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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Monday, April 30, 2012

जश्न की सूरत और सीरत

जश्न की सूरत और सीरत


Monday, 30 April 2012 11:27

अरविंद मोहन 
जनसत्ता 30 अप्रैल, 2012: मुंबई में दिलचस्प बहस छिड़ी हुई थी। इसके एक नायक या खलनायक थे राज ठाकरे, जिनकी राजनीति काफी कुछ पुरबिया-विरोध और बाल ठाकरे से इस मामले में आगे निकलने की होड़ पर टिकी है। मालेगांव में महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के प्रमुख राज ठाकरे ने बारह अप्रैल को कहा कि यह क्या नौटंकी है? कोई बिहार दिवस मुंबई में क्यों मनाना चाहता है? उनके अनुसार, वे नीतीश को अच्छा नेता मानते थे, पर नीतीश यह छोटी राजनीति क्यों करना चाहते हैं? हम तो अपने पचास साल का जश्न मनाने कहीं नहीं गए। एक का जश्न मनने के बाद बाकी सब भी आएंगे और इसे बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। सो उन्होंने नीतीश कुमार को चुनौती दी कि वे मुंबई आकर दिखाएं। कुछ साल पहले उन्होंने छठ मनाने के सवाल पर लालू यादव को भी ऐसी धमकी दी थी। लालू जी ने जुबानी जंग खूब लड़ी, पर मुंबई नहीं गए, और काफी लोगों ने टकराव टलने पर राहत की सांस ली थी। इस बार राज ठाकरे ने साथ ही यह भी कहा कि वे विरोध करते हुए जेल जाने तक को तैयार हैं। 
जाहिर है उनके बयान से हड़कंप मचना था, खासतौर से बिहार उत्सव के आयोजकों में। आयोजक देवेश ठाकुर, जो पहले बिहार में मंत्री थे और अब मुंबई में उद्योग चलाते हैं, तत्काल उनकी शरण में पहुंचे। मुख्यमंत्री और राज की बातचीत हुई और 'इंडियन एक्सप्रेस' की खबर के अनुसार राज ने इस शर्त पर उन्हें आयोजन में आने की 'इजाजत' दे दी कि इसमें कोई राजनीतिक भाषण नहीं होगा। प्रेस कॉन्फ्रेंस करके राज ठाकरे ने कहा कि उन्होंने न सिर्फ ऐसा करने का आश्वासन दिया, बल्कि महाराष्ट्र-गीत से इसकी शुरुआत करने का भरोसा दिलाया है। हुआ भी कुछ ऐसा ही। यही नहीं, नीतीश कुमार ने मराठी को बहुत मीठी जुबान बताते हुए अपने भाषण की शुरुआत मराठी से ही की- कापी देख कर पढ़ा, वह भी अटक-अटक कर। 
बिहारियों पर नौटंकी करने का आरोप जल्दी ही राज ठाकरे पर नौटंकी करने में बदल गया। उनके चाचा और शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे ने 'सामना' के अपने संपादकीय में लिखा कि एक दिन विरोध अगले दिन समर्थन 'नटवरिया' का काम है। वोटबैंक की राजनीति नौटंकी और तमाशे पर टिक गई है। बाल ठाकरे ने इसके साथ नीतीश की उपलब्धियों का बखान किया और उन्हें बिहार से होने वाले पलायन में कमी लाने का श्रेय भी दिया। उन्हें मुंबई आने का 'परमिशन' देते हुए राज ठाकरे ने भी उनके काम की तारीफ की। इस प्रकार मुंबई में जो नई बहस छिड़ी है उसमें नीतीश और बिहार की वाहवाही की होड़ के साथ राज ठाकरे के ही नटवरिया होने के आरोप प्रमुख हो गए हैं। 
