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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Sunday, April 29, 2012

स्टिंग, सीडी, साज़िश, सज़ा और सियासत

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[LARGE][LINK=/index.php/yeduniya/1262-2012-04-29-11-02-29]स्टिंग, सीडी, साज़िश, सज़ा और सियासत [/LINK] [/LARGE]
Written by पंकज झा Category: [LINK=/index.php/yeduniya]सियासत-ताकत-राजकाज-देश-प्रदेश-दुनिया-समाज-सरोकार[/LINK] Published on 29 April 2012 [LINK=/index.php/component/mailto/?tmpl=component&template=youmagazine&link=8a049d522b0f1c6c57fefbdc2a9c84e9efe4f35c][IMG]/templates/youmagazine/images/system/emailButton.png[/IMG][/LINK] [LINK=/index.php/yeduniya/1262-2012-04-29-11-02-29?tmpl=component&print=1&layout=default&page=][IMG]/templates/youmagazine/images/system/printButton.png[/IMG][/LINK]
कांग्रेस सांसद के सीडी की आंच अभी मंद भी नहीं हुई थी कि भाजपा से संबंधित एक पुराना सीडी प्रकरण चर्चा के केन्द्र में है. करीब ग्यारह साल पहले लाख टका रिश्वत लेते पकड़े गए तब के भाजपाध्यक्ष को कोर्ट ने कुसूरवार ठहराया है. कहने को यूं तो 'समय' के मामले में आप इसे संयोग भी कह सकते हैं, कई बार संयोग होता भी है. लेकिन जब राजनीति का स्तर इतना गिर गया हो और कोई भी पालिका शंका की जद से बाहर नहीं हो तो संयोग के पीछे की किसी सियासत को तलाशना भी कोई बड़ी या बुरी बात नहीं है. निश्चित ही भ्रष्टाचार से कराह रहे इस कठिन समय में किसी भी दोषी को सजा मिल जाना थोड़ा सुकून देता है. उम्मीद करते हैं कि पचीस साल पुराने बोफोर्स प्रकरण से लेकर हाल के टू जी स्पेक्ट्रम, आदर्श, कॉमनवेल्थ से लेकर कोयला घोटाले तक के बारे में फैसला जल्द होगी और हर जगह इसी तरह दोषियों को सज़ा मिलना संभव होगा. 72 वर्षीय बंगारू के लिए भी अभी ऊपरी अदालत का रास्ता खुला ही है, अपराध की प्रकृति के अनुसार शायद ज़मानत मिलना भी मुश्किल नहीं होगा. हो सकता है हाई कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक जाते-जाते बंगारू अपने जीवन का चक्र भी पूरा कर लें. लेकिन कांग्रेस के लिए तो राहत की बात है ही कि फिलहाल समाचार माध्यमों के तोपों का मुंह विपक्ष की तरफ शिफ्ट हो जाएगा. खैर.. बात यहां स्टिंग प्रकरण से संबंधित कुछ विधि –निषेध की.

बुलेट की गति से बढ़ता तकनीक और उससे कदमताल करने में हमेशा कछुआ साबित होते जा रहे समाज और क़ानून के बीच स्टिंग की उपादेयता पर भी कुछ विचार कीजिये. अभी तक जितने भी चर्चित स्टिंग हुए हैं उसे हम मोटे तौर पर दो तरह से वर्गीकृत कर सकते हैं. पहला ये जिसमें घटना हो रही थी, कुकृत्य किये जा रहे थे जिसे कैमरा में कैद कर लिया गया. इस समूंह में आप आंध्र के राज भवन से लेकर हालिया सिंघवी सीडी प्रकरण तक को रख सकते हैं. या फिर विश्वास मत के समय में सांसदों को खरीदने हेतु रिश्वत की बात करते, पैसों का आदान-प्रदान करते हुए कैमरे में कैद किये गए माननीयों की या फिर भंवरी प्रकरण आदि इस श्रेणी के हैं. और दूसरी तरह का स्टिंग ये है जहां कुछ चरित्र या कंपनियों को गढ़, किसी काल्पनिक सौदों के लिए पैसे और वेश्याओं का लोभ दिखा कर नेताओं को ट्रैप किया गया. तो अब समय यह तय करने का है कि आखिर स्टिंग को जायज़ मानने की सीमा क्या हो? कौन सी ऐसी लक्ष्मण रेखा हो जहां आपके निजत्व के अधिकार और अभिव्यक्ति की आज़ादी या फिर पारदर्शिता और नंगापन के बीच के किसी महीन सूत्र की हम तलाश कर सकें.

मोटे तौर पर भारतीय वांगमयों में ऐसे ढेर सारे उद्धरण देकर यह रेखांकित किया गया है कि व्यक्ति मूलतः विभिन्न कमजोरियों का पुतला होता है. हालांकि निश्चित ही उससे संयमित व्यवहार की अपेक्षा की जाती है लेकिन प्रलोभन दे कर राह से भटकाने वालों को ज्यादा बड़ा दोषी माना गया है. मानव की दो मुख्य कमजोरियों कांचन और कामिनी के संबंध में इन उद्धरणों पर गौर करें. पहला रामायण में सीता हरण के समय की बात है. सोने का हिरण देख कर सीता लोभित हो जाती हैं जिसके कारण उनका अपहरण कर लिया जाता है और अंततः ज़मीन में समा जाने तक का दंड भुगतना पड़ता है. लेकिन उन्हें लुभाने वाले मारीच को मृत्यु दंड पहले मिलता है. इसी तरह कामिनी के जाल में उलझाने का प्रसंग कामदेव से संबंधित है जब उसने महादेव की तपस्या भंग करनी चाही. तो तप भंग होने के कारण शिव को भले ही बाद में काफी कुछ भुगतना पड़ा हो लेकिन सबसे पहले भस्म तो कामदेव ही हुए थे. आशय यह कि प्रलोभन देकर पथ से डगमगाने को मजबूर करने वाले को पहले सज़ा का पात्र समझा गया है पथ विचलित हो जाने वाला बाद में. भारतीय कानूनों में भी तो रिश्वत देने वालों को भी लेने वालों की तरह ही अपराधी समझा गया है.

