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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Tuesday, April 3, 2012

जंगल में खिले लाल रंग के फूलों का विद्रोह से कोई नाता है?

http://mohallalive.com/2012/04/04/red-flowers-and-mass-uprising/

 आमुखसंघर्ष

जंगल में खिले लाल रंग के फूलों का विद्रोह से कोई नाता है?

4 APRIL 2012 NO COMMENT

♦ पलाश विश्‍वास

हाड़ ने बाढ़, भूस्खलन और भूकंप के दरम्यान भी बुरूंश खिलते हुए देखा है। प्राकृतिक आपदाएं तो पहाड़ में पल पल का साथी है। दिल कमजोर हो] तो ऊचांइयां निषिद्ध हैं। हर किसी को इसका एहसास नहीं होता, पर मैं अच्छी तरह जानता हूं कि हर पहाड़ी लड़की बछेंद्री पाल होती है और जिसके मन में हर वक्त एक एवरेस्ट होता है, जिसे वह जब चाहे, तब छू लें। बांगला में अत्यंत सुंदर को भयंकर सुंदर कहते हैं, इस भयंकर सुंदरता के मायने पल पल जीते मरते पहाड़ को देखे बिना महसूस नहीं किया जा सकता। हमारे साथ शायद बुनियादी दिक्कत यह है कि बंगाली शरणार्थी परिवार से हुआ तो क्या, मैं तो जन्‍मजात कुमांऊनी ठैरा। महाश्वेता दी ने मुझे पहाड़ी बंगाली लिखकर ऐसे पुरस्कार से नवाजा है कि इस जिंदगी में मुझे किसी नोबेल पुरस्कार की आवश्यकता नहीं है। ग्लेशियर पिघल रहे हैं तो क्या, पहाड़ मा बारा मासा बेड़ू पाके। मनीआर्डर अर्थ व्यवस्था में जीते मरते लोगों के रोजमर्रे की जिंदगी भूकंप के झटकों से कम वजनदार नहीं होती।

अबके वसंत में बंगाल में फूलों की आग अनुपस्थित है। राज्यभर में गुलमोहर बहुत कम खिले हैं। पलाश भी हरियाली में आग पैदा नहीं कर पा रहे। वैज्ञानिकों के मुताबिक ग्लोबल वार्मिंग के कारण मौसम का संतुलन बिगड़ने से ऐसा हो रहा है। मौसमी आंधियों का अभी इंतजार है मौसम दुरूस्त करने के लिए, ऐसा उनका कहना है। इधर निकलना नहीं हुआ, इसलिए नहीं कह सकता कि झारखंड, छत्तीसगढ़ और दंडकारण्य के जंगलों में आग लगी है कि नहीं। कविगुरु रवींद्रनाथ टैगोर ने अपने अल्मोड़ा प्रवास के दौरान बुरूंश की बहार से चौंधिया कर पूछा था कि क्या जंगल में आग लगी है! गौरतलब है कि जल, जंगल और जमीन की लड़ाई पहाड़ में शुरू हुई, देश भर में फैली और और लड़ी जा रही है। लेकिन पहाड़ उससे जुड़ा नहीं रह पाया। पहाड़ों में यह लड़ाई छिटपुट रूप से कई जगहों पर चल रही है, लेकिन कुल मिलाकर एक बड़ी लड़ाई नहीं बन पाती। टिहरी बांध की लड़ाई राष्ट्रीय स्तर पर आ गयी थी, लेकिन वह नर्मदा बांध की लड़ाई या अन्य जगहों की जल की लड़ाई से नहीं जुड़ी रह पायी। टिहरी तथा नर्मदा अलग-अलग लड़ाइयां रहीं। टिहरी लगभग समाप्त हो गयी है। हमने डूबते हुए टिहरी को देखा, दिलो-दिमाग से महसूस किया। उत्तराखंड बनने के साथ समीकरण बनते-बिगड़ते देखे। मौसम का मिजाज बदलते हुए भी देख लिया। क्या अब भी पहाड़ में खिले होंगे बुरूंश?

