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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Saturday, June 16, 2012

अल्पसंख्यकों के मानवाधिकारों का हनन

http://www.bahujanindia.in/index.php?option=com_content&view=article&id=6150:2012-06-16-03-09-10&catid=138:2011-11-30-09-53-31&Itemid=543

अल्पसंख्यकों के मानवाधिकारों का हनन

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कल्याण में पिछले (मई 2012) माह भिलाल शेख नामक एक मुस्लिम युवक पर गैर-जमानती धाराओं के तहत अपराध दर्ज कर लिया गया। सड़क पर लाल सिग्नल को पार करने के छोटे से अपराध के लिए उस पर भारतीय दण्ड संहिता की धारा 333 के अंतर्गत मुकदमा कायम किया गया। पुलिसकर्मियों से बहस करने पर उसकी जमकर पिटाई की गई। उसके दाहिने हाथ की हड्डी टूट गई और उसे आठ दिन जेल में बिताने पड़े। जिन पुलिसकर्मियों ने उसकी पिटाई की थी उन पर मामूली धाराएं लगाईं गईं और वे बहुत जल्द जेल से बाहर आ गए। मोहम्मद आमिर खान जब 18 वर्ष का था और अपनी स्कूल की परीक्षा की तैयारी में व्यस्त था तब उसे पुलिस ने उसके घर से उठा लिया। उस पर आरोप था कि वह दिल्ली श्रृंखलाबद्ध बम धमाकों का मास्टरमाईंड था। उस पर दर्जनों धाराओं के तहत मुकदमें लाद दिए गए। वह 14 साल तक जेल में रहा, जिस दौरान उसे घोर शारीरिक यंत्रणा भोगनी पड़ी। अंततः, वह सन् 2012 में जेल से बाहर आ सका जब अदालत ने उसे निर्दोष घोषित कर बरी कर दिया।
मालेगांव और हैदाराबाद की मक्का मस्जिद में हुए बम धमाकों-जिनके लिए बाद में असीमानंद, प्रज्ञा सिंह ठाकुर एण्ड कंपनी को जिम्मेदार पाया गया-के बाद दर्जनों मुस्लिम युवकों को गिरफ्तार कर जेलों में डाल दिया गया। अजमेर और समझौता एक्सप्रेस धमाकों के बाद भी यही हुआ। इन सभी मामलों में मुस्लिम युवकों को पुलिस को बाद में छोड़ना पड़ा क्योंकि उनके खिलाफ कोई सुबूत नहीं थे। परंतु उनकी जेल यात्रा ने उनका जीवन बर्बाद कर दिया। कईयों की पढ़ाई बीच में ही छूट गई और उनका एक अच्छा कैरियर बनाने का स्वप्न ध्वस्त हो गया।टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साईसिंज, मुंबई द्वारा किए गए सर्वेक्षण की हालिया (जून 2012) जारी रपट में कहा गया है कि महाराष्ट्र की जेलों में बंद कैदियों में मुसलमानों का प्रतिशत 36 है जबकि महाराष्ट्र की कुल आबादी का वे मात्र 10.60 प्रतिशत हैं। यह सर्वेक्षण "महाराष्ट्र राज्य अल्पसंख्यक आयोग" द्वारा प्रायोजित  था। यह रपट, सच्चर समिति के निष्कर्षों की पुष्टि करती है और इससे साफ हो जाता है कि मानवाधिकार कार्यकर्ताओं द्वारा इस बाबद समय-समय पर व्यक्त की जाती रहीं आशंकाएं निर्मूल नहीं हैं।
हर अपराध के सिलसिले में मुसलमानों की बड़ी संख्या में गिरफ्तारी के पीछे है यह मान्यता कि मुसलमान अपराधी और आतंकवादी हैं। मुसलमानों के संबंध में ये पूर्वाग्रह समाज में तो व्याप्त हैं ही, नौकरशाही, पुलिस और गुप्तचर सेवाओं के अधिकारी भी इन पूर्वाग्रहों से गहरे तक ग्रस्त हैं। अधिकांश पुलिसकर्मियों की सोच घोर साम्प्रदायिक है और इसलिए वे मुसलमानों को प्रताड़ित करने का कोई मौका नहीं छोड़ते। समाज के साम्प्रदायिकीकरण