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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Tuesday, April 3, 2012

ग़रीब बस्तियों में चिथड़ा-चिथड़ा जीवन

ग़रीब बस्तियों में चिथड़ा-चिथड़ा जीवन



हमारे गांवों में दक्षिण टोला होता है जहां दलित रहते हैं, जो अमूमन फटेहाल होते हैं. प्रापर्टी डीलरों की मेहरबानी से बड़ी ज़मीन के मालिक पैसेवाले हो गये और मुख्य गांव की सूरत बदल गयी, तो डूडा की मेहरबानी से दलित बस्ती में भी थोड़ी बहार आयी. कच्ची गलियां और नालियां पक्की हो गयीं…

आदियोग

तुम्हारे शहर में ख़ानाबदोश रहना क्या

मैं बेनिशान हूं कोई निशान हो जाये

सड़क हो नाला हो कि फ़ुटपाथ के तले

मैं चाहता हूं अपना मकान हो जाये - तश्ना आलमी

मैं दोस्तों का कहा नहीं टालता और मेरे दोस्त भी मुझे फ़ालतू क़िस्म के कामों में नहीं उलझाते. संजय विजयवर्गीय खेती की बिगड़ती सेहत से लेकर भूख, ग़रीबी और पलायन जैसे सवालों की रोशनी में सरकारी नीतियों की चीरफ़ाड़ करने के लिए जाने जाते हैं. कोई डेढ़ माह पहले, बीच फ़रवरी में किसी शाम अचानक उन्होंने कहा कि तैयार रहिये, कल शहर की कुछ ग़रीब बस्तियों का हालचाल लेने चलना है. दोस्त कहें तो नानुकुर करने की गुंजाइश नहीं होती. तो जैसा तय हुआ, अगले दिन मैं उनके साथ निकल पड़ा. हमारे गाइड थे विज्ञान फाउंडेशन के अविनाश. हमने दो दिन शहर के चक्कर लगाये. हम उन बस्तियों में घूमे जहां इससे पहले मैं कभी नहीं गया था और ना ही उनके बारे में कुछ सुना था. इरादा था कि इस सफ़र के अनुभव को क़लमबंद किया जाना है. वह इरादा अब कहीं जाकर पूरा हुआ और वह भी संजय भाई के खटखटाने पर.

garib-basti-janjwar-peopleलखनऊ की बादशाहत से दूर               सभी फोटो- अविनाश

उस सफ़र में मैं ख़ाली हाथ था, न काग़ज़-क़लम और न कैमरा. इस दौरान जिनसे मुलाक़ात हुई, उनके नाम ज़ेहन से उतर गये, उनके चेहरे धुंधले पड़ गये लेकिन नज़रों में उतर गये उस सफ़र की तसवीरें आज भी तरोताज़ा हैं. दो दिन की इस घुमक्कड़ी में जो जाना-समझा और महसूस किया, उसे भुलाया नहीं जा सकता. उसे लफ़्ज़ों में बांधा जाये तो बेशक़ कहा जा सकता है कि यह हद दर्ज़े की ग़रीबी में लिपटा बदहाली और बेबसी का वह अनसुना दस्तावेज़ है जो लखनऊ के दमकते चेहरे पर ग़रीब-गुरबों की लानतों और आहों का झन्नाटेदार झापड़ रसीद करता है.

अब इसे कौन पढ़े, उसकी मार सहे और उस पर तिलमिलाये? मेरी मुराद सूबे की सरकार चलानेवालों, सत्ता के गलियारे में चहलक़दमी करनेवालों, जनता की नुमांइदगी करनेवालों, शहर के विकास की योजनाएं बनानेवालों, लखनऊ की नज़ाक़त और नफ़ासत पर इतरानेवालों, अख़बारों और ख़बरिया चैनलों के लिए ख़बरें बटोरनेवालों, सामाजिक भले का दम ठोंकते हुए संस्थाएं चलानेवालों से है और ख़ुद से भी है.

पता नहीं कि लखनऊ शहर गांवों को निगलता हुआ कितना फैल रहा है और कितना पगलाये गुब्बारे की तरह फूल रहा है. यह बहस आपके हवाले. फ़िलहाल, सफ़र पर निकलते हैं.