पर मुश्किल यह है कि नीतीश कुमार को इसका राजनीतिक लाभ नहीं मिल रहा है। लाभ मिलना तो दूर, उन्हें अपनी मुंबई यात्रा को लेकर जिस किस्म के हमले झेलने पड़ रहे हैं वैसा पिछले सात सालों में कभी नहीं हुआ था। हमला लालू यादव और रामकृपाल यादव की तरफ से तो हो ही रहा है, भाजपा के नेता भी पहली बार खुल कर सामने आए। प्रदेश भाजपा अध्यक्ष सीपी ठाकुर ने, जो आमतौर पर बयानबाजी से बचते हैं, पहले ही दिन साफ कहा कि नीतीश जी को राज ठाकरे से परमिशन मांगने का काम नहीं करना चाहिए था।
तुरंत शाहनवाज हुसैन जैसे दूसरे भाजपाई नेताओं ने नीतीश कुमार के पक्ष में बयान देना शुरूकिया, लेकिन इससे बात बनी नहीं। कई लोग तो इस मुद््दे को बिहार से ऊपर पूरे पुरबिया लोगों के स्वाभिमान का मुद््दा और देश में कहीं भी जाकर काम करने के संविधान प्रदत्त अधिकार का मुद्दा बनाने लगे। कई लोग इसे सभी गैर-मराठी लोगों के सम्मान का सौदा बताने से भी नहीं चूके। और जिस तरह से इस सवाल पर बिहारी मीडिया ने चुप्पी साध ली, उससे यह भी शक हुआ कि बिहार के 'एडिटर-इन चीफ' यह नहीं चाहते कि इस प्रसंग पर बिहार में चर्चा हो। 
असल में इस यात्रा में कई ऐसी बातें हुर्इं जो नीतीश कुमार को लाभ देने की जगह दीर्घकालिक नुकसान पहुंचा सकती हैं। एक तो यही मसला है कि पूर्व मंत्री देवेश ठाकुर ने राज ठाकरे से किस हैसियत से बात की। फिर उनकी बातचीत के बाद फोन नीतीश कुमार के यहां से हुआ या राज ठाकरे के यहां से। अगर यह साबित हो कि राज ठाकरे ने फोन किया था तब तो बात थोड़ी हल्की हो सकती है। अगर फोन मुख्यमंत्री के यहां से ही हुआ था तो परमिशन वाला आरोप पूरी तरह चिपक जाएगा। पर सवाल यह है कि जिस तरह से मामले को दबा दिया गया उसमें यह सफाई कौन देगा और कौन लेगा। लालूजी समेत सारा विपक्ष जिस तरह से हताश है उसमें भरोसा नहीं होता कि राजद या कांग्रेस या फिर कम्युनिस्ट पार्टियां ही कभी नीतीश कुमार से दो सवाल पूछने की हालत में आएंगी। 
यह हो न हो, इस प्रसंग से बिहारी स्वाभिमान और पुरबिया स्वाभिमान से सम्झौता करने का आरोप और राज ठाकरे को इतनी बड़ी राजनीतिक प्रतिष्ठा देने का दाग तो नीतीश कुमार पर चिपक ही जाएगा। राज की राजनीति कैसी है और वे बिहारियों और पुरबिया लोगों के खिलाफ कितना जहर उगल चुके हैं यह बताने की जरूरत नहीं है। उन पर बिहार समेत देश की कई अदालतों में मुकदमे चल रहे हैं। पर वे अब भी जहर उगलने से बाज नहीं आ रहे हैं। कोई कह सकता है कि इस यात्रा से नीतीश जी ने मुंबई में रह रहे बिहारियों और फिर पुरबिया लोगों के लिए राह हमवार की है।   वहां उन्होंने पुरबिया सद्भाव बनाया है और वहां के वातावरण में घुले जहर को कम किया है।

