Total Pageviews

THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

Twitter

Follow palashbiswaskl on Twitter

Monday, April 30, 2012

देखना होगा कि ऐसे कटघरे कहाँ-कहाँ हैं?

http://www.jankipul.com/2012/04/blog-post_1246.html

MONDAY, APRIL 30, 2012

देखना होगा कि ऐसे कटघरे कहाँ-कहाँ हैं?

वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी के लेख पर पहले कवि-संपादक गिरिराज किराडू ने लिखा. अब उनके पक्ष-विपक्षों को लेकर कवि-कथाकार-सामाजिक कार्यकर्ता अशोक कुमार पांडे ने यह लेख लिखा है. इनका पक्ष इसलिए महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि श्री मंगलेश डबराल अपनी 'चूक' संबंधी पत्र इनको ही भेजा था और फेसबुक पर अशोक जी ने ही उस पत्र को सार्वजनिक किया था. आइये पढते हैं- जानकी पुल.
---------------------------------------------------------------------------


थानवी साहब का लेख जितना लिखे के पढ़े जाने की मांग करता है उससे कहीं अधिक अलिखे को. एक पत्थर से दो नहीं, कई-कई शिकार करने की उनकी आकांक्षा एक हद तक सफल हुई तो है लेकिन यह पत्थर कई बार उन तक लौट के भी आता है. खैर मेरी यह प्रतिक्रिया 
"अनामंत्रित" हो सकती है कि उन्होंने कहीं मेरा नाम नही लिया था, लेकिन फेसबुक/ब्लॉग पर उपस्थित व्यापक साहित्य-समाज का एक अदना सा हिस्सा, और मंगलेश डबराल सम्बंधित उस पूरे मामले में अपने स्टैंड के साथ उपस्थित रहने के कारण मुझे इस बहस में हस्तक्षेप करना ज़रूरी लगा, सो कर रहा हूँ- अशोक कुमार पांडे
--------------------------------------------------- 

थानवी साहब, एक मजेदार सवाल करते हैं  "दुर्भाव और असहिष्णुता का यह आलम हमें स्वतंत्र भारत का अहसास दिलाता है या स्तालिनकालीन रूस का?" ज़ाहिर है कि इन सबके सहारे वह अपनी घोषित पुण्य भूमि अज्ञेय तक पहुँचते हैं और "वामपंथियों" को अज्ञेय को उचित स्थान न देने के लिए "कटघरे" में खड़ा करते हैं. देखना होगा कि ऐसे कटघरे कहाँ-कहाँ हैं? वैसे अज्ञेय के संबंध में पहले भी कह चुका हूँ और अब भी कि उनकी सबसे तीखी आलोचना कलावादी खेमे के शहंशाहों ने ही की. उन्हें "बूढ़ा गिद्ध" किसी नामवर सिंह ने नहीं अशोक बाजपेयी ने कहा था (प्रसंगवश उसी लेख में सुमित्रा नन्द पन्त को भी अज्ञेय के साथ बूढ़ा गिद्ध कहा गया था, लेकिन बहुत बाद में नामवर सिंह के पन्त साहित्य में एक हिस्से को कूड़ा कहे जाने पर जो बवाल मचा उस दौरान अशोक बाजपेयी के कहे को किसी ने याद करना ज़रूरी नहीं समझा). अब उन कटघरों और अनुदारताओं की भी बात कर ली जाए. सीधा सवाल थानवी साहब से. पिछले साल जिन बड़े साहित्यकारों की जन्मशताब्दी थी उनमें अज्ञेय के अलावा केदार नाथ अग्रवाल, शमशेर, नागार्जुन, फैज़ अहमद फैज़, उपेन्द्र नाथ अश्क, गोपाल सिंह नेपाली प्रमुख थे. फिर ओम थानवी ने केवल अज्ञेय पर ही आयोजन क्यूं करवाया? अज्ञेय के अलावा इनमें से किसी और पर उन्होंने इस साल या इसके पहले कौन सा आयोजन करवाया, कौन सी किताब संपादित की, क्या लिखा?