चौक के आगे ठाकुरगंज और तब बालागंज- कभी शहर का आख़िरी छोर हुआ करता था. बालागंज के आगे दुब्बगा का गंवई बाज़ार पड़ता था. यह काकोरी जाने के रास्ते पर है. कभी बालागंज और दुबग्गा के बीच का लंबा रास्ता पेडों की छांव में सुनसान पड़ा रहता था और उसके दोनों ओर दूर तक हरियाली का राज था- सड़ी गर्मी में साइकिल से निकलो और मजाल कि लू पास फटके. अब इस पर भीड़-भड़क्का रहता है- अस्पताल, होटल-लाज, कालोनियां और दुनिया भर के सामानों की दुकानें सब कुछ है. इस चुंधियाते विकास ने हरियाली को चट कर डाला. शहर अब तो दुबग्गा के आगे भी अपने पांव पसार रहा है. कोई तीस साल पहले तक मलिहाबाद तहसील के बाजपुर गांव के ज़्यादातर वाशिदों को इल्म नहीं था कि आज़ादी के इतिहास में यह जगह कितना अहम मुकाम रखती है, कि क्रांतिकारियों ने यहीं काकोरी रेल डकैती कांड को अंजाम दिया था. उसके मुक़दमे का फ़ैसला जिस आलीशान इमारत में हुआ था, उसे आज हम जीपीओ के नाम से जानते हैं जिसके माथे पर बिंदी की तरह लगी घड़ी की टिक-टिक आज भी जारी है. ठीक पीछे विधानसभा और सामने हज़रतगंज का इलाक़ा. तब से बहुत कुछ बदल गया- हज़रतगंज की सूरत और सीरत भी. अब भीड़ है, भगदड़ है, गाड़ियों का रेला है, पेट्रोल का दमघोंटू धुंआ है, गर्म जेबवालों के लिए उम्दा बाज़ार है. वैसे, नवाबी दौर में हज़रतगंज का इलाक़ा शहर के शोरोगुल से दूर सूफ़ियों का बसेरा हुआ करता था. ख़ैर, यह ना जाने कब से शहर का दिल हो चुका है. पुराने लखनऊ में यह रूतबा चौक का हुआ करता था और वो भी कहां वही चौक रहा.

वापस बालागंज चौराहे पर लौटें. यह चौराहा पहले कभी दिन में भी अलसाया सा रहता था, अब रात में भी जागता रहता है, बहुत मसरूफ़ रहता है. बाजपुर में क्रांतिकारी शहीदों की याद में स्मारक बना, उनकी मूर्तियां लगीं और उनकी शहादत के मौक़े पर हर साल 19 दिसंबर को सरकारी और ग़ैर सरकारी जल्सों की शुरूआत हुई. बालागंज चौराहे तक इसका असर दिखा. शहीदों के नाम पर मार्केटिंग काम्प्लेस खड़ा हो गया. आख़िर शहीदों को याद किये जाने का बाज़ारू नुस्खा भी होता है जिसमें शहीद अशफ़ाक़ उल्ला खां और रामप्रसाद बिस्मिल जैसे नाम भी बाज़ार के हत्थे चढ़ जाते हैं.

तो अब बालागंज चौराहे से कैंपवेल रोड़ पकड़ें, चलते जायें और बरौरा हुसैनबाड़ी पहुंचे. पहले यह गांव था, अब शहरी इलाक़े में आता है. प्रापर्टी डीलरों ने थोक के भाव गांव से सटी ज़मीनें खरीदीं और उसके प्लाट शहरियों को बेच दिये. इनमें खाते-पीते लोग भी थे और ग़रीब भी. तो गांव की नयी बस्ती में दो बस्तियां हैं- इक बस्ती पैसेवालों की और दूजी गरीबों की. अब इसमें अचरज कैसा कि अमीर बस्ती की ज़मीन ऊंची है जबकि ग़रीब बस्ती की ज़मीन नीची है और जो पाट दिये गये पुराने तालाब पर है.