और विशेषकर अल्कायदा ब्रांड आतंकवाद के उदय के बाद, मुसलमानों के संबंध में पूर्वाग्रह और गहरे हुए हैं। यहां यह महत्वपूर्ण है कि अल्कायदा आतंकवाद का जनक अमरीका था जिसने तेल के कुओं पर कब्जा करने के अपने राजनैतिक लक्ष्य की पूर्ति के लिए इन तत्वों को प्रोत्साहन और मदद दी। हमारे देश का तंत्र काफी हद तक अल्पसंख्यक-विरोधी है और इसके कारण उसकी कार्यप्रणाली में तार्किकता और वस्तुपरकता का अभाव है। कानून की बजाए पूर्वाग्रह हमारे अधिकारियों और पुलिसकर्मियों के पथप्रदर्शक बन गए हैं। 
राज्यतंत्र द्वारा मुस्लिम युवकों को निशाना बनाए जाने के कई कारण हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि घोर निर्धनता के कारण कुछ मुस्लिम युवक अपराध की दुनिया में दाखिल हो जाते हैं और इसका फल वे भोगते भी हैं परंतु मुसलमानों को जिस बड़ी संख्या में पुलिस के हाथों प्रताड़ना झेलनी पड़ती है उसके पीछे हैं उनके बारे में फैलाए गए मिथक।
साम्प्रदायिक दंगों को भड़काने में हमेशा से बहुसंख्यकवादी साम्प्रदायिक ताकतों की प्रमुख भूमिका रही है। विभिन्न दंगा आयोगों की जांच रपटों के तीस्ता सीतलवाड द्वारा किए गए अध्ययन (कम्यूनलिज्म काम्बेट, मार्च 1998) बताता है कि अधिकतर दंगों को भड़काने के लिए आरएसएस से जुड़े संगठन उत्तरदायी थे। इनमें से कुछ ऐसे थे जो पूर्व से ही अस्तित्व में थे और कुछ का गठन विषेष रूप से दंगा भड़काने के लिए किया गया था। मुंबई में सन् 1992-93 के दंगों के लिए श्रीकृष्ण जांच आयोग ने मुख्यतः शिवसेना को दोषी ठहराया था। यद्यपि मुसलमानों का देश की आबादी में प्रतिशत 13.4 है (जनगणना 2001) तथापि दंगों में मारे जाने वालों में से नब्बे प्रतिषत मुसलमान होते हैं। पुलिस और कई बार राजनैतिक नेतृत्व के व्यवहार और दृष्टिकोण से मुसलमानों में असुरक्षा का भाव उपजता है। 
इस संबंध में सबसे व्यथित करने वाली बात यह है कि आमतौर पर यह माना जाता है कि मुसलमान ही दंगे शुरू करते हैं। डाक्टर व्ही. एन. राय, जिन्होंने देश में साम्प्रदायिक हिंसा का विशद अध्ययन किया  है, का मत है कि अधिकांशतः ऐसी परिस्थितियां बना दी जाती हैं जिनके चलते अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्यों को पहला पत्थर फेंकने पर मजबूर होना पड़ता है। इसके बाद, वे हिंसा के शिकार तो होते ही हैं उन्हें हिंसा भड़काने के आरोप में गिरफ्तार भी कर लिया जाता है। 
पिछले कुछ सालों में हुए आतंकी हमलों और उनके संबंध में पुलिस का दृष्टिकोण इस तथ्य की पुष्टि करता है। मालेगांव, अजमेर, जयपुर व समझौता एक्सप्रेस धमाकों के लिए मुस्लिम युवकों को दोषी ठहराकर उन्हें सलाखों के पीछे धकेल दिया गया था। पुलिस ने उनके विरूद्ध झूठे सुबूत गढ़ लिए थे और उनका संबंध पाकिस्तानी आतंकी गुटों से जोड़ दिया गया था। इस मामले में सिमी, पुलिस का पसंदीदा संगठन था। हर आतंकी हमले के लिए सिमी कार्यकर्ताओं को दोषी ठहरा दिया जाता था। उस समय भी कई सामाजिक कार्यकर्ताओं और अन्यों ने यह आशंका व्यक्त की थी कि पुलिस की जांच प्रक्रिया और उसके निष्कर्ष ठीक नहीं हैं परंतु पुलिस हर बम धमाके के बाद मुसलमानों को गिरफ्तार करने से बाज नहीं आई। उन्हें लश्कर-ए-तैय्यबा, इंडियन मुजाहीदीन, सिमी या किसी अन्य संगठन का सदस्य बताकर आतंकी हमलों का दोष उनके सिर मढ़ दिया जाना आम था। उस समय कई सामाजिक संगठनों ने परोक्ष और प्रत्यक्ष रूप से यह कहा था कि इन हमलों के पीछे किन्हीं दूसरी ताकतों का हाथ होने के संकेत हैं। परंतु पूर्वाग्रहों का चश्मा पहने पुलिसकर्मियों को कुछ नजर नहीं आया।
