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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Tuesday, June 5, 2012

कश्मीर : आगे का रास्ता

04.06.2012

कश्मीर : आगे का रास्ता


-राम पुनियानी



कश्मीरी युवाओं से बातचीत में सदैव उनका दुःख और व्यथा, उनकी कुंठाएं और उनके गृह प्रदेश की क्रूर व्यवस्था के प्रति उनका गुस्सा साफ झलकता है। कश्मीरी युवा देश के अलग-अलग हिस्सों में विभिन्न कार्यक्रमों, बैठकों इत्यादि में भाग लेने आते रहते हैं। उनसे चर्चा करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि वे कश्मीर से जुड़े मुद्दों को गहराई से समझते हैं। वे बिना किसी लाग-लपेट के उनकी वर्तमान की परेशानियां और भविष्य के बारे में आशंकाओं को जाहिर करते हैं। वे बैचेन, पीड़ित और परेशान हैं। वे स्वयं को असहाय महसूस करते हैं।

एक प्रश्न जो वे बार-बार पूछते हैं वह यह है कि उन्होंने ऐसा क्या किया है कि उन पर आतंकवादी होने का लेबिल चस्पा कर दिया गया है। क्या कारण है कि कश्मीरियों को भारतीय सेना सहित कई हथियारबंद समूहों के हाथों प्रताड़ना झेलनी पड़ती है? वे कश्मीर घाटी में अतिवादियों व भारतीय सेना-दोनों की कारगुजारियों से दुःखी व नाराज नजर आते हैं।

कश्मीरी युवा कुंठाग्रस्त क्यों हैं और उन्हें इस कुंठा और अवसाद से उबारने के लिए क्या किया जाना चाहिए? हाल में (मई 2012) दिलीप पडगांवकर, राधा कुमार और एम. एम. अंसारी के वार्ताकारों के समूह की सिफारिशें सार्वजनिक की गईं। सरकार ने अब तक इन सिफारिशों को मानने या न मानने के बारे में कुछ नहीं कहा है। भाजपा ने वार्ताकारों की रपट को एक सिरे से खारिज कर दिया है। उसका कहना है कि अगर रपट में की गई सिफारिशों को मंजूर किया जाता है तो इससे कश्मीर का भारत में विलय कमजोर हो जाएगा और कश्मीर को अत्यधिक स्वायत्ता प्राप्त हो जाएगी। दूसरी ओर, अलगाववादियों का मत है कि रपट में सुझाए गए उपाय अपर्याप्त हैं और कश्मीर मुद्दे के राजनैतिक समाधान के रास्ते में बाधक बनेंगे। मूलतः, वार्ताकारों के समूह ने कश्मीर के मामले में सन् 1953 से पूर्व की स्थिति की बहाली की मांग को खारिज किया है परन्तु कश्मीर को अधिक स्वायत्ता दिए जाने की वकालत की है। रपट में यह सिफारिश की गई है कि संसद कश्मीर के मामले में कोई कानून न बनाए जब तक कि वह आंतरिक या बाहरी सुरक्षा से जुड़ा न हो। रपट ने संविधान के अनुच्छेद 370 को "अस्थायी" के स्थान पर "विशेष" दर्जा देने पर जोर दिया है। यह भाजपा जैसे अति राष्ट्रवादियों को मंजूर नहीं है। समूह की यह सिफारिश महत्वपूर्ण है कि राज्य के प्रशासनिक तंत्र में शनैः-शनैः इस तरह बदलाव लाया जाना चाहिए कि उसमें स्थानीय अधिकारियों का अनुपात बढ़े। रपट में ऐसे क्षेत्रीय निकायों के गठन की सिफारिश भी की गई है जिन्हें वित्तीय अधिकार प्राप्त होंगे। हुरियत और पाकिस्तान-दोनों से बातचीत करने और नियंत्रण रेखा के आसपास तनाव घटाने की बात भी कही गई है।

