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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Friday, June 7, 2013

क्या यह करिश्मा बना रहेगा राजीव लोचन साह

क्या यह करिश्मा बना रहेगा

nainital-municipalityहाल ही में प्रदेश में सम्पन्न निकाय चुनावों में यदि नैनीताल नगरपालिका के चुनाव का उदाहरण लिया जाये तो चुनावी लोकतंत्र से एक उम्मीद बँधती है, हालाँकि यह एक अधूरी तस्वीर है।

नैनीताल नगरपालिका में श्याम नारायण मास्साब ने अध्यक्ष पद पर कब्जा किया। मास्साब उन्हें इसलिये कहते हैं कि वे जूनियर हाईस्कूल के अध्यापक पद से सेवानिवृत्त हुए थे। वे उत्तराखंड क्रांति दल के प्रत्याशी थे, मगर उक्रांद की मदद उन्हें इतनी ही मिल पायी कि नारायण सिंह जन्तवाल, सुरेश डालाकोटी और प्रकाश पांडे जैसे इस दल के वरिष्ठ नेताओं का चुनाव लड़ने में मार्गदर्शन मिला और एक अस्तव्यस्त पार्टी संगठन के गिने-चुने कार्यकर्ता। मगर भाजपा और कांग्रेस जैसे साधनसम्पन्न दलों के प्रत्याशियों को पटखनी देने के लिये इतना ही पर्याप्त नहीं था। जनता को एक साफ-सुथरा प्रत्याशी चाहिये था और वह उन्हें श्यामनारायण में दिखाई दिया। नैनीताल नगरपालिका का अध्यक्ष पद अनुसूचित जाति के लिये आरक्षित था। रिजर्वेशन को लेकर अब भी हमारे समाज में कई तरह के पूर्वाग्रह देखने को मिलते हैं। फिर चुनावों में ऐसे ही लोग सफल होते हैं, जिनके पास अपनी काली-सफेद कमाई के साथ पीछे से तथाकथित राष्ट्रीय पार्टियों का भी अच्छा-खासा पैसा लगा हो। भाड़े के कार्यकर्ता लगाकर प्रचार किया जाता है और जलूस निकाले जाते हैं, पैसा बाँटा जाता है, शराब पिलाई जाती है और अखबारों को विज्ञापन या खबर छपवाने के पैसे दिये जाते हैं। बड़ी पार्टियों ने इस बार भी यह सब किया। उनके उम्मीदवार थोड़ा भी विश्वसनीय होते तो शायद ये टोटके काम आ जाते। मगर एक पार्टी का प्रत्याशी निहायत अजनबी और संदिग्ध किस्म का था तो दूसरा पूर्व में पालिकाध्यक्ष रह चुकने के बावजूद विवादास्पद।

इनकी तुलना में श्यामनारायण अध्यापक जैसे सम्मानजनक पेशे में अत्यन्त ईमानदारी से जिन्दगी गुजार कर आये थे। लोगों ने उन्हें और भाजपा-कांग्रेस के प्रत्याशियों को तौला तो तुरन्त फर्क पहचान लिया। उत्तराखंड क्रांति दल के नेताओं ने इतना किया कि अपने टूटे-बिखरे संगठन के माध्यम से श्यामनारायण मास्साब का नाम यथाशक्ति मतदाताओं तक पहुँचा दिया। इसके बाद तो मास्साब के दर्जनों स्वयंभू कार्यकर्ता स्वतः तैयार हो गये। चुनाव में उनकी ओर से न कोई पोस्टर लगा और न गगनभेदी नारे लगाते हुए कोई जलूस निकला। पर्चे अवश्य बँटे। दो-चार दिन एक गाड़ी भी माईक लगा कर दौड़ी। मगर जिस तरह आजकल चुनावों में पानी की तरह पैसा बहाया जाता है, वैसा कुछ नहीं हुआ। नारायण सिंह जन्तवाल दावा करते हैं कि उन्होंने इस चुनाव के लिये चन्दा कर बत्तीस हजार रुपये जुटाये थे और उसमें से भी सात हजार रुपये बच गये। यहाँ यह बता देना प्रासंगिक होगा कि इस चुनाव में दूसरे नंबर पर भी कांग्रेस-भाजपा का नहीं, बल्कि एक निर्दलीय नवयुवक दीपक कुमार 'भोलू' रहा। भोलू के पास भी उसकी सबसे बड़ी पूँजी उसका विनम्र और मृदु स्वभाव ही है। मगर उसकी उम्र कम होना मतदाताओं में उतना विश्वास नहीं भर पाया।

नैनीताल जैसा अन्यत्र अनेक स्थानों में भी हुआ होगा। क्योंकि इस बार के चुनाव में पूरे प्रदेश में चुने गये 690 वार्ड मेंबरों में से 368 निर्दलीय थे। 69 निकाय अध्यक्षों में 22 पर निर्दलीय जीते।

लेकिन ऐसा करिश्मा अभी नगरपालिका और ग्राम पंचायतों जैसी तृणमूल स्तर की संस्थाओं में ही हो सकता है। जैसे-जैसे चुनाव क्षेत्र का आकार बढ़ता जाता है, पैसे का महत्व भी बढ़ता जाता है। श्यामनारायण जैसे किसी व्यक्ति के लिये विधानसभा या लोकसभा का चुनाव जीतना आज की स्थिति में संभव नहीं है। इन चुनावों में जनता के लिये यही विकल्प बचता है कि दो बुरे लोगों में से एक कम बुरे को चुन ले या उस पार्टी को नीचा दिखा कर अपना गुस्सा शान्त कर ले, जो अभी तक सत्ता में बैठी हुई है। अतः यह 'श्यामनारायण फैक्टर' फिलहाल राजनीति में एक अपवाद ही है, नियम नहीं। जो बहुत अच्छा-अच्छा सा नैनीताल के मतदाताओं को अपने चयन पर या यह खबर पढ़ कर देश-प्रदेश के जागरूक पाठकों को महसूस हो रहा होगा, वह बहुत दिन तक बना रहने वाला नहीं है। जिस तरह से हमारी नगरपालिकायें अभी अपंग हैं, उसमें श्यामनारायण जैसे लोगों के लिये यही बचता है कि कुछ समय तक पूरी ईमानदारी से कोशिश करें, उसके बाद या तो हाथ पर हाथ रख कर बैठ जायें या फिर 'जै रामजी' कह कर शान्ति से अपने रिटायरमेंट के बचे-खुचे दिन काटने के लिये घर वापस लौट आयें। क्योंकि कोई खुद्दार और ईमानदार व्यक्ति इतने भर से तो संतुष्ट नहीं हो सकता कि वह विश्व बैंक या एशिया डेवलपमेंट बैंक द्वारा उदारतापूर्वक दिये जा रहे और सरकार द्वारा लपक कर पकड़ लिये जा रहे कर्जों का एक हिस्सा बाबू लोगों को खिला-पिला कर अपनी नगरपालिका के लिये ले आये। नगरों को सजाना-सँवारना तो दूर की बात, फिलहाल तो एक पालिकाध्यक्ष के लिये यही उपलब्धि मानी जाती है कि उसने अपने कार्यकाल में सफाईकर्मियों को समय पर तनख्वाह बाँट दी थी। 73वें-74वें संविधान संशोधन के अनुरूप जब तक पंचायती राज कानून बना कर भागीदारीमूलक लोकतंत्र नहीं स्थापित होता, ऐसे शहरी निकायों या ग्राम पंचायतों का होना न होना बराबर हैं।

http://www.nainitalsamachar.in/will-this-kind-of-election-win-would-be-repeated/

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