क्या जंगल में खिले लाल रंग के फूलों का जनविद्रोह से कोई नाता है, यकीनन इस पर कोई शोध नहीं हुआ होगा। विश्‍वविद्यालयों में इतिहास, समाजशास्त्र, भूगोल, वनस्पति विज्ञान या फिर साहित्य के हमारे प्राध्यापक मित्र चाहें तो अपने शिष्यों से इस विषय पर शोध करा लें! तब हम डीएसबी में बीए प्रथम वर्ष के छात्र थे, समाजशास्त्र का क्लास चल रहा था। मैडम प्रेमा तिवारी सबके नाम पूछ रही थीं। मैंने अपना नाम बताया तो उन्होंने कहा, यथा नाम तथा गुण! मेरी लंबी कहानी नयी टिहरी पुरानी टिहरी पर पहाड़ की एक प्रख्यात लेखिका ने टिप्पणी की थी कि कथा नायक की तरह मैं भी अक्खड़ और अड़ियल हूं। तराई के घनघोर जंगल के बीच में जब मेरा जनम हुआ होगा, तब शायद खूब खिले होंगे पलाश, इसीलिए मेरी ताई ने मेरा ऐसा नामकरण किया। वर्षों से सुनता आया हूं कि पलाश में आग होती है, पर उसमें सुगंध नहीं होती। शायद इसीलिए पहाड़ और उत्तर भारत में इस नाम का बंगाल या छत्तीसगढ़ जितना प्रचलन नहीं है। पहाड़ में इतने खिलते हैं बुरांश, पर किसी पहाड़ी का नाम बुरूंस या बूरांश शायद ही निकले। मोहन भी तो​ ​आखिर कपिलेश बने, बूरांश नहीं। वर्षों बाद मैडम प्रेमा तिवारी से नैनीताल से हल्द्वानी उतरते हुए शटल कार में एक साथ सफर करना हुआ। तब वे एमबी कालेज में पढ़ाती थीं। मैंने दरअसल उन्हीं से पूछ लिया था कि क्या आप मैडम प्रेमा तिवारी को जानती है! तब बहुत बातें हुईं, पर नाम रहस्य पर चर्चा नहीं हुई।

हमने पहाड़ में गौरा देवी की अगुवाई में महिलाओं को चिपको का अलख जगाते देखा और फिर उत्तराखंड राज्य बनने का श्रेय भी तो पहाड़ी महिलाओं को है। मणिपुर की जुझारू महिलाओं को भी हमने देखा है। इरोम शर्मिला का पराक्रम भी देख रहे हैं। मेरा जनम तो खैर ढिमरी ब्लाक किसान विद्रोह के वक्‍त हुआ, जिसके नेता मेरे पिता भी थे। पर तराई और पहाड़ में आंदोलन जनमते जरूर हैं, पर नदियों की तरह वे भी मैदानों में पलायन कर ​​जाते है। चिपको के साथ यही हुआ। आज दुनियाभर में पर्यावरण आंदोलन है। ग्लोबल वार्मिंग की चिंता है, उत्तराखंड में नहीं। वहां भूमाफिया पहाड़ को पलीता लगा रहे हैं। नैनीताल पर प्रोमोटरों बिल्डरों का राज है और इस राज का विस्तार पूरे पहाड़ में तेजी से हो रहा है। चिपको के कारण पहाड़ को रंग बिरंगे आइकन और पुरस्कार मिले। हमारे मित्र धीरेंद्र अस्थाना ने एक उपन्यास भी लिख दिया, पर जैसे कि बकौल बटरोही, थोकदार किसी की नहीं सुनता, शैलेश मटियानी की भाषा में पहाड़ों में कभी प्रेतमुक्ति नहीं होती। टिहरी बांध ही नहीं बना, अब उत्तराखंड ऊर्जा प्रदेश है। शायद परमाणु संयंत्र भी देर सवेर लग जाये। जैसे कि शिडकुल हुआ। पहले तराई के बड़े फार्मरों के राज के बावजूद छोटे किसानों और शरणार्थियों की जमीन दुर्दांत महाजनी व्यवस्था में भी सुरक्षित थी। पर टैक्स होलीडे और सेज कानून से लैस अरबपति उद्योगपतियों ने तराई के गांवों और जमीन हड़पना शुरू कर दिया है, तो कहीं चूं तक नहीं होती। शिडकुल के कारखानों में श्रम कानूनों के खुला उल्लंघन पर पहाड़ खामोश है। छंटनी और तालाबंदी तो आये दिन की बात है। तेजी से औद्योगीकरण हो रहा है पहाड़ों का। शहरीकरण भी। गंगटोक और सिक्किम को देखें, तो दांतों तले उंगलियां दबा लें। नगा मिजो और मणिपुर में जनविद्रोह का माहौल नहीं बना रहता तो वहां क्या होता, कह नहीं सकता।