साफ है कि वार्ताकारों के समूह ने पूरे मुद्दे का अत्यंत गहराई से अध्ययन किया है। कश्मीर में व्याप्त असंतोष को तो ध्यान में रखा ही गया है, पिछले 60 सालों में मैदानी स्तर पर हुए परिवर्तनों को भी नजरअंदाज नहीं किया गया है। इस रपट के आधार पर कश्मीर में शांति की पुनर्स्थापना के सार्थक प्रयास किए जा सकते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि कश्मीर के नागरिकों के मानवाधिकारों का खुल्लम-खुल्ला उल्लंघन हुआ है और हो रहा है। भारत के साथ हुई विलय की संधि में कश्मीर को पूर्ण स्वायत्ता दी गई थी परंतु धीरे-धीरे साम्प्रदायिक ताकतों के दबाव में स्वायत्ता का घेरा छोटा, और छोटा होता गया। शुरूआत से ही दक्षिणपंथी तत्वों-विशेषकर जनसंघ के संस्थापक श्यामाप्रसाद मुकर्जी ने साम्प्रदायिक संगठनों के सहयोग से - कश्मीर के भारत में पूर्ण विलय किए जाने की मांग को लेकर आंदोलन चलाया। इन लोगों का कहना था कि भारत और कश्मीर के बीच हुए समझौते के अन्तर्गत राज्य को दी गई स्वायत्ता को समाप्त कर दिया जाना चाहिए। साम्प्रदायिक तत्वों के दबाव और उभरते हुए कथित भारतीय राष्ट्रवाद के कारण भारत सरकार लगातार कश्मीर की स्वायत्ता संबंधी प्रावधानों को कमजोर करती गई। इस प्रक्रिया का चरम था कश्मीर के प्रधानमंत्री का दर्जा घटाकर उसे मात्र मुख्यमंत्री का कर दिया जाना।

स्वतंत्रता के तुरंत बाद महात्मा गांधी की हत्या और अल्पसंख्यकों को आतंकित करने के प्रयासों ने शेख अब्दुल्ला का भारत से मोहभंग कर दिया और उन्होंने कश्मीर के संबंध में अन्य विकल्पों पर विचार करना प्रारंभ कर दिया। इसके तुरंत बाद उन्हें जेल में डाल दिया गया ओर वे 17 सालों तक जेल में रहे। इससे कश्मीरियों और विशेषकर युवा कश्मीरियों में भारत के प्रति अलगाव का भाव तेजी से उभरने लगा। दूसरी ओर, पाकिस्तान, कश्मीर में लगातार हस्तक्षेप करता रहा। पाकिस्तान ने असंतुष्ट कश्मीरी युवाओं और घाटी में सक्रिय अतिवादियों को सहायता और संरक्षण दिया और इससे कश्मीर समस्या और गंभीर हो गई। इस मामले में पाकिस्तान को अमरीका का पूरा समर्थन मिला। अमेरिका अपनी साम्राज्यवादी नीतियों के अन्तर्गत इस क्षेत्र पर  दबदबा कायम करना चाहता था। कश्मीर रणीनीतिक दृष्टि से एक महत्वपूर्ण इलाका है और इसलिए अमेरिका ने कश्मीर  समस्या के शांतिपूर्ण हल में हर संभव बाधा डाली।