यह सिलसिला तब बंद हुआ जब हेमन्त करकरे ने सूक्ष्म जांच के बाद, मालेगांव धमाकों के तार साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर से जुड़े होने के पक्के सुबूत खोज निकाले। इसके बाद स्वामी दयानंद पाण्डे, ले. कर्नल प्रसाद श्रीकांत पुरोहित, पूर्व मेजर उपाध्याय, स्वामी असीमानंद व अन्य कई हिन्दुत्ववादी नेताओं का ऐसा गुट सामने आया जो आतंकी हमले करवाता रहा था। तब जाकर यह साफ हुआ कि पुलिस एकदम उल्टी दिशा में काम कर रही थी। इस पर्दाफाश के बाद मानवाधिकार संगठन "अनहद" ने "बलि के बकरे और पवित्र गायें" नामक जनसुनवाई का हैदराबाद में आयोजन किया। इस सुनवाई की रपट में जांच एजेन्सियों और राज्य की कुत्सित भूमिका सामने आई। भगवा आतंकी संगठनों के मुखियाओं की गिरफ्तारी के बाद देश में बम धमाकों का सिलसिला थम गया। 
इसके बाद भी पुलिस के दृष्टिकोण में कोई विषेष बदलाव नहीं आया है और आज भी सड़कों और थानों में उनके व्यवहार में अल्पसंख्यकों के प्रति उनके पूर्वाग्रह साफ झलकते हैं। राज्यतंत्र, पुलिस और गुप्तचर एजेन्सियों के पूर्वाग्रहग्रस्त दृष्टिकोण के कारण कई मुसलमान युवकों के जीवन और कैरियर  बर्बाद हो गए हैं। इससे अल्पसंख्यक समुदाय की प्रगति बाधित हुई है। कई मौकों पर मुसलमानों ने ही आतंकी हमलों के लिए दोषी ठहराए गए अपने समुदाय के सदस्यों का सामाजिक और आर्थिक बहिष्कार किया। इससे उन मासूमों के दिलों पर क्या गुजरी होगी, यह समझना मुश्किल नहीं है। अब समय आ गया है कि मानवाधिकार संगठन, मासूम मुस्लिम युवकों को जबरन आपराधिक मामलों में फंसाए जाने के खिलाफ मज़बूत अभियान चलाएं। पुलिस की मनमानी पर रोक ज़रूरी है। यह जरूरी है कि पुलिस और गुप्तचर एजेन्सियां मुसलमानों के संबंध में अपनी गलत धारणाएं त्यागें और अपना काम निष्पक्षता से करें। जितनी जल्दी सरकार इस मामले में प्रभावी कदम उठाएगी, उतना ही बेहतर होगा।
मुसलमानों को कानून के हाथों प्रताड़ित होने से बचाने के अतिरिक्त उनके विरूद्ध समाज में फैले मिथकों से मुकाबला भी बहुत ज़रूरी है। ऐतिहासिक और समकालीन मुद्दों को लेकर मुसलमानों के खिलाफ जमकर दुष्प्रचार किया जाता रहा है। इस दुष्प्रचार का प्रभावी मुकाबला होना चाहिए और सच को समाज के सामने लाया जाना चाहिए। सरकार के साथ-साथ सामाजिक संगठनों का भी यह कर्तव्य है कि वे व्याख्यानों, कार्यशालाओं, छोटी-छोटी पुस्तिकाओं और मीडिया के जरिए इस मुद्दे पर जनजागृति अभियान चलाएं। (मूल अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद: अमरीश हरदेनिया)   
                        (लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे, और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।) 

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