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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Friday, June 7, 2013

स्वायत्तता के बहाने

स्वायत्तता के बहाने

Thursday, 06 June 2013 09:52

हरिपाल दास  
जनसत्ता 6 जून, 2013: विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने आखिरकार दिल्ली विश्वविद्यालय के चार साला स्नातक स्तरीय पाठ्यक्रम पर पिछले कई महीनों से दिल्ली विश्वविद्यालय और देश भर के प्रतिष्ठित बौद्धिकों के द्वारा जाहिर की जा रही चिंताओं और आपत्तियों को मान्यता दे दी है। उसने नए कार्यक्रम में दाखिले के ठीक एक दिन पहले एक निगरानी समिति बनाई है जो (एक) इस कार्यक्रम के क्रियान्वयन पर निगाह रखेगी; (दो) पाठ्यक्रम, शिक्षण-विधि और मूल्यांकन के मामलों में बेहतरी के लिए सलाह देगी; (तीन) दिल्ली विश्वविद्यालय और अन्य विश्वविद्यालयों के परास्नातक कार्यक्रमों पर इस चार साला कार्यक्रम के प्रभाव का आकलन करेगी; और (चार) प्रस्तावित कार्यक्रम से जुड़े किसी भी अन्य मसले पर विचार करेगी और प्रासंगिक सुझाव देगी। यह समिति समय-समय पर आयोग को अंतरिम रिपोर्ट देती रहेगी।
समिति की घोषणा के समय ने आयोग की मंशा और निगरानी समिति की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े कर दिए हैं। आज से कोई एक महीना पहले आयोग के बोर्ड की बैठक में दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रस्तावित स्नातक कार्यक्रम पर विचार के लिए बोर्ड के तीन सदस्यों की मांग को आयोग के अध्यक्ष ने यह कह कर नामंजूर कर दिया था कि यह आयोग के अधिकार क्षेत्र से बाहर है। उसकी जगह उन्होंने प्रेस के सामने पचास साल पुराने कोठारी आयोग का सहारा लेकर दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रस्तावित कार्यक्रम का औचित्य सिद्ध करने की कोशिश की थी। 
उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय की स्वायत्तता की दुहाई भी दी थी और आयोग के हस्तक्षेप को सैद्धांतिक रूप से गलत बताया था। स्वायत्तता के सिद्धांत को लेकर अपनी प्रतिबद्धता मानव संसाधन विकास मंत्रालय भी लगातार जाहिर करता रहा है। हाल में राज्यमंत्री शशि थरूर ने अध्यापकों और बुद्धिजीवियों को यह कह कर शर्मिंदा किया कि वे सरकार को विश्वविद्यालय की स्वायत्तता भंग करने का न्योता दे रहे हैं।
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के बोर्ड की नौ मई की बैठक के बाद स्थिति में क्या कोई गुणात्मक परिवर्तन आया है, जिससे आयोग के अध्यक्ष को इस समिति को बनाने का एलान करना पड़ा? समिति के गठन की अधिसूचना में कारण वही गिनाए गए हैं जो करीब छह महीने से अलग-अलग स्तरों पर उठाए जाते रहे हैं। मंत्रालय और आयोग ने उन सारी चिंताओं को तकनीकी आधार पर खारिज किया, यह कह कर कि चूंकि दिल्ली विश्वविद्यालय की अकादमिक परिषद और कार्य परिषद ने इस कार्यक्रम को पारित कर दिया है, विश्वविद्यालय के बाहर की कोई संस्था इस पर विचार नहीं कर सकती। 
