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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Sunday, April 29, 2012

प्रेमचंद: अपने अपने राम

प्रेमचंद: अपने अपने राम


Sunday, 29 April 2012 11:15

परमानंद श्रीवास्तव 
जनसत्ता 15 अप्रैल, 2012: कथाकार और भाषाविद भगवान सिंह का एक समय का चर्चित उपन्यास है- 'अपने अपने राम'। 'रामकथा की उधेड़बुन' लेख में नामवर सिंह ने लिखा है: 'अपने अपने राम' में यह समांतर प्रचार तंत्र एक खयाल बन कर रह गया है। यह जीवन कथा ट्रैजेडी बन कर रह जाती है। नारी का चरित्र-विस्तार सुनियोजित है। वाल्मीकि की रामकथा भी ट्रैजेडी है। वीरेंद्र यादव का लेख 'प्रेमचंद का हिंदू होना' (8 अप्रैल) कमल किशोर गोयनका के यहां ढूंढ़-ढूंढ़ कर हिंदू शब्द की पुनरावृत्ति दिखाता है। गोयनका की हिंदू ग्रंथि जानी-पहचानी है: प्रेमचंद हिंदू नहीं, तो क्या थे। उन्हें घृणा का प्रचारक कहा गया था। यह ब्राह्मण विचारकों का कुतर्क था। प्रेमचंद सहज रूप से हिंदू थे। 'गोदान' का होरी भारतीय किसान है। सारे संस्कार हिंदुओं के थे। अंत में धनिया द्वारा गोदान कराया जाता है। यानी हिंदू संस्कार- 'गोदान'। यह होरी का अंत है।
प्रेमचंद सहज ही हिंदू थे, वर्णाश्रम व्यवस्था को जस का तस माने बगैर। कबीर का निर्गुण निराकार प्रेमचंद को प्रभावित करता है। राम वहां दशरथ-सुत नहीं हैं। रामनाम का मर्म कुछ और है। विरुद्ध है धर्मवीर का निरूपण- हिंदुत्व है तो पहेली जैसी। प्रेमचंद आधुनिक हैं- प्रगतिशील, मार्क्सवादी। जाति-ग्रंथि के विरुद्ध। दादू-रैदास का निर्गुण प्रेमचंद के समकक्ष। धर्मवीर मानते हैं कि उत्तर-कबीर सटीक अर्थपद है। दलित और स्त्री को प्रेमचंद की सहमति प्राप्त है। धनिया है तो दबंग, पर झुनिया के लिए होरी को तैयार करती है। जब होरी कहता है- 'झुनिया के आगे झुकेंगे नहीं, हाथ पकड़ कर निकाल देंगे'। 'नहीं, हम ऐसा नहीं करेंगे। झुनिया मां बनने वाली है'। यहां भी हिंदू संस्कार प्रकट है। 'अपने अपने राम' में भगवान सिंह के शब्द हैं। राम कहते हैं- 'मैं मनुष्य की रक्षा के लिए मनुष्य के रूप में लड़ते हुए हार जाना चाहूंगा, परंतु पशु बन कर जीतना नहीं।' 
