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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Saturday, April 6, 2013

सीढ़ियों पर पड़ा हूं कबीर होते हुए…



सीढ़ियों पर पड़ा हूं कबीर होते हुए

शुरुआती रचना के प्रकाशन के लिये लक्ष्मण राव को अपना सब कुछ दांव पर लगाना पड़ा. रचना प्रकाशित होने के बाद सुबह साइकिल लेकर उसे बाजार में बेचने के लिए निकलते तो लोग मज़ाक तक उड़ाते. लेकिन वर्षों के परिश्रम ने उन्हें अब बतौर लेखक पहचान दिला दी है...

वसीम अकरम त्यागी


नई दिल्ली के विष्णु दिगंबर मार्ग पर एक इंसान लम्बे समय से चाय बेचता है. सोचेंगे चायवाले तो न जाने कितने मार्गों पर हैं, तो फिर इसमें ऐसी क्या खास बात है? मगर इसमें खास बात है. यह चायवाला शख्स हिंदी भवन और उसी के बराबर में बने पंजाबी भवन के सामने चाय की दुकान लगाता है और अपने ठिये के बराबर में ही एक बुकस्टॉल भी लगाता है.

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किताबों के साथ दुकान पर चायवाले साहित्यकार लक्ष्मण राव

उस बुक स्टॉल पर किसी दूसरे की लिखी नहीं, बल्कि खुद उस चायवाले की लिखी किताबें है, जिसे चाय वाला साहित्यकार कहा जाता है. इस साहित्यकार का नाम है लक्ष्मण राव. लक्ष्मण राव हेकड़ी के साथ कहते भी हैं कि वे साहित्यकार हैं, लेकिन उनकी रोजी रोटी का साधन उनका लिखा गया साहित्य नहीं, बल्कि चाय की दुकान है जिस पर वो सुबह 11 बजे आ जाते हैं और देर रात तक चाय बेचते हैं.

चायवाले साहित्यकार के नाम से मशहूर लक्ष्मण राव का जन्म 22 जुलाई 1952 को महाराष्ट्र के अमरावती जनपद के छोटे से गांव तड़ेगांव दशासर में हुआ था. हाईस्कूल करने के बाद वे रोजगार की तलाश में दिल्ली आये और यहीं के होकर रह गये. उन्होंने अपनी जिंदगी के 40 साल विष्णु दिगंबर मार्ग पर गुजारे हैं जहां आज वे चाय की दुकान लगाते हैं.

साहित्य के प्रति लक्ष्मण राव का रुझान शुरू से ही था. मराठीभाषी होते हुए भी उन्हें हिंदी के प्रति विशेष लगाव रहा. उन्होंने सामाजिक उपन्यास लिखने वाले गुलशन नंदा को अपना आदर्श माना. लेखक बनने की प्रेरणा कहां से मिली? पूछने पर वह बताते हैं 'एक बार उनके गांव का रामदास नामक युवक अपने मामा के घर गया. जब वह लौटने लगा तो रास्ते में एक नदी पड़ी. शीशे की तरह चमकते हुए पानी में अचानक उसने छलांग लगा दी. बाद में गांव वालों ने उसकी लाश नदी से बाहर निकाली. रामदास की मौत ही उनके लिए लेखक बनने की प्रेरणा बन गई.'

उन्होंने उस घटना पर आधारित एक उपन्यास लिखा जिसका नाम 'रामदास' है. इसके बाद चायवाले साहित्यकार ने पीछे मुड़कर नहीं देखा. उन्होंने इलाहाबाद से प्रकाशित चतुर्वेदी एवं प्रसाद शर्मा और व्याकरण वेदांताचार्य पंडित तारिणीश झा के संस्कृत शब्दार्थ 'कौस्तुभ ग्रंथ' का अध्ययन किया. जो हिंदी-संस्कृत शब्दकोष था. तब उनकी उम्र मात्र 20 साल थी. इसके अध्ययन के बाद हिंदी पर उनकी पकड़ मजबूत हो गई और उन्होंने 1973 में पत्राचार माध्यम से मुंबई हिंदी विश्वविद्यापीठ से हिंदी की परीक्षाएं दीं.

