खिलवाड़ का यह कोई पहला मामला नहीं है, इससे पूर्व भी सर्वोच्च न्यायालय में मुजफ्फरनगर कांड के दोषियों को सजा दिलाने के मामले में भी सरकार में बैठे नेताओं और राज्य मशीनरी की भूमिका संदिग्ध रही और मुजफ्फरनगर कांड के दोषी सजा पाने से बच गए।

देश में सबसे पहले मूल निवास और जाति प्रमाण पत्र का मामला सन् 1977 में महाराष्ट्र में उठ चुका था। महाराष्ट्र सरकार ने केंद्र सरकार के दिशा-निर्देशों के अनुसार एक आदेश जारी किया था, जिसमें कहा गया कि सन 1950 में जो व्यक्ति महाराष्ट्र का स्थायी निवासी था, वही राज्य का मूल निवासी है। महाराष्ट्र व भारत सरकार के इस आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई। इस पर उच्चतम न्यायालय की संवैधानिक पीठ ने मूल निवास व स्थायी निवास के मामले में जो निर्णय दिया, वह अंतिम और सभी राज्यों के लिए बाध्यकारी है। उच्चतम न्यायालय ने कहा कि राष्ट्रपति के दिनांक 8 अगस्त और 6 सितंबर 1950 को जारी नोटिफिकेशन के अनुसार उस तिथि को जो व्यक्ति जिस राज्य का स्थायी निवासी था, वह उसी राज्य का मूल निवासी है। किसी भी व्यक्ति को जाति प्रमाण पत्र उसी राज्य से जारी होगा, जिसमें उसके साथ सामाजिक अन्याय हुआ है। उच्चतम न्यायालय ने अपने विभिन्न निर्णयों में यह भी स्पष्ट किया है कि रोजगार, व्यापार या अन्य किसी प्रयोजन के लिए यदि कोई व्यक्ति किसी अन्य राज्य या क्षेत्र में रहता है तो उसे उस क्षेत्र का मूल निवासी नहीं माना जा सकता। उत्तराखंड के साथ ही अस्तित्व में आए झारखंड और छत्तीसगढ़ में मूल निवास का मामला उच्चतम न्यायालय के निर्णयों के अनुसार बिना किसी फिजूल विवाद के हल कर लिया गया।

अधिवास संबंधी एक अन्य वाद नैना सैनी बनाम उत्तराखंड राज्य (एआईआर-2010,उत्त.-36) में उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने सन 2010 में प्रदीप जैन बनाम भारतीय संघ (एआईआर-1984, एससी-1420) में दिए उच्चतम न्यायालय के निर्णय को ही प्रतिध्वनित किया था। उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय में स्पष्ट कहा था कि देश में एक ही अधिवास की व्यवस्था है जो है भारत का अधिवास! यही बात उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने नैना सैनी मामले में दोहराई।

जबकि उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने दिनांक 17 अगस्त 2012 को मूल निवास के संदर्भ में जो फैसला सुनाया उसमें दलील दी कि 9 नवंबर 2000 यानि राज्य गठन के दिन जो भी व्यक्ति उत्तराखंड की सीमा में रह रहा था, उसे यहाँ का मूल निवासी माना जायेगा। राज्य सरकार ने बिना आगे अपील किये उस निर्णय को ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया। आम जनता उच्च न्यायालय और राज्य सरकार के फैसले से हतप्रभ है कि जब देश की सर्वोच्च अदालत इस संदर्भ में पहले ही व्यवस्था कर चुकी है, तो फिर राज्य सरकर ने उस पूर्ववर्ती न्यायिक व्यवस्था को ज्यों का त्यों स्वीकार क्यों नहीं किया और उच्च न्यायालय की एकल पीठ के निर्णय के खिलाफ अपील क्यों नहीं की?