प्रेमचंद अर्धराष्ट्रवादी या अंधराष्ट्रवादी नहीं हैं। प्रेमचंद दलित आंदोलन के पक्ष में हैं। 'कलम का सिपाही' में अमृतराय कहते हैं- 'गांधीजी के लिए प्रेमचंद के मन में गहरी भक्ति है। अचल निष्ठा।' प्रेमचंद हिंदू हैं, तो गहरे अर्थ में भारतीय। गांधी ने अपने को सनातनी हिंदू कहा था। प्रेमचंद भी सनातनी हिंदू थे- गहरे आलोचनात्मक विवेक के साथ। पर वे मूर्तिपूजक नहीं थे। किसान के प्रति उनकी सहानुभूति; हिंदू मन की साक्षी थी। 
प्रेमचंद के लिए हिंदू देवी-देवता अंधविश्वास से अधिक थे। प्रेमचंद के शब्द हैं- 'मैं कम्युनिस्ट हूं। मैं हिंदू हूं, तो प्रगतिशील समाज में। मैं हिंदू हूं, तो मुसलिम विरोधी नहीं। मैं किसानों का शोषण करने वालों में नहीं।' नामवर सिंह के विचलन में एक सटीकपन है। कमल किशोर गोयनका के यहां विचलन भटकाव है। उनकी आलोचनात्मक चेतना संदिग्ध है। रामविलास शर्मा ने प्रेमचंद को मानव आत्मा का शिल्पी कहा है। प्रेमचंद को कभी घृणा का प्रचारक कहा गया था। स्वतंत्रता प्रेमचंद के लिए बड़ा मूल्य था। सुधारवाद के निहितार्थ बड़े हैं। वीरेंद्र यादव ने प्रेमचंद के नाटक 'कर्बला' को महत्त्व दिया था। यह है संस्कृति का विवेक।
प्रेमचंद के शब्द हैं- हरिजनों की समस्या केवल मंदिर प्रवेश से हल होने वाली नहीं है। उस समय की आर्थिक बाधाएं अधिक कठोर हैं। असल में समस्या आर्थिक है। स्त्री आंदोलन में प्रेमचंद को भविष्य दिखता था। पश्चिमी उद्योगीकरण की आलोचना प्रेमचंद ने सचेत रूप से की। हिंदू-मुसलिम वैमनस्य के कठोर आलोचक थे प्रेमचंद। प्रेमचंद की कहानी 'सद्गति' में ब्राह्मण के पाखंड की भर्त्सना है। दुखी चमार की मृत्यु अनहोनी है। कहानी होनी में नहीं, अनहोनी में है। प्रेमचंद ने सुधारवादियों से बहुत कुछ लिया। केशवचंद्र सेन, ज्योतिबा फुले, दयानंद सरस्वती। 'ठाकुर का कुआं' हिंदू धर्म के सामंतवाद का क्रिटीक है। कामिक, ट्रैजिक मिल कर प्रेमचंद का कथा-फलक बनाते हैं। 
निर्मला की ट्रेजेडी अनमेल विवाह की ट्रेजेडी है। बूढ़े वकील साहब निर्मला के युवावस्था के विद्रूप को समझते हैं। निर्मला की वय के बेटे पर संदेह करते हैं। उसे हॉस्टल भेज देते हैं। वह बीमार पड़ जाता है। निर्मला कहती है- 'अगर मैं जानती कि यह बेटे पर संदेह करेंगे तो मैं कुछ भी कर सकती थी। आखिर वह मेरा हमउम्र था।' 'कफन' में घीसू-माधव निठल्ले नहीं हैं। श्रम का वांछित मूल्य नहीं मिलता, तो वे अपने वर्ग से विच्छिन्न हो जाते हैं। प्रेमचंद के लिए परिवार की मर्यादा बड़ी चीज है।