ज़ाहिर है कि उन्हें अपना नायक चुनने का हक है. बाक़ी कवियों/लेखकों की उनके द्वारा जो "उपेक्षा" हुई, उसकी शिकायत कोई "पंथी" उनसे करने नहीं गया. हम उन वजूहात को अच्छी तरह से जानते हैं, जिनकी वजह से केदार नाथ अग्रवाल या नागार्जुन को छूने में बकौल नागार्जुन, अशोक बाजपेयी या थानवी साहब को "घिन आयेगी". लेकिन थानवी साहब या उनके लगुओं/भगुओं को यह अनुदारता कभी दिखाई नहीं देगी. वह अशोक बाजपेयी से यह सवाल पूछने की हिम्मत कभी नहीं कर पायेंगे कि उन्हें अज्ञेय के अलावा सिर्फ शमशेर ही क्यूं दिखे और उन्हें भी अपने चश्में के अलावा किसी रंग से देखना उनसे संभव क्यों नहीं होता? (इस मुद्दे पर आप मेरा लेख यहाँ देख सकते हैं). उनसे यह पूछने कि हिम्मत कभी किसी की नहीं होगी कि वामपंथ को लेकर जो उनका हठी रवैया है उसे अनुदारता क्यूं न कहा जाए? क्या थानवी या बाजपेयी की तरह हमें भी अपने कवि चुनने का हक नहीं? क्या कभी थानवी या अशोक बाजपेयी या उनके लोग किसी अदम गोंडवी पर कोई आयोजन करेंगे? नहीं करेंगे. तो जाहिर है हमें भी कुछ कवियों से "घिन" आती है. यह हमारा हक है. जिन्हें आप या अज्ञेय जीवन भर विरोधी घोषित किये रहे उनसे किसी समर्थन की उम्मीद क्यूं (और जो समर्थन में जाके दुदुम्भी या पिपिहरी बजा रहे हैं, वे क्यूं बजा रहे हैं इसका उत्तर उन्हीं के पास होगा, मैं इसे उदारता नहीं अवसरवाद मानता हूँ)

आवाजाही का समर्थन करने वाले कभी अपनी ब्लैक लिस्टों का विवरण नहीं देंगे. यह एक खास तरह का दुहरापन है, जिसमें दुश्मन से खुद के लिए सर्टिफिकेट न जारी होने पर सीने पीटे जाते हैं. यह कौन सी उदारता है जिसका सर्टिफिकेट हत्यारों के मंचों पर बैठ कर ही हासिल होता है? हत्यारे और उसके आइडियोलाग में अगर फर्क करना हो तो मैं आइडियोलाग को अधिक खतरनाक मानूंगा. एक आइडियोलाग हजार हत्यारे पैदा कर सकता है, हजार हत्यारे मिल कर भी एक आइडियोलाग पैदा नहीं कर सकते. मुझे नहीं पता हिटलर या मुसोलिनी ने अपनी पिस्तौल से किसी की ह्त्या की थी या नहीं...मैं मुतमईन हूँ कि हेडगेवार या मुंजे या सावरकर या गोलवरकर ने किसी की ह्त्या नहीं की थी. क्या फासिस्ट विचारधारा का समर्थन करने वालों से सच में कोई सार्थक बहस संभव है? क्या वे अपने मंचों पर आपको इसलिए बुलाते हैं कि वे आपसे कोई "सार्थक संवाद" करना चाहते हैं?  ऐसा भोला विश्वास संघ या दूसरे फासिस्ट संगठनों के इतिहास से पूरी तरह अपरिचित या फिर उनकी साजिश में शामिल लोगों को ही हो सकता है. विदेश का उदाहरण थानवी साहब इस तरह दे रहे हैं मानो वाम-दक्षिण की बहस शुद्ध भारतीय फेनामना हो. उस पर इतना कह देना काफी होगा कि वह शायद"पश्चिम अभिभूतता" से पैदा हुई समझ है. केवल "काँग्रेस फॉर कल्चरल फ़्रीडम" के सी आई ए द्वारा वित्तपोषण और इसके खुलासे के बाद मचे हडकंप का भी अध्ययन कोई कर ले, या ब्रेख्त जैसे लेखक की आजीवन निर्वासन वाली स्थिति को समझने की कोशिश कर ले तो यह वैचारिक विभाजन साफ़ दिखेगा. चार्ली चैप्लिन के ज़रा से समाजवादी हो जाने पर क्या हुआ था, यह कोई छुपी हुई बात नहीं है. दुनिया भर की सत्ताओं ने वामपंथी लेखकों के साथ क्या सुलूक किया है वह भी कोई छुपी बात नहीं है, बशर्ते कोई देखना चाहे.