सर्वोच्च न्यायालय ने जाति प्रमाण पत्र के मामले पर अपने निर्णयों में साफ-साफ कहा है कि यदि कोई व्यक्ति रोजागर और अन्य कार्यों हेतु अपने मूल राज्य से अन्य राज्य में जाता है, तो उसे उस राज्य का जाति प्रमाण पत्र नहीं मिलेगा जिस राज्य में वह रोजगार हेतु गया है, उसे उसी राज्य से जाति प्रमाण पत्र मिलेगा जिस राज्य का वह मूल निवासी है। सर्वोच्च न्यायालय ने यह व्यवस्था राष्ट्रपति के नोटिफिकेशन के तहत ही दी थी जिसके अनुसार 10 अगस्त व 6 सितंबर 1950 को जो व्यक्ति जिस राज्य का स्थायी निवासी था उसे उसी राज्य में मूल निवास प्रमाण पत्र मिलेगा। यदि कोई व्यक्ति राष्ट्रपति के नोटिफिकेशन की तिथि पर अस्थाई रोजगार या अध्ययन के लिए किसी अन्य राज्य में गया हो तो भी उसे अपने मूल राज्य में ही जाति प्रमाण पत्र मिलेगा। ऐसे में मूल निवास के मसले पर राज्य सरकार का उच्च न्यायालय के फैसले को ज्यों का त्यों स्वीकार कर लेना और उस पर शासनादेश जारी कर देना संवैधानिक प्रावधानों के खिलाफ है।

छत्तीसगढ़ और झारखंड राज्यों का गठन भी अन्य राज्यों से अलग कर किया गया था, लेकिन इन राज्यों में मूल निवास और जाति प्रमाण पत्र दिये जाने का प्रावधान सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों पर ही आधारित है। झारखंड में उन्हीं व्यक्तियों को मूल निवास प्रमाण पत्र निर्गत किये जाते हैं जो पीढि़यों से वर्तमान झारखंड राज्य क्षेत्र के निवासी थे। छत्तीसगढ़ में जाति प्रमाण पत्र उन्हीं लोगों को दिये जाते हैं जिनके पूर्वज 10 अगस्त व 6 सितंबर 1950 को छत्तीसगढ़ राज्य में सम्मिलित क्षेत्र के मूल निवासी थे।

महाराष्ट्र राज्य के गठन 1 मई 1960 के बाद मूल निवास का मुद्दा गरमाया था। यहाँ भी दूसरे राज्यों से आये लोगों ने जाति प्रमाणपत्र दिये जाने की मांग की। ऐसी स्थिति में महाराष्ट्र सरकार ने भारत सरकार से इस संदर्भ में कानूनी राय मांगी, जिस पर भारत सरकार ने सभी राज्यों को राष्ट्रपति के नोटिफिकेशन की तिथि 10 अगस्त व 6 सितंबर 1950 का परिपत्र जारी किया। भारत सरकार के दिशा-निर्देशन के बाद महाराष्ट्र सरकार ने 12 फरवरी 1981 को एक सर्कुलर जारी किया जिसमें स्पष्ट किया गया था कि राज्य में उन्हीं व्यक्तियों को अनुसूचित जाति, जनजाति के प्रमाण पत्र मिलेंगे जो 10 अगस्त व 6 सितंबर 1950 को राज्य के स्थाई निवासी थे। यह भी स्पष्ट किया था कि जो व्यक्ति 1950 में राज्य की भौगोलिक सीमा में जहाँ निवास करते थे वहीं जाति प्रमाण पत्र पाने के हकदार होंगे।

ऐसा भी नहीं था कि उत्तराखंड में जाति प्रमाण पत्र के सम्बन्ध में ऐसे नियम नहीं हैं। उत्तराखंड राज्य पुनर्गठन अधिनियम 2000 की धारा 24 एवं 25 तथा इसी अधिनियम की पाँचवीं और छठी अनुसूची तथा उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ के निर्णय में जो व्यवस्था की गयी है उसके आलोक में उत्तराखंड में उसी व्यक्ति को जाति प्रमाण पत्र मिल सकता है जो 10 अगस्त व 6 सितंबर 1950 को वर्तमान उत्तराखंड राज्य की सीमा में स्थाई निवास कर रहा था। उच्च न्यायालय की एकल पीठ के निर्णय में यह तथ्य विरोधाभाषी है कि जब प्रदेश में मूल निवास का प्रावधान उत्तराखंड राज्य पुनर्गठन अधिनियम में है तो फिर राज्य सरकार मूल निवास की कट ऑफ डेट राज्य गठन को क्यों मान रही है, उसके द्वारा एकल पीठ के निर्णय को चुनौती क्यों नहीं दी गयी ?

