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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Friday, June 7, 2013

दिल्ली वाया उत्तर प्रदेश

दिल्ली वाया उत्तर प्रदेश

Friday, 07 June 2013 09:55

अरुण कुमार 'पानीबाबा'  
जनसत्ता 7 जून, 2013: लोकतंत्र में संख्या का महत्त्व है। पांच सौ तैंतालीस सदस्यों की लोकसभा में उत्तर प्रदेश की अस्सी की टोली का संवेदनशील प्रभाव अनिवार्य है। संख्या समीकरण से आगे जाकर देखें तो, गंगा-जमुना के मैदान की सिफ्त है कि सदा से यह क्षेत्र जंबू द्वीप और भरत खंड (विशाल भारत) का मर्मस्थल है। उत्तर प्रदेश की जनता जब कभी इस मर्म के महत्त्व को समझेगी, यह प्रदेश वैकल्पिक वैश्विक सभ्यता का मूल और मुख्य केंद्र होगा।
सन 1947 में फिरंगी ने सत्ता हस्तांतरित की, तब जवाहरलाल नेहरू पहले से प्रधानमंत्री की गद््दी पर विराजमान थे। कोई स्पर्धा या विवाद चर्चा का विषय ही नहीं बना। आजाद देश में नेहरू 'लोकतंत्रीय' महानायक बन कर उभरे। 1951-52 में प्रथम चुनाव तक देश की सर्वोच्च सत्ता पर नेहरू कुल का वर्चस्व स्थापित हो चुका था। विदेश नीति के माध्यम से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) और आंतरिक बंदोबस्त के जरिए नवांकुरित भारतीय जनसंघ जेबी पार्टियां बन चुकी थीं। पुरानी मित्रता के नाते समाजवादी नेतृत्व से 'सहयोग वार्ता' चला कर प्रजा समाजवादी पार्टी (प्रसोपा) को दो फाड़ करना सरल प्रक्रिया थी। 
नेहरू राज के स्वर्णिम काल (1947 से 1962) में राजनीतिक परिवर्तन का विचार घोर नैराश्य का स्रोत था। कोटा-परमिट-लाइसेंस राज का मुहावरा शासन-प्रशासन का पर्याय बन गया था। घोटाला प्रणाली विकसित हो रही थी। रक्षा मंत्रालय की खरीद से संबंधित जीप घोटाला 1949-50 से चर्चित था। यह रहस्य तो बाद में उजागर हुआ कि रक्षा सौदों में दलाली का चलन अनिवार्य रीत है। जीवन बीमा का 1956 में राष्ट्रीयकरण हुआ। तत्काल नकली-शेयर धांधली संपन्न हो गई। धीरे-धीरे समस्त सरकारी उद्योग-धंधों में बड़ी धांधली और लूट का रिवाज ही डल गया। 
काली अर्थव्यवस्था भारत का प्रतीक बन गई। वर्तमान में कुल उत्पाद का आधा काली अर्थव्यवस्था के तहत है। अब जो कुछ हो रहा है उसमें नया कुछ नहीं है, समस्त व्यवस्था और उसकी संरचना की बुनियाद 1947 से 1962 के बीच रखी गई। विशेषज्ञों की गणना है कि 1947 से अब तक न्यूनतम तीन खरब डॉलर देशी पूंजी का बहिर्गमन हो चुका है। यह राशि लगभग अठारह करोड़ खरबरुपए होती है। 