आप जानते हैं कि हमारे गांवों में दक्षिण टोला होता है जहां दलित रहते हैं और जो अमूमन फटेहाल होते हैं. प्रापर्टी डीलरों की मेहरबानी से बड़ी ज़मीनवाले पैसेवाले हो गये और मुख्य गांव की सूरत बदल गयी तो डूडा की मेहरबानी से दलित बस्ती में भी थोड़ी बहार आयी- कच्ची गलियां और नालियां पक्की हो गयीं. यह बस्ती ख़तम होती है कि तालाब तक जाने के लिए सीढ़िया हैं और जिससे उतरते ही बीच शहर से आकर बसे ग़रीबों की बस्ती शुरू हो जाती है. यहां ज़मीन की ऊंचाई के हिसाब से लोगों की हैसियत है. जो तलछटी में हैं, वे सबसे ग़रीब हैं. बस्ती के सामने खुला मैदान है और उस पार सबसे ज़्यादा धनवानों की बस्ती.

दो साल पहले तक यह मैदान गुलज़ार रहता था. बच्चे-नौजवान क्रिकेट खेलते थे, धमाचौकड़ी मचाते थे. तालाब मैदान बना तो उसके बीचोबीच अंबेदकर साहब की मूर्ति भी लग गयी- कोट, पैंट, टाई में, एक हाथ में संविधान की क़िताब और दूसरा हाथ उठा हुआ. दलितों को अंबेदकर जयंती मनाने की अच्छी जगह मिल गयी. लेकिन दो साल से यह सिलसिला बंद है. क्यों? क्योंकि खुले मैदान का बड़ा हिस्सा दोबारा तालाब में बदल रहा है. अंबेदकर साहब की मूर्ति तक कौन पहुंचे और कैसे? मैदान दोबारा तालाब बन चुका है और जिसमें सड़ता हुआ पानी है- ग़रीब बस्ती को घेरता हुआ कि घरों से निकलना दूभर, घरों की दीवारों को सीलन से भिगोता कि रहना मुश्किल. ऊपर से पतली गलियों में कई घरों के सामने सेफ़्टी टैंक के उठे हुए टीले. मुनाफ़े के लुटेरों ने बस्ती तो बसायी लेकिन पानी की निकासी का बंदोबस्त करना ज़रूरी नहीं समझा. ताज़ा हाल यह कि इस बस्ती के अलावा अमीर बस्ती और दलित बस्ती के घरों से भी निकलनेवाला गंदा पानी मैदान में जमा होता है और ग़रीब घरों की दहलीज को 'धोता' है.

ग़रीब बस्ती में पीने का पानी भी ख़ूब रूलाता है. पानी मिलने का कोई समय तय नहीं. इक्का-दुक्का हैंडपंप हैं तो वे भी ज़मीन की सतह से नीचे, एक हैंडपंप तो ठीक तालाब के किनारे और गंदगी के ढेर में. गलियों के जाम हो चुकी सीवर लाइन के साथ-साथ पीने का पानी ढोते पाइप और वह भी प्लास्टिक के. कुल मिला कर पीने के पानी के ख़राब होने की पूरी गारंटी, रोग-बीमारियों को भरोसेमंद न्यौता.

जनपक्षधर पत्रकारिता को मजबूती देने की सोच रखने वाले नए-पुराने पत्रकार और पत्रकारिता की पढ़ाई करने वाले छात्र पिछले कुछ महीनों में जनज्वार के साथ विभिन्न स्तरों पर जुड़े हैं. उनमें से कई, खासकर पत्रकारिता की पढ़ाई करने वाले या हाल ही में पत्रकार बने पूछते हैं कि अच्छी रिपोर्टिंग कैसे की जाये. जाहिर है अच्छी रिपोर्टिंग के तमाम मानक हो सकते हैं, लेकिन मौके से लौटकर जो रिपोर्ट आदियोग ने लिखी है, उसे जनज्वार एक उदाहरण के तौर पर रखना चाहेगा. उनके इस लिखे में अमेरिकी उपन्यासकार अप्टन सिंक्लेयर के 'जंगल' की साफ़ छवि दिखती है. अदियोग पेशे से पत्रकार नहीं हैं, कला और सामाजिक कामों से जुड़े हैं, इसलिए उनके लिखे के विस्तार को अतिरिक्त कहा जा सकता है, लेकिन इसी के साथ वो साबित भी करते हैं कि अच्छी रिपोर्टिंग पत्रकारिता संस्थानों की मोहताज नहीं...संपादक

पुराने लखनऊ में बर्फ़ख़ाने का इलाक़ा बेहद घना है. उससे बाहर निकलें तो गोमती नदी का बंधा शुरू हो जाता है. इसके किनारे ग़रीब रहते है. ऐसी ही एक बस्ती कोई बीस साल पहले बसायी गयी थी. यहां-वहां से पहले ग़रीबों को उजाड़ा गया और फिर इस कोने में लाकर पटक दिया गया. क़ब्रिस्तान से सटी यह ज़मीन पहले तालाब थी और फिर कूड़े-कचरे का भंडार बन गयी. पहले यहां सुअर-कुत्ते डोलते थे, अब इनसान नाम के शरीर रहते हैं. ग़रीबी जो ना कराये थोड़ा. तो इस तलय्या में जिसे जहां और जैसी जगह नसीब हुई, उसने अपना डेरा जमा लिया.