वैसे इस रौशनी में तमाम कलावादियों/समाजवादियों/वामपंथियों द्वारा महात्मा गांधी हिन्दी विश्विद्यालय और प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान जैसे मंचों के बहिष्कार को भी देखा जाना चाहिए (इन दोनों के बहिष्कार में मैं खुद शामिल हूँ और इसे किसी तरह की अनुदारता की जगह वैचारिक दृढता मानता हूँ)

और ऐसा भी नहीं कि हिन्दी में वैचारिक विरोधियों से संवाद की परम्परा रही ही नहीं. रघुवीर सहाय और धूमिल ही नहीं, बल्कि लोहियावादी समाजवाद की विचारधारा के मानने वाले तथा कट्टर कम्यूनिस्ट विरोधी तमाम लेखकों के बारे में वाम धारा के भीतर हमेशा एक सम्मान वाली स्थिति रही, वे मुख्यधारा की बहसों में शामिल रहे और आज भी हैं. कलावाद के साथ भी वाम का संवाद लगातार हुआ, एक ही पत्रिका में दोनों तरफ के लोग छपते और बहस करते रहे (जनसत्ता के पन्नों पर भी यह निरंतर होता रहा है), दलित विमर्श और स्त्री विमर्श जैसी धुर मार्क्सवाद विरोधी धाराओं के साथ हिन्दी के वामपंथियों का न केवल सार्थक और सीधा संवाद है, बल्कि उन्हें आदर सहित मुख्यधारा की पत्रिकाओं में लगातार स्थान मिलता रहा है. अज्ञेय पर आलेख काफी शुरू में जसम की पत्रिका में छपा. प्रभास जोशी लोहियावादी और कम्यूनिस्ट विरोधी ही थे, लेकिन क्या वाम धारा के लेखकों के साथ उनका संवाद नहीं था? क्या खुद थानवी साहब का संवाद नहीं है? फिर "स्टालिन काल" की याद इसलिए करना कि किसी के "हिटलर" के प्रशंसकों के हाथ पुरस्कार लेने की आलोचना हुई है, क्या है? मैंने कल भी लिखा था, फिर लिख रहा हूँ  संवाद करना और किसी के अपने मंच पर जाकर शिरकत करना दो अलग-अलग चीजें हैं. हम ओम थानवी को इसलिए भाजपाई नहीं कहते कि उनके यहाँ तरुण विजय का कालम छपता है या इसलिए कम्यूनिस्ट नहीं कहते कि वहाँ किसी कम्यूनिस्ट का कालम छपता है. कारण यह कि जनसत्ता के न्यूट्रल मंच है. किसी टीवी कार्यक्रम में या यूनिवर्सिटी सेमीनार में आमने-सामने बहस करना और किसी संघी संस्था के मंच पर जाकर बोलना दो अलग-अलग चीजें हैं.

अब थोड़ा इस आलेख की चतुराइयों पर भी बात कर लेना ज़रूरी है. थानवी साहब बात करते हैं मंगलेश जी के "वैचारिक सहोदरों" के आक्रमण की, लेकिन जिन्हें कोट करते हैं (प्रभात रंजन, सुशीला पुरी, गिरिराज किराडू आदि) उनमें वामपंथी बस एक प्रेमचंद गांधी हैं और जसम का तो खैर कोई नहीं. जबकि उसी वाल पर हुई बहस में आशुतोष कुमार जैसे जसम के वरिष्ठ सदस्य और तमाम घोषित वामपंथी उपस्थित थे. लेकिन थानवी जी ने अपनी सुविधा से कमेंट्स का चयन किया.