वैध रीत से चल रही अंतरराष्ट्रीय लूट (कोका कोला, आधुनिकता और अर्थव्यवस्था) का सिलसिला पूंजी के अवैध बहिर्गमन से कई गुना बड़ा है और बदस्तूर जारी है। इस परिस्थिति में बदलाव के लिए केवल सत्ता परिवर्तन काफी नहीं होगा। सत्ता परिवर्तन का प्रथम प्रयोग 1957 में केरल में हुआ था। कम्युनिस्ट पार्टी ने महंगाई के विरोध में छात्र आंदोलन खड़ा किया था। उसी के बल पर 1957 में इएमएस नंबूदरीपाद की सरकार गठित हुई थी। लेकिन उस प्रयोग का अन्यत्र कहीं भी अनुसरण नहीं हुआ। 
संभवत: समाजवादी विचारक, प्रखर नेहरू विरोधी नेता डॉ राममनोहर लोहिया ने केरल से सबक सीख कर यह सिद्धांत प्रतिपादित किया कि देशव्यापी परिवर्तन की लहर उत्तर प्रदेश से ही बहेगी। 
इसी आधार पर उत्तर प्रदेश की छात्र राजनीति को प्रोत्साहन देना शुरू किया। 1959-60 तक लखनऊ-इलाहाबाद का छात्र आंदोलन गरमा गया। किसान आंदोलन में नई चेतना का संचार दिखाई देने लगा। तब 1961 के अंत में लोहिया ने फूलपुर से नेहरू के खिलाफ चुनाव लड़ने का संकल्प घोषित कर दिया। समाजवादी दल का मनोबल बढ़ाने के लिए नारा बुलंद किया। बेशक चट्टान टूटेगी नहीं, राजनीतिक टक्कर से चटक तो जाएगी! 
प्रत्युत्तर में पंडित नेहरू ने डॉ लोहिया को पत्र लिखा: प्रिय राममनोहर, जानकर खुशी हुई कि इस बार फूलपुर में तुम जैसी सियासी शख्सियत से मुकाबला होगा। मैं वायदा करता हूं कि चुनाव खत्म होने तक फूलपुर प्रचार करने नहीं जाऊंगा। तुमसे उम्मीद करता हूं कि तुम चुनाव सिर्फ सियासी मुद्दों पर लड़ोगे। शुभकामनाओं सहित, जवाहरलाल।
लोहिया ने स्थानीय पार्टी और युवजन सभा से वायदा किया था, सात दिन का निज समय और पंद्रह हजार रुपए। लेकिन कुल तीन दिन का समय और मात्र दो हजार रुपए की नकद राशि दे सके थे। किसी मित्र ने एक पुरानी जीप उपलब्ध करवा दी थी। वह किसी दिन चल पड़ती और किसी दिन ठेल कर वर्कशॉप पहुंचानी पड़ती थी। बीस-पचीस सदस्यों की समाजवादी पार्टी और इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रों ने युवजन नेता जनेश्वर मिश्र और ब्रजभूषण तिवारी के नेतृत्व में जो धूम मचाई तो स्थानीय कांग्रेस ने नेहरू को वादाखिलाफी के लिए मजबूर कर दिया। तब वे सात दिन पैतृक घर 'आनंद भवन' में टिक गए थे और हर दिन खुली जीप में खड़े होकर क्षेत्र का दौरा करते गांव-गांव सभा करते। वोट मांगने नहीं आया। भारत निर्माण अभी अधूरा है। उसकी नींव का काम पूरा करने में आपका सहयोग चाहिए। 
फूलपुर की हार के तुरंत बाद जून 1962 में डॉ लोहिया ने 'निराशा के कर्तव्य' का दर्शन प्रस्तुत किया, उसी आधार पर गैर-कांग्रेसवाद की रणनीति रेखांकित की।  साथियों की नाराजगी, मीडिया का कुप्रचार सह कर 1963 में तीन उपचुनाव- आचार्य जेबी कृपलानी अमरोहा से, मीनू मसानी राजकोट से और खुद फर्रुखाबाद से- एक साथ लड़े। गैर-कांग्रेसवाद के आधार पर सीधी टक्कर में कांग्रेस को तीनों स्थानों पर हरा कर अपनी रणनीति की सार्थकता साबित कर दी। उस दिन से चली गैर-कांग्रेसवाद की यात्रा पचास बरस से निरंतर चल रही है। 