पर न चाहते हुए भी यहां कांग्रेस के युवा नेता राहुल गांधी के चर्चित मुंबई दौरे और उस समय लोकल ट्रेन में उनकी मुसाफिरी का जिक्र करना जरूरी है। वह बहुत प्रचारित और तैयारी वाली यात्रा जरूर थी, मगर जो लोग उस पर नाटक का आरोप लगाते हैं उन्हें मुंबई जाने से कौन रोक रहा था! उस यात्रा से निश्चित रूप से लाभ हुआ। एक तो यह यात्रा पुरबियों की पिटाई के तत्काल बाद हुई थी, सो इसमें जख्मों पर मलहम लगाने वाला तत्त्व भी था। फिर, राज ठाकरे और बाल ठाकरे की दादागीरी को खुली चुनौती देने का भाव भी उसमें था। राहुल की उस यात्रा ने राज्य सरकार की जड़ता को तोड़ने का काम भी किया। जब भी बाल ठाकरे और राज ठाकरे की घटिया राजनीति शुरूहोती है तो मुंबई के पुरबिया मजदूरों से भी ज्यादा डर भाजपा और कांग्रेस पार्टियों में आ जाता है। राहुल की यात्रा ने लोगों में बाल ठाकरे-राज ठाकरे का डर कम करते हुए राज्य सरकार को भी सक्रिय किया था। 
नीतीश कुमार की मुंबई यात्रा में भी सुरक्षा के कम इंतजाम नहीं थे, पर वे राहुल की तरह कहीं भी खुले में नहीं गए। खुद मुंबई की सभा में प्रधानमंत्री स्तर की सुरक्षा के बावजूद नीतीश कुमार पर राज की धमकी का प्रभाव साफ दिख रहा था। एक तो महाराष्ट्र-गान हुआ, जिसे अनुचित नहीं कहा जा सकता, पर धमकी के तहत होने के कारण यह काम सामान्य नहीं लग रहा था। फिर नीतीश कुमार के भाषण का शुरुआती हिस्सा मराठी में था, जो और भी अस्वाभाविक लग रहा था। ऊपर से मुख्यमंत्री उसे बार-बार मीठी भाषा बता कर मराठियों की खुशामद करते लग रहे थे। नीतीश कुमार मुंबई जाकर विवाद की भाषा बोलते तो राज ठाकरे का ही हित सधता, पर वहां जाकर मिन्नत की भाषा बोलें यह भी स्वाभाविक नहीं लग रहा था। बहु-स्तरीय सुरक्षा घेरे में भी अगर उन्हें स्वाभाविक बात कहने से परेशानी थी तो वहां रहने वाले आम पुरबिया को वे क्या संदेश देना चाहते थे! 
इसी बिहार दिवस के आयोजन पर दिल्ली में उनका लहजा एकदम अलग था और उससे तुलना करके वे स्वयं फर्क जान सकते हैं- बाकी लोगों के लिए यह करने की भी जरूरत नहीं। यहां उन्होंने बिहारियों को दिल्ली के विकास का आधार ही घोषित कर दिया और लगभग गरजते हुए उनके बगैर दिल्ली के न चल पाने की चुनौती दी। दिल्ली में एमसीडी चुनाव के मद्देनजर शीला दीक्षित ने बात आगे नहीं बढ़ाई, वरना नीतीश कुमार विवाद छेड़ने वाली बात कर गए थे। और शीला जी ही नहीं खुराना साहब और मल्होत्रा जी भी पर्याप्त बिहारी-विरोधी जहर उगल चुके हैं। बार-बार दिल्ली की सारी समस्याओं का 'श्रेय' बिहारियों को दिया जा चुका है। यहां बिहारी ही नहीं, उनका भोजन 'चावल' भी अपमानजनक शब्द बन गया है। पर चुनाव नजदीक होने से बात बढ़ी नहीं, क्योंकि सबको पहले बिहारी वोट की पड़ी थी।
ऐसे में यह सवाल भी उठता है कि जिस आयोजन से बिहारियों और पुरबियों का स्वाभिमान जगने की जगह बुझे, उनमें उत्साह आने की जगह हीन भावना बढेÞ और उनका खुला विरोध करने वाले का कद बढ़े उस आयोजन का क्या मतलब है! एक तो अंग्रेजों द्वारा किए राज्य-निर्माण के सौवें साल का जश्न मनाने क्या औचित्य है? फिर इस दौरान बिहार का इतिहास गौरवान्वित करने वाली चीजों की जगह हताशा और निराशा पैदा करने वाली चीजों से भरा पड़ा है। इस मुद््दे को छोड़ दें, तो आयोजन राज्य के बाहर ले जाने का फैसला भी सवालों से परे नहीं है। अगर अपने सात साल के शासन की उपलब्धियां काफी लगती हैं तो उनका ही प्रदर्शन कीजिए। यहां भी लालू-राबड़ी राज, कांग्रेसी राज की विफलताएं ही आपके चमकने का आधार हैं, जिन्हें दिखाना उचित नहीं है। 
होना यह चाहिए कि आज की बिहार सरकार सबसे कम फिजूलखर्च करे, सबसे कम दिखावा करे, सबसे कम पैसों में काम चलाना सीखे। नीतीश कुमार के गुरु रहे किशन पटनायक ने कभी लालू जी को सलाह दी थी कि बिहार के पिछडेÞपन का रोना रोने से पहले अपने खर्च कम करने, विधायकों-मंत्रियों की सुविधाएं कम करने, अधिकारियों और कर्मचारियों की तनख्वाह कम करने की सोचें।
किशनजी का तर्क था कि सबसे गरीब राज के मंत्री-संत्री को उसी तरह रहना चाहिए और अमीर राज्य के मंत्री-संत्री से होड़ नहीं लगानी चाहिए। अगर नियुक्ति और जरूरत का ध्यान ठीक से रख कर काम किया जाए तो 'शिक्षा मित्र' की तरह दूसरे कामों में भी अंशकालिक और स्थानीय लोगों से काम करा कर खर्च घटाया जा सकता है। सो पूरा आयोजन ही सवालों के घेरे में है। ऐसे में अगर आपके काम से बिहारियों का मान गिरे और राज ठाकरे जैसों का कद बढ़े तो आपकी आलोचना बहुत हद तक उचित है।

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