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इस बस्ती में कहीं कोई शौचालय नहीं. गोमती का बंधा है न खुला शौचालय. पुराने क़ब्रिस्तान की दीवार ख़ासी चौड़ी हैं और जिससे गुज़रे ज़माने की शान झलकती है. यह दीवार बस्ती और क़ब्रिस्तान को अलग करती है. दीवार के इस पार चौड़ा-गहरा नाला है. यह नाला रात के अंधेरे में सार्वजनिक शौचालय हो जाता है. इस नाले पर भी पांच-छह घरौंदे हैं- मुख्य गली को थोड़ा और संकरा करते हुए. यह उन बदक़िस्मतों के घर हैं जो आशियाने की तलाश में यहां बहुत देर से पहुंचे थे और तब तक पूरी बस्ती भर चुकी थी. उन्हें नाले पर जगह मिली. मुफ़लिसी में यही क्या कम है कि इधर-उधर से जुटायी गयी बांस की खपच्चियों, टाट और पन्नियों से रहने की जगह निकल आयी, सर पर छत हो गयी. सुविधा यह कि कमरे के बगल में उसी आसानी से अपना शौचालय भी बन गया. इसमें करना ही क्या था? नाला था ही, बस आड़ ही तो खड़ी करनी थी. यह अलग बात है कि ज़िम्मेदार कर्मचारी जब भी बस्ती के दौरे पर आते हैं, इस अतिक्रमण पर आंख तरेरते हैं. उन्हें ठंडा रखने के लिए चिरौरी करनी पड़ती है. हालांकि बाक़ी बस्तीवालों को इन अस्थाई 'घरों' से कोई दिक़्क़त नहीं. इस ग़रीब बस्ती की वे सबसे कमज़ोर कड़ी हैं और मुसीबतों के मारे अपने जैसों की मजबूरियां बिन कहे समझते हैं. पहुंचे हुए फ़क़ीरों ने आख़िर यों ही नहीं कहा कि दुखियारों को उनके दुख जोड़ते हैं. यह साझेदारी बहुत बड़ी चीज़ है लेकिन जो ख़ुद सरापा दुख में भीगा हो, वह दूसरों का दर्द कितना सुखा सकता है?

कहने को कह सकते हैं कि बस्ती में बाक़ायदा नालियां हैं लेकिन बजबजाती हुई और उसी नाली से गुज़रते हैं पीने के पानी के पाइप- अल्युमिनियम के नहीं, प्लास्टिक के और उसमें भी जगह-जगह जोड़ के निशान. अगर तार-तार कथरी पर पैबंद टांक कर काम चलाया जा सकता है तो पानी के पाइप पर कपड़ा या पन्नी लपेट कर क्यों नहीं. लखनऊ नगर महापालिका के ज़िम्मेदारों का शायद यही सोचना है. वैसे, बस्ती के दो कोनों पर ईंट-सीमेंट की मचान बना कर प्लास्टिक की टंकियां भी सजायी गयीं लेकिन उनमें पानी पहुंचाने जैसी जुगत कभी नहीं हुई. उसके ढक्कन न जाने कहां बिला गये. मिल भी जायें तो क्या, कट-फट चुकी टंकियां अब कम से कम पानी रखने लायक़ नहीं रहीं. ऊंचे मचान पर जमी हुई अपनी क़िस्मत को जैसे कोसती सी दिखती हैं.