उदय प्रकाश को कोट करते हुए यह तो स्वीकार किया कि उन्होंने आदित्यनाथ से पुरस्कार लिया था लेकिन साथ में दो पुछल्ले जोड़े  पहला यह कि उदय प्रकाश को यह पता नहीं था और दूसरा कि परमानंद श्रीवास्तव जैसे लोग वहाँ सहज उपस्थित थे लेकिन हल्ला दिल्ली में मचा. दुर्भाग्य से दोनों बातें तथ्य से अधिक "चतुराई" से गढ़ी हुई हैं. उस घटना के तुरत बाद उठे विवाद के बीच अमर उजाला के गोरखपुर संस्करण में २० जुलाई को छपी एक परिचर्चा में आदित्यनाथ ने कहा था  "इस समारोह में जाने से पहले मैंने खुद आगाह किया था कि उदय प्रकाश जी को कठिनाई हो सकती है"ज़ाहिर है यह वार्तालाप कार्यक्रम के पहले का था और मेरी जानकारी में उदय जी ने अब तक कहीं इसका खंडन नहीं किया है. परमानंद जी ने उसी परिचर्चा में कहा है कि  "जहाँ तक मेरा सवाल है तो मैं रचना समय नाम की एक पत्रिका में उदय प्रकाश का इंटरव्यू लेने के सिलसिले में उनसे मिलने भर गया था न कि उसमें भाग लेने के उद्देश्य से."और गोरखपुर का कोई और साहित्यकार उस समारोह में उपस्थित नहीं था, बल्कि अलग से प्रेमचंद पार्क में मीटिंग कर इसके बहिष्कार का निर्णय लिया गया था. इन सबकी रौशनी में थानवी साहब की इस अदा को क्या कहा जाना चाहिए.

खैर, बात यहीं तक नहीं. थानवी जी ने लिख दिया कि मंगलेश जी ने अब तक चुप्पी बनाई हुई है, जबकि सच यह है कि मंगलेश जी ने अपना स्पष्टीकरण मुझे मेल किया था और मैंने उसे सार्वजनिक रूप से अपनी वाल पर पोस्ट किया था जिसे अन्य मित्रों के साथ प्रभात रंजन ने भी शेयर किया था. मोहल्ला वाले अविनाश दास ने मुझसे फोन पर पूछा भी था और मैंने उन्हें यह जानकारी दी थी. जाहिर है, मंगलेश जी की चुप्पी थानवी साहब के लिए सुविधाजनक थी, अब वह थी नहीं तो गढ़ ली गयी. इसे पत्रकारिता के सन्दर्भ में गैर-जिम्मेवारी कहें या अनुदारता?

लिखने को और भी बहुत कुछ है...लेकिन यह कह कर बात खत्म करूँगा कि यह चतुराई भरा आलेख सिर्फ और सिर्फ मार्क्सवाद का मजाक उड़ाने और प्रतिबद्ध साहित्य पर कीचड़ उछलने के लिए लिखा गया है..और दुर्भाग्य से इसका मौक़ाहमारे ही लोगों ने उपलब्ध कराया है.

*इस लेख के 'रिज्वाइनडर' के रूप में छपे गिरिराज किराडू के आलेख को मैं बहसतलब मानता हूँ लेकिन फिलहाल उस पर कुछ नहीं कह रहा. उस पर अलग से लिखे जाने की ज़रूरत है और लिखा ही जाएगा.

13 comments:

  1. अशोक कुमार पाण्‍डेय ने तथ्‍यपरक और खरी बातें कही है। दरअसल जनसत्‍ता मे छपी ओम थानवी की टिप्‍पणी का शीर्षक भले 'आवाजाही के हक में' रखा गया हो, उनके सोच और बयानगी में इस आवाजाही (वस्‍तुपरक संवाद) की गुंजाइश बहुत कम है। ध्‍यान से देखें तो उनकी और गिरिराज की टिप्‍पणियां प्रकारान्‍तर से उनके जग-जाहिर 
    वाम-विरोध का ही पुनराख्‍यान हैं।

    Reply
  2. आपने बहुत गहराई से हर मुद्दे की पड़ताल की है ...लेकिन मेरा कहना है कि यह आलेख व्यक्तिगत त्रुटियों को रेखांकित करने से अधिक व्यापक महत्व रखता है .ऐसे समय में जब लोग कदम कदम पर एक नया रूप धर रहें हैं ,तब यह आलेख कलई खोलने वाला है . इस बहुरुपिया समय में वैचारिक प्रतिबद्धता का महत्व कतई कम नहीं हुआ है ,इसलिए भी हमें हर 'कटघरे ' को ध्यान में रखना जरूरी है .