हिन्दीभाषियों की अवहेलना झेलता 'रिक्शावाला' साहित्यकार

राजीव

मनोरंजन व्यापारी एक रिक्शा चालक हैं, जो कोलकाता की सड़कों पर रिक्शा खींचते हुए या फिर कहीं रिक्शे पर बैठे किसी साहित्यिक पुस्तक या पत्रिका को पढ़ते मिल जायेंगे. उनके रिक्शे में एक दिन एक शिक्षिका टाइप महिला कहीं जाने के लिए बैठी, चलते-चलते मनोरंजन व्यापारी ने उक्त महिला से 'जिजीविषा' शब्द का अर्थ पूछा क्योंकि किसी पुस्तक में इस शब्द को पढ़ने के बाद उसका अर्थ उन्हें समझ में नहीं आ रहा था.उस महिला ने शब्द का अर्थ 'जीने की इच्छा' बता तो दिया, लेकिन जब उस महिला ने अपना परिचय दिया तो मनोरंजन व्यापारी की खूशी की सीमा नहीं थी, क्योंकि वह महिला प्रसिद्ध लेखिका महाश्वेता देवी थी. उन्होंने मनोरजन व्यापारी को अपनी पत्रिका 'वर्तिका' में रिक्शा चालकों के जीवन पर कुछ लिखने को आमंत्रित कर दिया. इस तरह मनोरंजन व्यापारी की साहित्य साधना शुरू हुई. वे लिखते जाते और महाश्वेता देवी उसे संपादित कर अपनी पत्रिका 'वर्तिका' में छापती जाती.

24 मार्च को पटना में लिटरेचर फेस्टिवल के मंच पर मनोरंजन व्यापारी ने अपनी कहानी का पाठ किया. उन्होंने बताया कि उनके पिता बतौर रिफयूजी कलकता आए थे, उनका बचपन चाय की दुकान चलाते, फिर गाय, बकरी चराते हुए बीता, नक्सलियों के प्रति सहानुभूति रखने के कारण जेल भी जाना पड़ा. जेल में ही उन्होंने बंगला अक्षरों को अपने जेल सहपाठियों की मदद से सीखा और जब वे जेल से बाहर आए तो उन्हें पुस्तकें और पत्रिकाएं पढ़ना आ चुका था. रोजी-रोटी के जुगाड़ में उन्होंने रिक्शा चलाना शुरू किया और साथ में साहित्य साधना भी. उनकी लगन और मेहनत को देखते हुए उपरवाले ने स्वयं महाश्वेता देवी जैसी प्रसिद्ध साहित्यकार को एक दिन उनके रिक्शा में बतौर सवारी भेज दिया. इस तरह उनका साहित्यिक सफर शुरू हुआ. महाश्वेता देवी जैसी संवेदनशील साहित्यकार की मदद से मनोरंजन व्यापारी आज बंगला साहित्य के जाने माने साहित्यकार बन चुके है. उन्होंने अपनी आत्मकथा 'इतिवृति चांडाल जीवन' के नाम से लिखी है जो देश-दुनिया में धूम मचा रही है, लेकिन उनके साहित्य के लिए हिन्दी क्षेत्र की उदासीनता बरकरार है.