बस्ती में ज़िंदा लोग रहते हैं और उसकी सरहद के उस पार क़ब्रिस्तान में मुर्दे सोते हैं. यहां हलचल है और वहां ख़ामोशी. यहां रोज़ाना की हाय-तौबा है, खिचखिच है और वहां सालोंसाल केवल बेफ़िक़्री. लेकिन यह बस्ती भी किसी क़ब्रिस्तान से कम नहीं. देखना चाहें तो आसानी से देखा जा सकता है कि यहां चप्पे-चप्पे पर और हर चेहरे पर भी ना जाने कितनी पुरानी क़ब्रे हैं जिनमें ज़िंदगी को ज़िंदगी की तरह जिये जाने के मासूम सपने दफ़्न रहते हैं- वे सपने जो कभी पैदा ही नहीं हुए और अगर कभी पैदा हुए भी तो ज़िंदगी की दुश्वारियों ने उन्हें पैदा होते ही मारा डाला. इसके लिए किसी सर्वे और आंकड़ों की ज़रूरत नहीं. नज़रें अगर साफ़ हों, सीने में धड़कता दिल हो और परत-दर-परत सोचनेवाला दिमाग़ हो तो समझा जा सकता है कि उल्टे हालात ने यहां किस तरह इनसानी हैसियत में ज़िंदगी बसर करने के सपनों पर न देखे जाने की बंदिशें लगा रखी हैं.

तो भी कमाल है कि बस्ती में मुर्दनी नहीं छाती. हंसी-ठिठोली और चुहलबाज़ी का दौर चलता रहता है. गोया यह शेर पढ़ा जा रहा हो कि 'इस क़दर सलीक़े से रंज़ो-ग़म सहा जाये, हाल जब कोई पूछे मुस्करा दिया जाये.'

मिश्रीबाग का रूख़ करते हैं. इसकी चौड़ी लेकिन बेतरह ऊबड़-खाबड़ मुख्य सड़क के किनारे कोई तीस साल पुरानी गरीबों की बस्ती है- पतली गलियां और एक-दूसरे में झांकते घर माने कुल एक कमरा. इस दड़बे के बाहर बस इतनी जगह कि आधी चटाई बिछ जाये. ज़्यादातर घरों की यही रसोई है. इस भीड़भरे इलाक़े में एक सुलभ शौचालय. पांच सीटें मर्दों के लिए तो इतनी ही सीट औरतों के लिए. शौचालय की सुविधा सुबह छह बजे से रात नौ बजे तक. गोया इस टाइम टेबल के आगे-पीछे हगना मना हो.

अब पारा का हालचाल लेते हैं. यह राजाजीपुरम के विस्तार का फ़िलहाल आख़िरी कोना है. फ़िलहाल इसलिए कि यहां से कुछ आगे तेज़ रफ़्तार में कई बहुमंज़िला इमारतें तैयार हो रही हैं. कोई 40 साल पहले बसायी गयी राजाजीपुरम कालोनी के बहुत आगे बसे और अब शहर में समा चुके नरपत खेड़ा गांव की सीमा ख़तम होती है कि पारा शुरू हो जाता है. और बस यहीं 2003 में डूडा ने ग़रीबों के लिए कालोनी बनायी थी. पारा में घुसने से पहले ही आप जान सकते हैं कि यहां पानी का बाज़ार कितना गर्म होगा, पानी बेचने का धंधा कितना चोखा होगा. सड़क किनारे पक्की कोठरी है और कोठरी में ज़मीन से पानी खींचने की मशीन है. कालोनी के बड़े हिस्से में पानी की सप्लाई यहीं से होती है. इसके लिए प्लास्टिक के पाइपों का जाल बिछा है. जिसे पानी चाहिए, अपने पाइप का इंतज़ाम करे और हर महीना डेढ़ सौ रूपये का भुगतान करे.

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पाइपों का जाल नालियों के सहारे है और नालियां गंदगी से अटी पड़ी हैं. नालियों का गंदा पानी गलियों को छेकता रहता है. कालोनी की कई गलियां इस पानी से तालाब जैसी हो चुकी हैं. ज़ाहिर है कि यहां भी पानी की निकासी का बंदोबस्त बहुत बिगड़ा हुआ है या कहे कि सिरे से नदारद है.

कालोनी में एक कमरे के घर हैं. कमरा क्या, उसे डिब्बा कहें. उससे जुड़ी रसोई और पीछे इतना पिद्दी आंगन कि उसमें एक चारपाई भी न अमाये. और हां, घर के दरवाज़े से सटा पाख़ाना. कई घरों के पाख़ाने में झांका तो जी मितला गया- गंदगी से लबालब भरी सीट, बदबू का भभका और भिनभिनाते भुनगे-मच्छरों की फ़ौज़.