    Reply
  3. आपने इस आलेख में एक अत्यंत महत्वपूर्ण बात की है हत्यारे और उसके आइडियोलाग के सन्दर्भ में . आपके शब्दों में इसे देखता हूँ -- "मैं आइडियोलाग को अधिक खतरनाक मानूंगा. एक आइडियोलाग हजार हत्यारे पैदा कर सकता है, हजार हत्यारे मिल कर भी एक आइडियोलाग पैदा नहीं कर सकते. मुझे नहीं पता हिटलर या मुसोलिनी ने अपनी पिस्तौल से किसी की ह्त्या की थी या नहीं...मैं मुतमईन हूँ कि हेडगेवार या मुंजे या सावरकर या गोलवरकर ने किसी की ह्त्या नहीं की थी. क्या फासिस्ट विचारधारा का समर्थन करने वालों से सच में कोई सार्थक बहस संभव है? "

    Reply
  4. इस टिप्पणी में उद्धृत शमशेर बहादुर सिंह पर लिखा आलेख यहाँ है 

    http://samalochan.blogspot.in/2011/08/blog-post_09.html

    Reply
  5. जरूरी हस्तक्षेप. आवाजाही बहुत अच्छी चीज़ है , लेकिन वहीं तो हो सकती है , जो सचमुच आवाजाही के हक में हों . जिहोने हुसैन जैसे जगत्प्रसिद्ध कलाकार को अपने ही देश में जीने और मरने का हक नहीं दिया , जिन्होंने गांधी जी जैसे आवाजाही के महानतम समर्थक को ज़िंदा रहने का हक नहीं दिया , जो अरुंधती और प्रशांत भूषन को बोलने नहीं देते , जो यासीन मलिक को मार -पीट कर भगा देते हैं , जब वो निहत्था अपनी बात कहने के लिए लोगों के बीच आता है , जो संजय काक की फिल्मों का निजी प्रदर्शन तक नहीं होने देते , उन के साथ आवाजाही, आवाजाही नहीं, लीपापोती है . किसी से 'रणनीतिक भूल' हो सकती है , किसी से 'गलत जानकारी के कारण निर्णय की चूक' हो सकती है ( विवाद में आये लेखकों ने यही कहा है ), लेकिन इस भूल- चूक को सराहनीय रणनीति के रूप में पेश किया जाए तो कहना पडेगा -भूल-ग़लती आज बैठी है ज़िरहबख्तर पहनकर तख्त पर दिल के, चमकते हैं खड़े हथियार उसके दूर तक....

    Reply
  6. वाकई ......हो हल्ला की बजाये वैचारिक उदारता की ज़रूरत है जो दिन पर दिन गायब ही होती जा रही है ....एक भ्रामक लेख के जबाब में लिखा गया तथ्यपरक , खरा और ईमानदार लेख !

    Reply
  7. चालाकी छिप नहीं सकती. अशोक ने सारे प्रकरण से धूल हटाकर स्थिति साफ की है. सवाल किसी के पक्ष या विपक्ष में लिखने का नहीं, अपने स्टेंड का है. जाहिर है, यह स्टैंड कोई भी नहीं ले सकता, वही ले सकता है जिसे लेखन की ताकत पर भरोसा है. और यह भरोसा सिर्फ बड़ी-बड़ी बातें कर देने से या बड़े लोगों के उद्धरण दे देने से नहीं पैदा होता, उसी में आ सकता है जो जमीन से जुड़ा हो, जो अपने समय की सच्चाई के साथ हो. अशोक का यह लेख दिल से निकला है.

    Reply
  8. साहित्य जगत में भी कितना छल-कपट भरा है यह देख कर आश्चर्य होता है ! बहुत अच्छी तरह इस कपट को उजागर किया गया है लेख में ! अशोक कुमार पांडे जी को इसके लिए बधाई !

    Reply
  9. वाह.. बेबाक और दो टूक नजरिया। दरअसल, अज्ञेय को लेकर कुछ लोग प्रगतिशील वैचारिक आधारों पर वैमनस्‍यपूर्ण हमले कर रहे हैं, इनका वाजिब प्रतिरोध जरूरी है। बधाई अशोक जी..