गौरतलब है कि पटना लिटरेचर फेस्टिवल के आयोजकों ने जिस तरह मनोरंजन व्यापारी को मंच पर जगह दी, किसी भी साहित्यिक मंच ने आज तक मनोरंजन व्यापारी को उस तरह तवज्जो नहीं दी थी. अंग्रेजी अखबार हिन्दुस्तान टाइम्स ने प्रथम पृष्ठ पर मनोरंजन व्यापारी को छापा, परंतु हिन्दी के किसी भी अखबार ने मनोरंजन व्यापारी को दूसरे या तीसरे पन्ने पर भी जगह नहीं दी. सवाल है कि क्या मनोरंजन व्यापारी द्वारा रिक्शा खींचते-खींचते जिजीविषा शब्द के अर्थ ढूढ़ते-ढूढ़ते साहित्यकार बन जाना अपने आप में एक कहानी नहीं है अगर है तो उनकी अवहेलना क्यों? ऐसे में विष्णु प्रभाकर लिखित 'आवारा मसीहा' की याद आ रही है जिसे लिखने में उन्हें 14 वर्ष की कड़ी तपस्या से गुजरना पड़ा था, क्योंकि शरतचंद्र जैसे महान साहित्कार के जीवनकाल में कुछ ऐसी ही अवहेलना हुयी थी. कही ऐसा न हो कि मनोरंजन व्यापारी के जीते जी हिन्दी साहित्य के पुरोधाओं व मठाधीशों द्वारा उनकी जा रही अवहेलना भी शरतचंदीय रूप ले ले. मनोरंजन व्यापारी द्वारा अब तक लिखित कहानियों में से मात्र एक कहानी का अनुवाद हिन्दी भाषा में हो पाया है. उनकी कहानियां भोगी हुयी हैं, कल्पना का प्रयोग उनमें करने की जरूरत ही नहीं पड़ी. इसलिए भी मनोरजन व्यापारी के साहित्य को हिन्दी साहित्य में उचित स्थान मिलनी चाहिए, इससे हिन्दी साहित्य समृद्ध होगा.

जीविका चलाने के लिये 1977 में दिल्ली के आईटीओ क्षेत्र में एक पेड़ के नीचे चाय का दुकान चलानी शुरु कर दी. दिल्ली नगर और पुलिस उनकी दुकान को कई बार उजाड़ चुके हैं, मगर उन्होंने हार नहीं मानी और परिवार के पालन की ज़िम्मेदारी निभाने और लेखक बनने का अपना सपना पूरा करने के लिए वह सबकुछ सहते रहे.

लक्ष्मण राव बताते हैं कि रविवार को दरियागंज में लगने वाले पुस्तक बाजार से वे अध्ययन के लिये किताबें खरीद कर लाते थे. उसी दौरान उन्होंने शेक्सपियर, यूनानी नाटककार सोफोक्लीज, मुंशी प्रेमचंद एवं शरतचंद्र चट्टोपाध्याय आदि की विभिन्न पुस्तकों का जमकर अध्ययन किया. उनका पहला उपन्यास 'दुनिया की नई कहानी' वर्ष 1979 में प्रकाशित हुआ. उसके प्रकाशन के बाद वे लोगों के बीच चर्चा का विषय बन गये. आज भी लोग इन किताबों और इस चायवाले को देखकर आश्चर्यचकित हो जाते हैं.

कुछ लोगों को तो आज भी विश्वास दिलाना पड़ता है कि यह चाय वाला लेखक भी है. पहले उपन्यास के प्रकाशन के बाद लोगों को विश्वास ही नहीं हो रहा था कि ये उपन्यास किसी चाय वाले ने लिखा है. फरवरी 1981 में टाईम्स ऑफ इंडिया के संडे रिव्यू अंक में एक आलेख प्रकाशित हुआ जो उन्हीं पर केन्द्रित था. लक्ष्मण राव कहते हैं कि इसके प्रकाशन के बाद तो उनके बारे में रेडियो, दूरदर्शन, अखबारों में अक्सर कुछ न कुछ प्रकाशित होने लगा.

27 मई 1984 को उनकी तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से तीनमूर्ति भवन में मुलाकात हुई थी. उन्होंने श्रीमती गांधी से उनके जीवन पर पुस्तक लिखने की इच्छा व्यक्त की, तो इंदिरा जी ने उन्हें अपने प्रधानमंत्रित्व काल के संबंध में पुस्तक लिखने का सुझाव दिया. तब लक्ष्मण राव ने 'प्रधानमंत्री' नामक एक नाटक लिखा.