पता चला कि पांच साल पहले तक यह हालत नहीं थी. इस्तेमाल के बाद पाख़ाने में पानी झोंको कि सीट साफ़. तब तक कालोनी के इक्का-दुक्का मकान ही आबाद थे. जैसे-जैसे कालोनी आबाद होती गयी, पाख़ानों की दुर्गति होती गयी. क्यों? कालोनी के बीच में ख़ाली पड़ी सबसे बड़ी ज़मीन पर जिसे क़ायदे से पार्क बनाया जाना चाहिये था, सेफ़्टी टैंक नाम का अजीबोग़रीब टीला बना दिया गया गोया ऊबड़-खाबड़ कोई उड़न तश्तरी. यह पता नहीं किस डिज़ाइनर का कमाल था लेकिन इससे बड़ा कमाल यह कि इस डिज़ाइन को हरी झंडी भी मिल गयी. सरकारी महकमे में इतने क़ाबिल लोग होते हैं. बहरहाल, यह टीला किसी काम का नहीं निकला. इसने कुल काम किया तो बस इतना कि सीवर सिस्टम को ही चौपट कर दिया.

मौक़े का फ़ायदा उठानेवाले कहां नहीं होते? तो सीवर की सफ़ाई का धंधा भी चल निकला. सफ़ाई कर्मचारियों ने सीवर लाइन को जाम कर उसे दो मकानों के बीच का सीवर टैंक बना डाला. अब हर 10-15 दिन बाद सफ़ाई करवाने की ज़रूरत पड़ने लगी. हर बार हर घर से डेढ़ सौ रूपये की फ़ीस भी तय हो गयी यानी एक बार की सफ़ाई में दो घरों से तीन सौ रूपये की आमदनी पक्की. यह कचरा फिंकता कहां है? ख़ाली पड़े मकानों में या कालोनी में जहां-तहां बनाये गये सीमेंटेड खुले डिब्बों में. भागमभाग में छोटे बच्चे उस पर चढ़ते हैं और अक़्सर उसमें धड़ाम हो जाते हैं, टट्टी-पेशाब में सन जाते हैं. महिलाएं कहती हैं कि इतनी दूर आकर हम बसे कि एक ही कमरा सही, कहने को अपना घर तो होगा. नहीं सोचा था कि अपने घर में रहना इतना मंहगा साबित होगा.

सेफ़्टी टैंक नाम की उड़न तश्तरी पर वापस लौटें. मैदान का लगभग आधा हिस्सा उसके क़ब्ज़े में है. मैदान में ही प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र की लकदक इमारत है जिस पर अमूमन ताला जड़ा रहता है. उसके खुले बरामदे में आवारा कुत्ते आराम करते हैं. मैदान में बाक़ी बची जगह शायद बच्चों के खेलने के लिए छोड़ दी गयी है. लेकिन कालोनी की गलियों की तरह यहां भी घरों से निकला गंदा पानी भरा रहता है और जिसमें बच्चे छ्प-छप भागने का मज़ा लूटते हैं.

अंदाज़ा लगाइये कि मई-जून की तीखी तपिश में और उसके बाद बरसात के मौसम में इन तमाम बस्तियों का आलम क्या होता होगा?

कोई 40 साल पहले दुश्यंत कुमार ने फ़रमाया था- 'कहां तो तय था चराग़ां हर एक घर के लिए, कहां चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए.' यह शेर आज कहीं ज़्यादा ताज़ा है. 1978 में दुनिया के तमाम देशों ने माना था कि सभी के लिए पीने का साफ़ पानी, शौचालय की सहूलियत और सुरक्षित वातावरण होना चाहिए, कि यह हर नागरिक का बुनियादी अधिकार है. नारा लगा- 2000 तक सबके लिए प्राथमिक स्वास्थ्य. उस जमावड़े में अपना देश भी शामिल था. लेकिन लगता है कि अपने यहां सरकारी वायदे, अहद और एलान महज़ अधूरा रहने या और आगे टल जाने के लिए होते हैं. नयी सदी भी आ गयी और यह नारा ज़मीन पर नहीं उतर सका. इसलिए 2002 की 10वीं पंचवर्षीय योजना में यह लक्ष्य हासिल किये जाने का संकल्प करना पड़ा. मियाद गुज़र गयी और निकले वही ढाक के तीन पांत. 2007 की 11वीं पंचवर्षीय योजना में एक बार फिर इसे दोहराना पड़ा. इसकी मियाद भी ख़त्म होने को है और संकल्प पर अमल के निशान लगभग नहीं दिखते. अब 12वीं पंचवर्षीय योजना का इंतज़ार करिये. और उसके आगे भी इंतज़ार करते रहने के लिए तैयार रहिये.

