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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Sunday, June 2, 2013

एक नया दलित दस्तावेज़ एच एल दुसाध

  एक नया दलित दस्तावेज़

                                एच एल दुसाध

2002 में मध्य प्रदेश के तल्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह द्वारा ऐतिहासिक 'भोपाल दस्तावेज़' और 'भोपाल घोषणापत्र' जारी किये जाने के बाद से विभिन्न दलित संगठनों की ओर से 21 वीं सदी की चुनौतियों से निबटने के लिए समय –समय पर कार्य योजनायें पेश की जाती रहीं हैं.इसी कड़ी में राष्ट्रवादी आंबेडकरवादी महासंघ (राम) की ओर से 15 अप्रैल,2013को,20 पृष्ठीय एक नया 'दलित दस्तावेज़' जारी किया गया है .राम के संस्थापक अध्यक्ष भाजपा के अनुसूचित जाति मोर्चे के नवनियुक्त राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ.संजय पासवान हैं.संघर्ष नहीं संवाद' के मूलमंत्र में विश्वास करनेवाले  डॉ. पासवान देश के संभवतः इकलौते दलित नेता हैं जिन्हें बुद्धिजीवियों से एलर्जी नहीं रहती और वे थोड़े-थोड़े अंतराल पर विभिन्न विचारधारा से जुड़े बुद्धिजीवियों को लेकर राष्ट्रीय और खासकर दलित मुद्दों पर संवाद  करवाते रहे हैं  .14 खण्डों की ऐतिहासिक 'दलित इनसाक्लोपीडिया' के लेखक तथा 'वंचित वाणी' के सम्पादक डॉ पासवान की बड़ी खासियत हैं कि वे भाजपा से जुड़े होने के बावजूद हिंदुत्ववादियों की तरह अतिवादी नहीं ,वाचन और कर्म से बौद्धों की तरह मध्यम मार्गी हैं.उनका यह चरित्र नए दस्तावेज़ में भी परिलक्षित हुआ है.    

दस्तावेज़ के लेखन की खास बात यह है कि इसमें  सिर्फ 'दलित'शब्द से जुड़े पांच अक्षरों-डी,ए,एल,आई,टी-को 10 शब्दों में विस्तारित कर इतिहास के विभिन्न काल खंडों में दलितों की स्थिति का निर्भूल चित्र प्रस्तुत कर दिया गया है.पहले कालखंड में स्वतंत्रता  पूर्व के इतिहास को लिया गया है जिसमें  दलितों की स्थिति को दर्शाने के लिए, डी से डिप्राइव्ड अर्थात वंचित,ए से एग्रीव्ड अर्थात पीड़ित,एल से लेम अर्थात लंगड़ा, जिसे हमेशा  बैशाखी की जरुरत है;आई से इन इनसेक्योर अर्थात जो हमेसा खुद को असुरक्षित महसूस करता रहा  और पांचवां टी से थ्रिटेनड अर्थात वह जो हमेसा धमकियों से घिरा रहता था,जैसी शब्दावली प्रयोग की गई है .किन्तु डॉ.आंबेडकर और बाबू  जगजीवन राम सहित अन्य कई दलित व गैर-दलित  समाज सुधारकों के प्रयास से स्वाधीन भारत में अधिकार चेतना से लैस और नौकरी तथा शिक्षा के दम पर कुछ हद तक समानता स्थिति में पहुंचा दलित डीप्राइव्ड की जगह 'डैशिंग',एग्रीव्ड की जगह एग्रेसिव,लेम की जगह 'लोडेड',इनसेक्योर की जगह 'इंस्टीगेटिंग' और टी से थ्रिटेनड की जगह  ट्रांजेक्सनल  हो गया है.इन दस शब्दों में दलितों की स्थिति बयां करने के बाद ,21 वीं सदी में आर्थिक बराबरी  हासिल करने को सबसे बड़ी चुनौती बताते हुए यह दस्तावेज़ वर्तमान पीढ़ी के दलितों को डैशिंग की बजाय 'डेयरिंग',एग्रेसिव की जगह 'असरटिव'लोडेड की जगह 'लीडिंग'भूमिका में उतीर्ण होने तथा इनस्टीगेटिंग की जगह 'इंस्पायरिंग'एवं ट्रांजेक्सनल की जगह 'ट्रांस्फार्मेशनल'अर्थात बदलाव की मानसिकता से पुष्ट होने की अपील करता है.

दस्तावेज़ आगे की जो कार्ययोजना पेश करता है उसमे भी नवीनता का साक्षात्कार  होता है.इसके पहले दलितों के बेहतरी के लिए सामान्यतया सरकारों पर ही सारा बोझ डाला जाता रहा है.किन्तु राम का दलित दस्तावेज़ सरकार के अतिरिक्त दो और घटकों पर इसकी जिम्मेवारी डालते हुए कहता है-'दलितों की दशा बेहतर करने में तीन इकाइयों की भूमिका है-सरकार,दलित और शेष समाज.' जहाँ तक सरकार पर जिम्मेवारी का सवाल है दस्तावेज़ खुलकर कहता है कि 'सामान्य वर्ग को अगर छोड़ दें तो एससी,एसटी,ओबीसी,और अल्पसंख्यक सभी समूहों को राजकीय संरक्षण की जरुरत है'.किन्तु यह राजकीय संरक्षण दलितों को ही प्राथमिकता के साथ मिलना चाहिए तथा उनसे धर्मान्तरित तबको को इससे बाहर रखना चाहिए,इसके पीछे 'राम' का  अपना तर्क है जिसे नज़रअंदाज़ करना कठिन है.