लक्ष्मण राव की रचनाओं में 'नई दुनिया की नई कहानी', 'प्रधानमंत्री', 'रामदास', 'नर्मदा', 'परंपरा से जुड़ी भारतीय राजनीति', 'रेणु', 'पत्तियों की सरसराहट', 'सर्पदंश', 'साहिल', 'प्रात:काल', 'शिव अरुणा', 'प्रशासन', 'राष्ट्रपति' (नाटक), 'संयम' (राजीव गांधी की जीवनी), 'साहित्य व्यासपीठ' (आत्मकथा), 'दृष्टिकोण', 'समकालीन संविधान', 'अहंकार', 'अभिव्यक्ति', 'मौलिक पत्रकारिता'. 'द बैरिस्टर गांधी', 'प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी', 'रामदास' (नाटक), 'पतझड़' शामिल हैं.

लक्ष्मण राव के दो पुत्र हैं जो प्राईवेट नौकरी करते हैं, साथ ही चार्टेड अकाऊंटेंट (सीए) की पढ़ाई भी कर रहे हैं. राव अपनी पत्नी रेखा के बारे में बात करते हुऐ कहते हैं कि शुरु-शुरु में उन्हें मेरा लिखना पसंद नहीं था, लेकिन अब वे लेखन कार्य में उनका सहयोग करती हैं. अपनी शुरुआती रचना के प्रकाशन के बारे में राव कहते हैं कि उसके प्रकाशन के लिये मुझे अपना सबकुछ दांव पर लगाना पड़ा. रचना प्रकाशित होने के बाद सुबह साइकिल लेकर उसे बाजार में बेचने के लिए निकलता, तो लोग मेरा मज़ाक तक उड़ाते, लेकिन ईश्वर की कृपा और एक वर्षों के परिश्रम ने मुझे बतौर लेखक पहचान दिला ही दी.

चायवाले साहित्यकार सरकार के व्यवहार से नाराज दिखते हैं. कहते हैं 'हिंदी भाषा के उत्थान के लिये तरह-तरह की योजनायें बनती हैं, मगर उसी के सामने एक हिंदी के सिपाही साहित्यकार का साहित्य फुटपाथ पर बिखरा पड़ा है जिसे लाईब्रेरी में भी स्थान नहीं दिया गया. इसी व्यवहार की वजह से हिंदी से लेखकों का मोहभंग होता है और वे लिखना बंद कर देते हैं. मैं 20 साल की उम्र से हिंदी भाषा की सेवा कर रहा हूं, जिसके लिये सरकार से मुझे किसी भी तरह की सहायता नहीं मिल पाई है.'

लक्ष्मण राव को भारतीय अनुवाद परिषद, कोच लीडरशिप सेंटर, इंद्रप्रस्थ साहित्य भारती, निष्काम सेवा सोसायटी, अग्निपथ, अखिल भारतीय स्वतंत्र लेखक मंच, शिव रजनी कला कुंज, प्रागैतिक सहजीवन संस्थान, यशपाल जैन स्मृति, चिल्ड्रेन वैली स्कूल, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद. समेत उन्हें विभिन्न गैर सरकारी संगठनों द्वारा 28 बार सम्मानित किया जा चुका है. भाषा के लिये निस्वार्थ लड़ाई लड़ रहे इस साहित्यकार जो इसका प्रचार साईकिल पर चाय की दुकान चलाकर कर रहा है, उसकी तरफ सरकार ध्यान नहीं दे रही. शायद लक्ष्मण राव चायवाले के साथ भी कुछ वैसा ही हो रहा है, जो कभी कबीर के साथ हुआ था. मुनव्वर राना ने कहा भी है 

'यहां पर इज्जतें मरने के बाद मिलती हैं

मैं सीढ़ियों पर पड़ा हूं कबीर होते हुए.'

wasim-akram-tyagiवसीम अकरम त्यागी युवा पत्रकार हैं.

http://www.janjwar.com/2011-06-03-11-27-26/78-literature/3877-seedhiyon-par-pada-hoon-kabir-hote-hue-by-wasim-akaram-for-janjwar

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