आप देखेंगे कि बंगारू लक्षमण के इस प्रकरण से लेकर सवाल पूछने के बदले रिश्वत लेने के मामले में भी काल्पनिक कंपनिया खड़ा कर ऐसे अपराध को प्रायोजित किया गया था. जहां तहलका मामले में बाद में कॉल गर्ल तक के इस्तेमाल की बात सामने आयी थी वही सवाल पूछने वाले मामले में तो महज़ पांच हज़ार तक की राशि लगभग जबरन देकर उसे फिल्मा लिया गया था. न तो हथियार बेचने वाली कंपनियां असली थी और न ही वो कंपनियां जिनके पक्ष में सांसदों को सवाल पूछना था. आप गौर करेंगे तो पायेंगे कि इस काम के लिए आसान शिकार सामान्यतः दलित और आदिवासी वर्ग या इलाके से आने वाले वाले सासदों को ही बनाया गया था. चूंकि वे पत्रकारगण बेहतर जानते थे कि किसी 'दुनियादार' नेताओं को इस तरह फांसना उनके लिए मुमकिन नहीं होगा. निश्चित ही पारदर्शिता के इस ज़माने में बेदाग़ दिखने का सबसे बड़ा तरीका तो यही है कि बेदाग़ रहा जाय, फिर भी उपर वर्णित तथ्यों के आलोक में ज़रूरत इस बात का भी है कि स्टिंग के सन्दर्भ में भी कोई तो दिशा निर्देश हो किसी भी तरह का का कुछ तो मर्यादा पालन करने की कोशिश हो. फिलहाल तो इसी बात पर सर्वानुमति बनाने की कोशिश अपेक्षित है कि अगर कहीं कोई अनियमितता हो रहा हो तो उसे कैमरों में कैद किया जाय लेकिन कम से कम ऐसे किसी स्टिंग को प्रायोजित नहीं किया जाय. अस्तु.

भ्रष्टाचार के रोज-रोज होते नए खुलासों ने सबसे ज्यादा तो भरोसे को ही नुकसान पहुचाया है लेकिन अब ज़रूरत इस बात का भी है कि इन मामलों को क्वालिटेटिव होकर नहीं बल्कि क्वांटिटेटिव होकर देखा जाय. नैसर्गिक न्याय के कुछ नए सिद्धांत भी गढ़ा जाय. रिश्वत की रकम या राजकोष को पहुंचाए गए नुकसान के आधार पर भी अपराध की प्रकृति तय हो. एक तरफ किसी नकली सौदे के लिए लाख रुपया लेते पकड़ बंगारू सजायाफ्ता हो जाते हैं, कुछ सांसद महज़ पांच हज़ार तक की रकम किसी काल्पनिक सवाल के लिए लेते हुए न केवल बिना किसी वकील-दलील-अपील के सदस्यता खो बैठते हैं, भाजपा अपने सदस्यों को तुरत पार्टी से भी बर्खास्त कर देती है. दूसरी ओर पचीस साल पहले 65 करोड़ रुपया लेने के स्पष्ट साक्ष्य के बावजूद किसी क्वात्रोकी का बाल बांका नहीं होता. एक लाख छिहत्तर हज़ार करोड की रकम का स्पेक्ट्रम घोटाला साबित होने और 122 ऐसे लाइसेंस निरस्त होने के [IMG]/images/stories/food/pjha.jpg[/IMG]बावजूद मुखिया पद पर भी बने रहते हैं. कई हज़ार करोड़ करोड़ के कॉमनवेल्थ घोटाले का खेल की बात हो, दिल्ली में सैकड़ों कोलोनी को नियमित करने की बात हो, मुंबई का आदर्श घोटाला हो या फिर हाल में कैग द्वारा आंके गए दस लाख करोड़ के कोयला घोटाले की बात. इन तमाम मामलों में अगर ज्यादा से ज्यादा किसी को अपने पद से हाथ धोना भी पड़ा है तो तब जब उसके अलावा कोई विकल्प शेष नहीं रहा था. ऐसे में महज़ पांच हज़ार रुपये के लिए बर्खास्त हुए सांसदों की बात या अभी लाख रूपये लेने जैसे प्रायोजित किये गए अपराध में सज़ा मिलना थोड़े असहज सवाल तो खड़े करता ही है. याद रखिये, न्याय होने के साथ-साथ 'न्याय' का दिखना ज्यादा महत्वपूर्ण है.

[B]लेखक पंकज झा छत्‍तीसगढ़ से प्रकाशित भाजपा के मुखपत्र दीपकमल के संपादक हैं.[/B]

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