स्वाधीन भारत में दलितों के जीवन में आये सकारात्मक बदलाव के लिए सरकारों की सक्रिय  भागीदारी को श्रेय देते हुए तथा उनकी की भावी भूमिका को चिन्हित करते हुए दस्तावेज़ सर्वाधिक जोर दलितों में उद्यमिता को बढ़ावा देने पर लगाया है.वह कहता है-'सरकारी नौकरयों में जगह मिलने से दलितों के बीच एक ऐसा पढ़ा लिखा वर्ग तैयार हुआ जो पढ़ा लिखा था और अपने समुदाय का नेतृत्व कर सकता था .इससे दलितों के बारे में शेष समाज का दृष्टिकोण बदला.बदलते समय में इसे बनाये रखने के लिए केवल सरकारी नौकरी से काम नहीं चलेगा क्योंकि सरकारी नौकरियों की संख्या तेज़ी से कम हो रही हैं.दलितों को अब आर्थिक रूप से मजबूत बनाये जाने की जरुरत है .इसके लिए सरकार को चाहिए कि वह उनमें  उद्यमिता को बढ़ावा देने के लिए कदम उठावे.आवश्यक प्रशिक्षण,क़र्ज़ की व्यवस्था और आवश्यक जानकारी मुहैया कराने के साथ सरकार को चाहिए कि वह दलित उद्यमियों द्वारा तैयार माल को खरीदने के लिए विशेष उपाय करे.मध्य प्रदेश में दिग्विजय सिंह की सरकार ने इस दिशा में क्रांतिकारी कदम उठाया था.अन्य सरकारों को चाहिए कि वे अपने यहाँ मध्य प्रदेश माडल को लागू करें.'21वीं सदी की चुनौतियों से निबटने के लिए दलितों के हित में 'दलित-दस्तावेज़' द्वारा प्रस्तुत  सर्वाधिक क्रांतिकारी योजना सरकारों द्वारा दलित उद्यमिता को बढ़ावा  देना ही है.इसके लिए राम' के अध्यक्ष डॉ.पासवान को बधाई मिलनी चाहिए कि उन्होंने दलित बुद्धिजीवियों का अनुसरण करते हुए परम्परागत आरक्षण(नौकरियों) से आगे बढ़कर दलितों में उद्यमिता को बढ़ावा देने पर जोर दिया है.यही नहीं उन्होंने जिस तरह अपने प्रतिपक्षी दल कांग्रेस के दिग्विजय सिंह के भोपाल माडल को अपनाने की अपील की है उससे लगता है उन्होंने दलित हित में दलगत भावना से ऊपर उठकर एक साहसिक कार्ययोजना पेश  की है.वैसे उनकी पार्टी भाजपा भी लोकसभा चुनाव-2009  से लेकर बिहार और उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए जारी अपने सभी घोषणापत्रों में उद्यमशीलता को बढ़ावा देने का लगातार आश्वासन देती रही है.राम का यह दलित –दस्तावेज़ शायद उसे इस दिशा में और गंभीर होने के लिए प्रेरित करे.उद्यमिता को बढ़ावा देने के अतिरिक्त कैश ट्रांसफर ,खाद्य सुरक्षा,भूमि बंटवारा में दलितों को  प्राथमिकता देने के साथ ही केंद्र और सभी राज्यों में 'एससी एसटी सबप्लान  कानून' बनाने की बात भी इसमें कही गई है.

दलितों के प्रति शेष समाज को सहोदर भाव अपनाने की सलाह देते हुए दस्तावेज़ कहता है कि शेष समाज के लोगों ,खासकर युवाओं को लगता है कि आरक्षण के जरिये उनके साथ भेदभाव किया जा रहा है.जबकि ऐसा नहीं है.आरक्षण का मकसद शेष समाज के साथ भेदभाव करना नहीं ,बल्कि दलित समाज को विशेष अवसर देना है...शेष समाज को कोशिश करनी चाहिए कि उसकी विभिन्न गतिविधियों,संस्थाओं और मंचों पर दलितों को भी प्रतिनिधित्व मिले.इससे दोनों के मध्य संवाद स्थापित होगा और बेहतर संवाद से तालमेल की स्थितियां और बेहतर हो पायेगी.

इसमें कोई शक नहीं कि दस्तावेज़ के लेखन के पीछे सुचिन्तन है.चूंकि यह भूमंडलीकरण के दौर में दलितों की आकांक्षाओं के निहायत ही अनुकूल है अतः समाज में इसके विपुल समर्थन मिलने की सम्भावना भी है.किन्तु सरकार और शेष समाज के साथ संवाद बनाने के साथ-साथ इसमें दलितों के लिए जो करणीय सुझाव दिए गए हैं,वह शायद कुछ को अतिवादी आंबेडकरवादियों को सुपाच्य न लगे.किन्तु ताली एक हाथ से नहीं बजती .इसलिए दलित यदि सरकार और शेष समाज की सहयोगिता का लाभ उठाना चाहते हैं तो उन्हें भी शेष समाज से संवाद स्थापित करने तथा अपनी जिम्मेवारियों के प्रति गंभीर होना होगा,नए दलित दस्तावेज़ का यही सन्देश है.

दिनांक:23 मई,2013-(लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं)   

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