हिंदू समाज की विकृतियों पर प्रेमचंद का लेख 'महाजनी सभ्यता' का क्रिटीक है। पूंजीवाद, व्यापारिक संस्कृति प्रेमचंद के उपन्यासों में सभ्यता समीक्षा बनती है। दलित विचारक धर्मवीर (17 अप्रैल) की दृष्टि में 'हमें पहेली, पुराण, अफवाह, किंवदंती, प्रक्षिप्त, संधा भाषा, उपरचना, पाखंड, कथनी और करनी में अंतर, परमार्थिक सत्ता के भेद की पूरी हिंदू शब्दावली से चिढ़ है। यह दलितों की समझ है कि वे द्विजों से उनकी शर्तों पर संवाद नहीं रखेंगे।'
हिंदू में एक बलिदानी चेतना अपेक्षित है। वीरेंद्र यादव ने अपने लेख 'मिथक और इतिहास' में स्वतंत्र संघर्ष के अंतर्विरोधों को एक क्रिटीक की तरह दिखाया है। प्रेमचंद ने बनारसीदास चतुर्वेदी को कभी लिखा था- 'इस समय मेरी प्राथमिकता कुछ नहीं है। बस आजादी। पर इससे कम पर कोई समझौता नहीं। हमारी लड़ाई केवल अंग्रेज सत्ताधारियों से नहीं, हिंदुस्तानी   सत्ताधारियों से भी है।' स्वराज का आंदोलन गरीबों का आंदोलन है। प्रेमचंद नकारात्मक आशावादी नहीं हैं। जीवन से साहित्य का संबंध द्वंद्वात्मक है। 
आम आदमी के प्रति जवाबदेह प्रेमचंद की संघर्ष चेतना सर्वतोमुखी है। धर्म एक बड़ी सच्चाई है। प्राय: हम औपनिवेशिक और उत्तर-औपनिवेशिक के अंतर को नहीं समझ पाते। स्त्री-पुरुष के अधिकार एक जैसे होंगे तभी समानता की नीति समझ में आएगी। शोषण-ग्रस्त समाज मुक्त तो क्या होगा- मुक्ति से कोसों दूर होगा। जातिवाद उलझा विषय है। दलित जीवन और मुक्त जीवन की दूरी समझी जा सकती है। प्रेमचंद के शब्द हैं- 'जिस साहित्य से हमारी सुरुचि न जागे, आध्यात्मिक और मानसिक तृप्ति न मिले, इसमें शक्ति न पैदा हो, हमारा सौंदर्य प्रेम न जागे, वह साहित्य कहलाने का अधिकारी न बनेगा।' राजनीतिक पतन और सांस्कृतिक पतन एक साथ चलते हैं।
प्रेमचंद आधुनिकता और परंपरा में अभेद देखते हैं। गल्प उनके लिए यथार्थ है। उपन्यास का पुनर्जन्म आलंकारिक पद भर नहीं है। मुक्ति और स्वतंत्रता अभिन्न हैं। राम एक उच्चतर जीवन मूल्य हैं। प्रेमचंद उदार हिंदू थे, इसलिए उनके कई राम थे। प्रेमचंद की इस्लामिक चेतना भी उदार थी। हिंदू होने में कोई बाधा न थी। प्रेमचंद द्विज लेखकों को चुनौती दे रहे थे, पर उच्चतर हिंदुत्व को आत्मसात कर रहे थे। 
प्रेमचंद का हिंदुत्व मनोवैज्ञानिक है। संस्कारों में ढल कर प्रेमचंद हिंदुत्व की आचारसंहिता का अतिक्रमण कर रहे थे। वे समय और समय के परे हिंदू की करुणा को उच्चतर मूल्य मान रहे थे। अछूत समस्या उनके लिए आत्मसुधार की प्रक्रिया में आर्यसमाज आंदोलन की देन थी। उधर किसान समस्या में सत्याग्रह नैतिक हथियार था। होरी का विद्रोह गांधी के मार्ग पर है। प्रेमचंद का हिंदू सत्य के लिए लड़ता है। अंधा पूंजीवाद ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा तक सीमित नहीं है। प्रेमचंद के शब्द हैं- 'दलित समाज का जीवन हिंदुओं से हमारी उन्नति का पाठ पढ़ाना है।' हिंदू समाज में सहिष्णुता एक लंबी साधना से अर्जित है। गांधीजी देखते हैं कि हिंदुत्व एक राष्ट्र चिंता जैसा नैतिक अधिकार है। प्रेमचंद के शब्द हैं- 'मैं जन्म से अछूत न होकर भी कर्म से अछूत हूं।' वर्गचेतना मूलत: हिंदू चेतना है। प्रेमचंद ने टॉलस्टाय से हिंदू धर्म की आंतरिक ताकत ली।
प्रेमचंद का गरीबी हटाओ आंदोलन एक नौतिक प्रतिज्ञा है। यह राजनेताओं की भाषा नहीं है। इस्लाम विरोध राजनीतिक युक्ति भर है। धन का प्रभुत्व धर्म की क्षय है। महाजनी सभ्यता उत्सवधर्मी नहीं है। प्रेमचंद ने बहुत जल्दी सर्वधर्म समन्वय का मर्म जान लिया। 
कभी अज्ञेय ने हिंदुस्तानी एकेडमी में मैथिलीशरण गुप्त की करुणा को बड़ा हथियार बताया था। करुणा एक तरह का आंतरिक धर्म है। यह करुणा निष्क्रिय नहीं है। गुप्त जी अमीरी का स्वराज्य नहीं, गरीबी का स्वराज चाहते थे। वैष्णवता गुप्त जी पहचान थी। 'भारत भारती' लिख कर वे राष्ट्र से एकात्म थे। वे प्रेमचंद में धार्मिक अस्मिता देख सकते थे। 
'कफन' को आज पहली नई कहानी कहा जा रहा है। विरुद्धों का सामंजस्य। घीसू ने कहा: 'मालूम होता है, बचेगी नहीं।' माधव चिढ़ कर बोला: 'मरना है तो मर क्यों नहीं जाती।' वे निर्गुण गाते हैं- ठगिनी क्यों नैना झमकावै। जैसे मृत्यु उत्सव है। प्रेमचंद की विलासिता के विरुद्ध एक कहानी है 'मुक्ति मार्ग'। इसकी चर्चा प्राय: नहीं हुई। 
प्रेमचंद को हिंदू धर्म में समता-समाजवाद दिखाई देता है। प्रेमचंद के लिए मनुष्य का मूल उद्देश्य ईश्वर से परिचय प्राप्त करना है। साहित्य में मानवीय आस्था का साक्षात्कार। प्रेमचंद के राम बहुरूपात्मक हैं।

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