    Reply
  10. इस लेख के लिए दिल से बधाई आपको......हमारे यहाँ जनसता एक दिन बाद आता है ...कल ही मिला और कल ही उस लेख को देखा ...सचमुच उस लेख में चतुराई के साथ अपने समर्थन वाली बाते उठाई गयी हैं ...मंगलेश जी वाले प्रकरण पर चली बहस में से कुछ ऐसे ही कमेन्ट उठाये गये हैं , जो उन्हें सूट करते हैं | ..बाकि बाते जैसे फेसबुक पर हुई नहीं हों ....| कहने के लिए तो वह लेख आवाजाही की बात करता हैं , लेकिन स्थापनाए अपनी बातो को मनवाने और उन्हें सही साबित करने की हैं |.....अशोक ने बेहतरीन तरीके से इस लेख में अज्ञेय विवाद से लेकर विचारधारा तक के सवालों को भी रखा है ...| एक बार पुनः बधाई आपको ...

    Reply
  11. इस देश में एक ऐसा वर्ग भी है जो चीजों को सिर्फ" सही "ओर "गलत" के परिपेक्ष्य में देखता है . जो ये नहीं देखता उसे कहना वाला कौन है .किस वाद का है ? उसे प्रवीण तोगड़िया से भी उतनी नफरत है जितनी बुखारी से ,उसके लिए भगत सिंह सिर्फ भगत सिंह है मार्क्सवादी भगत सिंह नहीं , वो सुभाष चन्द्र बोस को भी प्यार करता है ओर वल्लब भाई पटेल को भी . उसके मन में विनायक सेन के लिए भी सम्मान है ओर उस क्षेत्र में काम करने वाले कलेक्टर की भी वो हिम्मत की दाद देता है ओर उन आदिवासियों के लिए वो घुटता है . उसके लिए कश्मीरी सिर्फ कश्मीर में रहने वाले मुसलमान नहीं कश्मीरी पंडित भी है वो सेना के उस शहीद जवान पर भी आंसू बहाता है ..कही भी चली गोली उसे उतना ही दुःख देती है . उसके पास शब्दों को सलीके से रखने का अदब नहीं है हुनर नहीं आर्ट नहीं है वो एक आम आदमी है रोजमर्रा की जिंदगी की ज़द्दोज़हद में उलझा हुआ पर उसने कही पढ़ा था "अदब ओर आर्ट कभी तटस्थ नहीं हो सकते . उसके लिए तटस्थता की कोई "एक तय डाईमेंशन" नहीं होती . 
    बौद्धिकता जब किसी वाद के प्रति पूर्वाग्रह रखती है तो वो अपनी ईमानदारी ओर निष्पक्षता खो देती है , सीमीत हो जाती है . सरोकार के प्रति अनुशासन नहीं रख पाती. सर्जनात्मक प्रव्रति के ये इस दुर्भाग्यपूर्ण विस्थापन कहाँ जा कर रुकेगे ??
    गुंटर ग्रास की साधारण सी कविता से उपजी" आयातित क्रांति " के विमर्श कहाँ किस मोड़ पर पहुंचे है ? मुआफ कीजिये ओर बस कीजिये हिंदी का पाठक भाषा के जंगल में शब्दों से लड़े जाने वाले इन अनिर्णीत युद्दो से उब गया है .इन अहंकारो की परिणति क्या है ? .भाषाई कौशल की ऐसी जुगलबंदिया देखकर लगता है बुद्धिजीवियों में एक किस्म का रुढ़िवाद है ,?पढ़े लिखो लोगो में एक खास किस्म का" छूआ छूत "पसर गया है . बुझ जाता है उसका मन जब वो देखता है कितना "क्रत्रिम " है रचनाकार का निजी संसार ! कितना आसान है विम्बो ओर प्रतीकों से दंद ओर आत्म संघर्षो की काव्यात्मक बनावट तैयार कर कागजो में उकेरना !! कितना मुश्किल है ठीक चीजों को व्योव्हार में उतारना . क्या निजी जीवन में साहित्यकार हर झूठ बोलने वाले व्यक्ति से सम्बन्ध काट लेता है ? हर भ्रष्टाचारी इंसान से सारे सम्बन्ध तोड़ लेता है ? . क्षमा करे ऐसा लगता है हिंदी का संसार कितना छोटा है