कश्मीर से लेकर अरुणाचल प्रदेश तक पूरा पहाड़ बाकी देश से अलग है। मैदानों में पहाड़ी अलग धर लिये जाते हैं विदेशियों की तरह। उत्तराखंड और सिक्किम को छोड़ कर बाकी पहाड़ में घोषित-अघोषित विशेष सैन्य अधिकार कानून लागू है मध्यभारत के ​​​आदिवासी आंदोलनशील इलाकों की तरह। पर मध्य भारत से पहाड़ कहीं भी नहीं जुड़ता। क्या पहाड़ पहाड़ से जुड़ता है? कश्मीर में जो कुछ पिछले छह दशकों से हो रहा है, उसकी परवाह है बाकी पहाड़ों में? क्या पूर्वोत्तर पहाड़ों से कोई दर्द का रिश्ता है शेष पहाड़ों का? क्या हिमाचल को छूते हुए उत्तराखंड को उसके दर्द का एहसास होता है? क्या गोरखालैंड का आक्रोश बाकी पहाड़ को स्पर्श करता है? क्या कश्मीर, हिमाचल और उत्तराखंड के सेबों का कोई रिश्ता है?

राजमार्गों का जाल पहाड़ों की घेराबंदी कर चुका है। पर ये सड़कें पहाड़ को पहाड़ से या फिर बाकी देश से नहीं जोड़तीं। नदियों की तरह ऊर्द्धावर हैं सड़कें, समांतर कभी नहीं। अब भी अपना-अलग राज्य बन जाने के बावजूद कुमांऊ से गढ़वाल जाने के लिए मैदानों में उतर कर रामपुर हरिद्वार होकर फिर पहाड़ को छूना संभव है।

हम तो पहाड़ों में वसंत के दिनों में बुरूंश न खिलने की कल्पना तक नहीं कर सकते। अपने गिराबल्लभ हुलियारे मूड में अक्सर गाया करते थे बुरूंश: क कुमकुम मारो… एक वक्त तो उपनामों को दीवानगी के स्तर पर बदलने में तत्पर हमारे मित्र मोहन कपिलेश भोज ने अपना नाम बुरूंश रखना तय किया था। तब हम लोग शायद जीआईसी के छात्र थे और मालरोड पर सीआरएसटी से नीचे बंगाल होटल में डेरा डाले हुए थे। पहाड़ों में बुरूंश का खिलना कितना नैसर्गिक होता है, इसकी चर्चा शायद बेमायने हैं। हम तो जन्मजात जंगली हुए। सविता जब-तब बिगड़ कर ऐसा ही कहती है। पर यह हकीकत है कि जंगल और पहाड़ की खुशबू से ताजिंदगी निजात पाना मुश्किल होता है।

साठ के दशक में वसंत का वज्रनिर्घोष सिलीगुड़ी के जिस नक्सलबाड़ी में हुआ या फिर माओवाद का असर झारखंड, बिहार, ओड़ीशा, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, आंध्र और महाराष्ट्र के जिन इलाकों में सबसे ज्यादा है, गढ़चिरौली, चंद्रपुर, दंतेवाड़ा, मलकानगिरि, गोदावरी से लेकर रांची गिरिडीह तक सर्वत्र हमने खूब पलाश खिलते देखा है। जंगल की आग पहाड़ों और मैदानों में समान है, पर मौसम का मिजाज अलग अलग। अब इस पर अलग से सोचना चाहिए कि फूलों का खिलना न खिलना, क्या सिर्फ मौसम का मामला है या और कुछ!

(पलाश विश्वास। पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता, आंदोलनकर्मी। आजीवन संघर्षरत रहना और सबसे दुर्बल की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के पॉपुलर ब्लॉगर हैं। अमेरिका से सावधान उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठौर।)

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