अब इस समिति के गठन ने कम से कम स्वायत्तता के तर्क को सिद्धांत रूप से अप्रासंगिक बना दिया है। इस कार्यक्रम के आलोचक भी यही कह रहे थे: (एक) यह कार्यक्रम राष्ट्रीय शिक्षा नीति (10+2+3) से विचलन है; (दो) बिना आवश्यक संसाधनों के (पर्याप्त संख्या में अध्यापक, कक्षा, प्रयोगशाला, अध्ययन सामग्री आदि) पहले से चले आ रहे कार्यक्रम में विस्तार शिक्षण की गुणवत्ता को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करेगा; (तीन) नए कार्यक्रम के लिए पर्याप्त अकादमिक तर्क नहीं दिए गए हैं; (चार) इस कार्यक्रम के लागू होने से दिल्ली विश्वविद्यालय और अन्य विश्वविद्यालयों में स्नातक और परास्नातक स्तर पर असंगति पैदा होती है। 
आलोचकों का (जिन्हें जड़वादी, परिवर्तन-भीरु और अड़ंगेबाज कहा गया) कहना था कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का दायित्व उच्च शिक्षा की गुणवत्ता की गारंटी करने का है, पूरे देश में उच्च शिक्षा में तालमेल कायम करने और विभिन्न सांस्थानिक अकादमिक कार्यक्रमों के बीच समतुल्यता सुनिश्चित करने का है। ये सारी वजहें दिल्ली विश्वविद्यालय के नव-प्रस्तावित स्नातक कार्यक्रम के मामले में हस्तक्षेप के लिए मौजूद थीं। और इसलिए आयोग अपनी भूमिका से बच नहीं सकता था। 
आयोग और मंत्रालय को भी सुझाव दिया गया था कि वे इस कार्यक्रम के लागू होने के पहले विशेषज्ञों की एक उच्चस्तरीय समिति गठित करें, जो इसकी समीक्षा ऊपर लिखी चिंताओं के संदर्भ में करे और इसमें जरूरी सुधार करे। इसलिए इस कार्यकम को कम से कम एक साल के लिए स्थगित करना जरूरी था। 
कार्यक्रम में दाखिला शुरू हो जाने के बाद विशेषज्ञों की इस समिति के लिए बड़ी असमंजस की स्थिति पैदा हो गई है। सबसे पहली बात तो यह कि समिति पूरे कार्यक्रम पर अकादमिक गुणवत्ता की दृष्टि से कैसे विचार करे? इसमें जो बुनियादी संरचनात्मक खामी है, उसे दूर करने के लिए वह किस प्रकार सुझाव देगी? यानी दो साल, तीन साल और चार साल के लिए (डिप्लोमा, बैचलर और आॅनर्स) एक ही पाठ्यक्रम से कैसे काम लिया जा सकेगा? ग्यारह बुनियादी पर्चों (फाउंडेशन कोर्स) को सभी विषयों के छात्रों के लिए अनिवार्य करना कितना उचित है और उसमें कैसे सुधार किया जाए? 
प्रस्तावित कार्यक्रम के ढांचे के घोषित लचीलेपन और वास्तविक अ-नमनीयता के द्वैध को कैसे दूर किया जा सकेगा? सबसे बढ़ कर, तीन साल में मिलने वाली डिग्री के लिए चार साल खर्च करने का क्या तर्क है? यही समिति अगर एक महीना पहले बना दी जाती और कार्यक्रम एक वर्ष के लिए स्थगित किया जाता तो इन सभी प्रश्नों पर वह सम्यक रूप से विचार कर सकती थी और उसके सुझावों का कोई मतलब हो सकता था।
इस स्थिति के लिए कौन जवाबदेह है? प्रधानमंत्री और मानव संसाधन विकास मंत्री स्वायत्तता का मंत्रजाप करते रहे और शुतुरमुर्ग की तरह सिर गाड़े रहे, मानो वे देखेंगे नहीं तो तूफान आएगा ही नहीं। दूसरे, मंत्रालय में बैठे नौकरशाहों ने अहंकारपूर्ण तरीके से देश के श्रेष्ठ अकादमिक विद्वानों की चिंताओं को तकनीकी प्रक्रिया के तर्क के आगे खारिज कर दिया। तीसरे, शशि थरूर जैसे मंत्री का अपने कॉलेज के मित्र, दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति के पक्ष में अनावश्यक हस्तक्षेप। राज्यमंत्री होने और उच्च शिक्षा की जिम्मेदारी अपने पास न होने के बावजूद अप्रैल के अंत में सबसे पहले उन्होंने इस नए कार्यक्रम के पक्ष में बयान दिया। उसके बाद से वे कई बार इस कार्यक्रम की वकालत अलग-अलग तर्कों के सहारे कर चुके हैं। 