सब जानते हैं कि गंदगी और अशुद्ध पानी डायरिया का खुला बुलावा होता है और डायरिया मौत की सवारी करता है. ज़ाहिर है कि अमूमन मुफ़लिसों की बस्तियों पर हमला बोलता है और पहले से अधमरे लोगों की ज़िंदगी लीलता है. इस क़दर कि असमय होनेवाली मौतों में आधे से ज़्यादा डायरिया के शिकार होते हैं. यह रफ़्तार इतनी तेज़ है कि हर घंटे देश के 42 बच्चे अपनी पांचवीं सालगिरह मनाने से पहले डायरिया की फांसी पर चढ़ जाते हैं. इससे बड़ी राष्ट्रीय क्षति और कुछ नहीं हो सकती लेकिन उसे रोकने की चिंता और मुस्तैदी काग़ज़ों से बाहर नहीं आ पाती. क्या उलटबांसी है कि मौत के इस शोर के बीच हमारे सरकार बहादुर देश को आर्थिक रूप से दुनिया का महाबली बनाये जाने की ज़िद और हड़बड़ी में दिखते हैं. इस सच को ताक पर रख कर कि देश लोगों से मज़बूत बनता है- विकास दर में बढ़त के आंकड़ों से नहीं.

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मशहूर मर्सियागो मीर अनीस साहब ख़ालिस लखनवी थे और अपने इस शहर पर जान छिड़कते थे. लेकिन न जाने क्यों और किस आलम में उन्होंने यह शेर भी कहा कि 'कूफ़े से नज़र आते हैं किसी शहर के आदाब, डरता हूं वो शहर कहीं लखनऊ न हो.' कहा जाता है कि कूफ़े में हज़रत मोहम्मद साहब के ख़िलाफ़ साज़िश रची गयी थी और जिसने आख़िरकार कर्बला को शहादतों का मैदान बना डाला. चौतरफ़ा ख़ून बहा, लाशों का ढेर लगा. छुरी-तलवारों से कहीं ज़्यादा पानी ने कहर बरपाया और सबसे बेरहम हथियार साबित हुआ. झुलसाती रेत में पानी बहुत बड़ी नेमत थी लेकिन लगभग नदारद थी. ऊपर से पानी भरी मशक़ों पर भालों का निशाना था. इधर जानवरों की तरह लोग कटते रहे और उधर बूंद-बूंद पानी के लिए बच्चे तरसते रहे, प्यास में तड़पते रहे और अपनी ज़िंदगी से हाथ धो बैठे. आज भी दो हज़ार बरस पहले का यह वाक़या सुन कर दिल बैठने लगता है, दिमाग़ सुन्न और आंखें नम हो जाती हैं.

लखनऊ की ग़रीब बस्तियों में भी पानी का सवाल बहुत प्यासा है- पानी को लेकर खीज है, दबा हुआ सा ग़ुस्सा है, दुखभरी अफ़रा-तफ़री है और यह रोज़ाना का क़िस्सा है. इन बस्तियों में भुखमरी ही नहीं, रोग और बीमारी भी पलती है और ख़ूब परवान चढ़ती है. मंज़र भले ही जुदा हो और टुकड़ों-टुकड़ों में हो लेकिन इस सरसरी दौरे से गुज़र कर अनीस साहब की हां में हां मिलाने को जी किया. एकबारगी लगा कि जैसे उनका यह गुमनाम सा शेर आम फ़हम हो गया और चीख़ने लगा, लखनवी तहज़ीब और दरियादिली के कुर्ते फाड़ने लगा. काश कि इस शेर की टीस मायूसी और बेबसी की तंग गलियों से निकले और दूर तलक पहुंचे.


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आदियोग संस्कृतिकर्मी और सामाजिक कार्यकर्ता हैं. 

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