गैर-कांग्रेसवाद का औचित्य और अखिल भारतीय प्रभाव और महत्त्व 1967 के आम चुनाव में स्थापित हो गया। केंद्र में कांग्रेस का बहुमत हाशिये पर चला गया। पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, ओड़िशा और मध्यप्रदेश में गैर-कांग्रेसी संविद सरकारों का गठन हो गया। दूरगामी महत्त्व की उपलब्धि यह हुई कि किसान नेता चौधरी चरण सिंह ने कांग्रेस छोड़ कर उत्तर प्रदेश की संविद सरकार का नेतृत्व स्वीकार कर लिया।  

सन 1989-90 में किसान नेता देवीलाल और लोहिया-चरण सिंह की राजनीति के वारिस मुलायम सिंह को बराबरी की भागीदारी मिली तो पुन: गैर-कांग्रेसवाद फलीभूत हो गया। राष्ट्रीय मोर्चा सरकार ने गैर-कांग्रेसवाद को सुदृढ़ करने के संकल्प से मंडलीकरण लागू किया तो जनसंघ से बनी भाजपा ने पुन: वही खेल खेला जो वह 1977-79 में जनता प्रयोग के समय खेल चुकी थी। उस राष्ट्रीय मोर्चे ने भी यह अपराध तो किया ही था कि भाजपा को सत्ता में वाजिब हिस्सा नहीं दिया था। इसलिए भाजपा ने कमंडल के प्रयोग से सांप्रदायिक धु्रवीकरण की प्रक्रिया तेज कर दी। लेकिन भाजपा को सत्ता तभी मिली, जब उसने कल्याण सिंह के नेतृत्व में मंडल चलाया। राष्ट्रीय चिंता का विषय है कि भाजपा, संघ परिवार को कतई अनुमान नहीं है कि सांप्रदायिक धु्रवीकरण से देश को क्या नुकसान हो रहा है। भाजपा ने इस कौशल के माध्यम से सत्ता पा भी ली तो वह टिकाऊ नहीं हो सकती। 
आगामी लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश की राजनीति की मूल चुनौती मंडल बनाम कमंडल के द्वंद्व की है। देश की तुलना में उत्तर प्रदेश की अनूठी विशेषता यही है कि नेहरू से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी जैसे इंडियावादी नेतृत्व के बावजूद भारतवाद का सतत संघर्ष जारी है। 
उत्तर प्रदेश की जनता संकल्प में दृढ़ होते हुए भी प्रयोगवादी है। शेष भारत की तरह वोट का जातीय बंटवारा है। दलित बीस फीसद, पिछड़ा और अति पिछड़ा पैंतीस फीसद, मुसलमान सोलह फीसद, अगड़े पचीस फीसद हैं। बाकी चार फीसद में ईसाई और आदिवासी हैं। लेकिन चुनाव-दर-चुनाव जन-चेतना स्वत: प्रेरणा से नए से नए समीकरण रेखांकित कर लेती है। किसी एक दल को स्पष्ट बहुमत की सरकार बनाने का मौका देती रहती है। 
बाकी हिंदुस्तान से बिल्कुल अलग 2007 में दलित नेत्री बहुजन समाज पार्टी सुप्रीमो मायावती को पूर्ण बहुमत देकर अपने लिए सुराज और देश की राजनीति में बड़ी दलित भागीदारी बनाने का निर्देश जारी किया था। उत्तर प्रदेश के स्वायत्त मुख्यमंत्री का राजनीतिक कद प्रधानमंत्री के बाद सबसे बड़ा होता है। वह खुद अपना सिर तराश कर कद छोटा कर ले तो जनता का क्या कसूर?