सन् 1980 के दशक में स्थिति और बिगड़ गई। इसका कारण था अल्कायदा और उसके जैसे अन्य संगठनों की कश्मीर में घुसपैठ। उन्होंने इस क्षेत्रीय समस्या का साम्प्रदायिकीकरण कर दिया। कश्मीरियत के मुद्दे का स्थान काफिरों के विरूद्ध जेहाद के नारे ने ले लिया। अल्कायदा के लड़ाके, अमेरिका द्वारा स्थापित मदरसों में प्रशिक्षित थे जहां उनके दिमागों में जेहाद और काफिर जैसे शब्दों का तोड़ा-मरोड़ा गया अर्थ भर दिया गया था। जैसे-जैसे घाटी में आतंकवाद बढ़ता गया वहां के नागरिकों के प्रजातांत्रिक अधिकारों का दमन भी बढ़ता गया और अंततः कश्मीर की सरकार का दर्जा नगरपालिका के बराबर कर दिया गया। बड़ी संख्या में भारतीय सैनिकों को अतिवादियों से मुकाबला करने के लिए घाटी में भेजा गया और इससे समस्या और गंभीर हो गई। सेना बाहरी शत्रुओं से लड़ने के लिए प्रशिक्षित होती है और नागरिक क्षेत्रों में लंबे समय तक उसकी तैनाती से कई समस्याएं उत्पन्न हो जाती हैं। सेना ने मुस्लिम युवकों को शारीरिक यंत्रणा देने के सारे रिकार्ड तोड़ दिए। सेना ने घाटी में जमकर मनमानी की और वहां की सैकड़ों विधवाएं और अर्ध-विधवाएं (जिनके पति लापता हैं) सेना के कुकृत्यों का सुबूत हैं। कश्मीर के हर युवक को संदेह की नजर से देखा जाने लगा और इससे हजारों युवाओं का जीवन बर्बाद हो गया। कश्मीर मुद्दे के साम्प्रदायिकीकरण के कारण कश्मीरी पंडित स्वयं को असुरक्षित महसूस करने लगे और तत्कालीन राज्यपाल जगमोहन की शह पर लाखों की संख्या में घाटी से पलायन कर गए। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि बंदूकों-चाहे वे किसी के भी हाथों में रही हों-से डरकर बड़ी संख्या में मुसलमानों ने भी घाटी से पलायन किया।

आज कश्मीर में सामान्य स्थिति की बहाली में सबसे बड़ा रोड़ा है नागरिक इलाकों को सेना की बैरकों में बदल दिया जाना। पूरे राज्य में नागरिक प्रशासन तंत्र पर सेना हावी है। दूसरी ओर, शेष भारत में साम्प्रदायिक तत्वों ने इसे हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष का रूप दे दिया। शुद्ध रूप से नस्ल और क्षेत्र से जुड़े इस मुद्दे को धर्म के चश्मे से देखा जाने लगा। इससे मुसलमानों की मुसीबतें और बढ़ीं। आज कश्मीर में शांति की स्थापना के लिए कई कदम उठाए जाने जरूरी हैं। सबसे पहले तो घाटी में सेना की मौजूदगी को कम किया जाना चाहिए और इसके साथ ही असंतुष्ट कश्मीरियों और पाकिस्तान से बातचीत की जानी चाहिए। भारत और पाकिस्तान कश्मीर को केवल जमीन के एक टुकड़े के रूप में देख रहे हैं। कश्मीर को एक कीमती जायजाद की तरह देखने की बजाए कश्मीर के नागरिकों की समस्याओं को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। वार्ताकारों के समूह की सिफारिशों पर कोई भी बहस या चर्चा इस प्रश्न पर केन्द्रित होनी चाहिए की क्या इन सिफारिशों को अमल में लाने से सभी कश्मीरियों और विशेषकर युवाओं की दुःख-तकलीफों में कमी आएगी या नहीं? कश्मीरी युवाओं की दो पीढ़ियों ने अतिवादियों और सेना दोनों की ओर से परेशानियां व दुःख झेले हैं। अमेरिका और पाकिस्तान की सांठ-गांठ ने भी कश्मीर समस्या की गंभीरता में बढ़ोत्तरी की है। वार्ताकारों की रपट पर स्वस्थ बहस से कश्मीर में शान्ति की पुनर्स्थापना की राह प्रशस्त हो सकती है। (मूल अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद: अमरीष हरदेनिया)   


(लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे, और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)

संपादक महोदय,               

कृपया इस सम-सामयिक लेख को अपने प्रकाशन में स्थान देने की कृपा करें।

- एल. एस. हरदेनिया

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