    Reply
  12. बिना "वाद" की बौद्धिकता का एक तयशुदा वाद होता है "अवसरवाद". विचारधारा का अर्थ ही होता है विचारों का सुसंगत प्रवाह. जो सुभाष चन्द्र बोस से प्यार करते हुए अंग्रजों को भगाने की जल्दबाजी में हिटलर से लेकर मुसोलिनी और तोजो तक से गठबंधन करने के प्रयास के उनके विचलन की आलोचना नहीं कर सकता, जो वल्लभ भाई पटेल से प्यार करते हुए उनके दक्षिणपंथी भटकावों और तिलंगाना के क्रूर दमन में उनकी या नेहरु की भूमिका की आलोचना नहीं कर सकता, जो बिनायक सेन का सिर्फ "सम्मान" कर सकता है और उनके पक्ष में आवाज़ उठाने की हिम्मत नहीं कर सकता. जिसे "कहीं भी चली गोली" बराबर दुःख देती है, बिना यह देखे कि सीना किसका है...मैं उसे अचूक अवसरवाद से भरा एक लिजलिजा और बेहद चतुर व्यक्ति कहूँगा. अगर थोड़ा सम्मान से कहें तो "भावुक अवसरवादी" कह लें. जब देश भर में बकौल अदम "अमीरी और गरीबी के बीच एक जंग" छिड़ी हो तो ऐसी सार्वजनीन आस्थाओं और भावुकताओं से आप सिर्फ कातिल की मदद कर रहे होते हैं.

    इतिहास में परिवर्तनकारी हस्तक्षेप लिजलिजी भावुकता से नहीं, अपना पक्ष तय करने से होता है. जब युद्ध चल रहा हो तो नो मैन्स लैंड में बाँसुरी नहीं बजाई जाती. 

    और गुंटर ग्रास हों या ब्रेख्त या मुक्तिबोध...ज्ञान किसी एक देश की सीमा में नहीं बंधता. किसी जुकेरबर्ग की खोज "फेसबुक" और किसी अन्य की तलाश "ब्लॉग" को किसी अन्य देश की तकनीक से बने लैपटाप पर आपरेट करते हुए अपनी सक्रियता से आत्ममुग्ध लोग जब किसी कविता पर चली बहस में अपना पक्ष तय न कर पाने पर उसे "आयातित" कहते हैं तो बस उन पर हंसा जा सकता है. 

    हाँ, 'पढ़े-लिखों' के प्रति उपजी इस कुंठा के स्रोत तलाशना मुश्किल है. अब कुछ लोगों की तरह सबके "निजी संसार" को देख-जान-समझ लेने का दावा तो नहीं ही किया जा सकता. 

    कितना आसान है सबके लिए मानक तय कर देना - "हर भ्रष्टाचारी से संबंध तर्क कर देना, हर झूठ बोलने वाले से संबंध तर्क कर देना" क्या कहने हैं...कौन न मर जाए इस सादगी पर. कल तक हत्यारों के यहाँ आवाजाही के समर्थन में पन्ने रंग रहे अब उन आवाजाहियों पर सवाल उठा रहे हैं! 

    ऐसे जबानी जमाखर्च से ओढ़े गए महान लबादों की असलियत बार-बार देखी गयी है. जब पक्ष चुनना मुश्किल हो तो ऐसी ही कुछ गोल-मोल बातें कर, कुछ वैयक्तिक लफ्फाजियाँ कर मुक्ति पा ली जाती है. अचूक अवसरवाद की ये जानी-मानी प्रविधियां हैं...

    Reply

No comments:

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...

PalahBiswas On Unique Identity No1.mpg

Tweeter

Blog Archive

Welcome Friends

Election 2008

MoneyControl Watch List

Google Finance Market Summary

Einstein Quote of the Day

Phone Arena

Computor

News Reel

Cricket

CNN

Google News

Al Jazeera

BBC

France 24

Market News

NASA

National Geographic

Wild Life

NBC

Sky TV