सन् 1961 में भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति ने पुनः नोटिफिकेशन के द्वारा यह स्पष्ट किया था कि देश के सभी राज्यों में रह रहे लोगों को उस राज्य का मूल निवासी तभी माना जाएगा, जब वह 1951 से उस राज्य में रह रहे होंगे। उसी के आधार पर उनके लिए आरक्षण व अन्य योजनाएं भी चलाई जाएं। उत्तराखंड राज्य बनने से पहले संयुक्त उत्तर प्रदेश में पर्वतीय इलाकों के लोगों को आर्थिक रूप से कमजोर एवं सुविधाविहीन क्षेत्र होने के कारण आरक्षण की सुविधा प्रदान की गई थी, जिसे समय-समय पर विभिन्न न्यायालयों ने भी उचित माना था। आरक्षण की यह व्यवस्था कुमाऊँ में रानीबाग से ऊपर व गढ़वाल में मुनिकीरेती से ऊपर के पहाड़ी क्षेत्रों में लागू होती थी। इसी आधार पर उत्तर प्रदेश में इस क्षेत्र के लोगों के लिए इंजीनियरिंग व मेडिकल की कक्षाओं में कुछ प्रतिशत सीटें रिक्त छोड़ी जाती थीं।

उत्तराखंड राज्य बनने के बाद तराई के जनपदों में बाहरी लोगों ने अपने आप को उद्योग-धंधे लगाकर यहीं मजबूत कर लिया और सरकार का वर्तमान रवैया भी उन्हीं को अधिक फायदा पहुँचा रहा है। आज प्रदेश के तराई के इलाकों में जितने भी बडे़ उद्योग-धंधे हैं या जो लग रहें हैं अधिकांश पर बाहरी राज्य के लोगों का मालिकाना हक है। ऐसे में राज्य सरकार अगर भविष्य में इन सभी लोगों को यहाँ का मूल निवासी मान ले तो राज्य के पर्वतीय जिलों के अस्तित्व पर संकट छा जाएगा। बात नौकरी और व्यवसाय से इतर भी करें तो राज्य में सबसे बड़ा संकट खेती की जमीनों पर है। सरकारी आंकड़ों के हिसाब से राज्य में पिछले ग्यारह सालों में लगभग 53 हजार हेक्टेयर (राज्य गठन से लेकर मार्च-2011 तक) जमीन खत्म हो चुकी है। गैर सरकारी आंकड़ों पर गौर किया जाय तो यह स्थिति और भी भयावह है। यह स्थिति तब है जब बाहरी लोगों के राज्य में जमीन की खरीद-फरोख्त पर रोक लगी है और राज्य में हाल ही में खरीदी गयी अधिकांश जमीन बाहर से आये लोगों की है। अगर इन्हें मूल निवास और जाति प्रमाण पत्र बना देने के नियमों में ढील दी जाती है तो राज्य का मूल निवासी होने के नाते उन्हें यह अधिकार स्वतः ही मिल जाते हैं कि वे रोक लगी भूमि से अधिक भूमि निर्बाध रूप से इस राज्य में खरीद सकते हैं, जो आने वाले समय में और बड़ा संकट खडा करेगा। इस व्यवस्था के अस्तित्व में आने से राज्य के अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोग अधिक प्रभावित होंगे क्योंकि अन्य राज्यों से आये लोग ही इस व्यवस्था से अधिक लाभ अर्जन करेंगे। वे अपने मूल राज्य से भी प्रमाण-पत्र प्राप्त करेंगे और उत्तराखंड से भी, जहाँ अवसर ज्यादा होंगे वे दोनो में से उस राज्य के अवसरों को अधिक भुनायेंगे, जो सीधा इस राज्य के मूल अनुसूचित एवं अनुसूचित जनजाति के लोगों के हितों पर कानूनी डाका है।

जाति प्रमाण पत्र और मूल निवास का मामला अंतिम रूप से निर्णित नहीं हुआ है बल्कि उच्च न्यायालय की डबल बेंच में लंबित हैं। ऐसे में न्यायालय का अंतिम फैसला आने से पूर्व सरकार का जल्दीबाजी में इस संबंध में शासनादेश जारी करना किसी बड़े राजनैतिक स्वार्थ का स्पष्ट संकेत है। सरकार की इस नीति से भविष्य में राज्य का सामाजिक ताना-बाना तो प्रभावित होगा ही अलग राज्य की अवधारणा भी समाप्त हो जायेगी। सरकार और विपक्ष में बैठे राजनेताओं के इस कुटिल गठजोड़ के कुपरिणाम आने वाली पीढ़ी को भुगतने होंगे, जिसके लिए हम सभी को तैयार रहना चाहिए।

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