पुन: याद दिला दें, उत्तर प्रदेश भारतीय राजनीति का मर्मस्थल है। अगले आम चुनाव में उत्तर प्रदेश का निर्णय राष्ट्र का निर्णय होगा। अन्य कोई जाने न जाने, प्रधानमंत्री पद के लिए अपनी उम्मीदवारी का पहला एलान करने वाले गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी इस मार्ग को जानते हैं। तैयारी की प्रक्रिया शुरू होते ही मोदी ने अपने बेहद करीबी राजनीतिक सहयोगी अमित शाह को उत्तर प्रदेश में संघ-भाजपा हाइकमान का पर्यवेक्षक नियुक्त करवा दिया। तात्पर्य यह है कि उत्तर प्रदेश चुनाव अभियान की कमान मोदी स्वयं संभालेंगे। लखनऊ में चर्चा शुरू है कि मोदी लखनऊ लोकसभा सीट से चुनाव लड़ने का मन बना रहे हैं। मोदी नाम का तुरुप चतुर्मुखी-चौधारी तलवार है। संघ परिवार के पास ऐसा ट्रंप कार्ड न पहले कभी था न भविष्य में पुन: होगा। भाजपा नेतृत्व को कोई संशय हो सकता है, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हाइकमान को न दुविधा है न अनिर्णय।
चार धारों में पहली धार चुस्त-दुरुस्त सुशासन, कानून-व्यवस्था, शहरी अमन की है। दूसरी भ्रष्टाचार मुक्त राजनीति की है, तीसरी विकास पुरुष की है। चौथी लेकिन सर्वाधिक प्रभावशाली अंतर्धारा 2002 के दंगों से उपजा 'हिंदुत्व' का करिश्मा है। बरसों से हिंदुत्व का त्रिशूल मोदी के नाम से गतिशील है। किसी भी तरह से त्रिशूल बांटने की जरूरत ही नहीं है। सांप्रदायिक धु्रवीकरण के लिए न मंदिर मुद्दा चाहिए न गौ रक्षा का नारा। मोदी के करिश्मे में सब कुछ समाहित है। 
आगामी लोकसभा चुनाव उत्तर प्रदेश की जनता के लिए अग्नि परीक्षा का समय होगा। पिछले दस बरस में हिंदुत्व का प्रभाव कम तो हुआ 2004 के चुनाव नतीजे इस तथ्य की पुष्टि करते हैं। लेकिन यह प्रभाव-शून्य हो गया ऐसा कतई नहीं। उत्तर प्रदेश में सवर्ण मतदाताओं की संख्या पचीस फीसद है। यह हम कह चुके हैं कि उत्तर प्रदेश की जनता प्रयोगवादी है। किसी भी जनता की पहली जरूरत जान-माल की सुरक्षा की होती है। अगर अब से चुनाव तक कानून बंदोबस्त में चुस्ती न दिखाई दी तो गुजरात सुशासन की हवा तेज चलना लाजमी है। 
फिलहाल उत्तर प्रदेश में 'इंडिया' का प्रतिनिधित्व करने वाली कांग्रेस और भाजपा दोनों हाशिये पर हैं। लोहिया-चरण सिंह निर्मित ग्रामीण-हित राजनीति की वारिस समाजवादी पार्टी सत्तासीन है। मुलायम सिंह इस विरासत के प्रमुख अभिभावक हैं। वायसराय की हैसियत में अखिलेश यादव मुख्यमंत्री हैं। सपा सरकार सत्ता में एक बरस पूरा कर चुकी है। 
मुलायम सिंह को राष्ट्रीय परिदृश्य से ओझल कर दें तो अखिलेश यादव भारतीय राजनीति की सबसे महत्त्वपूर्ण हस्ती हैं। इस नाजुक दौर में देश की राजनीति को दिशा देने की जिम्मेदारी अखिलेश की है। सपा का स्वार्थ भी तभी सधेगा जब उत्तर प्रदेश के मतदाता को पूरे देश में तीसरा खेमा उभरता हुआ दिखाई देगा। नेहरू राजवंश की तरह मोदी 'वैश्विक-इंडिया' समीकरण के घोषित उम्मीदवार हैं। इस चुनौती का मुकाबला तभी शुरू होगा जब अखिलेश यादव तीसरे खेमे का तंबू गाड़ेंगे।

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