यह न सिर्फ अनावश्यक था, एक तरह से अनैतिक भी। वे कह चुके हैं कि कुलपति उनके मित्र हैं। उनकी इस स्वीकृति के बाद कुलपति से जुड़े किसी भी मामले में उनकी निष्पक्षता और वस्तुपरकता संदिग्ध हो जाती है। बयान देते समय भी वे जानते थे कि प्रधानमंत्री ने नए कार्यक्रम में अनावश्यक हड़बड़ी पर चिंता जाहिर की है, स्वयं उनके मंत्री विशेषज्ञों से मिल कर मामले को समझने की कोशिश कर रहे हैं। जिस समय उन्हें चुप रहना चाहिए था, उत्साहपूर्वक अपने मित्र के लिए सार्वजनिक रूप से वकालत करके उन्होंने अपने मंत्रालय और सरकार के लिए असमंजस की स्थति उत्पन्न कर दी। इस तरह पूरे प्रसंग को उलझाने में शशि थरूर की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
इस प्रसंग में विजिटर के कार्यालय की दीर्घसूत्रता पर भी विचार किया जाना चाहिए। उनके पास पिछले छह महीने से इस संदर्भ में चिट्ठियां जा रही हैं। उनका जवाब तो देना दूर, उस कार्यालय ने इतना भी जरूरी नहीं समझा कि वह उनकी पावती दे। कहा जा सकता है कि विजिटर तो आखिरकार मंत्रालय के माध्यम से काम करता है। वह मंत्रालय की सलाह के बिना कुछ भी कैसे बोलता? और इस सरकार की आम किंकर्तव्यविमूढ़ता की बीमारी का शिकार मंत्रालय हाथ बांधे बैठा रहा। तो विजिटर कैसे बोलते? इस सच्चाई को जानते सब हैं, फिर किस स्वायत्तता का ढोंग किया जा रहा है?
सुनते हैं, प्रधानमंत्री ने बड़ी मासूमियत से पूछा कि वे कैसे एक स्वायत्त संस्था के काम में दखल दें? फिर उतने ही निश्छल भाव से उन्होंने जानना चाहा कि आखिर विश्वविद्यालय अनुदान आयोग क्यों कुछ नहीं करता! वे शायद कहना चाहते थे कि आयोग भी सरकार से स्वतंत्र है। उनकी इस सादगी पर कुर्बान होने को जी चाहता है। 
क्या वे भूल गए कि आयोग के अध्यक्ष के चयन में प्रधानमंत्री कार्यालय की क्या भूमिका थी? कि किस तरह उन्होंने खुद आयोग के अध्यक्ष की खोज के लिए बनी चयन समिति के प्रस्ताव को खारिज किया और उस समिति को कहा था कि वह अपनी सूची में और नाम डाले? क्या यह सच नहीं कि उक्त चयन समिति को बाध्य होकर वे नाम भी डालने पड़े जिन्हें पहले उसने योग्य नहीं पाया था? और क्या यह सच नहीं कि पहली बार चयन समिति की अंतिम सूची से खारिज कर दिए गए व्यक्तियों में से ही एक, आज आयोग के अध्यक्ष हैं? 
जब विश्वविद्यालय अनुदान आयोग जैसी महत्त्वपूर्ण संस्था के प्रमुख के चयन में इस प्रकार का सीधा हस्तक्षेप निस्संकोच किया जाता है और वह भी ऐसे व्यक्ति के पक्ष में, जिसके बारे में सरकार के नौकरशाहों का खयाल है कि उनके साथ काम करना सबसे आसान है, तब स्वायत्तता एक सुविधाजनक आड़ के अलावा और कुछ नहीं रह जाती। वह स्वेच्छाचारी निष्क्रियता के लिए एक सुंदर तर्क है।
दिल्ली विश्वविद्यालय के नए स्नातक कार्यक्रम की निगरानी के लिए बनी समिति फिर भी एक अवसर है। अध्यापकों, अभिभावकों, छात्रों के लिए। इस समिति को खुद भी नए पाठ्यक्रम का अध्ययन करना चाहिए और दूसरे विशेषज्ञों की भी राय लेनी चाहिए। हम क्या उम्मीद करें कि यह समिति स्वतंत्र रूप से, बौद्धिक साहस के साथ काम करेगी और किसी गैर-अकादमिक, तकनीकी तर्क से अस्वीकार्य को स्वीकार्य बनाने के लिए कोई बहाना नहीं खोजेगी? पिछले वर्षों में हमने अनेक बार बौद्धिकों का इस्तेमाल सरकार द्वारा अपने कृत्यों को जायज ठहराने के लिए होते देखा है। इस बार फिर इसका खतरा है। 
इस निगरानी समिति के गठन के ही दिन मीडिया से बात करते हुए आयोग के अध्यक्ष ने समिति के कार्य के बारे में एक ऐसी बात कही है जो आयोग की अधिसूचना में कहीं नहीं है। उन्होंने एक अंग्रेजी दैनिक से कहा कि यह समिति अन्य विश्वविद्यालयों के लिए इस चार साला पाठ्यक्रम की उपयुक्तता पर भी विचार करेगी। समिति के काम शुरू करने के पहले ही वे इसके लिए निर्धारित काम से अलग अनौपचारिक इशारे कर रहे हैं। स्थापित प्रक्रियाओं को किनारे करके अनौपचारिक तरीकों से काम निकाल लेने की प्रवृत्ति इस सरकार की खासियत बन गई है। आयोग इस सरकारियत का शिकार हो तो हैरानी क्यों हो! लेकिन आयोग के अध्यक्ष के इस इशारे को नजरअंदाज करना खतरनाक होगा।
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के बोर्ड की अगली बैठक में यह सवाल जरूर पूछा जाना चाहिए कि क्यों इस विषय पर बोर्ड को विचार करने का अवसर नहीं दिया गया? यह एक मौका भी हो सकता है कि सांस्थानिक प्रक्रियाओं को फिर से बहाल किया जाए। इसकी जितनी सख्त जरूरत दिल्ली विश्वविद्यालय को है उतनी ही विश्वविद्यालय अनुदान आयोग और इस सरकार को भी।

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